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नारी विमर्श >> पति परमेश्वर

पति परमेश्वर

भगवती प्रसाद वाजपेयी

प्रकाशक : एम. एन. पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :213
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4053
आईएसबीएन :000000

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पारिवारिक उपन्यास....

Pati Parmeshwar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


 ‘द्वा सुपर्णा समुजा सखाया
समानम् वृक्षम् परिषस्वजाते
तयोरेन्यः पिप्लमं स्वाद्वत्य
नश्नन्नन्यो अभिचाकरीति।’

-मुण्डकोपनिषद

लेखक की कलम से

यह मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ कि सरकारी सेवा में होने के कारण प्रदेश के अनेक जनपदों में सरकारी विभागों के सार्वजनिक हित के कार्यों को समीप से देखने का अवसर मिला है।
समाज कल्याण और विशेषतः महिला कल्याण की विविध योजनाओं के आधीन महिला अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति सुदूर गाँव तक में हो गई है। कार्यालय में बैठकर काम करने से लेकर गाँव-गाँव पहुँचकर जनता जनार्दन के मध्य अनेक कल्याणकारी योजनाओं का प्रचार/प्रसार और उनके क्रियान्वयन हेतु जन-सहयोग की याचना करना उनका दायित्व हो गया है।

नगर में जन्मी और उच्च शिक्षा प्राप्त नारियों को उपर्युक्त पालन में नाकों चने चबाने पड़ते हैं। एक ओर पुरुष अधिकारियों और सहयोगियों के मध्य कार्यशील नारी को सतत जागरुकता, वाक्चातुरी और उत्पन्न परिस्थिति के त्वरित आकलन की क्षमता विकसित करनी पड़ती है, तो दूसरी ओर कार्यालय से बाहर जाने पर मनचले पुरुषों की लोलुप दृष्टि से कदम-कदम पर बचकर चलना पड़ता है। अपनी अस्मिता की रक्षा करने के लिए उसे न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। साथ-ही-साथ यदि कार्यशील महिला स्वस्थ एवं सुन्दर हुई, तो तथाकथित आत्मीय जनों की शनि-दृष्टि से भी उसे अपनी शारीरिक एवं मानसिक सुचिता को सम्हाल कर रखना पड़ता है।

दिन-प्रतिदिन मानसिक तनाव, विभागीय जनों के घात-प्रतिघात और बारहमासी स्थानांतरण के अलावा यदि उसका पति परमेश्वर भी उसकी ओर तिर्यक दृष्टि कर ले, तो उसका जीवन कण्टकाकीर्ण हो जाता है। नौकरी, घर गृहस्थी, सन्तान की देखभाल और पति परमेश्वर की सेवा-सुश्रुवा का संतुलन डगमगा जाता है। प्रस्तुत उपन्यास ‘पति परमेश्वर’ में एक ऐसी ही ‘सुन्दरी’ नामक कार्यशील महिला और सरकारी सेवा में कार्यरत उसके पति शेखर के मानसिक द्वन्द्वों की कहानी है, जो घर और परिवार को विघटन के कगार तक पहुँचा देती है।

स्वस्थ, आकर्षक, मधुर-भाषी, व्यवहार-कुशल, सुशिक्षित और संस्कार युक्त सुन्दरी अपनी कर्मठता एवं सूझबूझ से सरकारी सेवा की वैतरणी सफलतापूर्वक पार कर लेती है, पर अपने शराबी, खुराफाती, विकृत मानसिकता-ग्रस्त पति शेखर के कामुक आत्याचारों से संत्रस्त होकर उसे बगावत का बिगुल बजाना पड़ जाता है। उत्तम सेवा अभिलेख और वैयक्तिक प्रतिष्ठा को अकलंकित रखने के ध्येय से उसे शेखर के कुटिल षडयन्त्रों का बार-बार शिकार होना पड़ता है। पति-पत्नी के बिगड़ते हुए रिश्ते, सर्विस में जल्दी-जल्दी स्थानांतरण, कभी खत्म न होने वाली ऋणग्रस्तता और सन्तान के पालन-पोषण की अजगरी समस्याओं से हताश होकर अपनी असहाय अवस्था में सुन्दरी को परकीया बनने के लिए विवश होना पड़ा। पर ऐसी दुःखद परिस्थिति में भी अपनी मानसिक सुचिता की रक्षा करना वह श्रेयष्कर समझती रही। एक समर्पित भारतीय-पत्नी की भाँति शेखर के विश्रृंखलित जीवन और अप्रत्याशित मृत्यु के क्षणों में सुन्दरी अनेक पति-परायणा महिलाओं से कहीं अधिक पतिव्रत का निर्वाह करती है। शरीर से पतिता होकर भी वह मन को पवित्र रखना उत्तम समझती है।

