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जिन्दगी ठहर गई

गायत्री वर्मा

प्रकाशक : आकाश गंगा पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4020
आईएसबीएन :81-89363-06-9

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एक सामाजिक उपन्यास...

jindagi thahar gai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अबोध बच्चों के प्रति अमर्यादित दुर्व्यवहार होना आज आम बात है। उनकी सीमित दुनिया इसको समझ ही नहीं पाती कि क्या हो गया। जब समझ में आता है तब वह जिस यंत्रणा से गुजरता है उसे न वह समझ पाता है न व्यक्त करने में समर्थ होता है। परन्तु उससे सम्बद्ध सभी को उसका परिणाम भुगतना पड़ता है। बच्चे देश का भविष्य हैं। अतः उनकी प्रत्येक गतिविधि पर ध्यान रखना अनिवार्य है। साथ ही वे नादान और अबोध हैं। उनमें जागृति उत्पन्न करना हम सब का कर्तव्य इस महत्वपूर्ण विषय पर आधारित यह उपन्यास।

प्रस्तावना

अमर्यादित स्पर्श और अमर्यादित व्यवहार के खिलाफ़ आवाज़

यह आवाज़ आज के वातावरण में गूँज रही है। चर्चाएँ भी हो रही हैं समाचार-पत्रों और मीडिया के माध्यम से; पर अन्य लहरों की तरह यह भी एक लहर है जो आती भी रहती है और जाती भी रहती है। क़ानून कोई भी बने, किसी में भी इसकी रूपरेखा सिमटती नहीं। निकालने वाले दूसरे रास्ता ढूँढ़ लेते हैं और कहानी वहीं की वहीं रह जाती है।
यथार्थ में यह लड़ाई स्त्री और पुरुष की है जो एक-दूसरे की कमजोरी से नाजायज़ फ़ायदा उठाता रहता है। अतः घर और बाहर सर्वत्र इसके तरह-तरह के रूप दृष्टिगत होते हैं। यह भी एक तरह का पावर स्ट्रगल है।

नारी को शक्ति का दूसरा रूप कहा जाना मिथ्याभास भी नहीं है और अतिशयोक्ति भी नहीं। स्वयं पुरुष और उसका निर्मित समाज इस तथ्य को स्वीकार ही नहीं करता अपितु इसकी सत्यता से डरता भी है। वह अच्छी तरह जानता है कि यदि नारी कुछ करने को उतारू हो जाए तो उसे कोई रोक नहीं सकता। वह चंडी बनकर सब कुछ विध्वंस कर देगी। पुरुष ही अपने को अधिक असुरक्षित सदा से समझता आया है। शारीरिक बल नारी से अधिक होने के कारण अपनी सुरक्षा के लिए उसने नारी के पर काटे, पैरों में बेड़ियाँ डालीं। इसका माध्यम उसने चुना प्रतारणा, मारपीट, लांछन और अपमान। उसका मनोबल तोड़ने के लिए उसकी जीविका धनोपार्जन की शक्ति नष्ट की, और उसे पूर्ण रूप से अपने ऊपर आश्रित कर लिया। जागृति न उत्पन्न हो, उसकी शिक्षा का द्वार तक बंद कर दिया।

सर्वत्र प्रवृत्ति यही है, उसे कुचलना। इसका प्रारंभ उसके जन्म से ही हो जाता है। जो उदारता का व्यवहार लड़कों के साथ है वह उसे नहीं मिलता। इसी वातावरण में वह बड़ी होती है। विवाह की अनिवार्यता से और नीचे गिरी। आज भी दाइयों और मिडवाइफों से उनकी हत्या करा दी जाती है। यही नहीं, गर्भ में भी यदि लड़की है, तो वहीं उसे ख़त्म करने को कहते हैं। वहाँ से बच गई तो अबोध बच्चियों के साथ बलात्कार होता रहता है। आगे चलकर दहेज़ अच्छा नहीं मिला तो दूसरी तरह से कुचली जाती है।

शारीरिक यंत्रणा और मानसिक उत्पीड़न वह चुपचाप सहन करती है। विरोध करने की शक्ति होते हुए भी घर की सुख-शान्ति बनाए रखने की कोशिश में पुरुष का क्रोध न भड़के, सब आरोप, डाँट-फटकार चुपचाप सहन करती रहती है। विदेश हो या भारत, स्त्रियों की यही कहानी है।
श्रीमती हिलैरी क्लिन्टन को सुश्री अनुसूया सेन गुप्ता की चार पंक्तियाँ-


