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खुदा गवाह है

राजेन्द्र मोहन भटनागर

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :271
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4015
आईएसबीएन :81-7043-472-6

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हिन्दू-मुस्लिम के धर्मों पर आधारित उपन्यास...

Khuda Gvah Hai

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश


दस्तक किस दरवाजे़ पर दूँ
मैं जैसलमेर गया। वहाँ घूमा। घूमता रहा। वहाँ के जनजीववन में उतरता रहा और उनके हैरतअंगेज़ क़िस्सों को बटोरता गया। रेत के टीलों पर उकेरी गई दहशत पैदा करने वाली अदृश्य आकृतियों ने मेरे ज़ेहन में डेरा डालना शुरू कर दिया।
वहाँ के मेले देखे। वहाँ के तीज-त्यौहार मनाए। वहाँ की फाकामस्ती देखी और रिश्तों के गहरे को जाना जो हिन्दुस्तान और  पाकिस्तान के बँटवारे से जन्मा था।

मज़हब अपने पर उतर आए तो जन्नत को कैसे दोजख बना डालता है ? वह ऐसा करता हुआ यह भूल जाता है कि वह भी उसी जमात का एक मामूली हिस्सा है, जिस  पर वह कहर ढा रहा है। फिर कोई मज़हब इंसान से बड़ा नहीं है और न उसकी ख़ुदाई ताक़त से। किसी मज़हब का काम इंसान को बाँटता नहीं है।
शैतान इंसान को ख़ुद को भुला डालने का भ्रम है। नहीं तो हर शैतान में प्यार का खु़दा है। जरा उसे इसका अहसास तो हो जाने दो कि फिर शैतानी नशा गायब।

रेगिस्तानी ज़िन्दगी की अजीबोगरीब और हैरतअंगेज़ दास्तान को लेकर मैं नज़ाकत के शहर लखनऊ जा पहुँचा। अपनी सुर्ख शामों के लिए दुनिया में मशहूर लखनवी अदाओं ने चिलमन में से झाँककर देखा तो फ़कीरों के क़दमों में जा पहुँचा और उनसे पूछा कि फरिश्ते, यह मामला क्या है ?

फरिश्ता आसमान फाड़कर हँस पड़ा और कुछ देर बाद अपनी बड़ी-बड़ी सुरमेदार आँखों को नचाकर कहने लगा- मुझसे मत पूछ, मेरे यार। मैंने आसमान को लुटते देखा है। इबादत की दुहाई देने वाले कद्रदानों के हाथों नरगिस को तड़पते देखा है। यह ज़मीं जिसकी है उस मालिक की आँखों में नज़्म को पिघलते देखा है।

वह कहकर चला गया, तनिक रूका नहीं। जानता था कि यार के ज़ेहन में सवालात की छावनी बसी हुई है। एक दिन अजान के बाद उससे मुलाकात हो गई। उसके साथ नाज़नीन थी-ख्वाबों की मलिका और खूबसूरती बेमिसाल नज़ीर। दोनों सूफियाना लिबास में थे। मैं आँखें नीचे किए चुपचाप उसके पास से ऐसे गुजर जाना चाहता था जैसे मैंने उसे देखा ही नहीं। लेकिन उसने टोक दिया- मियाँ दीदार नहीं करोगे अपने खु़दा का। जुम्मा-जुम्मा अभी मुसलमान हुए हो कि...। मैं मुसलमान नहीं हूँ, फरिश्ते।

जानता हूँ मेरे दोस्त। लेकिन तुझे यह बतलाना चाहता हूँ कि हर वह इंसान मुसलमान है जो ईमान की नेक पाक राह पर चलता है, गिरतों को उठाने का हौसला रखता है और सीने से लगाता है। वह किसी कौम का नहीं है और न किसी मज़हब का गुलाम है। वह मन्दिर, मस्ज़िद से बहुत ऊपर है और वह प्यार के आबेहयाती दरिए में हरदम बतख की तरह तैरता हुआ अपने ख्यालों के अल्लाह को हाज़िर नाज़िर मानकर खुद को ख़ुदा होने की गवाही देता है। ये नाज़नीन उनमें से एक है। तू जी भरकर इसका दीदार कर ले। यही ख़ुदा है।

