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धर्म एवं दर्शन >> क्यों ?

क्यों ?

किसनलाल शर्मा

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4001
आईएसबीएन :81-8133-785-9

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हिंदू कर्मकांड से संबंधित विभिन्न जिज्ञासाओं का सटीक समाधान....

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विषय प्रवेश

‘शास्त्र’ शब्द के उच्चारण के साथ ही मनश्चक्षु के सामने तीन संकल्पनाएं आती हैं। पहली संकल्पना धर्म, दूसरी संकल्पना विज्ञान और तीसरी संकल्पना कानून शास्त्र से जुड़ी हुई है। इन तीनों संकल्पनाओं का संतुलित संकलन ही ‘शास्त्र’ है जो धर्म से जुड़ा हुआ है।

अतींद्रिय शक्ति से संपन्न त्रिकालज्ञ मुनिजनों द्वारा ग्रथित सूत्रों से बना ‘धर्म शास्त्र’ शास्त्र पद में अंतर्भूत है। जब मानव बुद्धि द्वारा प्रस्थापित नियतिधर्म से भी इन धर्म सूत्रों का आह्नान किया जाता है तब सहज रूप में इनको विज्ञान की कसौटी पर कसकर अपनाया जाता है। इसलिए शास्त्र में विज्ञान भी समाहित है। इसके अलावा जिस प्रकार शासन प्रणाली से संबद्ध कानून शास्त्र अधिकारपूर्ण भाषा से अलग-अलग कानूनों की बात करता है, उसी तरह शास्त्र भी शब्द प्रामाण्य के आधार पर विविध आदेश देता है। इस प्रकार शास्त्र में कानून शास्त्र का भी समावेश है।

कायदे-कानूनों के ग्रंथों में लिखित होने पर भी व्यवहार में उनका उपयोजन करने के लिए विज्ञ कानूनविद् की आवश्यकता रहती है। कानून शास्त्र में यह व्यवस्था है कि न्यायमूर्ति अपनी दृष्टि एवं बुद्धि से कानून का अर्थ लगाकर निष्पक्ष भूमिका अपनाकर सारासार विचार करके फैसला सुनाए। इसी तरह शास्त्र ग्रंथों में बताए गए हर सूत्र एवं धर्म निर्णय का सार निकालकर समाजोपयोगी शास्त्र रचना करने की प्रक्रिया प्राचीन काल से सद्य: काल तक अविरत रूप से चली आ रही है। जिस तरह मानव के अधिकाधिक कल्याण के लिए नित्य कानून अस्तित्व में आते हैं, निरुपयोगी कानूनों का विसर्जन होता है और पुराने कानूनों में फेरबदल किए जाते हैं; उसी तरह सामाजिक धारणा एवं तत्कालीन परिस्थिति के अनुरूप शास्त्र में भी आवश्यक परिवर्तन होते रहते हैं।

शास्त्र में होने वाले फेरबदलों का भी एक शास्त्र है। जिस तरह कपड़ा बुनते समय ताने-बाने एक-दूसरे में गुंथे जाते हैं; उसी तरह शास्त्र की रचना होते समय मानवता, मनुष्यता एवं इन्सानियत के अचल और चल मूल्य एक-दूसरे में पिरोए जाते हैं। अचल मूल्य शाश्वत स्वरूप में रहता है। इसलिए उनकी मूल संकल्पना में कभी परिवर्तन होना अवश्यंभावी है। मिसाल के तौर पर यज्ञ, दान, तप, कर्म और स्वाध्याय आदि अचल मूल्य हैं। इनकी संकल्पना शाश्वत रूप में की गई है किंतु उनका उपयोजन काल के अनुसार होता है।

