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न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

50


पत्नी को एकाकीपन से बचाने के लिए किंशुक को विशेष कोई उपाय नहीं सूझा तो वह दफ्तर से दो बार टेलीफोन करने लगा।

“क्या कर रही हो? 'कैसी हो?‘ सारी दोपहरी किचन में तो नहीं जुटी हुई हो? "

ऐसी ही बातें होतीं।

फिर भी दोपहर को आनेवाले फ़ोन पर ज्यादातर ऐसी ही बातें होतीं, “एई, शायद लौटते-लौटते रात हो जाय। गुस्सा मत होना।"

“ओह ! मेरे गुस्सा होने से तो हुजूर चींटी के बिल में जा घुसेंगे।"

“नहीं जाऊँ? तुम सच कह रही हो?”

“रहने दो। रोज़ घर में दो बार फ़ोन करते हो। लोग क्या सोचते होगी?"

“अरे कुछ सोच सके आसपास ऐसा आदमी ही नहीं है। एई मिंटू, इस समय क्या कर रही हो? कुछ नहीं? बड़ी मुश्किल है-कुछ किये बगैर क्या रहा जा सकता है? ज़रा सो ही तो सकती हो।"।

“ओ-हो हो. ये भी तो किया जा सकता है वैसे दोपहर में बुद्ध लोग सोया करते हैं।"

“हाँ, वही तो मुश्किल है। बाँग्ला भाषा की किताबें तो यहाँ दुर्लभ हैं। एक सज्जन कलकत्ता जायेंगे, उन्हें लिस्ट देकर कहा है। असल में मामला क्या है जानती हो? कोई सहज ही में यह सब लाने की ज़िम्मेदारी लेना नहीं चाहता है। प्लेन से आते हैं न !”

“ए मिंटू, घर से एक चिट्ठी आयी है। माँ ने लिखा है, दशहरे में हमें वहाँ जाने के लिए। दशहरा मतलब वही अक्टूबर-माँ ने अभी, मई के महीने से गाना शुरू कर दिया है।"

“यह सारी बातें घर आकर भी कही जा सकती हैं।"

"फिर भी दफ्तर से यह सारी बातें करना बहुत ज़रूरी लगता है।" और अन्त, घूम-फिरकर वही एक बात, “मिंटू आज शायद लौटते-लौटते रात हो जाये।"

मिंटू पूछती, “अच्छा फ़ोन पर सुनाने के लिए तुम्हारे पास एक कैसेट तैयार है क्या?"

"ऐं? क्या कह रही हो? छिः छिः। यही है तुम्हारी पतिभक्ति? मैं तो कितनी तरह की नयी-नयी बातें कहता हूँ। हाय-हाय।"

आज भी बहत सारी इधर-उधर की बातों के बाद किंशुक ने कहा था, “सुनो, आज भी शायद लौटने में..."

आज भी कहा था, “एक पार्टी है।"

न जाने क्यों सुनकर मिंटू को लगा आज उसे कुछ आज़ादी मिल गयी।

गनीमत है अभी बाल बाँधना नहीं पड़ेगा, शाम का स्नान जल्दी नहीं निपटाना होगा। पार्टी में गये हैं तो घर पर जलपान भी नहीं करेंगे।

जिस दिन पार्टी रहती है किंशुक घर आकर चाय तक नहीं पीता है।

सारे दिन भयंकर गरमी के बाद शाम को बहुत बढ़िया ठण्डी-ठण्डी हवा बह रही थी।

मिंटू खिड़की के पास मोढ़ा रखकर मज़े से हवा का उपभोग करने लगी। एकाएक पीछे से कन्धे पर हाथ का स्पर्श।

मिंटू चौंककर बोली, “यह क्या? आ गये? तुमने तो कहा था पार्टी है।" कहते-कहते उठकर खड़ी हो गयी।

किंशुक बोला, “बड़ी मुश्किल है। इसमें हड़बड़ाकर उठने की क्या बात हो गयी? जल्दी लौटकर वैसे मैंने काम बुरा किया है।"

मिंटू ने भौंहे सिकोड़ी।

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