शेखर के निधन के कुछ समय बाद, दिन-प्रतिदिन के सामाजिक और विभागीय झंझावतों से अपनी मर्यादा की रक्षा करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर वह अपने एक निकट सम्बन्धी, प्रेम, जो एक सरकारी अधिकारी है, के प्रति समर्पित हो जाती है और नीलकण्ठ के मन्दिर में मानसिक रूप से उसे द्वितीय पति के रूप में स्वीकार कर लेती है।
प्रेम की निस्वार्थ सेवा, सहज आत्मीयता, सुकोमल भावनाओं के अतिरिक्त अपने प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता देखकर सुन्दरी अपने अन्तरंग मित्र, पवित्र-प्रेमी और पथ-प्रदर्शक के रूप में सामाजिक मान्यता प्रदान कर देती है।
कालान्तर में प्रेम के लौकिक सोपानों से ऊपर उठकर सुन्दरी और प्रेम अध्ययन, अभ्यास और सतत साधना के संबल से निष्काम कर्म करते हए आध्यात्मिक पथ के हमराही बन बैठते हैं।
निश्वार्थ सामाजिक सेवा, नियमित ईशोपासना और आध्यात्मज्ञान द्वारा वे दोनों निष्काम होकर इस प्रकार रहने लगे जैसे मुण्डकोपनिषद में वर्णन किया गया है-

‘द्वा सुपर्णा समुजा सखाया
समानम् वृक्षम् परषस्वजाते
तयोरेन्यः पिप्लमं स्वाद्वत्य
नश्नन्न्यो अभिचाकरीति।

अर्थात समान आख्यान वाले दो पक्षी एक वृक्ष पर एक साथ बैठे हुए हैं उनमें एक मधुर फल का स्वाद लेता है और दूसरा निष्क्रिय बना उसे देखता करता है।
प्रस्तुत उपन्यास में यदि प्रेम जीवन के फलों का स्वाद लेने वाले पक्षी के समान है। तो सुन्दरी चुपचाप देखते रहने वाले पक्षी की भाँति। अन्त में अपने घर पर प्रेम की अस्वाभाविक मृत्यु हो जाने पर सुन्दरी ने उसके लौकिक संस्कारों को पतिव्रता नारी की भाँति धार्मिक अनुष्ठानों के साथ सम्पन्न करते हुए दसवें दिन गंगा के गर्भ में जल समाधि लेकर उसके मार्ग का स्वयं भी अनुकरण कर लिया और और अपनी आफिस डायरी के पृष्ठों पर हमारे लिए एक संदेश अंकित कर गयी। युगों-युगों से सुनी जा रही पुरुष और नारी की प्रेम कहानी आज भी पारस्परिक समर्पण से जन्म लेती है, पारस्परिक त्याग से विकसित होती है।
नारी की रूप-माधुरी और पुरुष की काम-साधना, प्रेम के ऊबड़-खाबड़ पथ को कभी भी आलोकित नहीं कर सकते।

भगवती प्रसाद वाजपेयी ‘अनूप’


श्री भगवती प्रसाद वाजपेयी का उपन्यास ‘पति परमेश्वर’ की पाण्डुलिपि पढ़ने का मुझे अवसर मिला है। समाज में नारी की—विशेषतः कार्यशील नारी की स्थिति को लेकर हिन्दी के अधिकांश उपन्यास प्रायः महिला लेखिकाओं ने ही लिखे हैं। यह उपन्यास एक पुरुष लेखक का है; फिर भी इसमें नारी की सामाजिक स्थिति को ही नहीं, उसकी मानसिकता को भी बड़ी संवेदना के साथ समझने और अनावृत करने का प्रयास हुआ है। सरकारी तंत्र की रूढ़ कल्पनाहीनता और उसकी विकृतियों पर भी प्रसंगतः लेखक ने अपनी गहरी सूझबूझ का परिचय दिया है। इस उपन्यास में पठनीयता का तत्व विशेष रूप से उल्लेखनीय है और शैली में एक ऐसी सहजता है जो इसके लोकप्रिय होने के विषय में हमें पूर्णतः आश्वस्त करती है।