प्राचीन काल में स्वाध्याय के लिए गुरुगृह जाकर रहना पड़ता था। मध्ययुगीन समय में विविध विद्यापीठों एवं वसतिगृहों की स्थापना हुई। वर्तमान काल में पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों द्वारा स्वाध्याय होता है। स्वाध्याय की तरह यज्ञ, दान, तप एवं कर्म आदि की मूल संकल्पना शाश्वत है, फिर भी उनकी कार्यवाही में यथासमय परिवरिर्तन होते गए। संक्षेप में, मूल द्रव्य वही रहा परंतु रचना में बदलाव हो गया। अर्थात चल मूल्यों के अलावा जब व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए शाश्वत मूल्यों में भी परिवर्तन किए जाते हैं तब संपूर्ण शास्त्र प्रणाली ही बेकार हो जाती है। इसी दुरावस्था के कारण नए-नए पंथों ने जन्म लेना प्रारंभ किया।

जब शास्त्रीय मूल्यों का पर्याप्त ज्ञान न होने से वैयक्तिक या सामूहिक स्वार्थ के लिए यज्ञ, कर्म, हिंसा, अध्यात्म आदि में अतिरेक होने लगा तब उसके विरुद्ध समाज को योग्य दिग्दर्शन के ध्येय से प्रेरित होकर नए-नए मनीषियों के जन्म लिया। उन्होंने अपनी विचारधारा के अनुसार विविध पंथों की स्थापना की। इनमें से कुछ पंथ सीधे-सीधे धर्म के नाम पर विचरण करने लगे। प्रारंभ में इस तरह के नवोदित पंथों का लोगों ने स्वागत किया। किंतु कालांतर में शाश्वत मूल्यों को भूलकर उनकी अवनति शुरू हुई। इस कारण धर्मस्य तत्त्वं निहितं ग्हायां महाजनो येन गत: स पन्था: (धर्म का तत्व गुफा में छिपा होने से बड़े लोग जिस मार्ग से गए, वही सच्चा मार्ग कहलाया) की अवस्था हो गई।  

यहां भी बात बनी नहीं। कारण-जिसे महाजन कहा गया, वही आप्तजन अज्ञजन बन गए। परिणामस्वरूप उनके दिग्दर्शन से समाज की उन्नति होने के बजाय अधोगति होने लगी। ऐसे महाजनों के कुछ अनुयायियों को समाज की इस अधोगति का ज्ञान था परंतु वे भी कुछ नहीं कर पाए। इसका कारण पर्याप्त कालक्रमण होता है। आज धर्म शास्त्र में ‘शास्त्र’ एवं ‘रूढ़ि’ के नाम पर कई प्रथाएं और परंपराएं हैं जो समाज के लिए घातक हैं। लेकिन यह बात ज्ञात होने पर भी उनमें परिवर्तन करने की हिम्मत कोई नहीं करता। जो समाज सुधारक पैदा होते हैं, वे अंधश्रद्धाजनित गलत रूढ़ि-परंपराओं पर प्रहार तो करते हैं परंतु इससे अंधश्रद्धा के साथ-साथ श्रद्धा, शाश्वत मूल्य तथा पारमार्थिक तत्व प्रणाली पर भी प्रहार होने लगते हैं।
इस तरह मनुष्य अति प्राचीन काल से भौतिकवादी एवं इहवादी तत्व प्रणाली में जकड़ा जाता है। अंत में ‘गीता’ के संदेश उद्धरेदात्मानात्मानं के अनुसार स्वयं आत्म परीक्षण का समय आ जाता है। आत्म परीक्षण करते समय मानव के वैश्विक धर्म को शाश्वत मूल्य चल मूल्यों में प्रविष्ट गलत रूढ़ियों के भूशिर सहज रूप से समझ में आते हैं। इसलिए शाश्वत मूल्यों एवं चल मूल्यों का स्वरूप ठीक से समझ लेना अनिवार्य हो जाता है।

