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महान व्यक्तित्व >> गणेशशंकर विद्यार्थी

गणेशशंकर विद्यार्थी

एम. आई. राजस्वी

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :97
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3981
आईएसबीएन :81-8133-602-x

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स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत एक निर्भीक पत्रकार की जीवनगाथा...

ganesh Shankar Vidyarthi

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

जिस तरह महाराणा प्रताप ने अपने प्रताप से मुगल साम्राज्य को ललकारा था, वही अंदाज था विद्यार्थी जी के अखबार का ‘प्रताप’ का, जिसका एक-एक शब्द अंग्रेजी शासन की नींव हिलाने के लिए किसी बल से कम नहीं था। कहते हैं कि जो काम तलवार नहीं कर पाती, कलम वह कमाल कर दिखाती है। अपनी कलम की करामात द्वारा गणेशशंकर विद्यार्थी ने युवा-भारतीयों के मानस में क्रांति की ज्योति को प्राणवान् कर दिया था।

जब अंग्रेजों ने पैंतरा बदलकर साम्प्रदायिकता को भड़काने का प्रयास किया, तो विद्यार्थी जी ने समन्वय और सहिष्णुता की मशाल जलाए रखने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनका बलिदान रंग लाया और अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ा।
साम्प्रदायिक एकता के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले एक देशभक्त पत्रकार की संघर्ष गाथा।


भारत के नवयुवकों,
तुम्हारे सम्मुख जो कार्य है, वह अत्यंत महान है। सैकड़ों नहीं, सहस्त्रों नहीं, लाखों माताओं के लाल जिस समय तक अपने देशवासियों की अनन्य सेवा में अपने समस्त जीवन को व्यतीत न करेंगे, तब तक इस महान कार्य का सिद्ध होना संभव नहीं है। यदि तुम सच्चे मनुष्य बनना चाहते हो, तो अपनी शिक्षा का उचित प्रयोग करना सीखो। स्वार्थ त्याग दो, हर प्रकार के व्यक्तिगत सुखों को तिलांजलि दे दो।

निज मातृभूमि को मृत्यु से बचाकर अमरत्व की ओर ले जाने का भी यही उपाय है।
देश में नवजागृति और नवीन चेतना का संचार करने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ नामक एक समाचार-पत्र का प्रकाशन शुरू किया। प्रताप के प्रथम अंक में उसकी नीति, उसके उद्देश्य और कार्यक्रम पर प्रकाश डालते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी ने लिखा-

‘आज अपने हृदय में नई-नई आशाओं को धारण करके और अपने उद्देश्यों पर पूरा विश्वास रखकर ‘प्रताप’ कर्मक्षेत्र में उतरा है। समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परम उद्देश्य है। इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति को समझते हैं।’

विद्यार्थी जी के सम्मान में ग्वालियर स्टेट में महाराज सिंधिया ने रात्रि भोज का आयोजन किया और उपहारस्वरूप उन्हें एक शॉल भेंट की। विद्यार्थी जी इस बात को समझ गए कि महाराज यह शॉल उपहार स्वरूप नहीं, बल्कि सुविधा-शुल्क के तौर पर दे रहे हैं, ताकि प्रताप में कभी भी ग्वालियर स्टेट के विरुद्ध कोई टिप्पणी प्रकाशित न हो।
इच्छा ना होते हुए भी विद्यार्थी जी ने महाराज से शॉल ले लिया, ताकि उनका अपमान न हो, किंतु उन्होंने इस शॉल को अपने जीवन में एक बार भी प्रयोग न किया। वह बक्से में पड़े-पड़े ही बेकार हो गया।

विद्यार्थी जी का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था। उनमें अहंकार अथवा बड़प्पन का लेशमात्र भी अंश न था। यही कारण था कि उनके विरोधी भी उनके स्वभाव और व्यक्तित्व की प्रशंसा किया करते थे। उनकी बातों में बल था, विचारों में दृढ़ता थी, परिश्रम में क्षमता थी और उनके साहस पर लोगों को विश्वास था।

यद्यपि वे किसी विद्या के विशेषज्ञ न थे, लेकिन उनका सामान्य ज्ञान अत्यंत उच्च कोटि का था। विश्वविद्यालय की डिग्री उनके पास भले न थी, किंतु उनके तर्कों में इतनी परिपक्वता और सुदृढ़ता थी कि परम विद्वान और महापंडित भी उनके तर्कों को काट पाने का साहस नहीं कर पाते थे।

गणेश शंकर विद्यार्थी समाज में सुधारवादी पक्ष के प्रबल समर्थक थे। देश में सुधारवादी परिवर्तन की आवश्यकता पर बल देते हुए एक बार उन्होंने कहा था-
‘जिस देश में सुधार की आवश्यकता नहीं, वह इस परिवर्तनशील संसार का भाग नहीं हो सकता। यहां सदा पुरानी इमारतों को नमस्कार किया जाता है और नए महल खड़े होते हैं। परिस्थिति के अनुसार रुप में परिवर्तन करना पड़ता है। जिनमें परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित होने का गुण नहीं है, वे विनष्ट हो गए...उनका नामो-निशान मिट गया, हां, इतिहास के पन्ने या उनके इमारतों की बची-खुची ठीकरियां संसार को कभी-कभी उनके अस्तित्व की याद जरूर दिला देती हैं।

गणेश शंकर विद्यार्थी


देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने और अक्षुण्ण एकता बनाए रखने के लिए अनेक देशभक्तों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया है। इन देशभक्तों में गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम प्रथम पंक्ति में लिखा जाता है। वे एक निर्भीक पत्रकार, कुशल राजनीतज्ञ और विवेकशील-आदर्शवादी व्यक्ति थे। उन्होंने धार्मिक, राजनीतिक पक्षपात से दूर रहते हुए स्वाधीनता संग्राम की एक ऐसी भूमिका तैयार की जिससे विशाल अंग्रेजी साम्राज्य की चूलें हिल गईं।

गणेश शंकर विद्यार्थी के पिता का नाम बाबू जयनारायण लाल और माता का नाम श्रीमती गोमती देवी था। वे कायस्थ ब्राह्मण थे। मध्य प्रदेश में जहां अब ग्वालियर शहर है, वहां पर पहले ग्वालियर रियासत थी। इसी ग्वालियर रियासत में मुंगावली नामक स्थान था। यहीं पर बाबू जयनारायण लाल सपरिवार रहते थे।

बाबू जयनारायण लाल एक छोटी-सी पाठशाला में बच्चों को हिंदी पढ़ाते थे। वे दया और सज्जनता की प्रतिमूर्ति थे। उदारता और सहृदयता उनके स्वाभाव में कूट-कूटकर भरी थी। उनके इन सद्गुणों के कारण लोग उनका बड़ा सम्मान करते थे।

बाबू जयनारायण लाल की धर्मपत्नी श्रीमती गोमती देवी एक धर्म-परायण और कर्तव्यनिष्ठ महिला थीं। वे नित्य प्रति पूजन-अर्चन करने के बाद ही भोजन का कौर मुख में डालती थीं।

गोमती देवी का यह प्रतिदिन का नियम-सा ही था कि वे सुबह सवेरे उठ जातीं। नित्य कर्मों से निवृत्त हो स्नान-ध्यान करतीं और समय निकालकर वे रामचरितमानस का पाठ करना भी न भूलती थीं।
यद्यपि बाबू जयनारायण लाल का छोटा-सा परिवार अपने आपमें पूरी तरह सुखी और संतुष्ट था, तथापि उन्हें धनसम्पन्न नहीं कहा जा सकता था। उनका परिवार सामान्य रूप से खाता-पीता परिवार था, जहां पैसे की अधिक तंगी तो न थी और न ही अधिकता थी।

गोमती देवी पति की थोड़ी-सी पगार पाकर भी प्रसन्न थीं। जब महीने की पहली तारीख को बाबू जयनारायण लाल पगार के चंद रुपये लाकर गोमती देवी के हाथ पर रखते तो उनका मन प्रसन्नता से खिल उठता। उन्हें ऐसा प्रतीत होता जैसे उनके पति ने कोई बहुत बड़ी सम्पदा उन्हें सौंप दी हो। इसी प्रकार शांति के साथ समय व्यतीत हो रहा था।
सभी कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। एक दिन अचानक उनके जीवन में कुछ आश्चर्यजनक घटना घटी। जिसे देखकर वे कुछ चकित-सी...कुछ हत्प्रभ-सी रह गईं।

शाम का भोजन करने के बाद गोमती देवी ने कुछ देर तक प्रभु का स्मरण किया, फिर चौका-बरतन करके वे अपनी शय्या पर जा लेटीं। प्रभु का स्मरण करते-करते उनकी आंख लग गई। उस समय रात्रि का अंतिम प्रहर चल रहा था कि एकाएक उनकी बंद आंखों के सामने एक तस्वीर-सी तैरने लगी।

स्वप्नावस्था में उन्होंने देखा कि कोई वृद्ध स्त्री उनके द्वार पर आकर खड़ी हो गई है।
गोमती देवी ने वृद्धा को साफ-साफ पहचाना। वे गंगा देवी थीं...उनकी अपनी मां।
गोमती देवी अपनी मां के दर्शन पाकर अभिभूत हो उठीं। उनकी आंखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। उनके मुख से अस्फुट-सा स्वर निकला-‘‘म...मां !’’

‘‘हां बेटी !’’ गंगा देवी ने सप्रेम उनकी ओर निहारा।
गोमती देवी ने बिना कुछ भी बोले आगे बढ़कर अपनी मां के चरण स्पर्श किए।
मां गंगा देवी उनके सिर पर हाथ रखते हुए बोलीं-‘‘सदा सुखी रहो बेटी ! दूधो नहाओ-पूतों फलो !!’’
अपनी मां का आशीष पाकर गोमती देवी का अंतर्मन खिल उठा । वे गंगादेवी से आग्रह पूर्वक बोलीं-‘‘मां ! अंदर आकर गृह-प्रवेश तो करो।’’

‘‘नहीं बेटी ! आज मुझे इतना समय नहीं है।’’ गंगा देवी जल्दी से बोलीं-‘‘आज मैं गृह-प्रवेश नहीं कर सकती ?’’
‘‘क्यों मां ?’’ गोमती देवी आग्रहपूर्वक बोलीं-‘ऐसी भी क्या जल्दी है जो तुम गृह-प्रवेश तक नहीं कर सकतीं ?’’
‘‘बेटी मुझे बहुत सारे काम करने हैं...अब अधिक जिद न करो और मैं जिस काम से आई हूं, उसे ध्यानपूर्वक सुनो।’’
गोमती देवी मौन हो, अपनी मां का मुंह ताकने लगीं, जैसे पूछ रही हों कि मां अपना काम बताओ और मुझे आदेश दो।
‘‘बेटी ! मैं तुम्हारे संसार को एक अमूल्य वस्तु देना चाहती हूँ...बोलो, क्या तुम उसे लोगी ?’’

‘‘संसार की एक अमूल्य वस्तु !’’ गोमती देवी ने आश्चर्यचकित होते हुए अपनी मां की ओर देखा-‘‘मां संसार की अमूल्य वस्तु भला कौन नहीं लेना चाहेगा...जो मैं अस्वीकार कर दूँ।’’
‘‘बेटी ! उसकी तुम्हें बड़ी सेवा करनी पड़ेगी।’’
‘‘मैं करूंगी मां !’’

‘‘अपने आवश्यक कार्य को तिलांजलि देकर भी उसके लिए तुम्हें समय निकालना पड़ेगा।’’
‘‘मैं समय निकालूंगी मां !’’
‘‘बेटी ! कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम मेरे सामने तो ऐसा करने का वचन दे दो और फिर गृहस्थी के चक्कर मे सब भूल जाओ...।’
‘‘नहीं, ऐसा नहीं होगा मां।’’
‘‘खूब अच्छी तरह सोच लो बेटी ! बाद में किसी भी तरह वचन भंग न कर देना।’’
‘‘मुझ पर विश्वास करो मां।’’

‘‘मुझे अपनी बेटी पर पूरा विश्वास है, किंतु...।’’
‘‘किंतु क्या ?’’ गोमती देवी उलझन-भरे स्वर में बोलीं-‘‘मां ! मैं आपकी बेटी हूं...।’’
‘‘इसीलिए तो अनिष्ट की आशंका मुझे भयभीत किए हुए है...यदि तुमने वचन भंग किया तो...।’’
‘‘मैं वचन भंग नहीं करूंगी मां !’’ गोमती देवी दृढ़ता के साथ बोलीं-‘‘किंतु अब मेरी उत्कंठा को और न बढ़ाओ और स्पष्ट रूप से मुझे बताओ कि संसार की अमूल्य-वस्तु कौन सी है, जो तुम मुझे देना चाहती हो ?’’
गंगा देवी ने मुख से तो कोई उत्तर न दिया, किंतु उन्होंने अपने आंचल की ओट से वह अमूल्य वस्तु निकालकर गोमती देवी के सम्मुख कर दी।

संसार की उस अमूल्य वस्तु को देखकर गोमती देवी के हाथ अपने ही जुड़ते चले गए। करबद्ध हो, उन्होंने धीरे से अपना मस्तक झुकाया ।
गंगा देवी ने आंचल की ओट से संसार की जिस अमूल्य वस्तु को निकालकर गोमती देवी के सामने किया था, वह भगवान गणेश की मूर्ति थी।

