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विविध उपन्यास >> अजीब आदमी

अजीब आदमी

ओम प्रकाश सोंधी

प्रकाशक : स्वास्तिक प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4058
आईएसबीएन :00000

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मनुष्य जीवन पर आधारित उपन्यास...

Ajeeb Aadmi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वह आदमी क्या था ?
किस मिट्टी का बना था,
भगवान् ने कैसा दिल रख दिया था उसके शरीर में,
उसके मन में क्या होता रहता था,

उसका व्यक्तित्व क्या था,
किस विचारधारा का स्वामी था,
वह किस रिश्ते को महत्व देता था,
उसके लिए जीवन का क्या अर्थ था,
वह किन जीवन मूल्यों को मानता था ?

ऐसे अनेकों प्रश्न मेरे मस्तिष्क को तब-तब घेर लेते थे जब-जब वह मुझको याद आता था और वह मुझे अकसर याद आता रहता है।

जीवन में अनेकों लोगों से मनुष्य का सामना होता है। अनेकों वस्तुओं को चाहने लगता है, भावुकतावश जोड़ लेता है स्वयं को। पैदा होने के साथ ही वह मोह में फंस जाता है। बचपन के मीठे पल और उस समय में उसके सम्पर्क में आए हुए अनेकों खिलौने, चाबी से चलने वाला, बाजा बजानेवाला, बन्दर, रेलगाड़ी, अण्डा देनेवाली मुर्गी, रस्सी से खींचनेवाली मोटर, टूटी टांग का बन्दर, मुड़ी गर्दन का आदमी, चाबी गुम हो जाने के कारण न चल सकने वाली कार, ब्लाक, चक्कर और अनेकों खिलौने सबसे एक घनिष्ठ सम्बन्ध जुड़ जाता है। धीरे-धीरे बढ़ती हुई आयु के कारण और दूसरी व्यस्तताओं के होने से खिलौनों से सम्बन्ध टूट जाता है और वे सब यादों की वादियों में चले जाते हैं। तब अनेकों लोगों से सामना होने लगता है। परन्तु समय के चक्रव्यूह में बिछुड़ जाते हैं कुछ मित्र, कुछ जान-पहचानवाले दोस्त। ईर्ष्या के कारण घृणा के कुछ पात्र और दिल की बात सुनने वाले कुछ घनिष्ठ मित्र समय के साथ पास आते हैं और धीरे-धीरे दूर होते चले जाते हैं।
समय की समस्याएं और काम का बोझ मनुष्य पर इतना हावी हो जाता है कि अपने चाहनेवालों और अपने दोस्तों की ओर ध्यान ही नहीं जाता। तब कभी-कभी जब मनुष्य समस्याओं से जूझता हुआ थक जाता है और एकान्त में बैठता है तब उसका मन टकरा जाता है उन पुरानी यादों से जिनसे उसको सुख मिला था। कुछ लोग उसको याद आते हैं। तब भी बहुत-से मित्र और बहुत-से लोग वह याद नहीं कर पाता। उन पर समय की अधिक धूल चढ़ चुकी होती है। मनुष्य का मस्तिष्क भी एक कमरा है जहाँ पर शैल्फ रखे हुए हैं। उन शैल्फों में वह यादों को सजाता रहता है। समय की धूल उन पर चढ़ती जाती है। कभी-कभार कोई याद शैल्फ में से उछलकर मन पर चोट करती है तो कभी स्वयं मनुष्य किसी याद की खोज करता हुआ उसको ढूंढ़ निकालता है।

कुछ स्मृतियां इतनी अधिक तीव्र होती हैं, इतनी कड़वी अथवा मीठी होती हैं कि उनकी कड़वाहट अथवा मिठास का आभास मनुष्य को कस्तूरी की भाँति होता रहता है। समय की धूल और भुलावे की वादी की गहराई भी उसको छिपा नहीं सकती। विचार की हल्की-सी चोट भी उसको उकसा देती है। दिन के चौबीस घण्टों में मन किसी-न-किसी समय उससे जा टकराता है। तब वह याद दिन के बाकी समय पर भारी रहती है, अन्य विचारों को पीछे छोड़ती हुई, अन्य व्यक्तियों की हंसी उड़ाती हुई यहां तक कि दिनचर्या में बाधा बनती हुई मनुष्य को तंग करती रहती है।

