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टूटती जंजीरें

मधुप शर्मा

प्रकाशक : सुयोग्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4004
आईएसबीएन :81-7901-048-1

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यह उपन्यास एक जीवन्त दस्तावेज़ है

Tootti Janjerain Ek Nai Subah

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

...पर अपने देश की परिस्थितियाँ, परिवेश, विचारधाराएँ, सभी बहुत अलग हैं, दूसरे देशों से। लेकिन एक बात सब जगह एक समान है, और वो यह है कि नारी को दोयम दर्जे का नागरिक माना जा रहा है, और वो अपना समानता का दर्जा चाहती है। इस तरह के आंदोलन और विचारधाराओं का जन्म भी बहुत ही स्वाभाविक है। क्रिया ही प्रतिक्रिया को जन्म देती है। पुरुष का शिंकजा जब नारी को कसता गया तो उसकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही थी वो उस शिकंजे को ढीला करके अपनी स्वतंत्रता की कोशिश करती। लेकिन इस तरह के जितने भी प्रतिक्रियात्मक आन्दोलन होते हैं उनकी शुरुआत मौसम की पहली बरसात की तरह, या कभी-कभी बाढ़ की तरह होती है। पहली बरसात कई महीनों के जमा कचरे को बहा ले जाती है, लेकिन बाढ़ नदी के दोनों कूल किनारों को तोड़ के भारी विनाश भी करती है। बहुत कुछ ऐसा बह जाता है जो नहीं बहना चाहिए, जो हमारे जीवन के लिए उपयोगी और जरूरी होता है। लेकिन मैंने कहा न, कि क्रिया के अनुरूप ही प्रतिक्रिया होती है। बंधन या बंदिशें जितनी कड़ी होंगी, उतनी ही तीव्र उनको तोड़ने की प्रतिक्रिया होगी। यह बहुत ही स्वाभाविक है।...

यह उपन्यास एक जीवन्त दस्तावेज़ है

भाई श्री मधुप शर्मा अनायास मेरे मन को ऐसे छू गए कि एक पाक रिश्ता कम जान-पहचान के बाद भी उनसे क़ायम हो गया। वे एक ओर जहाँ दिलीप कुमार, राज कपूर, गोल्डी, देवानन्द, मीना कुमारी, मधुबाला, गुलज़ार आदि से जुड़े रहे हैं, वहाँ उनका, उनकी फ़िल्मों में दख़ल का भी एक अर्थ है। ‘हवा महल’ उनका ही अद्भुत् सृजन था।

मीना कुमारी अच्छी शायरा थीं। गुलज़ार भी अपनी कलम के धनी रहे। तभी तो उन्हें बहुत बाद में, अब जाकर अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। लेकिन भाई मधुपजी एक लगनशील, जीवट, परिश्रमी और चरित्र के तजरुबेकार कथाकार हैं। उन्होंने चरित्रों की गहराई में जाकर जाँच-पड़ताल की है। तभी उनका कथ्य और चरित्र सुदर्शन, प्रेमचन्द और मंटो की जहाँ-तहाँ याद दिला जाता है।
वे कथा-आन्दोलनों से दूर रहे हैं। उन्होंने कथा के बदलाव को लगभग अनदेखा ही किया है और ज़िन्दगी को करवट बदलते हुए कहीं गहरे में अनुभव किया है। ज़िन्दगी उनके काम की चीज़ है और उनका लेखन सीधे ज़िन्दगी की किताब बाँचने लगता है। यों गूँगी ज़िन्दगी बुलवाना वे बख़ूबी जानते हैं।

अभी दिसम्बर, 2003 में मैं मुम्बई था। उनके पास भी तीनेक दिन रहा। पत्नी भी साथ ही थीं। बात में से बात खुलती गई और यादों की आर्द्रता का एक सिलसिला शुरू हो गया। तभी उन्होंने एक प्रस्ताव मेरे सामने रख दिया कि ‘‘एक नई सुबह (उपन्यास) की भूमिका आप लिखेंगे।’’ मना करने का प्रश्न ही नहीं था। उलटे प्रसन्नता ही थी कि इस बहाने उनके सृजन कर्म से जुड़ने का अवसर मिल रहा है।

‘एक नई सुबह’ उनके पूर्व प्रकाशित उपन्यासों की लीक से हटकर उनके अँधेरे-उजाले’ उपन्यास की परम्परा को ही आगे बढ़ाता है, जिसके लिए उसकी भूमिका में भीष्म साहनी ने लिखा है कि वह उन्हें ‘‘न केवल गहरे में उद्वेलित करता है, बल्कि बार-बार सोचने पर भी बाध्य करता है।’’ मुझे लगा ‘एक नई सुबह’ चारित्रिक आलोड़न-विलोड़न, मध्यम वित्त परिवार से थोड़ा ऊपर उठकर संस्थापित व आरोपी मूल्यों का अन्तः-विश्लेषण करता है और तात्कालिक समाज के टूटते रिश्तों तथा सरोकारों की मलिन होती चेतना पर दस्तक देता है, प्रहार भी करता है और जीवन सत्य को उजागर करता है।

घर का स्वप्न तेज़ी से खण्डित हो रहा है और विवाह संस्था बुढ़ापा झेल रही है। होटल सभ्यता ने घर में पाँव जमाने के प्रयत्न शुरू कर दिए हैं। उपपत्नियों की परम्परा पुरानी है। परन्तु आज की लोकतान्त्रित अवस्था में उस रूढ़ परम्परा ने जिस अधिकार से प्रवेश किया है, वह इस अर्थ में आधुनिक है कि तब संयुक्त परिवार का बोलबाला था और आज पति-पत्नी और एक-दो बच्चों का परिवार अपनी स्वतन्त्रता का अधिक से अधिक उपयोग करने की दिशा में व्यक्तिगत स्वर को पुरज़ोर समर्थन दे रहा है। सुजान, चम्पा, नीता, सुनन्दा, प्रिया, गौरव, सलिल, कुंजु, अंकल, श्वेता, वन्दना, जॉन, प्रमोद सक्सेना आदि चरित्र हमारे इर्द-गिर्द मिल जाएँगे। उन्हीं से नए समाज की निर्मिति का आभास हो रहा है। उसी पीड़ा का अनुसंधान स्वामी अपने प्रवचन में करते नज़र आते हैं।
स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों पर इस उपन्यास में डूबकर चर्चा की गई है और निष्कर्ष के रूप में स्त्री को कोमल, सुन्दर और भोग्या के अलावा और कुछ नहीं माना है। पुरुष अहम् आज भी यह स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है कि ‘‘स्त्री एक अलग स्वाधीन अस्तित्व की धनी है, उसकी ग़ुलाम नहीं।’’ सम्पूर्ण उपन्यास स्त्री के स्वतन्त्र अस्तित्व के संघर्ष की ऐसी गाथा है, जिसका एक सिरा तात्कालिक यथार्थ से जुड़ा है, दूसरा अतीत के आदर्श से, स्वप्न से और कल्पना से। चरित्र के अन्तर्द्वन्द्व को अँधेरी गुफ़ाओं से बाहर लाने की एक ऐसी ईमानदार कोशिश है, जो यह सोचने के लिए मजबूर करती है कि हमारी बुलन्दियाँ कितनी खोखली हैं और बुनियाद कितनी कमज़ोर है।

इस उपन्यास में उपभोक्तावाद, देहवाद, पलायनवाद, वस्तुवाद, द्वन्द्ववाद और नव समाजवाद का समाज, अर्थ और सम्बन्धों को लेकर जो मन्थन चला है, वह हमारी वर्तमान त्रासदी, कुण्ठा, नकार, सम्वेदनशून्यता, निराशा, अवसाद और सन्त्रास को जीवन्त करता है।