Too many women
In too many countries
Speak the same language of
Silence…


इतनी प्रभावित कर गईं कि इसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी।1
स्त्री को आटे का दीया कहा जाता है जिसे घर में चूहे खाते हैं और बाहर कौए। सैक्स एब्यूज़ और ईव टीजिंग इन्हीं के रूप हैं। प्रतिभा होते हुए भी आगे न बढ़ने देने की प्रवृत्ति आदि कितनी ही ऐसी बातें हैं जो उसकी उन्नति एवं प्रगति में सदा बाधक बन जाती हैं।

सबसे प्रमुख, जो उसके साथ आफ़िस में होता है उसकी अपराध भावना (Guilt) और लज्जा (shame) उसे चुप रहने को बाध्य करती है। हर चीज़ का वह सबूत नहीं दे सकती। पुरुष घर और बाहर सब जगह उसके सामने मुक़ाबले को खड़ा रहता है। अतः संस्थाओं के रहते हुए भी वह अपनी शिकायतें लेकर उनके पास नहीं जाती।
यह बात नहीं कि वे असलियत समझतीं नहीं। शिक्षा का द्वार खुलने से, क़ानूनों के बन जाने से कुछ साहस आया भी है; पर जब तक समाज में बदलाव न आए वे जानती हैं कि कितने ही हाथ-पैर पीटो, विशेष कल्याण होगा नहीं।
यह भी सही है जब अत्याचार सीमा को पार कर जाता है, वे लोहा लेने को उठ खड़ी होती हैं। आज इसके सैकड़ों उदाहरण सम्मुख देखे जा रहे हैं। हर क्षेत्र में-राजनीति हो या विज्ञान, धर्म हो या शिक्षा टक्कर में वे पुरुषों से कम नहीं हैं। हाँ, संख्या में चाहे ऐसी अधिक नहीं दिखें।

जहाँ लज्जा, मर्यादा, अपराध-बोध नारी की प्रगति में बाधक है वहाँ गृहस्थी का बोझ, बाहर निकल कर काम करने की थकान, साथ ही पति का ईगो उन्हें प्रतिभा का लाभ उठाने नहीं देता। साहस का अभाव नहीं होता किन्तु कमी अवश्य है। कुमारी, विधवा, तलाक़शुदा, परिवार को छोड़ कर अकेले रहने का साहस नहीं जुटा पातीं इसलिए कि समता कहाँ है ? पुरुष साठ साल में भी यदि परिस्थिति बदली, नई ज़िन्दगी शुरु कर सकता है, कर भी लेता है, पर स्त्री, जहाँ से जिन्दगी का तार टूटा
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1.    Bombay times 16th  june 2003
2.    The Times of India 12th june 2003 I was better  for her verse. page 1


उसे उठाकर जोड़ नहीं पाती। सारी शक्ति वह पहले ही लगा बैठी अब उसके पास बचता क्या है जिसे दांव पर लगाए और जिसे लेकर वह फिर से दुनिया बसाने की सोचे।

सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि सैक्सुअल हरासमेन्ट या बहुत-सी इनसे सम्बद्ध बातों को पुरुष अपराध मानता ही कहाँ हैं ? क़ानून के पंजे से भी अधिकांश छुटकारा पा जाते हैं। कोई भी क़ानून स्त्री की पूर्ण रक्षा करने में सक्षम नहीं है। सब में कोई न कोई छिद्र है जिसका फ़ायदा पुरुष उठा ले जाता है। दूसरी बात सदा से ही स्त्री एक अमूल्य Booty  भर है। ज़र, ज़मीन जोरू उसका ठोस, उदाहरण है। जहाँ स्त्री की कोई कमज़ोरी उसके लिए सह्य नहीं है वहाँ अपने किसी भी कर्म को दुष्कर्म नहीं मानते, माना भी तो क्षम्य है इस पर उनकी आस्था है।
स्त्री क्षमा करती है। परन्तु क्षमा करना उसकी कमज़ोरी नहीं है उसकी महानता है। स्वयं हिलैरी क्लिंटन जी इसका ठोस उदाहरण हैं। उन्होंने स्वयं लिखा है-

As his wife I wanted to wring biil’s neck but he was not only my husband, he was my president. I was not just a wife I was also the president’s  wife.1