उदाहरणार्थ, समाज धारणा के लिए स्थापित हुई विवाह संस्था को शक्तिमान बनाने की दृष्टि से स्त्री- पुरुष वैधमार्ग से विवाह के रूप में एकत्रित हो जाते हैं। यह धर्म का शाश्वत मूल्य है जबकि प्रांतीय विवाह पद्धति चल मूल्य है। जब चल मूल्यों की रचना शुद्ध आचार, पवित्र विचार, विश्व कल्याण एवं पुरुषार्थ द्वारा होती है तब शाश्वत मूल्यों के साथ-साथ चल मूल्यों की मदद से निर्मित शास्त्र की इमारत मानव के लिए उपकारी सिद्ध होती है। आज समाज को ऐसी निर्दोष शास्त्र रचना की आवश्यकता है जो बुद्धिभेद एवं श्रद्धाभंग न करते हुए विविध भौतिक शास्त्रों की चौखट में सहज रूप से फिट हो सके। ऐसी शास्त्र रचना से समाज का सर्वांगीण अभ्युदय होते देर नहीं लगती।

शाश्वत एवं चल मूल्यों का निश्चित ज्ञान न होने के कारण ही त्रुटिवश विकृत संकेत रूढ़ होने लगते हैं। जब ये संकेत पीढ़ी दर पीढ़ी रूढ़ हो जाते है तो उनका रूपांतर शिष्ट संकेतों में होने लगता है। यही शिष्ट-संकेत कई बार शास्त्र-संकेत के रूप में उपयोग में लाए जाते हैं। अगर ऐसे तथाकथित शास्त्र-संकेत विकृत विचारों से युक्त हुए तो समाज लाभान्वित होने के बजाय रोगग्रस्त रूढ़ियों के जाल में फंस जाता है। ऐसे समाज की पहले वैचारिक और बाद में सभी तरह से अधोगति होने लगती है।
ऐसा विकृत शास्त्र-संकेत वैचारिक प्रदूषण यानी एक तरह का विषाणु (वायरस) होता है। इनको नष्ट करने का एकमात्र साधन आधुनिक विविध ज्ञान शाखा के अलावा दूसरा कोई नहीं है। जब इनका पीढ़ी-दर-पीढ़ी अंधानुकरण होता है तब उनको विज्ञान की कसौटी पर कसने की बात ध्यान में आती है।

लेकिन विज्ञान के साथ-साथ इसे समाज शास्त्र, मानस शास्त्र और परलोक शास्त्र आदि की कसौटियों पर भी परखना चाहिए। बुद्धिवादी, आस्तिक एवं धार्मिक प्रवृत्ति के लोग हर उपलब्ध ज्ञान शाखाओं की सहायता से धर्म में फैला प्रदूषण बाहर निकालने का प्रयत्न करते रहते हैं। इसी पार्श्वभूमि पर ‘शास्त्र’ पद की योजना की गई है।
इस पुस्तक में प्रयुक्त ‘शास्त्र’ शब्द केवल धर्म शास्त्र के अर्थ में न होकर उनकी व्याप्ति, शिष्ट परंपरा, सामूहिक प्रथा तथा सामाजिक प्रघात आदि विविध क्षेत्रों से भी अभिप्रेत है। कारण- शास्त्र रचना होते समय विविध समय में विभिन्न प्रक्रिया होती रहती है। जब व्यक्ति की वैयक्तिक रूढ़ि या परंपरा परिवार के सभी सदस्यों के लिए अनुकरणीय होती है तब उसका रूपांतर पारिवारिक रूढ़ि में हो जाता है। इसके अलावा जब पारिवारिक रूढ़ि समूह में स्वागतार्थ  बनती है तब उसका रूपांतर ‘सामूहिक प्रथा’ में होता है। जब सामूहिक प्रथा समाज द्वारा स्फूर्त रूप में स्वीकृत होती है तो उसका रूपांतर ‘सामाजिक प्रघात’ में हो जाता है।