इस उपन्यास की एक और यह विशेषता है कि कथनोपकथन, भाषा और व्यंजना से अपने समय को सजीव किया गया है। ठेठ ब्रज भाषा के संकेतों से लेकर आधुनिक सम्बोधनों और शब्दावली का पूरा-पूरा उपयोग यथास्थान किया गया है। परिणामतः वातावरण और चरित्र की निर्मिति विश्वसनीय बन सकी है।
मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि मधुपजी का यह उपन्यास अपने आज के समाज का जीवन्त दस्तावेज़ है, जो अपने समय का विश्लेषणात्मक अध्ययन तटस्थता से प्रस्तुत करता है और सोच की पुनर्सृजना के लिए सबको आमन्त्रित करता है। अस्तु

दिनांक : 7 मार्च, 2004
                          
 -राजेन्द्र मोहन भटनागर
                        105, सेक्टर-9-ए, हिरण मगरी,
                                    उदयपुर-313002

                    

आभार


मुझे अपने इस उपन्यास के बारे में कुछ नहीं कहना है। विशेषकर भाई राजेन्द्रमोहन जी की भूमिका के बाद कहने को कुछ रह भी नहीं जाता है। दो पृष्ठों में उन्होंने इतना कुछ कह दिया है कि मैं तो कोशिश करने पर भी नहीं कह पाता।
दरअसल कोई व्यक्ति हो, या किसी व्यक्ति की कोई रचना, उसके भीतर तक पहुँचकर, उसकी आत्मा के दर्शन कर लेना और औरों को भी करवा देना, राजेन्द्र मोहनजी जैसे गहरे चिन्तक, विचारक और सक्षम समीक्षक का ही काम है।
मैं तो इतना ही कहना चाहूँगा कि डॉ. राजेन्द्र मोहन भटनागर जैसे अनेक विधाओं के प्रकाण्ड विद्वान और प्रतिष्ठित साहित्यकार को अपने मित्र और हितैषी के रूप में पाकर, मैं बहुत ही गौरान्वित महसूस कर रहा हूँ। और मेरी रचना के साथ उनके नाम का जुड़ना, मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है।
अपनी अनेक व्यस्तताओं में से समय निकाल कर उन्होंने मेरे उपन्यास को पढ़ा और अपने अमूल्य विचार प्रकट किए, इसके लिए मैं हृदय से उनका आभारी हूँ।
मुझे विश्वास है कि पाठकगण भी निस्संकोच अपने विचारों से अवगत कराके, मेरा मार्गदर्शन करेंगे।
धन्यवाद।
पुष्पा कॉलोनी
मालाड़ पूर्व
मुम्बई-400097
दूरभाष : 28891609


 -मधुप शर्मा

टूटती जंजीरें.... एक नई सुबह


आज सवेरे अपनी सोलह साला बेटी की छोटी-सी बात को पहले तो मैं मज़ाक़ समझ कर मुस्करा दी थी, पर कुछ ही देर में उस बात ने ऐसा रूप ले लिया कि मैं स्तब्ध-सी रह गई। लगा कानों के बिल्कुल ही पास कोई बम-विस्फोट हुआ है। दिल तेज़ी से धड़क रहा था। विस्फारित-से नेत्रों से, उसे कॉलेज के लिए निकलते हुए देखती रह गई थी। हलक़ इस तरह सूखा जा रहा था कि उसके रोज़ के ‘बाय बाय मौम’ का जवाब भी मेरे कण्ठ में फँसा-सा रह गया।
बात बड़ी सामान्य-सी थी।
प्रिया ग़ुसलख़ाने से निकल, सिंगार मेज़ के सामने खड़ी होकर बाल बनाने लगी थी। मैंने देखा तो उसके निखरे-निखरे रंग-रूप और दिन-ब-दिन खिलती, विकसित होती उसकी देह को देखकर मुग्धा-सी देखती रही कुछ देर, जैसे बहुत दिनों के बाद देखा हो। मन में बड़ा प्यार-सा उमड़ा। जी चाहा उसे अंक में समेटकर चुम्बनों की बौछार कर दूँ उस पर, जैसे कि उसके बचपन में किया करती थी, कभी-कभी।

