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न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

19


"पिताजी, आपने देबू को एक महीने की छुट्टी दे दी है?” उत्तेजित दिव्यजीवन ने पिता के कमरे में क़दम रखा। जब कभी दिव्य इस कमरे में आता है इसी तरह आता है।

शुरू-शुरू में प्रवासजीवन इसका कारण नहीं समझ पाते थे। सोचते, दिव्य हर समय इतना गुस्से में क्यों रहता है? धीरे-धीरे समझ गये थे कि यह एक प्रकार की नर्वसनेस है। दूसरे की प्रेरणा पर या योजना में शामिल होकर स्वभाव विरुद्ध कुछ करना पड़ जाये तो आजकल के रीढ़ की हड्डीविहीन लड़कों का यही हाल होता है।

फिर भी प्रवासजीवन आश्चर्यचकित हुए।

पूछा, “मैंने छुट्टी दे दी है?"

"क्या आप कहना चाहते हैं कि नहीं दी है?"

“ताज्जुब है ! मेरे देने न देने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है? कहने लगा माँ शादी के लिए जोर डाल रही है, गये बगैर होगा नहीं। बस, मैंने यह सुनकर तनख्वाह दे दी है। तुम लोगों से उसने कुछ नहीं कहा है?"

"कहेगा क्यों नहीं? कहा है कि 'कल जा रहा हूँ।' गृहस्थी की सुविधा-असुविधा की बात सोचे बगैर ही अगर आपने तनख्वाह दे दी है तब तो वह साँप के पाँच पाँव देखेगा ही।”

प्रवासजीवन के जी में आ रहा था कहें, अगर वह शादी के लिए छुट्टी माँगे तो क्या तुम्हारी गृहस्थी की असुविधा के नाम पर उसे रोक सकोगे? बड़े-बड़े ऑफिसों में भी ऐसा कोई क़ानून नहीं है-छुट्टी देनी ही पड़ती है।

लेकिन मुँह तक आयी बात को गटक जाने की कला में धीरे-धीरे प्रवासजीवन माहिर हो चुके हैं।

इसीलिए बोले, “तुम लोगों से, चैताली से उसने कुछ भी नहीं कहा है? बड़े आश्चर्य की बात है ! मुझे तो यह सब पता ही नहीं था, बेटा।"

“घर-गृहस्थी के विषय में आप जानते ही क्या हैं?" दिव्य और अधिक उत्तेजित होकर बोला, “इधर ठीक इन्हीं दिनों भूषण 'बहन की शादी है' कहकर पहले से छुट्टी मंजूर करवाये बैठा है। इसके तो अर्थ हुए चैताली मरी।"

प्रवासजीवन तब भी नहीं कह सके, तो तुम्हारे भूषण ने पहले से छुट्टी ले ली है यही कहाँ मुझे किसी ने बताया था? यह भी नहीं कहते बना कि मालकिन मर सकती है जानकर क्या वह अपनी बहन की शादी में न जाये?

कुछ भी नहीं कह सके। ऊपर से असहायभाव से बोल उठे, “यह तो बड़ा गड़बड़ हो गया, मैं भला इतनी बातें क्या जानूँ?'

मन ही मन सोचने लगे, जब मैं देबू को तनख्वाह दे रहा था तब क्या कोई कहीं से देख नहीं रहा था? तनख्वाह के अलावा भी शादी के नाम पर खर्च करने के लिए उसे अलग से सौ रुपये भी तो दिये थे।

न, लगता है देखा नहीं था। देखा होता तो बिना ताना मारे रह सकता था? प्रवासजीवन को छोड़ देता क्या?।

न जाने इन लोगों को कैसे सारी बातें मालूम हो जाती हैं? अपने कमरे में बैठे-बैठे प्रवासजीवन किसके साथ क्या बात करते हैं, किसको कब कुछ देते हैं इन्हें ठीक पता चल जाता है। बाद में एकाएक उस बात को उदाहरण के रूप में पेश किया जाता है।

जैसे काटुम आकर 'ही-ही' करते हुए पूछेगे, “बाबाजी आपने गेट के पास रुककर उस बूढ़े को क्या दिया?'

“लो ! दूँगा क्या?"

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