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श्रंगार - प्रेम >> वैलेंटाइन डे

वैलेंटाइन डे

राजेन्द्र मोहन भटनागर

प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :278
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3821
आईएसबीएन :81-214-0252-2

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राजेन्द्रमोहन भटनागर का नया उपन्यास-वैलेंटाइन डे जिसमें प्रेमी-प्रेमिकाओं के प्यार भरे जज्बात को एक नये अंदाज में प्रस्तुत किया गया है।

Vailentine day

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक किंवदंति के अनुसार संत वैलेंटाइन प्यार की परवरिश करते थे। वे प्रेमी-प्रेमिकाओं को बंधन में बंधने की प्रेरणा देते थे। बादशाह क्लॉडियश द्वितीय को उनका यह व्यवहार पसंद नहीं आया। वह चाहता था कि उसके विश्वसनीय युवक कुंआरे रहें ताकि उसकी सेना उसके और राष्ट्र के प्रति वफ़ादार बनी रहे।
जब संत वैलेंटाइन प्रेमी-प्रेमिकाओं की गुप-चुप शादी करवा रहे थे तो उन्हें रोका गया। वे नहीं माने। उनकी दृष्टि में प्यार गॉड का वरदान था, उसकी ‘प्रेअर’ था, इबादत था। जीने का मकसद था।
बादशाह क्लॉडियश द्वितीय को यह मंजूर नहीं था। उसने विवाह कराने के आरोप में संत वैलेंटाइन को मौत की सजा सुना दी। और 14 फरवरी को उनके शरीर से धड़ अलग किया गया था, लिहाजा उस दिन को उनका शहीद दिवस मनाया जाने लगा।

प्रस्तुत है, राजेन्द्रमोहन भटनागर का नया उपन्यास-वैलेंटाइन डे जिसमें प्रेमी-प्रेमिकाओं के प्यार भरे जज्बात को एक नये अंदाज में प्रस्तुत किया गया है।
यदि आप ‘वैलेंटाइन डे’ को चिरस्थायी बनाना चाहते हैं और एक रिश्ते का नाम देना चाहते हैं, तो इस पुस्तक को पढ़ना अपने आप में एक सुखद अनुभव होगा। और दे डालें यह बेहतरीन उपहार उसे जिसे तुम्हारा दिल बार-बार पुकारता है। सच्ची घटनाओं पर आधारित प्रेमी-प्रेमिकाओं के जज्बातों से रूबरू कराने वाला एक बेहद रोचक उपन्यास।
यह कृति उन नव युवक-नवयुवतियों के नाम है
जिन्होंने लेखक को
वैलेंटाइन डे से जुड़े संस्मरण सुनाये
साक्षात्कार दिये
इस शर्त के साथ
कि नाम सामने नहीं आयें
हर हक़ीक़त जरूर सामने आये

प्रिय
कितने पत्र आधे-अधूरे लिखे, फाड़े पर मन उल्था नहीं कर पायी। दरअसल मैंने सुना था लेकिन अब मुझे वह सताने लगा है। पगला जाती हूँ और कुछ नहीं सूझता। क्या सचमुच मैं प्यार करने लगी हूं और तुम....।
सिर्फ़ इस आस में एक-दूसरे को देखते हैं और ज़रूरी समझता तो किताबों को लेकर चर्चा कर बैठते हैं—बस।
तुम अब सपनो में आने लगे हो। तुम्हारे सामने आने पर गूंगी हो जाती हूं।...अब जब मैं अकेली हूं, कोई पास नहीं है, तब भी मुझसे पत्र नहीं लिखा जा रहा है।

यह भी कोई ज़रूरी नहीं कि तुम भी वैसा अनुभव करते हो जैसा शालू, वुल्ला, हिंमांशु, डॉक्टर आहूजा, मिस्टर आहूजा कर सके चौंको मत। वे पात्र ‘वैलेंटाइन डे’ के हैं। ये भी कभी हमारी-तुम्हारी तरह से वैलेंनटाइन डे या वसंतोत्सव की प्रतीक्षा में रहे हैं।
‘वैलेंनटाइन डे’ हाथ क्या आया कि पिटारा खुल गया। उसे एक रात में पढ़ डाला और अनुभव किया कि मैं उसमें हूं और तुम भी। मैंने उन स्थलों को टैक्स्टलिनर रिफिल की मदद से चमका दिया है। अब बारी तुम्हारी है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ ‘वैलेंटाइन डे’ जिंदगी का हर दिन हो जाने के लिए तुम्हारे नाम इस क्षमा याचना के साथ कि मुझे तुम बनना पड़ गया-लज्जा संकोच और भय से।

-तुम्हारी

आग चाहिए


प्रिय प्रेमियो !

आज 14 फ़रवरी है। ईसाई किंवदंतियों में अमर संत वैलेंटाइन प्रेमियों को संरक्षण देने वाला देवदूत था। उस समय रोम पर क्लॉडियस द्वितीय का राज्य था।
संत वैलेंटाइन प्यार की परवरिश करता था। प्रेमी-प्रेमिकाओं को मिलाता था। उन्हें बंधन में बंधने की प्रेरणा देता था। बादशाह क्लॉडियस द्वितीय को उसका यह व्यवहार पसंद नहीं आया। वह चाहता था कि उसके विश्वसनीय युवक कुंवारे रहें ताकि उनकी सेना उसके और राष्ट्र के प्रति वफ़ादार बनी रहे।
तब संत वैलेंटाइन प्रेमी-प्रेमिकाओं की गुपचुप शादी करवा रहे थे। उन्हें रोका गया। वे नहीं माने। उनकी दृष्टि में प्यार गॉड का वरदान था। उसकी ‘प्रेअर’ था। इबादत था। जीने का मक़सद था।
बादशाह क्लॉडियस द्वितीय ने प्रेमियों के विवाह कराने के आरोप में संत वैलेंटाइन को मौत की सज़ा सुना दी। उसका सिर धड़ से अलग करवा दिया गया।
समय बीतता गया। संत वैलेंटाइन की याद सताने लगी। उनकी चर्चा शुरू हुई। नवयुवक-नवयुवतियों का वह चहेता बन गया।
समय ने पलटा खाया। ‘संत वैलेंटाइन डे’ मनाया जाने लगा। 14 फ़रवरी को उनके शरीर से धड़ अलग किया गया था। उनके जन्म की सदी-तारीख पर मतभेद था। लिहाज़ा उनका शहीद दिवस मनाया जाने लगा। तरुण-तरुणियों का मन इस पर्व में ऐसा डूबा की दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा खर्चीला व चटकीला पर्व बन गया।

मैं वहां पहुंचा जहां तरुण-तरुणियां इस पर्व को मनाने पहुंचते हैं यानी क्लबों, रेस्ट्रां, डिस्कोथे, स्कूनर स्थल, होटल, कॉलेज-विश्वविद्यालय परिसर आदि। मुझे लगा कि यह पर्व उसका स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है।

नये मनचले, उभरते और अपने जुनून में सराबोर हुए ये दीवाने किसी की परवाह नहीं करते। उनके जीवन का ‘स्टाइल’ बूढ़ी होती पीढ़ी के हथकंडों, राजनेताओं के उच्छृंखल कारनामों, उच्च अधिकारियों की लापरवाहियों, चरित्र और भंगिमाओं को सरेआम खूंटी पर टांगने की हिमाकत करने वालों के जलजलों, कैरियर की दीवानिगी के पीछे दौड़ती परछाईंयों आदि ने मजबूरन बदल डाला।
उन्होंने उच्चाकांक्षाओं की अंधी अधूरी बहक में वजूद की परवाह नहीं की और फिसलपट्टी पर चढ़कर फिसलने लगे। फिर क्या था धर्म-कर्म, नीति-सिद्धांत, आचार-विचार, रिश्ते-संबंध आदि सबके सब व्यावसायिक झोंके में ताश के महल से गिरते, बिखरते और उड़ते नज़र आने लगे।