मैंने उसके पास जाकर उसके दाएँ कन्धे अपनी चिबुक धर दी, और उसी तरह विमोहित-सी देखती रही, आईने में उसके प्रतिबिम्ब को।
मुस्कराते हुए उसने कहा, ‘‘ऐसे क्या देख रही हो माँ ? रोज़ ही तो देखती हो।’’
‘‘रोज़ देखते रहने से भी बहुत कुछ छूट जाता है।’’
‘‘आज दिखाई दे गया ?’’
‘‘हाँ, कुछ-कुछ।’’
प्रिया खिलखिला के हँसी, ‘‘इतनी देर से देखे जा रही हो, फिर भी कुछ-कुछ ? लो, जी भर के देखती रहो, जब तक यह कुछ-कुछ सब कुछ में न बदल जाए।’’

प्रिया मुड़ के मेरे सामने खड़ी हो गई। अपने दोनों हाथ मेरे कन्धों पर टिका दिए, और नज़रें मेरे चेहरे पर गड़ा दीं। कुछ देर देखते रहे थे हम दोनों एक-दूसरे को। फिर अकस्मात् मेरी आँखों में उदासी की छाया-सी तिर गई। उसके चेहरे से निगाहें हट गईं। वो बोल पड़ी, ‘‘अब क्या हुआ ?’’
‘‘कुछ नहीं।’’
‘‘छिपा रही हो कुछ !’’
‘‘तेरे से क्या छिपाऊँगी ?’’
‘‘तो बताओ न क्या हुआ ? थोड़ी ही देर पहले तो तुम बड़े ही प्यार से देख रही थीं, बिलकुल विमुग्धा-सी और अब यह उदासी ?’’
‘‘चेहरा तो मन की तस्वीर हुआ करता है बावरी। जैसा भाव, वैसी ही उसकी झलक। तब कुछ और सोच रही थी, और अब कुछ और।’’
‘‘इतना तो मैं भी जानती हूँ माँ। तुम तो यह बताओ कि दो पलों के अन्तराल से तब और अब में इतना फ़र्क़ क्यों ? तब क्या सोच रही थीं ? और अब ऐसी कौन-सी सोच है, जिसने इतना उदास कर दिया है तुम्हें ?’’
‘‘तब जो अहसास था उसे बताना या समझाना मुश्किल है बेटा। उसे तो तुम तभी समझ पाओगी जब खुद माँ बन जाओगी, और तुम्हारे सामने होगी तुम्हारी बेटी, तुम्हारी ही तरह सुन्दर, जवान, आँखों में खिलाते सौ-सौ सपने और मन में लिए सौ-सौ अरमान।’’
प्रिया की खिली-खिली मुस्कान में घुल गई थी थोड़ी-सी लाज। मेरे कन्धे पर सिर टिकाते हुए बोली, ‘‘तू भी माँ....’’
फिर तुरन्त ही अपनी नटखट निगाहें मेरे चेहरे पर टिका दीं और कहा, ‘अच्छा, और वो दूसरा भाव ?’’

चाहते हुए भी उदासी की परत को अपने चेहरे पर से मैं झटक नहीं पाई थी। तुरन्त ही कुछ कहते भी नहीं बना। पर प्रिया का बेसब्रा स्वभाव। मेरे कन्धों को झकझोरते हुए बोली—
‘‘जल्दी बोलो न माँ !’’
मुझे कहना ही पड़ा, ‘‘दो-चार साल बाद जब तू अपने घर चली जाएगी....’’
उसने मेरा वाक्य पूरा न होने दिया-
‘‘क्यों, यह घर मेरा नहीं है क्या ?’’
‘‘है क्यों नहीं। पर बेटियों का असली घर तो उनका ससुराल ही हुआ करता है।’’
प्रिया के तेवर एकदम बदल गए, ‘‘बहुत ग़ुस्सा दिलाती हो तुम माँ ! सारा मूड चौपट कर दिया।’’

