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न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

“भाभी ! लड़की की बात सुन रही हो?'

“मैं बहुत सुन चुकी हूँ। तुम ही सुनो।"

चाचा बोले, “आज अगर उसकी चाची रहती-धूमधाम किये बगैर मानती? उस दफ़ा ही शादी के नाम पर..."

इस बात का किसी ने उत्तर नहीं दिया।

उस दिन इतनी ही बात हुई।

दो दिन बाद सुनीला ने पूछा, “कौन-सा दिन तय किया है?"

ऐसी निष्ठुरता के सामने खड़े रहकर सहसा ब्रतती को लगा ‘बहू की सास' जिन तत्त्वों से मिलकर बनती है, उन्हीं तत्त्वों से माँ भी बनी है।

उसके बाद अवहेलनापूर्वक बोली, “किसी भी दिन।”

"फिर भी पहले से बता देना। उस दिन मछली वगैरह न खाना ठीक होगा।

और सुनो, चाचा ने कहा है तुम्हारे लिए एक अच्छी साड़ी खरीद कर रखी है और तुम्हारी दादी का एक हार है। यह दोनों पहनकर जाना।”

ब्रतती बोली, “याद रखूँगी। और कुछ कहना है?

"और क्या कहूँगी? मेरे पास जो सोना दाना था, लड़की के लिए ही रख छोड़ा था लेकिन अब तो देख रही हूँ, भविष्य में वही बेचकर जीवन धारण करना पड़ेगा।"

ब्रतती से अब रहा न गया।

बोल उठी, “क्यों? पूर्णेन्दु बाबू महाराजिन की तनख्वाह भले न दें, क्या दो मुट्ठी खाने को भी नहीं देंगे?”

"क्या कहा? क्या कहा तूने?'

“जो कुछ कहा सुन तो लिया।”

“तू इतनी बड़ी बात कह गयी?"

ब्रतती थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोली, “हज़ारों ‘छोटी बातें' सुनने के बाद एक बड़ी बात कहने की इच्छा हो गयी, माँ।"

कहकर रुकी नहीं। वहाँ से चली गयी।

लेकिन सुनीला छोड़नेवाली कहाँ थीं?

उन्हें अब लड़की की इतनी उम्र में बेवक्त होनेवाली शादी में कोई उत्साह नहीं था।

गृहस्थी में एक छन्द विराज रहा था। लड़की की तनख्वाह देवर के हाथ में पकड़ाकर आत्माभिमान होता था सुनीला को।

कुछ ऐसे भाव प्रकट करती थीं कि देख लो, दो चौके एक हो जाने से तुम्हें कोई नुकसान हो रहा है ऐसी बात मत सोच लेना। हम अपने पैसे से ही खा रहे हैं। बल्कि तुम्ही बिना मेहनत और कामकाज किये हर चीज़ पा जाते हो।

इसीलिए सुनीला ने सोचा जब बात छिड़ ही गयी है तो तब खुलासा कर लेना ही ठीक होगा। फिर जाने कब बात करने का मौक़ा मिले या न मिले।

वह लड़की के पीछे-पीछे कमरे में आ गयीं।

बोलीं, “गहने की बात इस तरह से कहने की मेरी इच्छा नहीं थी। तुम्हें बिल्कुल ही वंचित करने की इच्छा नहीं थी। सुना था अब क़ानून हो गया है कि शादीशुदा लड़की भी बूढ़े माँ-बाप की जिम्मेदारी उठाने को बाध्य है। उस तरह की व्यवस्था अगर सचमुच ही है तो न हो चूड़ी, कड़े.."

ब्रतती मुड़कर खड़ी हुई।

दोनों हाथ जोड़कर बोली, “दुहाई है, अब तुम मुझे छोड़ दो। इस बात को लेकर माथापच्ची मत करो। शादी-वादी नहीं करूँगी। निश्चिन्त रहो, जब तक ज़िन्दा रहूँगी तुम्हारा भार उठाने को बाध्य रहूँगी।"।

कहने के बाद ही ब्रतती स्वयं अवाक् हो गयी। ऐसी निष्ठुरतापूर्ण बात उसने मुँह से निकाली कैसे? किसने कहा? स्वयं व्रतती ने?

लेकिन अब तो कुछ नहीं हो सकता था। मुंह से निकली बात को पकड़कर रखनेवाले यन्त्र का तो आविष्कार हुआ है लेकिन बात को वापस कर देनेवाला यन्त्र है कहाँ?

सुनीला क्या भयंकर रूप से डर गयी?

नहीं तो बिलखकर रोयी होती, लड़की को मनाने-समझाने की कोशिश करती।

सुनीला लकड़ी के कुन्द की तरह बैठी रहीं।

उनके मुँह से अस्फुट एक आवाज़ निकली, “शादी नहीं करेगी?"

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