मन डूबा। सोच खुदरा हो कर बिक्री के लिए तैयार माल की तरह बाजार में आ बैठा। बाज़ारू सभ्यता संस्कृति-संस्कार बन गयी। तब आग नहीं थी। थी तो राख के ढेर में छिपी बैठी तांडव के डर से।
तांडव लास्य के नाम से शुरू। मंद खूंटा तोड़ कर भागे, सांड सा विरूज-भयावह। जब सब ओर से सीमा को लांघ जाने की होड़ शुरू होती है, तब वह अंदर ही अंदर हिंस्रक और आक्रामक भी हो जाती है। प्रायः डिस्कोथ, स्कूनर खेलने वाली जगह अथवा निर्जन एकांत में अपने दुस्साहस का प्रदर्शन करने के लिए मचलने वाले बेकाबू हो उठे। यहां उन प्रेमियों को भी प्यार के तट पर लाकर उन्हें अपने से पूछने का अवसर दिया है।

दरअसल एक आग है प्यार को भी, क्रांति को भी और शांति को भी। प्यार की आग का ही वासंती दरिया है। यह आग कृष्ण में भी थी, राम में भी और शिव में भी, क्राइस्ट में भी, मुहम्मद में भी, बुद्ध और महावीर में भी। नानक, कबीर, सूर, तुलसी, शेक्सपियर, कीट्स, गेटे, कालिदास आदि सब में यही आग थी। यही आग चंगेज खां में भी थी, सिकंदर में भी, हिटलर, मुसोलिनी में भी। गांधी उसी आग का दूसरा नाम है। सुभाष, भगतसिंह, आज़ाद आदि नाम इसी आग के परिणाम हैं। लैला-मंजनू, हीर-रांझा, शाहजहां-मुमताज आदि सब इस आग के पर्याय हैं। इस आग पर जिन्होंने नियन्त्रण करने में सफलता पा ली, वे संसार की भलाई के फरिश्ते हो गये और जो आग के नियंत्रण में आ गये, वे मानव जाति के लिए शैतान बन गये।

‘प्रेम न बारी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।’ यह कबीर ने कहा है और हमें समझना है। प्रेम कभी बदनाम नहीं होता है। वह कभी मरता भी नहीं। न कोई उसे मार सकता है। मैं कह रहा था कि एक हाथ उठा। मैंने इशारा किया। उसने पूछा, ‘‘आज किसके पास इतना अवकाश है कि....आप कृपया इन आदर्शों की बात एक तरफ़ सरका कर कहें और सच सच कहें।’
सोना किसी भी युग में पीतल नहीं हो सकता। जिनको जी कर बताना है, उन्हें अपनी आग पर संयम बरतना है। वह आग ही तो है जिसको उत्तेजित किया और आपने हाथ खड़ा कर दिया और होंठों ने शिकायत दर्ज करा दी। ऐसा हर युग में हुआ है। दोस्तो, ज़माने को दोष मत दो। ज़माना महात्मा बुद्ध है। हर बार अंगुलिमाल को भ्रम सताता है और वह हड़बड़ा कर घोषणा कर देता है कि ज़माना खराब है और सब मान जाते हैं। पर यह सच नहीं है।

मैं मीरा पर बोल रहा था। उसके बीच प्रेम पर बात चली और वैलेंटाइन पर आ टिकी। मध्यकालीन राजपूत घराने की बहू, सिर से पांव तक ढंकी-दुबकी राजप्रसाद को तिलांजलि दे कर सड़क पर आ गयी और वृंदावन जा पहुंची, संतों के बीच उठी-बैठी, नाची-गायी। अपने समय की सुंदरतम युवतियों को सिरमौर विधवा ने किसी की एक नहीं सुनी। जो मन आया  वह किया। उसने राधा को भी पीछे छोड़ दिया। ज़माना उसके लिए भी था लेकिन वह ज़माने के लिए नहीं था हक़ीक़त में ज़माने से उनको शिकायत होती है जो कमज़ोर होते हैं। एक बार पाक और पुख्ता इरादे से ताकतवर बन कर देखो, आप ज़माने से आगे नज़र आओगे।
कितनी मीरा हुईं इस जमाने में ?

