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न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

17


अजीब-सी निःसंगता के बीच दिन बीत रहे थे प्रवासजीवन के। खींचतान कर गृहस्थी से जितना सम्पर्क था वह भी टूटता जा रहा था।

डॉक्टर के कहने पर सुबह-शाम ज़रा टहलने जाते हैं प्रवासजीवन। उनके साथ देबू रहता है। वे मना करते हैं फिर भी वह आता है।

प्रवासजीवन कहते, “घर का कामकाज छोड़कर आने की क्या ज़रूरत है? मैं कोई रास्ते के बीच से चलूँगा नहीं पटरी-पटरी चलता पार्क पहुँच जाऊँगा।”

देबू कहता, “घर में इस वक़्त कोई काम नहीं है।”

"काम नहीं है? क्या कह रहा है? तुझे यूँ ही रख रखा है? हैं? हा हा हा हा।"

हँसते-हँसते पार्क में प्रवेश करते।

लेकिन बैठने लायक जगह है क्या पार्क में? बैठने लायक एक भी समूची बेंच है?

यहाँ-वहाँ दुनिया भर के फालतू लड़कों का जमघट लगा था। लेकिन और कोई उपाय भी तो नहीं? और कहाँ जायें? थोड़ी देर बैठना भी है।

एक पावा हिलती टूटी-सी बेंच खाली थी। देबू ने उसी को ईंटें लगाकर बैठने लायक कर दिया। वह अपने साथ दो पुराने अख़बार भी लाया है। बेंच पर बिछा दिये तो प्रवासजीवन बैठ गये।

उन्हें एकाएक लगा देबू से बढ़कर दुनिया में उनका सगा कोई नहीं। देबू के अलावा उनसे बात करनेवाला और कोई कहाँ है? वह भी घर में बोलना सम्भव नहीं। नौकर-चाकर के साथ बातें करना... छिः ! प्रेस्टिज़ नाम की भी तो कोई चीज़ होती है। चैताली उनसे काम के अतिरिक्त एक भी इधर-उधर की बातें नहीं करती है। इसीलिए दूसरा कोई अगर ऐसा करता है तो उसे हीन दृष्टि से देखती है वह।

इसीलिए प्रवासजीवन पार्क में आकर बोले, "तुझे अपनी माताजी याद हैं रे देबू?"

“माताजी भला याद न होंगी? आप भी क्या बात करते हैं बाबूजी?' "तुझसे बहुत प्यार करती थीं।" ..

“यह क्या मुझे पता नहीं है? आया ही था बचपन में। माँ तो घर के बच्चों की तरह पूछा करती थीं “क्यों रे देबू, भूख लगी है?" एक बार इतने बड़े-बड़े आम आये, फजली आम थे। देखकर मैं बोल उठा, 'अरे वाप रे, कितने बड़े-बड़े आम हैं रे बाबा ! ये तो तकिया की तरह सिर के नीचे रखकर सोये जा सकते हैं।' सुनकर माताजी खूब हँसीं। उसके बाद सबसे बड़ा आम उठाकर मेरे हाथ पर रखते हुए बोलीं, 'ले तो फिर सिर के नीचे रखकर सो जाया कर। भूख लगे तो एक कोने से काट-काटकर खाते रहना।' माँ तो हँसे बगैर रह ही नहीं सकती थीं।"।

"देबू, मैं जब तक जिन्दा हूँ तू इस घर का काम छोड़कर चला तो नहीं जायेगा?'

देबू ने अपनी बात पर जोर डालते हुए कहा, “आप ही के लिए तो पड़ा हुआ हूँ, बाबूजी। वरना रह-रहकर मन में आता है, छोड़-छाड़कर चला ही जाऊँ !"

प्रवासजीवन चुप हो गये। इस विषय पर ज़्यादा बातचीत करना निरापद नहीं। लेकिर देबू छटपटाने लगा।

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