मेरे लिए उस व्यक्ति की याद भी कुछ ऐसी याद है कि जो कि स्मृतियों की अलमारी के किसी शैल्फ में सुन्दर रंगीन रेशमी कपड़े में लिपटी पड़ी है, सबसे अलग, सबसे अनूठी। सुन्दर इतनी कि स्वतः ही अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। दिल जब भी यादों के बीच जाकर किसी स्मृति को खोजना चाहता है तब ही वह उस व्यक्ति से जा टकराती है। उसकी ओर खिंचा चला जाता है।

उसके साथ अन्तिम मुलाकात और आज के दिन के बीच तीस वर्ष का लम्बा अन्तराल है। इस बीच जीवन अपने दूसरे छोर पर पहुँच चुका है। तीस वर्ष का अन्तराल अपने में अनगिनत घटनाएं और अनेकों खट्टे-मीठे अनुभव समेटे हुए है। उन सब घटनाओं की यादों का अम्बार-सा लगा हुआ है दिल में। वे लोग और उनके साथ जुड़ी हुई यादें अम्बार में दबी चली जाती रही हैं। परन्तु वह व्यक्ति उस अम्बार में से सिर निकालकर यदा-कदा अपने होने का अहसास दिलाता रहा है। सब कुछ पुराना होते हुए भी वह मनुष्य मेरे लिए आज भी नया है। समय का अन्तराल उसके लिए अर्थहीन हो गया है, महत्त्वहीन बनकर रह गया है।

मेरे जीवन में वह किसी धूमकेतु की तरह आया था। किन्हीं प्राकृतिक कारणों से अपना मार्ग बदलकर मुझसे मिला, मुझे अपने गुरुत्वाकर्षण में लिया और केवल सात मास मेरे आसपास रहने के पश्चात वह अंतरिक्ष की किसी अनजानी राह पर निकल गया। आकाशगंगा में विचरनेवाले धूमकेतु के दोबारा आने का समय तो निश्चित किया जा सकता है परन्तु वह तो मानव धूमकेतु था। तीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। क्या वह दोबारा मुझको मिलेगा ? क्या मैं दोबारा उससे टकरा पाऊँगा ? मुझे कुछ नहीं पता। उसके व्यक्तित्व की छाप मेरे दिल पर इतनी गहरी है कि वह मुझे यदि आज भी मिल जाए तो मैं उसको पहचानने में क्षण भर की भी देर नहीं करूंगा।

अजय नाम था उसका। वह पाँच फिट सात इंच लम्बा था। उसका शरीर दुबला था। हड्डियों पर मांस नाममात्र था। लगता था मानो वह कुछ खाता-पीता नहीं था। चलते समय वह एक शराबी की भाँति झूमता था। लगता था कि उसकी पतली टांगें उसके लम्बे शरीर को उठा नहीं पा रही थीं। चेहरा लम्बा था परन्तु पहली नजर में गोल लगता था। उसके हाथ लम्बे थे और उंगलियाँ भी आवश्यकता से अधिक लम्बी थीं। उसके बाजुओं पर घने बाल थे और उसकी छाती पर भी बालों का जंगल बना हुआ था। उसके सिर के बालों का रंग घना काला था। बाल सीधे थे और उसको सदा ही इस बात की शिकायत रही कि भगवान् ने उसको घुंघराले बाल नहीं दिए। उसकी दूर की नजर कमजोर थी इसलिए ऐनक लगी हुई थी। उसने बताया था कि जब वह छठी कक्षा में पढ़ता था तभी ऐनक ने उसके नाक पर स्थाई स्थान बना लिया था। उसको खुली मोहरी की पैण्ट पहनने का शौक था और चैक डिजाइन की कमीज पहनता था। फैशन के बदलने का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। जब लोग बत्तीस इंच खुली मोहरी की पैण्ट पहनना गर्व समझते थे तब भी उसकी पैण्ट की मोहरी बीस इंच होती और जब लोग सोलह इंच की मोहरी पर दीवाने हो जाते तब भी वह बीस इंच की मोहरी की पैण्ट पहनता था। उसकी शर्ट सदा चैक डिजाइन की होती थी।