भगवान गणेश की उस मूर्ति को गंगा देवी गोमती देवी की ओर बढ़ाते हुए बोलीं-‘‘बोलो बेटी ! क्या तुम्हें अपने घर में भगवान गणेशजी का वास स्वीकार है।’’
‘‘अवश्य मां....अवश्य!’’ श्रद्धा के साथ गोमती देवी ने कहा-‘‘मुझे सहर्ष स्वीकार है।’’
‘‘तो फिर लो बेटी !’’ भगवान गणेश की मूर्ति गोमती देवी को थमाते हुए गंगा देवी बोलीं-‘‘यदि तुम तन-मन से भगवान गणेश की सेवा-याचना करोगी तो ये अवश्य ही तुम्हारी मनोकामना भी पूरी करेंगे।’’
भगवान गणेश की मूर्ति को अपने हाथों से लेकर गोमती देवी ने पूरी श्रद्धा के साथ अपने मस्तक और आंखों से स्पर्श किया। अभी उनका मस्तक झुका हुआ ही था कि जब उन्होंने आंख उठाकर ऊपर की ओर देखा तो उनकी मां गंगादेवी वहां से अंतर्धान हो गई थीं।

भगवान गणेश की उस दिव्य पावन मूर्ति को उन्होंने अपने पूजा वाले कक्ष में स्थापित कर दिया।
तभी दूर कहीं शिवालय में शंखनाद गूंजा और गोमती देवी ने अचकचाकर आंख खोल दीं। वातावरण में भोर का सुरमई उजाला फैलने लगा था। वे तुरंत शैय्या त्याग कर उठ खड़ी हुईं।
नित्यकर्मों से निवृत्त हो गोमती देवी ने स्नान किया। अभी वे अपने पूजा कक्ष में घुसी ही थीं कि आश्चर्य से उनकी आंखें फटी-की-फटी रह गईं।

स्वप्न में गोमती देवी को उनकी मां गंगा देवी भगवान गणेश की जो दिव्यमूर्ति सौंपकर गई थीं और जिसे उन्होंने उसी समय पूरी श्रद्धा के साथ पूजा कक्ष में स्थापित कर दिया था वह अपने स्थान पर अब भी शोभायमान हो रही थी।
एक स्वप्न वास्तविकता में बदल रहा था....वह यथार्थ का रूप ले रहा था।
गोमती देवी ने सर्वप्रथम उस दिव्य मूर्ति के सम्मुख जाकर अपना मस्तक झुकाया और पूजा-अर्चना की। पूजा-अर्चना करते समय गोमती देवी के मन में स्वतः ही कुछ भावों का संचार होने लगा। वे मन-ही-मन कहने लगीं-‘हे प्रभु ! मुझे ऐसा पुत्र-रत्न प्रदान करो, जो अपने कुल का नाम सारे संसार में रोशन करे....जो मेरी ही नहीं, सभी लोगों की आंखों का तारा बने और जो त्याग, परोपकार और बलिदान के कारण लोगों का हृदय जीत ले।’

गोमती देवी को ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे भगवान गणेश की मूर्ति हाथ उठाकर उन्हें ‘ऐसा ही ह ’ का वरदान दे रही हो। उन्होंने श्रद्धा भाव से एक बार फिर मूर्ति के सम्मुख मस्तक झुकाया।
इसके पश्चात भगवान गणेश का पूजन-अर्चन गोमती देवी के लिए नित्य कर्म बन गया।
इस घटना को अभी चंद दिन ही बीते थे कि गोमती देवी को ऐसा लगा जैसे उनका पांव भारी हो गया हो। इस आश्चर्यजनक स्वप्न और अपने पांव भारी होने की चर्चा उन्होंने अपने पति जयनारायण लाल के सामने की। यह घटना सुनकर वे भी बड़े हैरान हुए। धीरे-धीरे समय चक्र अपनी मंथर गति से घूमता रहा। रात और दिन तेजी से एक दूसरे के आगे-पीछे दौड़ते रहे...समय व्यतीत होता रहा।

गोमती देवी को ऐसा लगा जैसे उनके गर्भ में भगवान गणेश का वरदान पल-बढ़ रहा है। इससे उनके तन-मन में एक नवीन प्रसन्नता की लहरें मचल उठीं।
और इस घटना के ठीक नौ मास बाद भगवान गणेश का वरदान फलीभूत हुआ...आश्विन मास की शुक्ला चतुर्दशी में संवत् 1874 को गोमती देवी ने एक नन्हें-से शिशु को जन्म दिया। वह ईस्वी सन् 1890 था।

नन्हें शिशु का मुख देखकर गोमती देवी और बाबू जयनारायण की खुशी का ठिकाना न था। उन्होंने बड़े हर्ष के साथ नन्हें शिशु का लालन-पालन करना आरंभ किया।
बाबू जयनारायण लाल भगवान शंकर के परम भक्त थे। भगवान शंकर में उनकी तथा उनके पूरे परिवार की अटूट आस्था थी।
गोमती देवी का विचार था कि इस नन्हें शिशु का जन्म भगवान गणेश के वरदानस्वरूप हुआ है। अतएव भगवान गणेश और भगवान शंकर के नाम पर नन्हें शिशु का नाम संयुक्त करके रखा गया गणेश शंकर।

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