‘‘मूड चौपट होने की क्या बात है बेटा ? हर माँ का सपना होता है कि वो अपनी बेटी को दुल्हन के रूप में देखे और...’’
‘‘तुम सपने देखने बन्द कर दो। तुम्हारा यह अरमान कभी पूरा नहीं होगा। आई हेट मेन। पुरुष ज़ात से मुझे नफ़रत है। अच्छा बाय। जा रही हूँ। कॉलेज के लिए पहले ही देर हो गई।’’
क्षण-भर के लिए मैं भौंचक्की-सी रह गई। फिर मेरे मुँह से निकला, ‘‘अरे इतनी नाराज़ हो गई अपनी माँ से कि आज जाते-जाते प्यार भी नहीं किया !’’

वो मुड़ी...। कुछ बेदिली से ही उसने मुझे गले से लगाया। बोली, ‘‘तुम जानती तो हो, फिर क्यों छेड़ देती हो ऐसी बातें ? तुम क्या समझती हो कि मैं ज़िन्दगी-भर के लिए यह ग़ुलामी का फन्दा अपने गले में डाल लूँगी ? इम्पौसिबल। तुम भी यह सब सोचना छोड़ दो। ओ. के., बाय-बाय। नाश्ता कर लेना।’’
पल-भर में वो ओझल हो गई, पर उसकी आवाज़ बड़ी देर तक गूँजती रही थी मेरे कानों में, और हथौड़े से बरसते रहे थे मेरे दिलोदिमाग़ पर।
अतीत के टुकड़े-टुकड़े चित्र मेरी आँखों के सामने आने लगे थे। फिर वही दुखदाई अनुभव। बीते हुए पलों में से फिर गुज़रना। रोम-रोम में फिर उनका वही तीखा दंश।
ब्याह को तीन साल हुए थे। प्रिया रही होगी कोई डेढ़ साल की।....बापू का खत आया था, तुम्हारी माँ सख़्त बीमार है, तुम्हें याद करती है। आके एक बार मिल जाओ। दामाद साहब भी कुछ दिनों के लिए आ सकें तो बहुत अच्छा रहेगा। उन्हें भी बहुत याद करती हैं तुम्हारी माँ।
चिट्ठी मैंने सुजान को दिखाई तो पढ़ने के बाद उन्होंने एक तरफ़ रख दी चुपचाप।
मुझे ही पूछना पड़ा था, ‘‘आपने कुछ कहा नहीं, कब चलें ?’’
सुजान ज़रा तुनक कर बोले, ‘‘चलें ? क्या मतलब ?’’
‘‘आपको भी तो बुलाया है, इतने प्यार से।’’
‘‘तुम्हें जाना हो तो चली जाना। मेरे पास समय नहीं है, फ़ालतू कामों के लिए।’’
‘‘फ़ालतू ?’’
‘‘और नहीं तो क्या ?...बीमारी आती ही रहती है। और छः दिन पहले की चिट्ठी है यह। हो सकता है अभी तक तो वे ठीक हो भी गई हों।’’
मेरे पीहर वालों से नाराज़गी तो सुजान सिंह को पहले दिन से ही थी, क्योंकि मुँहमाँगा दहेज उन्हें मिल नहीं पाया था, लेकिन फिर भी मुझे आशा थी कि शायद माँ की बीमारी की बात सुनकर इनकार नहीं करेंगे।