उसने कहा था, ‘‘मैं अपनी पसन्द नहीं बदलता। एक बार जो अच्छा लगा, जो मन को भा गया वह सदा के लिए अच्छा लगने लगा। मैं विचलित मन नहीं रखता। हम एक फैशन को छोड़कर जब दूसरा अपनाते हैं तो वह पुरानी ही तो होता है। जब हमें दोबारा उसी को अपनाना पड़ता है तो भाई छोड़ने की क्या आवश्यकता है। और जब किसी को एक बार छोड़ दिया तो उसको दोबारा अपनाना मेरे विचार में थूककर चाटने के बराबर है।’’

मुझको रात के समय शहर की सड़कें मापने की आदत थी। मेरा एक मित्र था कुन्दन। उसके साथ नगर की सड़कों पर आधी रात तक घूमा करता। रात का खाना खाने के पश्चात् हम दोनों मित्र बातें करते हुए धीरे-धीरे चलते। आधी रात के होते-होते और घूमते हुए हम चौराहे पर पहुंच जाते। यह चौराहा घर के पास था। इस चौराहे के एक कोने में एक हलवाई की दुकान थी जहाँ पर रात-दिन चाय और खाने का सामान मिलता था। यहाँ से एक सड़क रेलवे स्टेशन को जाती थी। दूसरी शहर के मेन बाजार को, तीसरी घनी आबादी की ओर और चौथी शान्ति नगर की ओर जाती थी जिस ओर बस अड्डा था। नगर में छपने वाले समाचारपत्र इस चौराहे पर लाए जाते और यहीं से उनका वितरण किया जाता। अखबार बेचनेवाले इसी स्थान से अपना कोटा साइकलों पर लादकर अपने इलाके में बांटने के लिए चलते थे । प्रातः के तीन बजे समाचारपत्र पहुँच जाते थे। बहुत-से रिक्शा यहां खड़े रहते, क्योंकि यहां से सवारी आसानी से मिल जाती थी। चौराहे पर सारी रात रौनक रहती थी। इसी कारण हलवाई की दुकान चौबीस घण्टे खुली रहती थी।

मैं और कुन्दन नगर की सड़कों पर दो-तीन घण्टे घूमते और दुनिया जहान की बातें करते। थक-हारकर उस दुकान पर आकर बैठ जाते। वहां बैठे हुए भाँति-भाँति के लोगों को देखते, उनकी बातें सुनते और उनके मन में झांकने का प्रयत्न करते और उनकी समस्याओं को समझकर जीवन को समीप से देखने और उसको समझने का प्रयत्न करते। वहां से हमको बातें करने के अनेकों विषय मिल जाते थे।
‘‘कहो प्रकाश कैसे हो ?’’ मुझको देखकर कुन्दन ने कहा था।
उस दिन भी प्रतिदिन की तरह खाना खाकर घूमने के लिए आया था।
‘‘हैलो ! ठीक हूं। तुम कैसे हो ?’’
‘‘अरे, हमारा ठीक होना तो निश्चित ही है।’’
‘‘मैं समझा नहीं दोस्त ! तुम कहना क्या चाहते हो ?’’
‘‘मित्र, जब तक खाने-पीने, ओढ़ने और बिछौने की चिन्ता हमारे माता-पिता को है और जब तक हमारे कन्धों पर किसी उत्तरदायित्व का बोझ नहीं है तब तक हमारी मौज का समय है। ऐसी अवस्था में, मेरे भाई, हमारी हालत तो ठीक ही होगी।’’

