लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> संत कवियों के प्रमुख दोहे

संत कवियों के प्रमुख दोहे

महेन्द्र मित्तल

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3921
आईएसबीएन :81-8133-709-3

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

289 पाठक हैं

जीवन और जगत् की सार्थकता से संबंधित विचारों का अद्भुत संकलन....

Sant Kaviyon Ke Pramukh Dohe

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संत कवियों के प्रमुख दोहे

जीवन के पाखंड का खण्डन कर सत्य की
ओर संकेत करने वाली मधुर अभिव्यक्ति


संत वह है, जिसका मन रूपी दर्पण स्वच्छ हो। जब दर्पण साफ-सुथरा होगा, तो उसमें दिखने वाला प्रतिबिम्ब भी बिल्कुल स्पष्ट होगा। क्योंकि संत में किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं होता, बल्कि सहज रूप से उसके हृदय में करुणा प्रवाहित होती है, इसलिए उसके द्वारा कहा गया किसी के अहंकार को चोट नहीं पहुंचाता, बल्कि वह तो उसे पिघला देता है।
संत की अनुभूतियाँ जब वाणी पाती हैं, तो उनमें संसार के दुखों की चर्चा होती है, स्पष्ट और साफ-सुथरे आपसी संबंधों की बात होती है। दुख के कारणों का खुलासा करते हुए उसका समाधान भी सुझाते हैं संत।

संतों की वाणी में राम, कृष्ण, अल्लाह, सद्गुरु, भगवान या सत्पुरुषों की जो बात कही जाती है, उसका संकेत सत्य से होता है। उनका संदेश होता है कि सत्य सबके आचरण में आए, क्योंकि इसके बिना न तो व्यवहार में उन्नति संभव होती है और न ही परमार्थ की साधना संभव हो पाती है।

संत व्यवहार और अध्यात्म के बीच एक ऐसे सेतु का निर्माण करते हैं जिससे मानव अपनी गरिमा को पहचान कर उस परम स्थिति का अनुभव करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है, जिसके बारे में वेद-वाणी ‘नेति-नेति’ कहती है
संसार की असारता और जीवन के परम सत्य का दोहों में निर्वचन करने वाला यह संकलन आपके जीवन को नई दिशा दे उसका मार्गदर्शन करेगा, ऐसा विश्वास है।
शुभकामनाएं-

-प्रकाशक

इस पुस्तक से


संत संग अपबर्ग कर, कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कबि कोबिद, श्रुति पुरान सद्ग्रन्थ।।

-तुलसीदास

डर करनी, डर परमगुरु, डर वापस, डर सार।
डरत रहै सो ऊबरै, गाफ़िल खावै मार।।

-कबीर दास

जो गरीब पर हित करैं, ते रहीम बड़ लोग।
कहां सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग।।

-रहीम

कीरा अंदरि कीट करि, दोसी दोसु धरे।
‘नानक’ निरगुणि गुणु करे, गुणवंतिया गुणु दे।।

-नानक देव

काल कनक अरु कामिनी, परिहरि इन का संग।
‘दादू’ सब जग जलि मुवा, ज्यौं दीपक जोतिपतं।

-दादू दयाल

प्रभुता ही को सब मरो, प्रभु को मरै न कोय।
दो कोई प्रभु को मरै, तो प्रभुता दासी होय।।

-मलूक दास

बाहर से उज्जवल दसा, भीतर मैला अंग
ता सेती कौवा भला, तन-मन एकहिं रंग।।

-दरिया

समर्पण


समर्पित है यह दिव्य संकलन उन महान संत कवियों के श्रीचरणों में जिन्होंने समय-समय पर व्यक्ति और समाज को शाश्वत्य सत्य की सुझाई, जिन्होंने निष्पक्ष भाव से जहां समस्याओं को उसके मूल से पकड़ा, वहीं अनेक अचूक समाधान ही सुझाए।

दो शब्द


भारत में संत कवियों के नीतिपरक दोहों में भारतीय-संस्कृति का सम्पूर्ण निचोड़ विद्यमान है। उनकी वाणी को एक-एक शब्द में, मानव-मन को स्पर्श करने की अद्भुत क्षमता है। सच तो यह है कि संसार में संतगण न होते और उनकी अनुभवजन्य वाणी में मनुष्य के हृदय को स्पर्श करने की विलक्षण-काव्य-शक्ति न होती, तो इस संसार में मानवता, आस्तिकता, संवेदनशीलता, सरसता और लोकहित भावना कभी भी समाप्त हो गई होती।
संत कवियों की वाणी में सर्वत्र विचारों की एकरूपता परिलक्षित की जा सकती है। वहां किसी तरह की कृत्रिमता नहीं होती। इस संसार में वे जैसा अनुभव करते हैं, उसे बिना लाग-लपेट के ज्यों के त्यों लोगों को उनके कल्याण हेतु अर्पित कर देते हैं। उनकी वाणी में संपूर्ण-विश्व-कल्याण की भावना, बिना किसी भेद-भाव, ऊँच-नीच के सभी के लिए समाहित होती है।