अगले दिन मुझे ही जाना पड़ा था, एक नौकर को साथ लेकर। माँ की हालत सचमुच ख़राब थी। मेरी आवाज़ सुनकर धीरे-धीरे उसने आँखें खोलीं। मुस्कुराने की कोशिश की। दो दिन बाद डॉक्टर ने भी कहा था, तबीयत सुधार पर है। पर चार दिन बाद वो अचानक कोमा में चली गई। आज नहीं तो कल, आज नहीं तो कल की आशा में छः सप्ताह बीत गए। वही तन्द्रिल-सी स्थिति जारी रही। उस हालत में माँ को छोड़ कर जाने का तो सवाल ही नहीं था। मैंने दो-तीन बार सुजान सिंह को ख़त लिखे, एक बार तार भी भेजा, पर कोई जवाब नहीं आया। मैं दो टुकड़ों में बँटी-बँटी-सी जी रही थी। एक सप्ताह और गुज़रा तो माँ की छटपटाती हुई आत्मा ने हड्डियों के पिंजरे से छुटकारा पा लिया। भारी दुःख के बावजूद बापू और मैंने भी राहत की साँस ली थी, यही सोचकर कि माँ को पीड़ा से मुक्ति मिली।
सुजान सिंह माँ के तेरहवें पर भी नहीं आए, तो मेरे भविष्य के प्रति बापू की चिन्ता और बढ़ गई। मैं नहीं चाहती थी कि इतनी जल्दी बापू को अकेला छोड़ कर चली जाऊँ पर बापू नहीं माने। उन्होंने कहा था, ‘‘हमने तो जी लिया अपना जीवन, तुम्हारी सारी ज़िन्दगी अभी पड़ी है।’’
अढ़ाई महीने के बाद मैं लौटी तो सुजान सिंह के रंग-ढंग कुछ ज़्यादा ही बदले हुए पाए। सबसे पहला सदमा तो मुझे तब लगा जब घर पहुँचने के कुछ ही समय बाद मैं ग़ुसलखाने में गई। पेटीकोट, ब्रा और पेंटी टँगी देखकर मैं हैरान। सबसे पहला ख़्याल तो यही आया कि शायद मैं ही टँगे छोड़ गई होऊँगी। छोड़ भी गई थी तो अढ़ाई महीने तक यहीं। पहचानते देर नहीं लगी। वो कपड़े मेरे थे ही नहीं। सुजान सिंह तो उस समय घर में थे नहीं। कमरे में लौटकर मैंने नौकरानी को पुकारा, ‘‘चम्पा, ओ चम्पा !’’ चम्पा बरामदे में ही थी। झट जवाब आया, ‘‘आई बड़ी मालकिन !’’ ‘बड़ी’ शब्द कुछ ख़टका ज़रूर पर मैंने ध्यान नहीं दिया। सामने आई तो मैंने पूछा, ‘‘अरी वो.... ग़ुसलख़ाने में कपड़े किसके टँगे हैं ?’’ बिना कुछ कहे ही वो ग़ुसलख़ाने की तरफ़ बढ़ी। लौट के आई तो कपड़े उसके हाथ में थे और मुँह लटका हुआ।
मैंने कहा, ‘‘किसके हैं ?’’
‘‘अब हम का बताई बड़ी मालकिन !’’
‘‘कोई मेहमान आया था ?’’
‘‘मेहमान...ऊ छोटी...’’
‘‘छोटी कौन ? साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहती ? इनकी छोटी बहन आई थी क्या ?’’
‘‘आप भी मालकिन कैसी बात करती हो ! छोटी बहनिया कू का हम जानत नाहीं ? ऊ तो मालिक एक दिन खुद बोले, ‘चम्पा, ई तेरी छोटी...’’
बार-बार ‘छोटी’ शब्द पर आकर उसका इस तरह रुकना मुझे अजीब उलझन में डाल रहा था। उलझन, जिसके साथ घबराहट भी घुलती जा रही थी। और ‘छोटी’ ‘बड़ी’ दोनों शब्द जब साथ-साथ मेरे दिमाग़ में आए तो मेरा दिल धक्क-से रह गया।...और सजीव होकर सामने आ गई वो घड़ी, जब एक दिन सुजान ने अपनी पारिवारिक परम्पराओं की डींग हाँकते हुए बताया था कि उनके दादा-पड़दादाओं की दो-दो, तीन-तीन पत्नियाँ हुआ ही करती थीं। उनके अलावा हर पत्नी के साथ एक-दो सेविकाएँ दहेज में आया करती थीं जो दुल्हन की सेवा के अलावा, उप-पत्नियों के बतौर दूल्हे की भी सेवा करती थीं। फिर सुजान ने अफ़सोस के से स्वर में कहा था कि वो रिवाज उनके पिता ने ही तोड़ा है।
मेरे मुँह से निकला था, शुक्र है, उन्होंने बहुत ही समझदारी का काम किया।
सुजान कुछ खिसियाने-से होकर बड़े ज़ोर से हँसे थे, जैसे उघड़ता-उघड़ता कोई रहस्य छिपाना चाहा हो।