बी-2251 इन्दिरा नगर
लखनऊ 226016

श्रीलाल शुक्ल
12.7.93

पति परमेश्वर


नारी ईश्वर की सर्वश्रष्ठ रचना है। वह माँ, बहिन, पुत्री, पत्नी, प्रेमिका, सती साध्वी और जीवन के हर कार्यक्षेत्र में सहयोगिनी होने के साथ-साथ अनेक दुर्भेद्य रहस्यों से परिपूर्ण है।
भक्ति, भुक्ति और मुक्ति के उत्तरोत्तर सोपानों पर नारी पुरुष के साथ कदम मिलाकर हर युग में साथ-साथ चली है। घर की सीमाओं से लेकर अंतराष्ट्रीय मंचों तक समय-समय पर उसने ऐतिहासिक निर्णय लिए हैं।
यद्यपि विश्व की जनसंख्या में उसकी संख्या मात्र आधी ही है, फिर भी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसका वर्चस्व दृष्टिगोचर होता है। कवि, कलाकार दार्शनिक, वैज्ञानिक एवं युग निर्माताओं की प्रेरणाश्रोत प्रच्छन्न रूपेड़ नारी ही रही है। आज भी आने वाले कल के लिए जीने हेतु नारी हमें संबल प्रदान करती है।
मैं आपको एक ऐसी ही नारी की कहानी सुना रहा हूँ, जो जीवन के सतत संघर्षों से जूझती हुई जीवन पथ पर स्वयं अग्रसर होकर पुरुष समाज पर अपनी अमिट छाप डालती रही है।

उत्तर प्रदेश भारत का हृदय कहा जाता है। इसी प्रदेश के उत्तरी अंचल में पीलीभीत जनपद स्थिति है। वह जनपद अपने रमणीक वनों आंचलिक सुषमाओं, प्रातःसायं दृष्टिगोचर हो जाने वाली उपत्यकाओं के अलावा मक्खियों मच्छरों और मलेरिया के लिए भी जाना जाता है। पीलीभीत नगर में बाहर से आने वालों के लिए चार ऊँचे-ऊँचे फाटक बने हुए हैं, जिनकी दशा अब दिनों-दिन खराब होती जा रही है। मध्य नगर में चहल-पहल और गहमा-गहमी वाले बाजार हैं। सिविल लाइन की ओर जाने वाली सड़क पर कुछ दूर चलकर सरकारी अधिकारियों के बँगले हैं। कुछ आगे, बाईं ओर जिलाधिकारी कार्यालय स्थित है। इसी कार्यालय परिसर में फाटक के अन्दर घुसते ही बाईं ओर बरगद का एक पुराना पेड़ है। पास में दो-तीन और नये पेड़ हैं। इन पेड़ों के नीचे वकीलों के कई मुंशी और कुछ स्टैम्प विक्रेता अपने-अपने तख्त डालकर बैठते हैं।
जब कभी आप इधर से गुजरेंगे, तो एक तख्त पर आपको काफी भीड़ नजर आएगी। यह तख्त है पण्डित श्याम लाल जी का। पण्डित जी बहुत हँसमुख व्यक्ति हैं। उनकी आयु लगभग पचास वर्ष की हो रही है, पर कद और काठी देखने से वे बिल्कुल युवा प्रतीत होते हैं। दिभर पान खाते रहने से लाल हो रहे दाँतों वाली उनकी मुस्कान और रोबीली आवाज उधर से गुजरने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर अनायास खींच लेती है।

पण्डित जी के तख्त पर चार किसान व रंग-बिरंगी पगड़ी बाँधे दो तीन अधेड़ उम्र वाले सरदार बैठे हैं। उनमें से प्रत्येक व्यक्ति को पण्डित जी अपनी तम्बाकू वाली चाँदी की लम्बी गोल डिबिया, जिसमें दूसरी ओर चूना मौजूद रहता है, बढ़ा देते हैं। वे लोग हथेली पर तम्बाकू बनाते, खाते फिर काम की बातों में लग जाते हैं, वैसे तो पण्डित जी केवल स्टैम्प-वेण्डर ही है, पर उनका स्थानीय अदालती जनता, वकीलों, मुवक्किलों और सरकारी अमले में विशेष सम्मान है।
उनके तख्ते पर गाँव के बहुत से लोग जमीन-जायदाद के मामलों में राय मशविरा लेने आते हैं और उनकी राय मानकर अपना वकील तय करते हैं। जून का महीना शुरू है, दीवानी कचहरी में अब छुट्टियाँ शुरू हो गई हैं। काम कुछ कम हो गया है। पण्डित जी के पास भीड़ कम रहने लगी है। शाम के चार बजने वाले हैं। सामने की ओर एक वृद्ध व्यक्ति सफेद धोती कुर्ती पहने, सिर पर गांधी टोपी लगाए, बाईं बगल में लाल  कपड़े में बंधा हुआ बस्ता दबाए धीरे-धीरे उनकी ओर आता दिखलाई पड़ा।

‘‘अरे नमस्कार शुक्ला जी,’’ पण्डित जी हाथ जोड़कर  मुस्कराते हुए पहले बोल उठे।
‘‘नमस्कार, नमस्कार, श्याम लाल जी, कहिए, क्या हाल हैं ? अभी घर चलने का विचार नहीं है क्या ?’’ शुक्लाजी ने खड़े-खड़े ही प्रश्न कर लिया।

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