Sex abuse और इससे भी बढ़कर child abuse समाज के भयंकर नासूर हैं। नादान बच्चे समझ भी नहीं पाते कि उनके साथ क्या हो रहा है और जो हो रहा है वह ठीक है या ग़लत। नादान बालिकाएँ इनकी शिकार ज़्यादा बन जाती हैं। घर में ही उनके ही परिवार वाले जिन पर उन्हें शक कभी होता भी नहीं, उनके साथ अमर्यादित व्यहार जिसमें बलात्कार भी शामिल है करते हैं। चाचा, मामा, चचेरे भाई, भाइयों के मित्र कोई भी उन्हें फुसला देता है फिर उनके चुंगुल से वे अपने को छुड़ा नहीं पातीं। कभी-कभी तो पड़ोस का कोई व्यक्ति भी उनकी अबोधता का लाभ उठा लेता है। यहाँ तक कि कभी-कभी बाप भी बेटी को नहीं छोड़ता ऐसा भी देखा गया है। बाद में लज्जा, ग्लानि और अपराध-बोध उन्हें जन्मभर कुंठित करता रहता है। वे माँ को बता भी देती हैं पर वह भी चुप रहती है और चुप रहने को कहती है। शोर नहीं मचाती, शिकायत लेकर संस्था में भी नहीं जाती। बदनामी का भय उसे सदा खाता रहता है। समाचार-पत्रों में इसके उदाहरण आते रहते हैं। एक समाचार-पत्र में सर्वे निकला था कि किशोरियों में से 79 प्रतिशत ऐसी निकलीं जिन्होंने कहा कि बचपन में उनसे फायदा उठाया गया है, सभी के साथ थोड़ा-बहुत बलात्कार हुआ है जिसे वे उस समय समझ नहीं पाईं।
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1.    Sunday Times of India 15-6-2003 p. 12 (Quoted from ‘living history’ by Hillary Clinton) are women more forgiving than men ?

इला पांडे ने करवी में अपने पति जगदीश पांडे के खिलाफ़ आवाज़ उठाई थी कि उसने बेटी का बलात्कार किया। पुलिस ने उसे गिरफ्तार भी किया, उसे नौकरी से निकाला भी गया, पर बाद में मामला दब गया। उसे फिर से सरकारी पुरानी नौकरी मिल गई। परिवार का आपसी मामला है कहकर केस ख़त्म कर दिया गया। उल्टा जगदीश पांडे ने कहा-मेरी पत्नी मानसिक रोगिणी है। दूसरी सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे भड़का दिया है इसी से यह ऐसा कह रही है। यह वूमेन्स एक्टीविस्ट मुझसे चिढ़ी बैठी हैं, इसलिए बदला लेने के लिए इन्होंने मेरी पत्नी को हथियार बनाया है।1 जगदीश पांडे तो यू.पी. सरकार के डेरी विभाग में सेल्स आफ़िसर थे। उन्होंने केस कैसे दबवाया यह वही जानें। पर जीते वही। सच्ची बात होने पर भी इला पांडे को कुछ नहीं मिला।

स्कूल में, बस में, रेल में, हर स्थान पर ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं। रिपोर्ट आती हैं, छपती हैं, थोड़ा शोर मचता है, बाद को सब ख़त्म।
न केवल लड़कियाँ लड़के भी इसके शिकार बन जाते हैं। कुछ समय पहले समाचार-पत्रों में एक विदेशी जोड़े की रिपोर्ट आई थी और झोपड़ट्टी और गलियों के बच्चों को तरह-तरह के लालच देकर (पैसे, कपड़े, खिलौने) उनकी तरह-तरह की नगन तस्वीरें खींच कर फिल्म बनाते, पकड़ा गया, हाल में श्री माइकेल जैक्सन का नाम भी आया था कि वह छोटे लड़कों के साथ अपनी शय्या पर उन्हें सुला कर अमर्यादित दुर्व्यवहार करता है। इनके ऊपर seven child molestation  के charge हैं।2

मुश्किल यह है कि ऐसी रिपोर्ट पर कोई विश्वास नहीं करता। बच्चे स्कूल में प्रिंसिपल से कहते भी हैं तो वे बच्चों को ही ताड़ना देते हैं। एक रिपोर्ट आई थी समाचार-पत्र में कि एक लड़के को पुरुष अध्यापक स्कूल के ख़ाली कमरे में बुलाता था। fondle करता था और..। पता तब चला जब लड़के ने स्कूल जाने से इन्कार कर दिया। प्रिंसिपल से कहने पर लड़के की केवल यह कल्पना मात्र है। अध्यापक के विरुद्ध प्रिंसिपल ने कोई कार्रवाई नहीं की। लड़के ने स्कूल छोड़ दिया। पर इससे समस्या का हल तो नहीं हुआ। अध्यापक को दूसरे लड़के मिल गए। मीरा रोड के एक स्कूल के विषय में भी निकला था कि पी.टी. का अध्यापक (पुरुष) लड़कियों को अमर्यादित रूप से स्पर्श करता और फुसलाता है, सहराता है। शिकायत आने पर उसे पी.टी. से हटा कर दूसरा विषय दे दिया गया। शिकायतें तो आती हैं पर इन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता। स्कूल की बदनामी होगी, सोचकर प्रिंसिपल ही उसे

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1.    टाइम्स आफ इंडिया 5.10.1999, पृ. 10
Hostile men ridicule ‘hearing’ on child sexual abuse in U.P.
2.    टाइम्स आफ इंडिया 5.1.2004

दबा देते हैं। समाज कल्याण की संस्थाएँ और उनके मेम्बर कोशिश भी करते हैं, आवाज़ भी उठाते हैं, पर ज्यादा सफल नहीं हो पाते।
लड़की हो या लड़का, ऐसे अमर्यादित व्यवहार से सहसा घबरा जाता है। वह कुछ गारन्टी से किसी निश्चिय पर नहीं पहुँच पाता कि यह ठीक है या ग़लत या उसकी कल्पनामात्र ही है। फिर अपराध-बोध उसे अलग कचोटता रहता है। वह किसी से कुछ कह नहीं पाता। अंजलि छबारिया का कहना है कि नर्सरी से ही बच्चों को बताना शुरू कर देना चाहिए कि Good touch क्या है और bad Touch क्या है। हमारी संस्कृति में अध्यापकों का बहुत सम्मान है। प्रारंभ से ही अध्यापकों की बात मानो बच्चों को सिखाया जाता है। बच्चे स्वयं ही जो टीचर कहती है या टीचर कहता है उसे वेदवाक्य मानते हैं। अतः जब कभी इस प्रकार का सेक्सुअल अमर्यादित आचरण होता है और जब उन्हें इसका बोध होता है तो वे घबरा जाते हैं, उन्हें बहुत झटका लगता है कि उन्होंने विरोध क्यों नहीं किया।1  

Indian penal code में बच्चों Sexual abuse  के लिए कोई विशेष नियम नहीं है। sect 375 में बलात्कार आता है पर टाटा इन्स्टीट्यूट आफ सोशल साइन्सज़ की आशा बाजपेयी का कहना है कि  child abuse में ख़ाली बलात्कार नहीं और भी बहुत-सी बातें शामिल हैं। अमर्यादित स्पर्श सहराना फुसलाना इसमें नहीं आएगा। Section 354 और 509 जिसका प्रयोग मर्यादा के विरूद्ध स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार में किया जाता है, कभी-कभी बच्चों के प्रति भी इसी में ले लेते हैं। सेक्शन 377 का प्रयोग अस्वाभाविक सैक्स केवल लड़कों से ही सम्बन्ध रखता है।2
आशा बाजपेयी का कहना है कि यह क्रिमिनल लौज़ अधूरे हैं क्योंकि Child abuses  के सभी पक्ष किसी में भी पूरी तौर से नहीं सिमटते। बहुत आव्शयक है कोई ऐसा अलग कानून बने जिसमें ये सभी बातें शामिल की जाएँ।
बच्चों पर इनका बहुत गहरा असर पड़ता है। वे चुप रहने लगते हैं। हँसना-बोलना बंद कर देते हैं। अकेले रहना उन्हें ज़्यादा अच्छा लगता है। अच्छी तरह खाना नहीं खाते अच्छी तरह सोते नहीं। पढ़ाई में रुचि लेना बन्द कर देते हैं, यहाँ तक कि स्कूल जाने से भी कतराने लगते हैं।

कुछ बुरा असर भी पड़ता है। दूसरे बच्चों के साथ वे वैसा ही करने लगते हैं जो उनके साथ हुआ। अपने गुप्त अंग को छूने लगते हैं और उससे सम्बद्ध प्रक्रियाएँ
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1.    टाइम्स आफ इंडिया 25.9.2003, पृ. 2
2.    Section 375 deals with rape but Not touch or fondling section 354 & 509 deals with outrage of modesty of women. Sometimes are applied to children while section 377 deals with Unnatural sex is used in case of abuse of boys

भी प्रारंभ कर देते हैं।1
बच्चे देश का भविष्य हैं। अतः उनकी प्रत्येक गतिविधि पर ध्यान रखना अनिवार्य है। साथ ही वे नादान और अबोध हैं। उनमें जागृति उत्पन्न करना हम सब का कर्तव्य है।