वह फिर चला गया। मैं फिर सवालात को दिल थामे उन दोनों को देखता रह गया।
मैंने उस फ़की़र के बारे में जाना। उस हसीन मलिका की दास्तान को जानने की कोशिश की।
धीरे-धीरे गुनाहों की सलवटों में हरकत होनी शुरू हुई और उसके तार जैसलमेर से जा जुड़े।

मैं तलाशता रहा उस बेताज के बादशाह फ़की़र को जो इस किस्से के एक हिस्से का चश्मदीद गवाह है। वह नहीं मिला। उसकी वह मजार मिली जिस पर वह रोज फूल चढ़ाकर सिजदे करता था।
लखनऊ आना-जाना बना रहा। वह क़िस्सा कुछ यूँ हरकत में आया कि इमामबाड़े के एक फ़कीर ने उस दास्तान को फिर से ऐसे छेड़ दिया कि मैं अपने को उसे लिखने से नहीं रोक सका। ताकत खु़दा की हो तो बन्दे की क्या मजा़ल कि वह नाह-नूह कर सके। मुझे उसमें अल्लाह का ऐसा दीदार हुआ कि मैं सोचने लगा कि दस्तक किस दरवाजे़ पर दूँ क्योंकि हर दरवाज़ा उसका है। ये है इस उपन्यास की आपबीती।

1


वर्षा खुलने का नाम नहीं लेती। वह रात दिन झर-झर कर बरसती रहती है, पल भर के लिए न खुद चैन पाती है और न दूसरों को चैन लेने देती है। घटाटोप लिये आकाश लगता है सूरज को सदा के लिए अलविदा कर आया है। अब फिर कभी सूरज नहीं निकलेगा, मौसम के न खुलने से यह आशंका हक़ीकत में तब्दील होती नज़र आती है।
यह तीसरा साल था और वह भी रीता जा रहा था। सितम्बर को छूते-छूते मौसम ने तेवर बदले और सीधे-सपाट आसमान को अचानक चारों ओर से आ घेरा। सूरज मोर्चे से भाग खड़ा हुआ और चारों ओर अँधेरे का एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो गया।

‘‘मैं ना कहती थी कि शनि को लगी है ये झड़ी तो जी खोलकर बरसेगी।’’
‘‘क्यों न बरसेगी, खाला जान, दो साल से पानी के लाले जो पड़े हुए थे,’’ शबनम सरौते से सुपारियाँ काटते हुए बड़ी लच्छेदार भाषा में, इतमीनान से, बयाँ करती जा रही थी, आख़िर उसे आना ही पड़ा। आती कैसे नहीं, यह बुलावा मुराद के नेक दिल इरादों का जो ठहरा।

‘‘अब बस भी करे, ये मुई। सारा शहर, यहाँ तक की गाँव के ताल-तलैया, खेत खलियान सारे के सारे हाथ ऊपर कर चुके हैं,’’ रेशमा बाई कुछ सुस्त लहजे में बड़े अदब के साथ कहती थी।
‘‘अरे नासपीटियों, तुम कुछ काम भी करोगी या यों ही गीली लकड़ियों की तरह जीवन गुजार दोगी,’’ हमीदा का कर्कश स्वर गाज बनकर उनपर गिरा और उन दोनों की छुट्टी कर गया।