मैं हंस दिया, ‘‘तुम ठीक कहते हो। रात को हम लोग घूम रहे हैं। हमें जैसे कोई चिन्ता नहीं। न खाने की और न ही कल के राशन की।’’
‘‘मित्र, मां-बाप भी क्या चीज बनाई है भगवान् ने। बच्चे को पैदा करके वे उसको पालने, उसके आराम का ध्यान रखने और उसके कपड़े-लत्ते का बन्दोबस्त करने लग जाते हैं।’’
‘‘और इसमें वे प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। कोई किसी के लिए इतना नहीं करता जितना मां-बाप अपने बच्चों के लिए करते हैं।’’
‘‘अरे, कोई इतना कर ही नहीं सकता। प्रत्येक रिश्ते में स्वार्थ होता है जो हमको दिखाई देता है और नहीं भी देता। परन्तु मां-बाप के प्यार के पीछे उनकी अपनी प्रसन्नता होती है।’’
‘‘चलो, आज स्टेशन तक चलते हैं। स्टेशन पर रेलगाड़ियाँ देखेंगे। जब रेल आती है तो मुझको अजीब-सी प्रसन्नता देती है। मुझे लगता है कि जीवन में कोई मंजिल होनी चाहिए। प्रत्येक गाड़ी मंजिल की ओर जा रही होती है और उसमें बैठे हुए लोग भी मुझको प्रेरणा देते हैं।’’

‘‘प्रत्येक चलती हुई वस्तु जीवन का आभास दिलाती है और बताती है कि जीवन में किसी ध्येय को लेकर जीना चाहिए। चलती हुई वस्तु जिन्दा रहने का आभास भी दिलाती है।’’
‘‘रेलगाड़ी में बैठे हुए लोग मुझे देश में पल रही भिन्नता का आभास दिलाते हैं और बताते हैं कि भिन्नता में एकता है। अलग-अलग प्रान्तों के लोग बैठे हुए मिल जाते हैं। अपने ढंग से बैठे हुए और अपनी भाषा में बातें करते हुए।’’
‘‘उनके चेहरों को पढ़ना बहुत अच्छा लगता है।’’
‘‘तो चलो स्टेशन चलें।’’
‘‘विचार तो अच्छा है, परन्तु थोड़ी देर के पश्चात् चलेंगे।’’
‘‘आज यह नई बात किसलिए ?’’ हैरान हो गया था मैं।
‘‘आज मैं तुमको एक व्यक्ति से मिलाना चाहता हूँ।’’ कुन्दन आंखें तरेरकर बोला।
‘‘कौन है जो हमसे रात में मिलना चाहता है ?’’ मैंने जिज्ञासा दिखाई।
‘‘एक लड़का है। मुझे तो हमारे जैसा लगता है। वह तुमसे प्रभावित हो गया है।’’
‘‘मैं तो उससे नहीं मिला।’’
‘‘तुम्हारे व्यक्तित्व से प्रभावित हुआ लगता है।’’
‘‘तुमको कैसे पता चला ? क्या समाचारपत्र में छपा था ?’’
‘‘अरे नहीं, उसने मुझे बताया था।’’
‘‘कहां मिल गया वह तुमको ?’’
‘‘कल शाम जब मैं यहां आ रहा था तो वह मुझको मिला था।’’

‘‘अच्छा !’’ हैरान हो गया था मैं।
‘‘वह मेरे सामने से आ रहा था। मैंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया।’’
‘‘ठीक ही तो है। बाजार में किसी समय मनुष्य अपने मूड में होता है, अप़ने में होता है।’’
मैं अपने ध्यान में आ रहा था कि मेरे पास से गुजरते हुए उसने कहा, ‘‘क्षमा करना।’’
मैं रुक गया। उसकी ओर देखा, ‘‘जी कहिए।’’
‘‘मुझे जब भी किसी का व्यक्तित्व आकर्षित करता है तब ही मैं उस व्यक्ति से बात किए बिना नहीं रह सकता। आपके व्यक्तित्व में एक आकर्षण है।’’
‘‘अच्छा।’’ मुस्करा दिया था कुन्दन।
‘‘आपको आपके दोस्त के साथ घूमते हुए देखता हूं तो अच्छा लगता है। मैं भी चाहता हूं कि आप मुझको भी अपनी सोहबत में मिला लें।’’
‘‘बहुत अच्छा विचार है। मुझे कोई आपत्ति नहीं।’’
‘‘आपके मित्र तो मुझे और भी अच्छे लगते हैं।’’