-गायत्री वर्मा

1.  टाइम्स आफ इंडिया 25.9.2003, पृष्ठ.2

School don’t take Complaints Serionsly made in sexual abuse Viclims  


दो शब्द


अबोध बच्चों के प्रति अमर्यादित दुर्व्यवहार (Child abuse) आज का चर्चित विषय है। उनकी सीमित दुनिया इसको समझ ही नहीं पाती कि क्या हो गया। जब समझ में आता है तब वह जिस यंत्रणा से गुज़रता है उसे न वह समझ पाता है न व्यक्त करने में समर्थ होता है। परन्तु उससे सम्बद्ध सभी को उसका परिणाम भुगतना पड़ता है।
इस उपन्यास का यही आधार है।

-गायत्री वर्मा


1


निन्दित निर्दोष चन्द्रमौलि कुलश्रेष्ठ लांछन और लज्जा से युक्त कुत्सित जीवन को व्यतीत करने को विवश किया गया जिसके फलस्वरूप वह पाषाण और हृदयहीन बन गया। बाल चिकित्सक एम.डी. आज निज़ामुद्दीन के एक ‘बार रेस्टोरेंट’ में तरह-तरह की शराब को सोडे में मिला-मिलाकर गिलासों में ढालता और रात के दस-ग्यारह कभी-कभी बारह बजे थक कर अपने कमरे में सो जाता था। यही उसकी अब दिनचर्या थी।

कितना चाहता था अपना अतीत भूल जाए; पर क्या संभव था ! ड्यूटी की समाप्ति पर शय्या पर पड़े जब नींद नहीं आती थी। तब वही अतीत कौंधता रहता था। बचपन की यादें, अतीत की सुखद स्मृति, यौवन के स्वप्न और उनकी प्रगति और तब अचानक वह हादसा जिसके कारण जैसे उसकी ज़िन्दगी ठहर-सी गई, सब उसे बेचैन करते रहते थे।
माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् उसकी आर्थिक स्थिति इतनी गिर गई कि वह अपनी छोटी बहिन का इलाज भी ठीक से नहीं करा सका। निमोनिया इतना बिगड़ा कि वह उसकी जान ही ले बैठा। मामा के साथ वह रहता था और उन पर बोझ न पड़े, उनकी हर तरह से सहायता करने को तत्पर। साथ ही समय निकाल कर कुछ अतिरिक्त काम भी कर अपनी पढ़ाई का ख़र्चा जुटाता था। कैसे वह गाड़ी धकेल रहा था यह वही जानता था। उसमें कोई व्यसन नहीं था। सच तो यह है कि व्यसन और श़ौक पालने की उसमें सामर्थ्य ही नहीं थी।

अपने काम में कुशल परिश्रमी-मेधावी चन्द्रमौलि कुलश्रेष्ठ कम बोलने वाला केवल अपने काम से मतलब रखने वाला था। उसका सपना था एक बाल चिकित्सक बनना दो अपनी बहिन की मृत्यु के फलस्वरूप उसने सँजोया। इसी पथ की ओर उसके क़दम बढ़ रहे थे। मैडिकल कॉलेज दिल्ली से उसने एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई पूरी की। ‘बाल चिकित्सा और मनोविज्ञान’ विषय उसने एम.डी. के लिए चुना।

कब उसकी अस्मिता अष्ठाना से पहली भेंट हुई, उसे ठीक से याद नहीं था। कैसे मित्रता का प्रारंभ हुआ, यह भी उसे याद नहीं आया। वह उससे एक साल जूनियर थी। दोनों ही कम बोलने वाले अति परिश्रमी और अपने लक्ष्य पर पहुँचने को आतुर थे। यही समानता उन्हें-पास ले आई, वे अच्छे मित्र बन गए। दोनों अध्ययन में जुटे थे। थक जाने पर छोटा-सा ब्रेक चाय के प्याले की चुस्की, तब ही कुछ नपी-तुली बातें होती थीं पर वह भी अध्ययन से जुड़ी। इसी बीच दोनों को एक-दूसरे की पारिवारिक स्थिति और वातावरण का परिचय मिला।
चन्द्रमौलि के विपरीत अस्मि अमीर घर की बेटी थी जहाँ किसी बात की कमी नहीं थी। फिर भी उनकी मित्रता में इस विपरीतता का नामोनिशान नहीं था।
 
क्या उनमें प्यार था ? क्या कभी आकर्षण हुआ ? यह कम से कम उस समय दोनों में से किसी को भी शायद ज्ञात नहीं था। शायद इस बात पर कभी उनका ध्यान गया ही नहीं था। शायद अपने लक्ष्य की प्राथमिकता के कारण उन्होंने कभी सोचा ही नहीं। सच्चाई क्या थी, कभी किसी ने अपना दिल टटोल कर नहीं देखा।


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