यदि समाज के बुद्धिवादी, विचारवंत एवं आदर्श विद्वत् समाज द्वारा सामाजिक प्रघात मान्य होते हैं तो उनका रूपांतर शिष्ट संकेतों में होने लगता है। यही नहीं, प्रांतीय भौगोलिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण के अनुसार शिष्ट संकेतों में भिन्नता आ जाती है। विशेष रूप से समय के साथ-साथ उस कालावधि में उपलब्ध सुख-सुविधाओं के अनुसार भी शिष्ट संकेत बदल जाते हैं। जब समाज शास्त्र, मानस शास्त्र तथा परलोक शास्त्र का योग होता है तब ये शिष्ट संकेत अधिक मजबूत बनकर शास्त्र-संकेत में बदल जाते हैं। यदि ये शास्त्र-संकेत सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपराओं के लिए पोषक होते हैं तो उन्हें ‘शास्त्राज्ञा’ की संज्ञा प्राप्त होती है। जब शास्त्राज्ञा वैज्ञानिक सिद्धांतों की कसौटी पर खरी उतरती है तब उनका रूपांतर शास्त्र दंडक के रूप में होता है। ऐसे शास्त्र दंडक प्राचील काल से धार्मिक ग्रंथों में सूत्र रूप से ग्रथित हैं। उन्हें ही ‘धर्म शास्त्र’ का नाम दिया गया है।

शास्त्र रचना की प्रक्रिया का सूक्ष्म अध्ययन करने से एक बात ध्यान में आती है कि शास्त्र के शाश्वत मूल्य कभी नहीं बदलते किंतु चल मूल्यों में समय-समय पर बदलाव आते रहते हैं। ऐसे में निश्चित शाश्वत मूल्य तथा चल मूल्य क्या हैं- इनका अंदाजा लगाकर ही शास्त्र की उपयोजना करनी होती है। शास्त्र के चल मूल्यों को मद्देनजर रखकर ही शास्त्रकारों ने शास्त्रों में अनेक प्रकार के अपवाद, पर्याय तथा परिहार आदि की योजना की है। उदारहरणार्थ, रजस्वला स्त्री धर्मकार्य नहीं कर सकती किंतु वह ग्रहण के समय स्नान करके जपादि कर सकती है। आतुर या रुग्णावस्था में स्नान के लिए शास्त्र मना करता है। ऐसे अपवाद या पर्याय बताए जाने पर शास्त्र की नींव कमजोर होती है। जिस तरह कानून बनते ही परिस्थितियों के अनुसार उसके विकल्प तैयार हो जाते हैं, बिलकुल उसी तरह शास्त्र के नियम अमल में लाने के साथ ही उपनियमों का विचार करना होता है।

शास्त्र के नियम, उपनियम, पर्याय, परिहार और अपवाद आदि की पूर्णतया जानकारी करके ही शास्त्रावलंब करने से इहलौकिक एवं परलौकिक नि:श्रेयस प्राप्त होता है। यदि शास्त्रों में प्रायश्चित या छूट की सुविधा न दी जाती तो पूरा शास्त्र ही लुप्त होकर अनाचार हो जाता। इतना ही नहीं, एक ओर कठोर धर्माचरण और दूसरी तरफ धर्मभ्रष्टता- इनकी कैंची में अटककर समाज कट जाता। शास्त्र द्वारा दी गई सहूलियतों एवं प्रायश्चितों का उचित उपयोग करने से पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है।

कभी-कभी ये सहूलियतें एवं प्रायश्चित शास्त्रविहित नहीं रहते परंतु शास्त्र के तथा कथित ठेकेदारों द्वारा बताए जाते हैं तब उनकी अनावस्था उत्पन्न होती है। उदाहरणार्थ, कोई पापाचरण हुआ हो तो शास्त्र उस पापी को उपवास या जप स्वरूप प्रायश्चित करने को कहता है। किंतु धर्म शास्त्र का अर्थ बताने वाले बीच में ही अपना स्वार्थ जोड़ देते हैं। ऐसी स्थिति में प्रगल्भ विचारवंतों को भी संपूर्ण धर्म शास्त्र के प्रति घृणा होने लगती है।
सनातन हिंदू धर्म का अधिष्ठान केवल कर्मप्रवणता ही नहीं बल्कि अध्यात्म तथा चतुर्विध पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष) की मजबूत बुनियाद पर आधारित है। इसी कारण धर्म की रचना होते वक्त उसमें कालमान के हिसाब से कई बदलाव आते हैं। बदलाव के समय संस्कृति और समूह के साथ संबद्ध मानव के व्यक्तित्व का विकास करने वाले तत्वों का पोषण हुआ। परंतु कई कारणों से धर्म के इस कर्मयोग को कर्मकांड में रूपांतर होने लगा। फलस्वरूप कर्म साधन न रहकर साध्य बनता गया।