‘‘तोबा-तोबा, कहाँ से आ मरी बेवक्त के मेहमान सी बड़ी बी,’’ शबनम ने दोनों कान पकड़कर मन ही मन यह जुल्मा दोहराया और प्रत्यक्ष में शीरीं जुबान में आँख मटकाते हुए उसने कहा, ‘‘भला आपके सामने कभी ऐसी जुरअत हुई है, बड़ी बी, कि हम कोई गुफ़्तगू कर सकें।...और करें तो क्यों, आपकी फ़ज़ल से हमें क्या कमी है। सच्ची बात तो यह है कि हम दोनों फरमाँबरदार हैं।...बड़ी बी... वो नन्हें इक्के वाला है,...उसकी चौथी बीवी...हाय अल्लाह...क्या नाम है...याद आया, बड़ी बी...वह अपनी जुलेखा जिसके हाथ की अभी मेहँदी भी नहीं छूटी थी, पर वह सारी तोहमत लगाकर वहशियाना हरकत कर रहा है।...सारा मुहल्ला सिर पर उठा लिया है उसने।’’

‘‘क्यों री, रहीम की छोटी बी, ऐसा क्यों कर रहा है वह मर्दुआ दीवाना। क्या बुढ़ापे में उसकी अक़्ल घास चरने चली गई है जो उस जवान लड़की को खूँटे से बाँध लेने की उसने जुरअत की और अब वह नामर्द मुआ उस पर बिजली सा टूट पड़ रहा है,’’ हमीदा की अक़ल के भी बारह बजने लगे थे। वह बेसिर पैर की बातें कर उठती थी, लेकिन थी दिल की साफ़ और करीब-करीब दिमाग़ से खाली, यह बात शबनम बखूबी जानती थी।

‘‘क़िस्सा यह नहीं है, बड़ी बी।...हालाँकि यह क़िस्सा भी जल्द शुरू होता लगता है क्योंकि अपने हक़ीम साहब की कनीज बता रही थी कि वह मुआ हकीम साहब के पास जवान होने की गोलियाँ लेने आता है।...यह कहते हुए शबनम की बड़ी-बड़ी आँखों में गुलाब खिल उठे थे। उसने अपनी सुराहीनुमा गरदन को मुगलई शान से घुमाया और ज़वान बिजली के दाँतों से अपनी सुर्ख ओढ़नी के एक किनारे को हलके से दबाया।

‘‘हालाँकि मैं लौंडियों की बात पर कभी यकीन नहीं करती। फिर भी, बुड्ढ़ों को चढ़ी जवानी का हश्र मेरी इन आँखों ने देखा है...।’’
हमीदा कहीं अपना क़िस्सा न उठा बैठे, इस खौ़फ से रेशमाबाई तपाक से, दाहिनी ओर मुँह घुमाकर पिच करने के बाद बोल पड़ी, ‘‘बड़ी बी, बात चुटकी भर है।... अपनी शबनम को राई का पहाड़ बनाना खूब आता है।...एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा...हो गई फिर तो बात ! इसका मियाँ, शायरी को दीवानगी की हद तक जी रहा है और ख़्वाब गालिब मियाँ के कलाम का देखने लगा है।...वह कहता फिर रहा है, देख लेना यह सच्चे दिल की चोट से निकला दर्द का वह दरिया है जो एक दिन कलाम मजीद (कुरान शरीफ) के क़द को छू ले तो ताज्जुब नहीं।’’

शबनम के कलेजे को चीर जाती अपने मियाँ के निखट्टूपन की कसैली बात। परन्तु वह क्या करे ? कितनी बार रूह से पढ़े कलमा...इलाह इल्लिल्लाह मुहम्मदुर्रसूलिल्लाह ! कैसे समझाए कि जनाब इस तरह अपनी सेहत और सीरत दोनों दोज़ख के हवाले करने पर तुले हुए हैं। खु़दा खै़र करे, बड़ी शिद्दत से वह दुआएँ माँगती है अपनी जवान झोली पसारकर...ओ परवरदिगार, मेरे निखट्टू मियाँ की अक़ल का बन्द ताला खोल दे और उसे आम आदमी बना दे।
हमीदा की बूढ़ी आँखें बटेर सी खिंच जातीं और उसके चेहरे पर पड़ने वाले बल ऐंठने लगते उड़द की दाल के आटे से, क्योंकि उसका मियाँ भी ताउम्र शायराना फ़ितरत का मारा जूतियाँ चटकाता घूमता फिरता रहा था।