उसके बाद दो-एक बार उनके दोस्तों की बातचीत से कुछ ऐसा आभास हुआ कि उन्हें इधर-उधर मुँह मारने की आदत है, लेकिन उस आभास की बीती बातें और हँसी-मज़ाक समझकर मैंने कभी सोच या चिन्ता की सीमा में नहीं आने दिया था। पर वो हँसी-मज़ाक की बात ठोस सत्य के रूप में साकार होकर कभी घर के अन्दर तक आ जाएगी, यह कभी सोचा भी नहीं था।

मैं सुन्न-सी हुई पलँग की पाटी पर बैठी रह गई थी। पता नहीं कितनी देर तक। चम्पा मेरा हाथ थामे बैठी थी। मेरे सामने फ़र्श पर। उसी की आवाज ने मुझे चौंकाया, ‘‘सफ़र पे ते आई हो मालकिन, न्हाय, धोय के थोड़ो-भौत कछु खाय ल्यौ।’’

मैंने इधर-उधर देखा। प्रिया कमरे में नहीं थी। मुझे संतोष-सा हुआ। होती तो पता नहीं कितने तो सवाल कर चुकी होती, मुझे उदास देखकर। मैंने पूछा, ‘‘प्रिया ?...’’
‘‘ऊ तो साबितरी के छोरा संग खेल रई है, तबई ते। वा की चिन्ता तम मत करो।’’
वे कपड़े चम्पा के पास ही पड़े थे। मैंने कहा, ‘‘इन्हें प्लास्टिक की थैली में डालकर उस कोने में रख दे।...उसका नाम क्या था कुछ पता है ?’’
‘‘कौन कौ नाम मालकिन ? ऊ छोटी....? मालिक तो नीता डालिंग, नीता डालिंग कहके बुलाते रहे।’’
‘छोटी’ शब्द फिर मेरे कलेजे में किरच की तरह चुभा था और गुस्से के मारे मन हुआ कि चम्पा के मुँह पर ज़ोर से एक चपत लगा दूँ। जानबूझ कर चिढ़ा रही है मुझे कम्बख्त। पर अगले ही पल उसके भोलेपन और सादा स्वभाव को जानते हुए मुझे अपनी ही सोच पर शर्म-सी आई थी। यह ग़रीब काहे को चिढ़ाएगी मुझे ? यह तो....
मैंने सूटकेस में से अपने कुछ कपड़े निकाले और ग़ुसलख़ाने की तरफ़ बढ़ी, पर दहलीज पर पाँव धरते ही मैं ठिठक के रह गई।’’
मैंने चम्पा से कहा, ‘‘ग़ुसलख़ाना पहले साफ़ करो। सर्फ़ पाउडर डालकर अच्छी तरह धो डालो...सारे को। दीवारें भी।’’
चम्पा सफ़ाई में लग गई। मैं जाकर खिड़की में खड़ी हो गई थी। प्रिया को अन्य बच्चों के साथ खेलते हुए देखती रही थी बड़ी देर तक।
ग़ुसलख़ाने में जाने से पहले मेरी नज़र पलँग की तरफ़ गई तो घिन और दुर्गन्ध का जैसे भभका-सा आया हो मेरी तरफ़। मैंने बिस्तर की चादरें, तकियों के गिलाफ़ और सोफ़ों के कवर, सब कुछ बदल देने को कहा था।
 

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