कर्म का उपयोग चित्त शुद्धि के लिए है- यह बात लोग भूलने लगे। उसके भी आगे कर्म करने के लिए अपना जन्म हुआ है, ऐसी बुद्धि के कारण कर्म का ‘सहज कर्म’ में रूपांतर होने के बजाय उसके वृथाभिमान का पोषण होने लगा। शुष्क कर्मकांड से उद्भवित वृथा दुराभिमान आत्म विकास के लिए घातक सिद्ध होने लगा। जब-जब ऐसे दुराभिमान की उत्पत्ति हुई तब-तब समाज को उचित मार्ग दिखाने वाले संत-महात्मा पृथ्वी पर अवतरित हुए। ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास तथा कबीर आदि महान संतों ने समाज को नई दिशा देने के लिए अपनी ओर से भरसक प्रयत्न किए। इससे धर्मशास्त्र में उत्पन्न हो रहे प्रदूषण में रूकावट आ गई। कर्म ही गंतव्य स्थान न होकर चित्त शुद्धि का साधन है- इसकी समझ लोगों में आने लगी। ऐसे समय धर्म सूत्रों में भी उचित परिवर्तन हुए।

वस्तुत: वैयक्तिक एवं सामूहिक- दोनों स्तरों पर हम मानस शास्त्र के विचारों का त्याग नहीं कर सकते। कई बार के व्यक्तिगत मन एवं सामूहिक मन की प्रवृत्तियों में गहरी खाई रहती है जिसे केवल उत्कृष्ठ धर्माचरण से ही भरी जा सकती है। उत्कृष्ठ धर्माचरण से मानव-मन को अनुकूल आकार प्राप्त होता है। उसे व्यक्तिगत एवं सामूहिक स्तर पर इहलोक तथा परलोक की अच्छी-बुरी बातों का ज्ञान होने लगता है। इसी कारण धर्म शास्त्र के मूल सूत्र विविध स्तरों के मानव-मन के अनुसार रचे जाते हैं। शास्त्र में कई व्रत वैकल्य सामूहिक स्तर पर करने के लिए कहा जाता है। इसका कारण यह है कि समूह के बिना आपेक्षित परिणाम नहीं निकलता।

उदाहरणार्थ, सत्यनारायण की कथा-पूजा के समय कथा-श्रवण, आरती, मंत्रपुष्पांजलि, तीर्थ प्रसाद ग्रहण तथा भोजन आदि से एक विशिष्ट सुसंवादी वातावरण का निर्माण होता है जो वैयक्तिक पूजा के वक्त नहीं हो पाता। इसी कारण नैमित्तिक पूजा का फल जितना महत्व रखता है, उतना ही महत्व धर्म शास्त्र ने उस पूजा के समय परस्पर सुसंवाद से प्रेम, अपमान एवं एकात्मकता में वृद्धि का भी रखा है। कुछ पंथों में सामूहिक प्रार्थना पर इतना जोर दिया जाता है कि उस पंथ के लोग उसको अपना परम पवित्र सामाजिक ऋण समझते हैं। हर शुक्रवार को मुसलमानों द्वारा सामूहिक रूप से मस्जिद में मन:पूर्वक नमाज पढ़ना और हर इतवार के दिन ईसाइयों के द्वारा चर्च में जाकर प्रार्थना करके ‘संडेमास’ बोलना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। लेकिन हिन्दू लोग उतने प्रमाण में मंदिरों में इकट्ठा होकर प्रार्थना करते नजर नहीं आते। धर्माचरण के कारण मानव-मन को दृढ़ता एवं आत्मबल की प्राप्ति होती है। इसी कारण धर्मप्रवण मन संकट के समय साहस से काम लेता है। धर्म का उत्कृष्ठ आचरण करने वाले लोगों की प्रवृत्ति सदाचारी और कार्यप्रवण होती है। धर्म का कठोर पालन करने वाले व्यक्ति न तो विफलता के शिकार होते हैं और न ही यश के कारण उन्मत्त होते हैं। फलस्वरूप वे नित्य के तनाव, मानसिक विकृति, षड्ररिपुओं के प्राबल्य तथा पाप बुद्धि से दूर रहते हैं। अनन्य भाव से परमेश्वर की शरण में जाकर अपना कर्तव्य पालन करने वाला मनुष्य किसी दुर्घटना को तो नहीं टाल सकता लेकिन उस दुर्घटना का अपने मन पर होने वाला अनिष्ट प्रभाव निश्चित ही दूर कर सकता है।
   
धर्म शास्त्र का विचार करते समय मन को हमेशा खटकने वाली बात है-
मानव-मन की भयग्रंथि ! जब यह भयग्रंथि धर्माचरण में प्रवेश कर सकती है तब बड़े अनर्थ होते हैं। ऐसी स्थिति में देवी-देवताओं के भय के कारण भक्ति समाज, के लिए हानि कारक रूढ़ि, धर्माचरण के नाम पर रचे जाने वाले षड्यंत्र और भोंडापन आदि अनिष्ट बातें उत्पन्न होती हैं। यदि भक्त का उद्गम प्रीति के कारण होता है तो धर्माचरण पुरुषार्थ के लिए उपकारक होता है। देवी-देवता उस विराट परमात्मा के प्रतीक हैं- यह संकल्पना हृदय में रखकर किया हुआ धर्माचरण मन:शुद्धि, मन:शान्ति एवं मनोबल बढ़ाने वाला होता है। यदि भयग्रंथि के कारण धर्माचरण किया जाए तो वह न अपने लिए और न ही आने वाली पीढ़ियों के लिए हितकर होता है। इसके विपरीत भावी पीढ़ियों को ‘अज्ञ’ बनाने का पाप सिर पर चढ़ता है। यदि इस भयग्रंथि की मनोविकृति एक दफा मूल पकड़ ले तो अनेक पीढ़ियों तक धर्माचरण के विषय में मन भयग्रस्त रहता है। आज भयग्रंथि जनित कई अज्ञ प्रथाएं समाज में मुक्त संचार करती दिखाई दे रही हैं।

आजकल पूजा स्थान में देवताओं की बढ़ती संख्या के कारण उनके रखरखाव के प्रति अनिच्छा उत्पन्न हो जाती है। फिर भी शास्त्र संकेत के अनुसार उन्हें सीमित करने की हिम्मत सूज्ञ एवं विचारवान मनुष्य भी नहीं कर सकता। इसका कारण है- देवताओं के विसर्जन के संबंध में सही जानकारी न होना। एक आम व्यक्ति देव-विसर्जन करने से घबराता है। ऐसा करना वह देवताओं का अनादर समझता जिसका परिणाम होता है- जीवन में आपदा का आगमन। इस भयग्रंथि को खाद-पानी डालने का कार्य समाज के तथाकथित पुरोहित करते रहते हैं। वे अल्प ज्ञान के आधार पल गलत सलाह देते हैं जो आप्त वाक्य या धर्म निर्णय माना जाता है। इस सलाह के कारण कोई अनिष्ट घटना होने पर पुरोहित के पास कई तर्क मौजूद रहते हैं। यदि सौभाग्य से किसी भी प्रकार का अनिष्ट न हो तो पुरोहित की सलाह घराने की रूढ़ि बन जाती है।