रेशमाबाई अपने पास से सरकते फ़लसफा़ई लम्हों का कान पकड़ कर ऐसे छिटक देती जैसे किसी फ़लकज़दा नवाब को नशे में डूबी मुजरे की सीढ़ियों से कसे बदन की कोई कोठेवाली। वह कोठेवाली जो कभी उसके नाम का सुरमा अपनी झील सी मयवाली आँखों में रचा कर जागती रहती थी। उसकी क़दमों की एक खु़शनुमा आहट के लिए सारी-सारी रात। क़रीने मुस्कराहट को अलगनी पर डालने का मन में ख़याल लाती हुई बोली, ‘‘बड़ी बी, आज जाने किसका मुँह देखा है कि मुई जुबान रह-रहकर पलटा खा रही है।... बात इतनी सी थी कि वह इक्केवाला अपनी जवान बीवी को इसलिए कोसे जा रहा था कि रिमझिम मौसम उसके जोड़ों के दर्द को खोल रहा था और इक्के की आमद पर पानी फिर रहा था। मुफ़लिसी और बुढ़ापा कोढ़ में खाज की दीवानगी का यह रिश्ता क्या-क्या कहर नहीं ढाता है।...बिना ढिंढ़ोरा पीटे याद दिला जाता है... क्या अन्धा, क्या कोढ़ी राम मिलाई जोड़ी।’’

‘‘तो ये बात है, रेशमा ?’’ हमीदा ने दर्द को चिमटी से पकड़ कर मुआयना करते हुए बहुत हौले से कहा और आसमान पर एक के बाद एक गहरी सलेटी मेघ छायाओं की छावनी की ओर मरियल से मेमनाई आँखों ने ऐसे जैसे कसाई उसके सामने हाथ में चमचमाता हुआ छुरा लिये अचानक आ खड़ा हुआ हो।

वक़्त की नब्ज़ धीमे चलने लगी। हाल ही में सिर से सरका दुपट्टे सा वह वक़्त सामने आ ठहरा, जिसके अब क़िस्से जुबान पर हैं, लेकिन जिसकी हक़ीक़त पीलिया के मरीज़ सी अपने इन्तकाल की इन्तज़ार में हर लम्हे को एक कसक के साथ जी रही है। वह चीख भी नही सकती क्योंकि उसकी तहज़ीब का ताबीज़ अभी तक उसके गले में पड़ा पेंडुलम की तरह झूम रहा है।

शबनम ने गहरी साँस छोड़कर मरसिया पढ़ने के अन्दाज़ में, वक़्त की नज़ाक़त पर अन्दर ही अन्दर लाल-पीली होते हुए कहा, ‘‘बड़ी बी, जब वह वक़्त नहीं रहा तब यह वक्त भी नहीं रहेगा और... उसके लिए कैसी कुलफ़त।... कहाँ इन बदलियों की आहट पाकर पाँवों में पाजेब बिजली सी गरजती हुई चमक उठती थी और दिल खुशी से पागल हुआ नीम बेहोशी में लड़खड़ाते हुए सँभलने की कोशिश करता-करता अचानक मल्लार गा उठता था। इन्द्रधनुषी हो जाता था उन दिनों दिल अपने आप किसी मयखाने की मदहोश आँखों सा जवान मस्ती लिये।’’ शबनम का ख़ुशनुमा मिजा़ज़ शायराना वक्त की यादों में डूबता हुआ कॉलेज के चहलक़दमी के साथ जलाकर उनकी ठिठोली पर अन्दर ही अन्दर बासंती बयार के साथ झूमती लता सा जाने किस पर फिदा होने लगता, यह न पता करने की तब फुरसत होती थी और न आज है।

दरअसल शबनम पैदाइशी शायर थी। लेकिन वक्त की अर्ध जले माँस की दुर्गन्धमयी कठोरता ने उसे टूटने पर मज़बूर कर दिया और आदमक़द आईने के सामने बैठकर दिल के शायराना पन्नों को लीर-लीर कर उसके मुँह पर दे मारा और पगलाते हुए कहा, ‘‘परवरदिगार यही सच है कि तू नहीं है, फिर भी तू होने से ज़ियादह,...ज़िन्दगी में तरजी़ह पाकर सातवें आसमान पर आ बैठा है और हर नेक इरादों की कमसिन ज़िन्दगी को तबाह होता देखकर अपनी ख़ौफनाक हँसी के बिच्छुई डंक मार-मार कर उनकी हस्ती को मटियामेट कर रहा है।...तुझे किसने दिया है, अल्ला ताला का नाम ? तुझसे किसने कहा है कि तू मसीहा है ? तुझे किसने बनाया है ईश्वर ?... ओ आसमान तू क्यों नहीं फट पड़ता... ओ जमीं, तू क्यों नहीं फट पड़ती ?... यह सबसे बड़ा झूठ जो हर बार इंसानी इरादों को नेस्तनाबूद कर जाता है, क्यों नहीं दफन हो पा रहा है।’’

 वह पसीने-पसीने हो जाती। उसको समझाने-बुझाने कोई मीर नहीं आता। रफ़ते-रफ़ते रफा़क़त रफू चक्कर हो जाती है और सिर्फ शबनम शहादत के लिए किसी सूखी शाख के सबसे कमजोर सिरे पर दुबकी रह जाती है। कुलीन खानदान की पहली बार बिकने आई ज़िस्म की नुमाइश में यह नाज़नीन जिसको छूकर खूबसूरती अपने पाक दामन की कसम खाती है, हैरतअंगेज़ रह जाती।

‘‘वह दौर कुछ और था,’’ गहरी साँस लेकर हमीदा कहती जाती,  ‘‘ये दौर कुछ और है। उस दौर की मलिका हम थीं जबकि इस दौर की हसीना कोई और है। वक़्त अपने को जब तक इसी प्रकार उलटता-पलटता रहता है और इसी से नसीब के हाथ में आया तुरूप का इक्का छिटककर उसको मालोमाल कर जाता है, जिसे हमने कभी अपनी लौंडी के काबिल भी नहीं समझा था। इसके लिए हमें कतई अफ़सोस नहीं करना चाहिए। हो सके तो हमें बदलते दौर में अपने वजूद को फिर से स्थापित करना चाहिए या चुपचाप अपने दौर की बारी आने का इन्तजा़र करना चाहिए।... लेकिन हम दोनों में से भी किसी एक का चुनाव नहीं कर पा रही हैं, यही हमारी बदनसीबी की वजह है, जिसके लिए हम किसी दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराना चाहती हैं।’’ बहुत दिनों बाद हमीदा को अपने दौर की याददाश्त के चेहरे के बिलकुल बीचोबीच चिपकी छिपकली में हरकत होती महसूस हुई। वह तो समझ रही थी कि छिपकली चेहरे से नहीं बिजली के खम्भे पर लटक आए नंगे तार से चिपक कर वहीं की वहीं कार्बन बनी ढेर हो गई है। समझ के चेहरे पर चस्पाँ की गई यह ख़बर इफ़लास (मुफ़लिसी) का नमूना बनकर रह गई थी।

शबनम को लगा कि हमीदा जो कभी हमीदा बानो नाम से  मशहूर थीं और इनाने हुकूमत में ख़ास दखल रखती थीं, अब किसी बासी ख़बर के चन्द पेबन्द लगाए पुरातत्व विभाग के लिए वह एक मॉडल से ज़ियादह तरज़ीह के काबिल नहीं रही हैं। उन सब पर बारिश की एक झड़ी मौसम-बेमौसम सदा होती ही रहती है। उसे लग रहा था बेवा हुई जवानी को बारम्बार कुछ दरिन्दे रात की तीखी रोशनी में नंगा कर रहे हैं और वह आबरू बचाने के लिए ठीक उसी तरह शोर मचा रही। है जैसे उसके जमाने में पहली बार कोई हसीना उठाकर हरम में फेंकने पर मचाती थी। तब वह बहुत छोटी थी, उसके खयाल में हरम एक मेले से ज़ियादह कुछ और नहीं था। रफ़ते-रफ़ते जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही वह सब जान चुकी थी और उसने उधर पाँव करके सोना भी छोड़ दिया था क्योंकि उसके ज़हन में खौफनाक गिद्ध और चीलें हमलावर होकर माँस के लोथड़ों पर प्रायः टूटा करते थे।

उन तीनों के सामने अनकिए जाने वाला सवाल जब तब आ टगाँ होता था किसी सुनसान सड़क पर लटकी उस तख्ती सा जिस पर लिखा होता था-आगे रास्ता बन्द है। प्रायः सड़ी गरमी की दोपहर अथवा लगातार बारिश के वक़्त जैसे आजकल, ऐसा मौका मिल जाता था जब वे तीनों अचानक आ मिलती थीं और गुजरे वक़्त के साये में दो घड़ी बतिया लिया करती थीं। ‘‘चलो, अब काम धन्धे से लगो, बब्बन मियाँ भी आते होंगे और आते ही आग बबूला होने लगेंगे,’’ हमीदा ने बड़े प्यार से उन्हें आगाह किया।

‘‘सारी रात पीता है, बड़ी बी और हम पर ऐसे हुक्म चलाता है जैसे हम उसकी लौंडियाँ हो,’’ शबनम ने इसके बाद मन ही मन कोसा अपने नशीब को जो उस निखट्टू के खूँटे से आ बँधा था जिसे शायरी और शराब के अलावा दीन दुनिया का कुछ पता ही नहीं है। ले-देकर जनाब को एक गला ही अच्छा मिला था जिससे वह शायरों की जमात में बब्बन मियाँ की सिफ़ारिश के बलबूते आ बैठता था और शायरों की व्यंग्यात्मक फब्तियों की परवाह किए बिना जोड़ तोड़ की शायरी ग़ालिब के अन्दाज़ में बयाँ कर जाता था। यही कारण था कि उसे कॉलिज के जमाने की  मिली शायराना शोहरत को दफन करना पड़ा। तब वह थी ही क्या कि कितनों ने अपनी फरमाइश जा़हिर कर दी थी-बड़ी तमन्ना है शबनम का दीवान पढ़ने की। कब तक पूरी होगी ये हमारी आरजू ? यह सोचते हुए उसे आज बारिश की तेज झड़ी में भी आफ़ताब नज़र आ गया और वह नई नवेली दुल्हन-सी शरमा गई।

‘‘शबनम मन छोटा मत कर, हम औरत जात के नसीब में गीली लकड़ी होकर जीना उस अल्लाताला ने लिखा है, जिसे हमेशा सारे जहान का ऐसा अकेला मालिक समझा जाता है जो सच्चाई, नेकदिली, इंसाफ और दुःख-दरद में काम आने वाला मसीहा है। फिर शिकवा-शिकायत कैसा और किससे  ?... जा, कुछ काम कर।... काम ही मन का दरद बाँटता है,’’ हमीदा के स्वरों में कम्पन था। उसे लगा कि उसके गले में पड़ा फन्दा खुल नहीं पा रहा है अथवा मर्दजात के प्रति रश्क का बन्द नाला रास्ता माँग उठा है।

