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न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

4


“कहाँ ! तुम्हारे नये गेस्ट का क्या हुआ? दिखाई तो नहीं पड़ रहा है?” प्रवासजीवन के कमरे में आकर सौम्यजीवन ने पूछा।

दिव्य पिता को 'आप' कहता है लेकिन सौम्य नहीं। बचपन से ही कहता था, “धत्, पिताजी को कोई आप कहता है? किसी दूसरे के घर के आदमी हैं क्या? फिर तो माँ को भी आप कहना चाहिए।”।

यूँ स्वयं दूसरे घर के लोगों की तरह दूर दुर्लभ हो जाने पर भी सम्बोधन 'निकट' का ही है।

इस कमरे में अचानक ऐसे आता ही कब है सौम्य?

प्रवासजीवन भी आजकल हर बात पर हड़बड़ा उठते हैं। यही आजकल उनकी बीमारी है। शायद हर समय अतीत में खोये रहने के कारण अन्यमनस्क रहते हैं।

इसीलिए हड़बड़ाकर पूछ बैठे, “नया गेस्ट?"

“वाह ! सुना था न कि कोई यहाँ आकर रहेगा और यहीं से दफ़्तर आना-जाना करेगा।"

“ओ ! वह तेरी लाबू बुआ का लड़का। हाँ, लाबू ने चिट्ठी में ऐसा ही कुछ लिखा तो था। पर लड़के ने आकर भेंट करने के बाद कहा, माँ को हुगली में अकेला छोड़कर कलकत्ते में रहने का मन नहीं कर रहा है।"

"लेहलुआ।” सौम्य बोला, “जबरदस्त बहस होते सुनकर मैंने सोचा आ ही गया है। मुझे तो लगा था अच्छा ही हुआ। सुना है भांजे मामा को प्रिय होते हैं तुम्हें एक बात करनेवाला मिलता।"

धीरे से पूछा प्रवासजीवन ने, “तू मेरे बारे में इतनी बातें सोचता है?"

सिर खुजलाते हुए कुछ हँसकर सौम्य बोला, “ठीक सोचता हूँ कहना ठीक न होगा लेकिन सुनकर लगा ज़रूर था। सोचा था तुम्हारे कमरे के उस डीवान पर महात्मा के सोने की व्यवस्था कर दी गयी तो मामा भांजे मौज़ से बातें कर सकोगे। हम लोग तो किसी काम आते नहीं हैं।"।

प्रवासजीवन ने छोटे बेटे को क्या नये सिरे से देखा? ज़रा अवाक् होकर देखने लगे। न, जल्दी नहीं मचा रहा है। अपने भाई की तरह 'सर्वदा व्यस्त' वाली मुद्रा का कहीं कोई आभास तक नहीं।।

धीरे से दबी आवाज़ में बोले, “रहने के लिए ही आया था। मैंने ही कह दिया, यहाँ तुझे सुविधा नहीं होगी।"

सौम्य ने पिता के चेहरे की ओर देखा। बोला, “ओह !' प्रवासजीवन जो कभी नहीं कहते हैं, वही कह बैठे। बोले, “ज़रा बैठ न।” हालाँकि सौम्य बैठा नहीं परन्तु उनके पलँग के पास तक चला आया।

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