शास्त्रोक्त धर्माचरण करते समय सबसे बड़ी बाधा है-समाज की अज्ञान मूलक विपरीत बुद्धि। किसी भी बात की सत्यता महसूस होने के बावजूद विपरीत को भी सत्य मानने की प्रवृत्ति सदैव अनिष्टकारी होती है। उदाहरणार्थ, श्राद्ध के दिन विशिष्ट खाद्य पदार्थों का समावेश श्राद्धीय भोजन में करने का शास्त्र निर्देश है। परंतु यदि ये विशिष्ट खाद्य पदार्थ अन्य दिन प्रयुक्त किए जाएं तो वह श्राद्ध का दिन नहीं माना जाता। अगर एक बार यह विपरीत बुद्धि मन में घर कर ले तो फिर सर्वत्र अज्ञान की हवा बहने लगती है। विपरीत बुद्धि के मनुष्य को मरण, अंत्येष्टि और श्राद्ध-इन तीन घटनाओं की विकृति सर्वत्र दिखने लगती है। यज्ञ कर्म के लिए हाथ में दर्भसमिधा लेकर जाने वाला ब्राह्मण दिखाई देने पर लोग भाग जाते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि वह ब्राह्मण श्राद्धकर्म के लिए जा रहा है। पानी हेतु मिट्टी का घड़ा खरीदने के लिए बाजार जाते समय लोग अपने सिर पर टोपी-पगड़ी आदि पहन लेते हैं, कुंकुम का तिलक लगाते हैं तथा हाथों में विविध चीजें ले लेते हैं। वे यह सब इसलिए करते है कि मिट्टी का घड़ा अंत्येष्टि के लिए नहीं है।

इसके अलावा रोज की भोजन-थाली में पहले याद करके नमक परोसा जाता है। वड़ा, आलू, कोकम की चटनी न करना, दर्भ को स्पर्श न करना आदि सैकड़ों कृत्य में इस विपरीत बुद्धि के दर्शन होते हैं। ऐसे कृत्यों का रूढ़ि में कब परिवर्तन होता है- यह भी समझ में नहीं आता। यदि इनके विषय में किसी विद्वान से पूछें तो वे टाल जाते हैं। परंतु वे ‘गीता’ के इस वचन तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते (इसलिए शास्त्र ही प्रमाण है) को भूल जाते हैं। ऐसे शास्त्र के खिलाफ जब बेबुनियाद, अज्ञानमूलक एवं घातक रूढ़ि समाज का अविभाज्य अंग बनना चाहती है तब उसकी संस्कृति एवं गरिमा अपने आप कम हो जाती है।
शास्त्राचरण में अज्ञान मूलक रूढ़ियों के समाविष्ट होने का एक महत्वपूर्ण कारण है- शास्त्र के नियमों का पालन करते समय उसकी विगत में होने वाले परिवर्तन। उदाहरणार्थ, माता-पिता की मृत्यु के बाद उन्हें एक वर्ष तक प्रेतत्व होने और परिवार के लोगों की मानसिक स्थिति ठीक न रहने से उस घर में विवाहादि शुभ कार्य सम्पन्न न करने का शास्त्र संकेत है।

 किंतु इसमें परिवर्तन करके माता-पिता की मृत्यु के बाद एक वर्ष के भीतर विवाह योग्य लड़के-लड़कियों के विवाह सम्पन्न करने की गलत प्रथा समाज में रूढ़ है। उसको अधिक दृढ़ मूल बनाने के लिए कुछ ज्येष्ठ लोग अपनी तरफ से यह बात जोड़ देते हैं कि यदि एक वर्ष के भीतर विवाह नहीं हुआ तो फिर तीन सालों तक विवाह नहीं किया जा सकता। ऐसी शास्त्र विरुद्ध अनिष्ट रूढ़ि के कारण विवाहोत्सुक युवक-युवतियों को विवाह कार्य से वंचित रहना पड़ता है।

शास्त्रोक्त धर्माचरण को लेकर आज सामाजिक स्तर पर जितनी अड़चनें हैं, उतनी या उससे अधिक वैयक्तिक एवं पारिवारिक स्तर पर हैं। इनका प्रमुख कारण पूर्व में घटी घटनाओं का योगायोग है। यदि कोई समारोह हो और उसी समय घर या रिश्तेदारी में किसी की मृत्यु हो जाए तो तुरंत इस समारोह को उस विशेष घटना से जोड़ दिया जाता है।
उदाहरणार्थ, यदि चैत्र प्रतिपदा (गुढी पाडवा) के दिन घर के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाए तो उस परिवार में गुढी पाडवा की प्रथा ही लुप्त होने के मार्ग पर होती है। इसी तरह गणेश चतुर्थी, ज्येष्ठा गौरी अथवा सत्यनारायण आदि धार्मिक अवसरों पर एक या दो बार लगातार मृत्यु की घटना होने से ‘हमारे यहां यह व्रत नहीं रखा जाता’ की मुहर लगा दी जाती है। यह अज्ञानमूलक परंपरा केवल धार्मिक तीज-त्योहारों तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि तीर्थ यात्री एवं यज्ञयाग पर भी आक्रमण करती है।

