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प्रेमचंद घर में

शिवरानी देवी प्रेमचंद

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4021
आईएसबीएन :81-7043-473-4

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प्रस्तुत है प्रेमचंद के जीवन पर आधारित पुस्तक...

Premchand Ghar Mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्रद्धांजलि

स्वर्गीय प्रेमचंदजी के घर पर दो दिन रहने का सौभाग्य मुझे आज से 23 वर्ष पूर्व प्राप्त हुआ था और तभी से मैंने इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक की लेखिका के दर्शन भी किये थे। उस समय ‘विशाल भारत’ में मैंने एक लेख लिखा था—‘प्रेमचंदजी के साथ दो दिन’। उसका अंतिम वाक्य था-

‘‘प्रेमचंदजी के सत्संग में एक अजीब आकर्षण है। उनका घर एक निष्कपट, आडम्बर-शून्य सद्गृहस्थ का घर है और यद्यपि प्रेमचंद जी काफी प्रगतिशील हैं—समय के साथ बराबर चल रहे हैं—फिर भी उनकी सरलता तथा विवेकशीलता ने उनके गृह-जीवन के सौन्दर्य को अक्षुण्ण तथा अविचलित बनाये रखा है।’’

श्रीमती शिवरानी देवी जी के ग्रन्थ को पढ़ते हुए वे पुरानी स्मृतियाँ जागृत हो गईं। प्रेमचंद जी के दर्शन मैंने सन् 1924 में लखनऊ में किए थे और पत्र-व्यवहार तो उनके स्वर्गवास से कुछ महीने पहले तक होता रहा था। अपने उस जनवरी’ 32 वाले लेख में मैंने लिखा था—

‘‘प्रेमचंदजी के सिवा भारत की सीमा का उल्लंघन करने की क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिन्दी कलाकार इस समय हिन्दी जगत में विद्यमान नहीं है और आज भी, जबकि उनकी रचनाएँ अन्तर्राष्ट्रीय कीर्ति प्राप्त कर चुकी हैं, मुझे वही वाक्य दुहराना पड़ता है।’’

भले ही कुछ मनचले लेखक अपने को प्रेमचंद या गोर्की के मुकाबले का समझें पर यह उनकी अहम्मन्यता ही है। प्रेमचंद अद्वितीय थे। और चिरकाल तक अद्वितीय रहेंगे। वैसे हिन्दी माता एक-से-एक योग्य सपूत को जन्म देती रही है और भविष्य में भी वह गोद सूनी न होगी, पर प्रेमचंद अपने ढंग के निराले थे और उनके इस निरालेपन को कोई छीन नहीं सकता। कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता।

प्रेमचंदजी जैसे उच्च कोटि के कलाकार के गृह-जीवन की झांकियां देखने के लिए पाठकों की इच्छा होना सर्वथा स्वाभाविक है और निसन्देह हिन्दी जगत के लिए यह बड़े गौरव की बात है कि श्रीमती शिवरानी देवी ने इन झांकियों को बड़ी स्पष्टता, सहृदयता और ईमानदारी के साथ दिखलाया है। एक बात इस ग्रन्थ के प्रत्येक अध्याय से बिल्कुल साफ़-साफ़ ज़ाहिर हो जाती है,
वह यह कि श्रीमती शिवरानीजी का अपना अलग व्यक्तित्व है। उनमें विचार करने का और उन विचारों को प्रगट करने का साहस पहले ही मौजूद रहा है। इस पुस्तक में यद्यपि जगह-जगह पर उनकी पति-भक्ति के उदाहरण विद्यमान हैं, तथापि प्रेमचंदजी से मतभेद होने की भी कई मिसालें उन्होंने दी हैं और उनके कारण स्वयं उनका और पुस्तक का गौरव बहुत बढ़ गया है।

चित्र में जिस प्रकार प्रकाश और छाया भाग का उचित समिश्रण आवश्यक है उसी प्रकार चरित्र-चित्रण में खूबियों के साथ-साथ कमजोरियों का भी ज़िक्र आना ज़रूरी है। इस ग्रन्थ में लेखिका ने अपनी सहज स्वाभाविकता के साथ प्रेमचंदजी की त्रुटियों का उल्लेख कर दिया है। प्रेमचंदजी की एक उपपत्नी या रखैल का ज़िक्र ऐसे प्रसंग में किया गया है कि कोई भी सहृदय पाठक प्रेमचंदजी को अपराधी नहीं कह सकता और उन पर जज बनकर बैठ सकता है। अपनी अंतिम बीमारी के दिनों में वे मानों अपनी सती-साध्वी पत्नी से क्षमा-याचना कर रहे थे।

इस पुस्तक के कई प्रसंग इतने महत्त्वपूर्ण बन पड़े हैं कि उन्हें स्वतन्त्र पाठ के रूप में पाठ्य-पुस्तकों में उद्धृत किया जाना चाहिए। अभी उस दिन सुप्रसिद्ध रूसी पत्र ‘प्रवदा’ के भारतीय संवाददाता को हमने इसी पुस्तक से गोर्की-विषयक अध्याय अंग्रेज़ी में अनुवाद करके सुनाया। उसे पढ़ते हुए स्वयं हमारा गला भर आया और नेत्र सजल हो गये, जब कि इस प्रकार की घटना हमारे साथ बहुत ही कम घटती है। श्रीमती शिवरानी देवी ने लिखा है-

‘‘गोर्की के मरने की चर्चा वे कई दिनों तक करते रहे। जब-जब गोर्की के विषय में बातें करते, तब-तब उनके हृदय में एक प्रकार का दर्द-सा उठता दिखाई पड़ता। गोर्की के प्रति उनके हृदय में असीम श्रद्धा थी। वही उनका अन्तिम भाषण था। गोर्की का कोई समकक्ष लेखक उनकी निगाह में नहीं आता था।’’

प्रेमचंदजी की अन्तर्राष्ट्रीयता का इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है ? यह भी एक दैवी दुर्घटना ही थी कि गोर्की और प्रेमचंद जी दोनों ही चार महीने के अंतर से उसी वर्ष स्वर्गवासी हुए। पर गोर्की का सम्मान उनके देश ने बहुत किया, जबकि हमलोग प्रेमचंदजी का यथोचित सम्मान न तो उनके जीवन में ही कर सके और न उनके स्वर्गवास होने के बाद इन बीस वर्षों में ! प्रेमचंदजी का कोई अच्छा स्मारक हमारे यहां विद्यमान नहीं।

प्रेमचंदजी के पास घुटभइयों की भीड़ लगी रहती थी और दिन-भर वे अपना साहित्यिक कार्य भी नहीं कर पाते थे। रात को उठकर उन्हें काम करना पड़ता था। जब भी शिवरानीदेवी ने इसकी आलोचना की तो उन्होंने कहा-
‘‘फिर वे बिचारे कहां जायं ? शुरू-शुरू में कुछ लिखना चाहते हैं। वे लोग बिना पतवार की नाव की तरह हैं।
उन्हीं समस्याओं को सुलझाने के लिए वे इतनी दूर से मेरे पास आते हैं। अगर मैं उनसे बात न करूं तो कहां जायेंगे ? फिर यह भी तो है कि कुछ दिनों में इन्हीं के हाथ तो साहित्य की बागडोर जावेगी। उनको ठीक-ठीक रास्ते पर ले जाना हम लोगों की ज़िम्मेदारी है।
 उस ज़िम्मेदारी का पालन ठीक-ठिकाने से न करूं तो मेरा ही दोष होगा। तब हम उन्हें असाहित्यिक, कुसंस्कारी आदि कहने का अधिकार नहीं रखते। फिर जो गुण जिसे आता है उसे सबको सिखाना चाहिए।’’
प्रतिष्ठित लेखकों के लिए प्रेमचंदजी के इन वाक्यों में एक संदेश है।

यदि प्रेमचंदजी के जीवन पर कभी कोई फिल्म बनाई जाय, और हमें दृढ़ विश्वास है कभी-न-कभी यह ज़रूर बनेगी, तो इस पुस्तक में कई घटनाएं ऐसी मिलेंगी जो बड़े प्रभावशाली ढंग से चित्रित की जा सकती हैं। ‘हंस’ के प्रेमचंद अंक में 25 जून 1936 की जो हृदय-बेधक डायरी उन्होंने दी थी उसकी याद करके अब भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। खून की कै हो रही है, रात-भर नींद नहीं आ रही, फिर भी रोशनी करके ‘मंगल-सूत्र के पृष्ठ-पर-पृष्ठ लिखे जा रहे हैं !

 भय के मारे शिवरानी रोकती हैं तो कभी-कभी रुक जाते हैं और अनेक बार मना करने पर भी नहीं रुकते। शिवरानीजी उनकी खाट के आस-पास चक्कर काटती हैं और उनका सिर सहला देती हैं। युगयुगान्तर तक यब चित्र कलाकारों को प्रोत्साहित करता रहेगा।

प्रेमचंदजी तथा शिवरानी देवीजी के वार्तालाप इतने स्वाभाविक ढंग से लिखे गये हैं कि वे किसी भी पाठक पर अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहेंगे। इन वार्तालापों से जहां प्रेमचंदजी का सहृदयतापूर्ण रूप प्रकट होता है, वहीं शिवरानीजी का अपना अक्खड़पन भी कम आकर्षक नहीं है। यह बात इस पुस्तक के पढ़ने से स्पष्ट हो जाती है कि शिवरानी जी प्रेमचंद की पूरक थीं, उनकी कोरमकोर छाया या प्रतिबिम्ब नहीं।
तर्क में वे प्रेमचंदजी से कभी-कभी 21 ही बैठती हैं, 19 नहीं। जहां-जहां प्रेमचंद की पहली पत्नी के बारे में वाद-विवाद हुआ है पाठकों का समर्थन शिवरानीजी को ही मिलेगा। इस पुस्तक में उन्हेंने स्त्रियों की वकालत इस योग्यता से की है कि उनके सफल वकील होने में किसी को शक नहीं हो सकता। राज्य-सभा तथा विधानसभाओं में जो महिलाएं गई हुई हैं उनमें से कितनों ही के दर्शन करने का अवसर हमें मिला है। उनमें अनेक ऐसी हैं जो शिवरानीजी के चरण-स्पर्श करने की योग्यता नहीं रखतीं; और फिर शिवरानीजी ने तो स्वाधीनता-संग्राम में भाग भी लिया था और वे जेल भी गई थीं।
एक योद्धा महिला

Mrs.Premchand would feel so much delighted to have your review. She has received scant justice from litrary world yet. Because I overshadow her or may be because some wisacers may be thinking. I am the real author ! I do not deny that I am responsible litrery finish but the conception and execution is entirel hers. A militant woman speaks in every line, a man of my peaceful disposition could not conceive such aggressively womanish plots.’’

अर्थात् ‘‘श्रीमती प्रेमचंद को बहुत प्रसन्नता होगी यदि आप उनकी पुस्तक की आलोचना कर सकें। साहित्य-जगत से उन्हें अभी तक बहुत कम इन्साफ़ मिला है। सम्भवतः इसका कारण यह है कि उन पर मेरे व्यक्तित्व की छाया पर जाती है और यह भी मुमकिन है कि कुछ अक्लमन्दों की निगाह में मैं ही उनकी रचनाओं का असली लेखक हूं ! मैं इस बात से इन्कार नहीं करता कि इन कहानियों के साहित्यिक साज-सिंगार में मैंने मदद दी है, पर कहानियों की कल्पना श्रीमती प्रेमचंद की है, और उसे पूरी तौर पर रूप भी उन्हों ने ही दिया है। एक योद्धा स्त्री उनकी प्रत्येक पंक्ति में बोल रही है। मेरे जैसा शान्तिमय स्वभाववाला आदमी इस प्रकार के अक्खड़पन से भरे ज़ोरदार स्त्री जाति सम्बन्धी प्लाटों की कल्पना भी नहीं कर सकता था।’’

‘प्रेमचंद : घर में’ पुस्तक में भी श्रीमती शिवरानी का यह रूप निरन्तर सामने आता रहता है।
जनवरी सन् 1932 में हमने ‘विशाल भारत में लिखा था-

‘हिन्दीवालों के लिए सचमुच कलंक की बात है कि उनके सर्वश्रेष्ठ कलाकार को आर्थिक संकट बना रहता है। संभवतः इसमें कुछ दोष प्रेमचंदजी का भी है, जो अपनी प्रबन्ध-शक्ति के लिए प्रसिद्ध नहीं और जिनके व्यक्तित्व में वह लौहदृढ़ता भी नहीं जो उन्हें साधारण कोटि के आदमियों के शिकार बनने से बचा सके। कुछ भी हो पर हिन्दी जनता अपने अपराध से मुक्त नहीं हो सकती। हमें इस बात की आशंका है कि आगे चलकर हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखक को कहीं यह न लिखना पड़े—

‘‘ ‘दैव ने हिन्दी वालों को एक उत्तम कलाकार दिया था, जिसका उचित सम्मान वे अपनी मूर्खतावश न कर सके।’ ’’ आज 23 वर्ष बाद हम फिर अपनी उस बात को दुहरा रहे हैं—प्रेमचंद के जीवन-काल में हम उनका कुछ भी सम्मान न कर सके। क्या अब 20 वर्ष बाद भी उनकी स्मृति में किसी महान् साहित्यिक यज्ञ का सूत्रपात नहीं कर सकते ?
अन्त में एक बात और। इस पुस्तक की लेखिका शिवरानीजी प्रेमचंदजी की अर्द्धांगिनी हैं और इसलिए सम्मान की अधिकारी हैं पर स्वाधीनता-संग्राम की एक सिपाहिन के नाते भी वे हम सब के लिए वन्दनीय हैं, अभिनन्दनीय हैं।

-बनारसीदास चतुर्वेदी

99 नार्थ एवेन्यू, नई दिल्ली
21 जुलाई, 1956

दो शब्द

पाठकों के सामने इस पुस्तक को रखते हुए मुझे वही सुख अनुभव हो रहा है जो किसी व्यक्ति को अपना कर्तव्य पूरा करने से होता है। इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य उस महान आत्मा की कीर्ति फैलाना नहीं है, जैसा कि अधिकांश जीवनियों का होता है। इस पुस्तक में आपको घरेलू संस्मरण मिलेंगे पर इन संस्मरणों का साहित्यिक मूल्य भी इस दृष्टि से है कि उनसे उस महान् साहित्यिक के व्यक्तित्व का परिचय मिलता है।
मानवता की दृष्टि से भी वह व्यक्ति कितना महान्, कितना विशाल था, यही बताना इस पुस्तक का उद्देश्य है। और यह बताने का अधिकार जितना मुझे है उतना और किसी को नहीं, क्योंकि उन्हीं के शब्दों में हम दोनों ‘एक ही नाव के यात्री’ थे और हमने साथ-साथ ही जिन्दगी के सब तूफानों को झेला था, दुःख और सुख में मैं हमेशा उनके साथ, उन के बगल में थी। आदमी की पहचान तकलीफ़ के भंवर में पड़कर ही होती है और चूंकि हम दोनों साथ-साथ उन तकलीफ़ों से लड़े, साथ-साथ रोय और हंसे, इसीलिए मुझे उनकी विशालता का थोड़-सा अन्दाज़ लगाने का मौका मिला।

उनके और उनके असंख्य प्रेमियों के प्रति यह मेरी बेवफाई होती अगर मैं उनकी मानवता का थोड़-सा परिचय न देती। मेरा विश्वास है कि यह पुस्तक साहित्यिक आलोचकों को भी प्रेमचन्द-साहित्य समझने में मदद पहुंचायेगी क्योंकि उनकी आदमियत की छाप उनकी एक-एक पंक्ति और एक-एक शब्द पर है।

पुस्तक के लिखने में मैंने केवल एक बात का अधिक-से-अधिक ध्यान रखा है और वह है ईमानदारी, सचाई। घटनाएं जैसे-जैसे याद आती गईं हैं, मैं उन्हें लिखती गई हूं। उन्हें सजाने का न तो मुझे अवकाश था और न साहस। इसलिए हो सकता है कि कहीं-कहीं पहले की घटनाएं बाद में और बाद की घटनाएं पहले आ गई हों। यह भी हो सकता है कि अनजाने में ही मैंने किसी घटना का जिक्र दो बार कर दिया हो। ऐसी भूलों को पाठक क्षमा करेंगे।

साहित्यिकता के भूखे पाठकों को सम्भव है इस पुस्तक से कुछ निराशा हो क्योंकि साहित्यिकता मेरे अन्दर ही नहीं है। पर मेरी ईमानदारी उनके दिल के अन्दर घर करेगी, यह मैं जानती हूं; कि अगर उनके गुणों का बखान करने में मैं तिल का ताड़ भी बनाती तो भी उनके चरित्र की विशालता का पूरा परिचय न मिल पाता। पर मैंने तो सभी बातें, बगैर अपनी तरफ़ से कुछ भी मिलाये, ज्यों-की-त्यों कह दी हैं


शिवरानी देवी प्रेमचंद

प्रेमचंद : घर में



1
बचपन



प्रेमचन्द का जन्म बनारस से चार मील दूर लमही गांव में सावन बदी 10, संवत् 1937 (31 जुलाई, सन् 1880 ई.) शनिवार को हुआ था। पिता का नाम अजायबराय था, माता का नाम आनन्दी देवी। आप कायस्थ दूसरे श्रीवास्तव थे। आपके तीन बहने थीं। उनमें दो तो मर गईं, तीसरी बहुत दिनों तक जीवित रही। उस बहन से आप 8 वर्ष छोटे थे। तीन लड़कियों की पीठ पर होने से आप तेतर कहलाते थे।
माता हमेशा की मरीज़ थीं। आपके दो नाम और थे—पिता का रखा हुआ नाम धनपतराय, चाचा का रखा हुआ नाम मुंशी नवाबराय। माता-पिता दोनों को संग्रहणी की बीमारी थी। पैदा होने के दो-तीन साल बाद आपको जिला बांदा जाना पड़ा।
आपकी पढ़ाई पांचवें वर्ष में शुरू हुई। पहले मौलवी साहब से उर्दू पढ़ते थे। उन मौलवी साहब के दरवाजे पर सब लड़कों के साथ पढ़ने जाते थे। आप पढ़ने में बहुत तेज थे। लड़कपन में आप बहुत दुर्बल थे। आपकी विनोदप्रियता का परिचय लड़कपन से ही मिलता है। एक बार की बात है—कई लड़के मिलकर नाई नाई का खेल खेल रहे थे। आपने एक लड़के की हजामत बनाते हुए बांस की कमानी से उसका कान ही काट लिया। उस लड़के की मां झल्लाई हुई आपकी मां से उलाहना देने आई। आपने जैसे ही उसकी आवाज सुनी, खिड़की के पास दबक गये। मां ने दबकते हुए देख लिया था, पकड़कर चार झापड़ दिये।

मां—‘उस लड़के के कान तूने क्यों काटे ?’
‘मैंने उसके कान नहीं काटे, बल्कि बाल बनाए हैं।’
‘उसके कान से तो खून बह रहा है और तू कह रहा है कि मैंने बाल बनाये हैं।’
‘सभी तो इस तरह खेल रहे थे।’
‘अब ऐसा न खेलना।’
‘अब कभी न खेलूंगा।’

एक और घटना है। चाचा ने सन बेचा और उसके रुपये लाकर उन्होंने ताक पर रख दिये। आपने अपने चचेरे भाई से सलाह की, जो उम्र में आपसे बड़े थे। दोनों ने मिलकर एक रुपया ले लिया। आप रुपया उठा तो लाये; मगर उसे खर्च करना नहीं आता था। चचेरे भाई ने उस रुपये को भुनाकर बारह आने मौलवी साहब की फीस दी। और बाकी चार आनों में से अमरूद, रेवड़ी वगैरह लेकर दोनों भाइयों ने खायी।

चाचा साहब ढूंढ़ते हुए वहां पहुंचे और बोले—‘तुम लोग रुपया चुरा लाये हो ?’’
आपके चचेरे भाई ने कहा—‘हां एक रुपया भैया लाये हैं।’
चाचा साहब गरजे—‘वह रुपया कहां है ?’
‘मौलवी साहब को फीस दी है।’

चाचा साहब दोनों लड़कों को लेकर मौलवी साहब के पास पहुंचे और बोले—‘इन लड़कों ने आपको पैसे दिये हैं ?’
‘हां, बारह आने दिए हैं।
‘उन्हें मुझे दीजिए।’
चाचा साहब ने फिर उनसे पूछा—‘चार आने कहां हैं ?’

‘उसका अमरूद लिया।’
इस बात का उल्लेख करते हुए उन्होंने अपने बचपन के बारे में खुद सुनाया था—चाचा अपने लड़के को पीटते हुए घर लाये। मेरी शक्ल अजीब हो गई थी। मैं डरता-डरता घर आया। मां एक लड़के को पिटता देखकर मुझे भी पीटने लगीं। चाची ने दौड़कर मुझे छुड़ाया। मुझे ही क्यों छुड़ाया, अपने बच्चे को क्यों नहीं छुड़ाया, मैं नहीं जान सका। शायद मेरी दुर्बलतावश उन्हें दया आ गई हो।

अंधेरा के पुल का चमरौधा जूता मैंने बहुत दिनों तक पहना है। जब तक मेरे पिताजी जीवित रहे तब तक उन्होंने मेरे लिए बारह आने से ज्यादा का जूता कभी नहीं खरीदा, और चार आने गज़ से ज्यादा का कपड़ा कभी नहीं खरीदा। मैं सम्मिलित परिवार में था, इसलिए मैं अपने को अलग नहीं समझता था। मैं अपने चचेरे भाइयों को मिलाकर पांच भाई था। जब मुझसे कोई पूछता तो मैं यही बतलाता कि हम पांच भाई हैं। मैं गुल्ली-डण्डा बहुत खेलता था।

 जब मैं आठ साल का था, तभी मेरी मां बीमार पड़ीं। छः महीने तक वे बीमार रहीं। मैं उनके सिरहाने बैठा पंखा झलता था। मेरे चेचेरे, जो मुझसे बड़े थे, दवा के प्रबन्ध में रहते थे। मेरी बहन ससुराल में थी। उनका गौना हो गया था। मां के सिरहाने एक बोतल शक्कर से भरी रहती थी। मां के सो जाने पर मैं उसे खा लेता था। मां के मरने के आठ-दस रोज पहले मेरी बहन आई। घर से मेरी दादी भी आ गईं। जब मेरी मां मरने लगीं तो मेरा, मेरी बहन का तथा बड़े भाई का हाथ मेरे पिता के हाथ में देकर बोलीं—‘ये तीनों बच्चे तुम्हारे हैं।’

बहन, पिता तथा बड़े भाई सभी रो रहे थे। पर मैं कुछ भी न समझ रहा था। मां के मरने के कुछ दिन बाद बहन अपने घर चली गई। दादी, भैया और पिताजी रह गये। दो-तीन महीने बाद दादी भी बीमार होकर लमही चली आईं। मैं और भैया रह गए। भैया दूध में शक्कर डालकर मुझे खूब खिलाते थे; पर मां का वह प्यार कहां ! मैं एकांत में बैठकर खूब रोता था।
पांच-छः महीनों के बाद मेरे पिता भी बीमार पड़े। वे लमही आये। मैं भी आया। मेरा काम मौलवी साहब के यहां पढ़ना, गुल्ली-डण्डा खेलना, ईख तोड़कर चूसना और मटर की फली तोड़कर खाना-चलने लगा।

पिताजी जब बहन के यहां जाते तो अपने साथ मुझे अवश्य ले जाते। मैं अपनी दादी से कहानियां खूब सुनता। दादी और भैया में झगड़ा भी हो जाता। मैं दादी से अपनी तरफ मुंह करने को कहता, भैया अपनी तरफ। दादी मुझे अधिक मानती थीं।

फिर मेरे पिता की बदली जीमनपुर हुई। वहां पिताजी के साथ मैं, और दादी गये। भैया इंदौर गये।
कुछ दिनों बाद चाची1 आईं। यह शादी दादी को अच्छी नहीं लगी। चाची के साथ उनके भाई विजयबहादुर भी आये। चाची आते ही मालकिन बनीं। चाची विजयबहादुर को बहुत मानती थीं, मुझे कम। पिता जी डाकखाने से जो भी चीज खाने के लिए लाते, चाची की इच्छा रहती कि वे उन्हें खुद खायें। वे उनकी लाई हुई चीजों को पिता के सामने रखतीं तो पिताजी बोलते—मैं ये चीज़ें बच्चों के लिए लाता हूं। जब चाची न मानतीं तो पिता जी झल्लाकर बाहर चले जाते।
किसी तरह एक साल बीता। बहन अपने घर गई। दादी भी घर आईं और मर गईं।

   



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