एक, पर ह़ज़ारों में अकेली और एक। सवाल संख्या का नहीं है।
वैलेंटाइन डे करोड़ों करोड़ के अरमान का है। उनकी आरजू का है।
वह मौलसिरी है। सारी दुनिया को कबीर की तरह प्यार के रंग में सराबोर कर कतर डालना चाहता है। ‘लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल/ लाली देखन मैं चली मैं भी हो गयी लाल।’ फ़र्क़ तब पड़ता है जब प्रेमियों का यह पर्व मात्र फ़ैशन हो कर रह जाता है। उनके लिए कबीर ने बहुत पहले कहा था, ‘‘मन न रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा।’
आज इन बातों का कोई अर्थ नहीं रह गया है। ये बातें पढ़ने-सुनने में अच्छी लग सकती हैं, जीवन में इनके लिए कोई स्थान नहीं रहा है।

मैं पहाड़ों पर हो कर आया हूं, वहां रहा हूं. आदिवासियों के बीच भी रही हूं। उनके यहां भी वैलेंटाइन पर्व है पर फ़ैशन के लिए नहीं, जीने के लिए। वहां पहाड़ियों के साथ उनके किस्से हैं—उनकी यादें हैं। याद रहे, प्यार तर्क को नहीं, मन और हृदय को मानता है। गन्ना बेगम और राजकुमार जवाहर या लैला-मंजनू की तरह का है यह अफसाना।
पहाड़ों पा रहा। अनेक जीवंत कहानियों से जुड़ा। आवाक रह गया—अनबोले प्यार का दीदार कर। सूरज ढलान पर था। वह भेड़ों के बीच से बाहर आ कर एक तरफ़ हुई और उसने बैंच पर बैठे युवक की तरफ़ देखा। उसके होंठों पर से स्मित फिसल गयी। उसने दुपट्टा हवा में उड़ा दिया। वह युवक जूते–कमीज उतार कर झील में कूद पड़ा क्योंकि उससे आगे झील थी और वह लाल दुपट्टा उस झील की तरफ उड़ चला था। झील का पानी हिम सा था। वह झील कइयों की बलि ले चुकी थी। वह कांप गयी। नाम उसका उसे ज्ञात नहीं था तो भी वह चीख़ पड़ी,, ‘‘लौट आओ...लौट आओ...मेरे प्यार...’
‘प्यार ऐसे निकला है हृदय से।’ यह कह कर पटाक्षेप करना चाहा।
मैं चुप हुआ। प्रश्न उठा, ‘आगे ? इस प्रश्न के मन में जिज्ञासा थी। सब शांत थे, स्तब्ध थे। मैंने कहा, ‘आगे मेरे उपन्यास में पढ़ियेगा। उसका नाम मैं उस युवती की तरह नहीं जानता, क्यों कि अब लिखना शुरू करूंगा और वह भी तुम्हारे लिए उस आग के लिए जिसके लिए तुम हो।’

अब वह उपन्यास सामने है। अनेक वे पात्र सामने हैं, जिनका प्यार इसमें मस्का है। मैं उन सबका हृदय से आभारी हूं जिन्होंने वैलेंटाइन डे और अपने प्यार के अफ़साने सहमते-सकुचाते, रुकते-चलते सुनाये। अपना नाम न जोड़ने की शर्त पर। उनमें ऐसे भी थे जिन्होंने कोई शर्त नहीं रखी और आने वाली पीढ़ी के नाम अपना वसीयतनामा लिखा दिया।
मैंने उनको ज़्यादा नहीं छेड़ा बल्कि मेरी कोशिश रही कि उन्हें उनकी तरह जीने दूं और ऐसा मैंने किया भी। साक्षात्कार की शैली के स्थान पर क़िस्से के कच्चे- पक्के रास्तों पर चल पड़ा बिना आचार संहिता के ताबूत को ढोते हुए। इस तरह पूरा होते-होते यह उपन्यास की शक्ल ले बैठा।
अंततः डॉ. कंचन वाला, प्रो. मधु शुक्ला, रति चावला, महिन्दर धींगड़ा, डॉ, पारसमल पांचोली, जेनिफ़र, सरिता वसु, नयनतारा, कनिष्ट मिश्र आदि का मैं हृदय से आभारी हूं, क्योंकि बिना उनके शायद वह वयस्क गाथा, कच्ची दीवार की खुशबू और नयी पीढ़ी की उड़ानी संघर्ष को इस तरह सामने नहीं ला पाती। तथास्तु !

-राजेन्द्रमोहन भटनागर


 

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