कभी-कभी उसके भी आगे जाकर विशिष्ट वस्तु या पदार्थ के बारे में भी ऐसी परंपरा हाय-तौबा मचाती है। यदि ‘हमारे यहां गर्भवती का गौना भरने की पद्धित नहीं है’, ‘हम अनारसा नहीं बनाते’, ‘हमारे यहां तिरुपति या काशी जाने का रिवाज नहीं है’ या ‘हमारे यहां नगारा-शहनाई नहीं बजाते’ आदि बातें सुनने में आने लगें तो समझ लें कि भूतकाल में इन प्रसंगों में कोई अप्रिय घटना घटी है। ऐसे अवसरों पर विद्वानों की बुद्धि में भी भ्रंश उत्पन्न हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति विद्रोह करके ऐसे रीति –रिवाजों की रूढ़ि मिटाना चाहे तो घर की महिलाएं उसका डटकर विरोध करती हैं। परिणाम स्वरूप वह विद्रोह वहीं पर शांत हो जाता है। इन सब अनर्थों के कारण होने वाली रूढ़ियों को नष्ट करने का एकमात्र उपाय है- शास्त्रीय नियमों का पालन करना।

आज शास्त्रोक्त धर्माचरण करना समय की पुकार है। धर्म के नाम पर जब अंधानुकरण होने लगता है तो उसमें आडम्बर तथा दांभिकता आने लगती है। ऐसे समय अपने आपको सुधारक कहलाने वाले लोग उसको सनातनपन कहते हैं। ‘सनातन’ का मूलार्थ देखने पर स्पष्ट होता है कि यह शब्द गौरवार्थी है। अनादि काल से चलते आए और शाश्वत दिखने वाले ही सनातन हैं। आडंबर तथा दांभिकता आदि चीजें पल भर टिकने वाली होती हैं अतएव उनको सनातन कैसे कह सकते हैं ? वस्तुत: आज सनातन वैचारिक प्रणाली की ही जरूरत है। यदि सनातन भारतीय जीवन पद्धति एवं संस्कृति को स्वीकार किया जाए तो मानव-जीवन का सर्वांगीण विकास हो सकता है।

इस तरह शास्त्र में निश्चित क्या है, यह देखना समय की आवश्यकता है। शास्त्र का यथार्थ अभिप्राय समझने के उद्देश्य से अनेक शास्त्रकारों ने यथासमय ग्रंथों का निर्माण किया है। इनमें से श्री कमलाकर भट्ट का ‘निर्णय सिंधु’ एवं काशीनाथ शास्त्री उपाध्याय (बाबा पाध्ये) का ‘धर्म सिंधु’ ग्रंथ विशेष उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा स्वामी विवेकानंद, ब्राह्मोसमाज, आर्यसमाज तथा थिओसॉफी आंदोलन ने भी काफी महत्वपूर्ण साहित्य का निर्माण किया है।
स्वतंत्रता के बाद वैज्ञानिक संशोधन के साथ मानस शास्त्र एवं समाज शास्त्र आदि का विकास हो रहा है। इन महत्वपूर्ण घटनाओं की संकलित पार्श्वभूमि पर धर्म शास्त्र की पुनर्रचना करना अत्यंत कठिन कार्य है। आज अनेक विद्धान इस दिशा में कार्य कर रहे हैं। ऐसे समय सामान्यजन भी अपनी बुद्धि के अनुसार शास्त्राचरण का अध्ययन कर रहे हैं।
-पं. किसनलाल शर्मा

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