यह सोचते हुए रेशमबाई चुपचाप खिसक ली कि कितनी बार उसने अपने मियाँ को समझाया, ‘‘यह ज़माना मुर्गे लड़ाने का नहीं है। माना कि किसी जमाने में उनके ख़ानदान की कलगी इस कारण ही ऊँची रही थी कि उनका मुर्गा बेताज़ का बादशाह होता था और और सदा जीतता ही था, चाहे सल्तनत बराबर हारती रही         हो।... तीतर बटेर पालने का भी यह ज़माना नहीं है।...लेकिन मियाँ तो खानदानी नीम हकी़म ठहरे जो इस खानदानी बुखार को उतरने ही नहीं देना चाहते थे। कैसी मुश्किल में उसकी जान आ फँसी थी कि न निगलते ही बनता था और न छोड़ते। सिर्फ रश्क लिए बेमन से जीना होता था।

‘‘अच्छा तो बड़ी बी सलाम, अब चलती हूँ,’’ शबनम ने हारे मन से कहा तो हमीदा को याद आ गया कि उसका मर्द भी उसके ममेरे भाईजान शलज़मी देहवाली बड़ी लड़की रोशनारा से निकाह की बात पक्की कर चुका है। ये जानते हुए कि रोशनारा बड़ी आज़ादपसन्द दिलफेंक हसीना है। उसने कमसिनी अवस्था में ही बदनामी का सेहरा बड़ी आरजू से अपने सिर पर बाँधकर शाहजादी अकड़ को कायम बना रखा था। नन्ने मियाँ के साथ भागने के चर्चे चटखारे लेकर अपनी हमउम्र लड़कियों को ऐसे सुनाती थी जैसे तेज़-तीखे पानी भरे बताशे खाने के बाद देर तक सी-सी जुबान से नहीं छूटती।

कौन शरीफज़ादा उससे निकाह रचाएगा, उसका ममेरा भाईजान भी रही-सही इज़्ज़त बचाने के लिए उस जैसे निखट्टू के गले खूँटा तोड़कर भागने वाली उस साँडनी को बाँध रहा है। परन्तु शबनम जैसी नेकदिल और ख़ानदानी परी का क्या होगा ? मियाँ यह क्यों भूल जाता है कि बच्चे को जन्म देना अकेली औरत का ही ज़िम्मा नहीं है, उसमें मर्द भी बराबर का भागीदार है और वह भी किसी ऐसी मर्दानी कमज़ोरी का शिकार हो सकता है, जिसके लिए वह कलमुँहा उस चाँद जैसी बीवी पर तोहमत लगाते नहीं चूकता। उसने यह उचित नहीं समझा कि बारिश में खीजे हुए मौसम को छेड़ दे और पलकों की कोर में आ दुबके मोतियों को बिखर जाने दे।

हमीदा को ठहरा पाकर शबनम ठिठकी खड़ी रह गई। उसे लगा जैसे हमीदा ने उसे पुकारा हो। शायद वह पुनः पुकारेगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, हमीदा सिर झुकाए चुपचाप चली गई और वह ठहरे हुए वक़्त सी सोचने की लाख कोशिश करके कुछ नहीं सोच पाई। उसने जितना जोर लगाया सोच उतना ही एक जगह अड़ियल घोड़े की तरह अड़ा रह गया। उसने गहरी साँस ली और आसमान की ओर देखा तो पाया कि वह अभी तक रो रहा था। क्या जिन्दगी का यही मतलब हो सकता है ?

शबनम फिर नहीं रूकी। वह चल पड़ी। उसने तय कर लिया कि उसका मतलब से जब कोई दूर का भी रिश्ता नहीं है, तब वह मतलब के बारे में क्यों सोचे ? क्या निरर्थ होना अपने आप में कोई मतलब नहीं है ?