‘‘मुझसे भी ?’’
‘‘शायद हां। बुरा मत मानिएगा।’’
‘‘किस बात का ?’’
‘‘आपके मुंह के ऊपर स्पष्ट बोलने का।’’
‘‘स्पष्टवादिता को मैं बहुत अच्छी आदत मानता हूं।’’
‘‘तो कब मिलवा रहे हैं आप अपने दोस्त से ?’’
‘‘हम तो रोज मिलते हैं। रात को सड़कें मापना हमारी हॉबी है।’’
‘‘मैं जानता हूं और यह भी जानता हूं कि आपमें बहुत विषयों पर बातें होती हैं।’’
‘‘बातें करना हमें अच्छा लगता है और अच्छी बातें करना तो और भी सुखकर लगता है।’’
‘‘क्या मैं आज ही आपसे मिल लूं ? आज आपके साथ समय व्यतीत करने का शुभारम्भ करना चाहता हूं।’’
‘‘कोई विशेष बात ?’’
‘‘अच्छे लोगों की संगति जितनी जल्दी मिल जाए, अच्छी है।’’
‘‘तो आ जाइए आज शाम को।’’
‘‘कितने बजे ?’’
‘‘यही कोई नौ बजे। खाना खाने के बाद।’’
‘‘ठीक है मेरा इन्तजार क़रना।’’
‘‘अधिक देर तक इन्तजार मत करवाइएगा। इन्तजार करना सबसे कष्टदायक काम है।’’
‘‘मैं जानता हूं।’’
‘‘अच्छा, मैं चलता हूँ।’’

मैंने उसकी बातचीत सुनी और कहा, ‘‘भई वाह, अजीब आदमी है वह भी। उसको मिलना तो आनन्ददायक होगा। एक और व्यक्तित्व से मिलने और उसको समझने का अवसर मिल जाएगा। कब आ रहा है ?’’
‘‘किसी पल आ सकता है।’’
‘‘पल तो अनेकों व्यतीत हो चुके हैं और आपके महाशय अभी तक नहीं आए।’’
‘‘कुछ देर और प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए। अब समय के इतने भी पक्के मत बनो। उससे मिलोगे तो अच्छा लगेगा।’’
‘‘बहुत विश्वास है उस पर ?’’ ‘‘विश्वास मुझको अपनी समझने की शक्ति पर है। उसमें आत्मीयता है और औपचारिकता का नाम नहीं है। दिखावे से कोसों दूर लगता है और हम लोग आपस में बातें कर रहे हैं कोई बोर तो नहीं हो रहे ।’’ मैं मुस्करा दिया।

हम बातें करने में इतने व्यस्त हो गए। पल मिनटों में बदलते गए। लोग चाय पीने के पश्चात् अपने गन्तव्य स्थान की ओर चले गए। उनका स्थान दूसरे लोगों ने ले लिया और नए सिरे से चाय बनने लगी। दुकानदार ने फ्राइंगपैन में पुरानी पत्ती पड़ी रहने दी। उसमें उसने पानी डाला और एक चुटकीभर नई पत्ती डाल दी, चीनी के आठ-दस चम्मच डाल दिए। मैं उसको चीनी डालते हुए देखता रहा। मैं प्रत्येक डाले हुए चम्मच को अन्तिम बार समझता रहा परन्तु अनेकों बार उसने चीनी डाली। मैं अनुमान नहीं लगा सका कि वह अन्तिम बार कब चीनी डालेगा। वह स्टोव में पम्प मारने लगा। यह भी उसका काम है। चाहे पहले से ही हवा अधिक हो तब भी चीनी डालने के पश्चात् उसने आठ-दस पम्प मारने ही होते हैं। दुकान के अन्दर से ग्राहकों की मांगों की और गिलासों के मेज पर रखे जाने की आवाजें लगातार आ रही थीं। हलवाई की कर्कश आवाज भी कभी-कभी कानों में पड़ जाती थी। इन बातों का उनकी बातचीत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे दोनों ऐसे माहौल में बातें करने के आदी हो चुके थे। आधा घंटा व्यतीत हो गया परन्तु अजय नहीं आया। हमारे लिए रात मटरगश्ती के लिए होती है। धीरे-धीरे पग उठाते हुए सड़कें मापने के लिए होती है। परन्तु किसी अजय के कारण हमारा चलना बन्द हो गया। मन को पसन्द नहीं आई मुझे यह अवस्था। ