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न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

22


कुछ दिनों से प्रवासजीवन एक चिट्ठी लिखने की तैयारी कर रहे थे। लिखते, पढ़ते और फिर फाड़ डालते। फिर लिखते। अन्त में एक दिन लिखकर तैयार कर ली तो पूछा, “तुम लोगों के चाचाई कब लौटते हैं?

हाथ उलटकर काटुम बोला, “कभी-कभी शाम को और कभी-कभी खूब रात को। उस समय तो मैं सो जाता हूँ।"

“अच्छा जिस दिन तुम सोओगे नहीं उस दिन चाचाई से कहना एक बार मेरे पास आये।"

काटुम का अभी-अभी एक दाँत गिरा है। उसी टूटे दाँत की खाली जगह को प्रदर्शित करते हुए, मधुर मुस्कान बिखेरते हुए बोला, “तुम्हारे पास आते हुए चाचाई को शर्म आती है।"

“ऐं ! मेरे पास आते हुए शर्म आती है? तुझसे किसने कही है ये बात?' "चाचाई ने खुद कहा है।" "किससे कहा है?"

“बाबाई से, मॉमोनी से, मुझसे, काटाम से, सबसे। कहा है, "पिताजी के कमरे में जाते हुए शर्म आती है।” –तुम्हारा कमरा चाचाई को स्कूल लगता है इसीलिए एबसेण्ट रहता है।"

प्रवासजीवन को लगा, बात तो सच है। आजकल कुछ ज़्यादा ही एबसेण्ट रहने लगा है। गले की आवाज़ तक सुनायी नहीं पड़ती है। आख़िरी बार जाने कब देखा था। शायद बारह-चौदह दिन हो गये हैं।  आजकल रात का खाना भी तो विलीन हो गया है। रात को खाते हैं दो बिस्कुट और एक कप हार्लिक्स।

हाल ही में हृदय पर प्रेशर महसूस करने पर डॉक्टर ने यही आदेश दिया है। सुबह?

सुवह सौम्य जल्दी उठ नहीं पाता है। देर तक सोता रहता है। इसीलिए उठते ही भगदड़ मच जाती है।

काटुम ने कहा, “तो एक काम क्यों नहीं करते हो तुम ही चाचाई के कमरे में चले जाओ। जिस वक्त वह कमरे में रहते हैं, मुलाकात हो जायेगी।"

“तरा चाचाई रहता किस समय है मुझे तो यही नहीं पता।"

फिर मन ही मन सोचते रहे 'मुझे भी तो चाचाई के कमरे में जाते हुए शर्म आती है। पता नहीं तेरे माँ-बाप क्या समझ बैठे। सोच सकते हैं कि कनिष्ठ पुत्र के साथ सलाह-मशविरा हो रहा है।'  

बोले, “तेरा चाचाई तो तिमंज़िले पर रहता है। मैं सीढ़ी चढूँगा तो डॉक्टर मुझे मारेंगे।”

“मारेंगे? बुड्ढे आदमी को कोई मारता है? सब फालतू बातें हैं। बुड्ढे लोग सिर्फ़ फालतू बातें करते हैं।"

लेकिन प्रवासजीवन ने इतनी बार करेक्शन कर-करके आखिरकार चिट्ठी लिखी किसे है?

और अचानक इसके लिए छोटे लड़के की ही क्यों इतनी ज़रूरत आ पड़ी? जो लड़का साथ-साथ रहने पर भी दस-बीस दिनों से पिता से मिला तक नहीं।

बड़ा लड़का तो हर समय उत्तेजित रूप लिये आता-जाता रहता है। जो सिवाय शिकायत करने के और कुछ करता नहीं है। जिसकी आवाज़ में, भाषा में व्यंग्य के अलावा दूसरा सुर नहीं बजता है। लेकिन कैसी भी भाषा हो, कैसा भी सुर हो, सुनते हैं प्रवासजीवन।

प्रवासजीवन कभी-कभी सोचते हैं, सौम्य अवश्य ही राजनीति के दाँवपेंच से दूर है। वह अवश्य ही कोई अच्छे काम से जुड़ा है। हालाँकि जब 'कैसा काम है? पूछते हैं तब हँसकर टाल जाता है। फिर भी लगता है 'जनसेवा' जैसा ही कोई काम है।

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