2


वही हुआ जिसका डर था, नन्ने इक्के वाले की चौथी बीवी जुलेखा भाग गई और शबनम के शौहर इमरान ने रोशनारा से शादी कर ली। शबनम कुछ नहीं कर सकी। सिर्फ टकटकी बाँधे देखती रह गई शिला की तरह गुमसुम। उसके मन में आया कि वह उससे तलाक ले ले और फिर वह कहीं दूर निकल जाए अज़नबी देश में। जहाँ उसे कोई नहीं जानता हो और न वह किसी को जानती हो। आज की दुनिया में जितना अज़नबी बनकर सरलता से जिया जा सकता है, उतना जानकर नहीं।
क्या करेगी वह वहाँ ? उसके गर्म गोश्त पर कितनों की गिद्ध-दृष्टि होगी और कितने ही उसे साबुत निगल जाना चाहेंगे। वह क्या कर लेगी उन बदहवास आदमखोरों का ? तब क्या वह जीने योग्य अपने को बचा पाएगी ?

लेकिन यह भी नहीं हो सकता कि वह अपनी नव-नवेली सौतन रोशनारा को अपने ही सामने हमबिस्तर होता देख सके। वह इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। किसकी मदद ले ? क्या मदद ले ? यह कि वह पूरी औरत सिद्ध नहीं हुई इसलिए उसके सौहर ने दूसरी शादी कर ली। नहीं यह बयानबाजी सरासर गलत है। सच तो यह है कि उसका नामुराद खाबिन्द ही पूरा मर्द नहीं था। ना कभी उसने अपने को पूरा मर्द होने की दिशा में कोई क़ोशिश ही की थी। यदि को़शिश की होती तो क्या उसे खा़सी रक़म अदा कर रोशनारा के आब्बा को राजी करने की ज़रूरत पड़ती ? उसमें तो पराये मर्द के प्रति कभी हवस नहीं जागी।

घाट-घाट का पानी चखने वाली उस बदजात औरत को क्या उसी का मर्द रह गया था निकाह के लिए ? क्या देखा था उसने उसके मियाँ में ? यही न कि वह एक कमजो़र मर्द है जिसे वह शराब की बोतल पकड़ा कर घर के बाहर पहरा देने के लिए बैठा देगी और हमबिस्तर बनाएगी किसी मनचाहे मर्द को। घर चकलाखाना हो जाएगा ?
क्या उसका सौहर इतना गिर चुका है कि वह इतनी सी बात नहीं समझ सकता कि रोशनारा को उसकी नहीं, उसके घर की जरूरत है, जहाँ वह पाप-कर्म को गिरस्ती की ओट में अबाध चला सके ? जो उस के घर की पाक चौखट पर आएगा और जिसे रोशनारा की शरबती आँखें, शलजमी-गठीली देह और मुस्कराते सुर्ख होंठ अपनी ओर खींच ले जाएँगे, वहाँ वह कैसे रह सकेगी ?

शबनम के अम्मी-अब्बा और भाईजान हिन्दुओं की सरहद पार करते हुए उस समय मारे गए थे, जब उनके ही दोस्त ने उन तीनों को गोली मारकर अपने रास्ते से  हटा दिया था और कमसिन शबनम की ओर आगे बढ़ा था। तब शबनम तपते रेगिस्तान में आँधी सी दौड़ पड़ी थी बिना आगा-पीछा सोचे।

सुरमई रात ने ढक लिया था शबनम को बालू के एक ऊँचे टीले के पीछे। मानों रेगिस्तान ने उसे अपने आगोश में ले लिया हो और वह थकी-माँदी उसकी शरण में आकर खुली शून्य आँखों से अपलक उसकी ओर देखे जा रही हो।
सुबह हो, इससे बहुत पहले वह पाँवों में दुपट्टे के टुकड़े बाँधे बिना दिशा-बोध के चुपके-चुपके चलती चली गई थी। रास्ते में मिला था उसे इमरान। एक पाक दिल इंसान ।

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