भारत के ये संत कवि जानते थे कि हृदय को हृदय से ही जीता जा सकता है। इसीलिए उन्होंने अपने हृदय को पूर्णत: निर्दोष, निष्कपट और सरल बनाया तथा उसमें सरसता का अमृत भरा। तभी उनके हृदय की व्यंजना, मनुष्य के हृदय पर मंत्र-शक्ति का सा प्रभाव डालने में सक्षम हुई।

‘शब्द’ आकाश का गुण है। इसमें ब्राह्मण्ड के सर्जन-विसर्जन की शक्ति विद्यमान होती है। परन्तु यही ‘शब्द’, ब्रह्म के आराध्य देव के रूप में संत कवियों का साध्य बना और वाणी का विषय बनकर समाज के मध्य चेतन-शक्ति के रूप में फूट पड़ा। निष्काम भावना से युक्त इस ‘शब्द’ में लोकहिताय भावनाओं का ही प्रस्फुटन हुआ। तभी इसमें विश्वमोहिनी शक्ति का आविर्भाव संभव हो सका।
शान्त रस से परिपूर्ण यह संत वाणी, सर्वेश्वर प्रभु का सर्वांगीण शक्ति से भरपूर है। संत हृदय की विशालता का अनुमान तुलसीदास के इस पद से लगाइए-

राम सिंधु घन सज्जन धीरा।
चन्दर तरु हरि संत समीरा।।
मोरे मन प्रभु अस विस्वासा।
राम ते अधिक राम कर दासा।।

ईश्वर की वाणी तो दुष्टों का निग्रह और शिष्टों पर अनुग्रह करने वाली होती है, परन्तु संतों की वाणी सभी पर समान रूप से अनुग्रह करती है। भगवान की वाणी में शासन का भाव होता है, पर संत की वाणी में प्रेम का स्वभाव होता है। भगवान की वाणी में सत्ता का गुण है तो संत की वाणी में सत्य का सौंदर्य विद्यमान है। संत, प्रभु के प्रभाव को सद्भाव में परिवर्तित करता है। यह वाणी परमात्मा को कृपा का फल है। इसका उपभोग करने से मानव जीवन को अमृतमय आनन्द का लाभ होता है। इस वाणी की महिमा ‘रामचरितमानस’ के ‘बालकाण्ड’ में इस प्रकार बताई गई है-

जय कल्याणी जय सुखदानी, जय संतों की निर्मल वाणी।
क्रोध लोभ छल मान मर्दिनी, शाश्वत सुखदायिनी निर्वाणी।।

इस प्रकार संत वाणी सदैव गुण देनेवाली होती है। इस संग्रह में उसी निर्मल वाणी को संजोने का अकिंचन प्रयास मैंने यहां किया है। इनका संकलन करते समय मैंने देखा कि अधिकांश संत कवियों को वैसा समादृत सम्मान साहित्य के इतिहास में प्राप्त नहीं हो सका है, जिसके कि वे अधिकारी थे।

यहां उनके काव्य से केवल दोहा छन्द में लिखे गए उन नीतिपरक दोहों को ही लिया गया है, जिनका सीधा लोक कल्याणकारी प्रभाव मानव-हृदय पर पड़ता है और मनुष्य को चिंतन-मनन की एक निर्मल भूमि प्रदान कर, उन्हें सद्मार्गपर ले जाने का निष्काम प्रयास उनमें निहित है।

इस संकलन को सम्पूर्णता की ओर ले जाते और इसे लिपिबद्ध करने में मेरी प्रिय धर्म बहन प्रसिद्ध कवयित्री और शायरा श्रीमती सुलक्षणा ‘अंजुम’ ने मेरा श्रमसाध्य सहयोग किया है और अपना अमूल्य समय देकर मुझे कृत-कृत्य कर दिया है। मैं हृदय से उनका आभारी हूं और यह कृति उन्हें ही समर्पित करता हूं।
धन्यवाद !

एल. 173, शास्त्री नगर, मेरठ

आपका शुभेच्छु
महेन्द्र मित्तल


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book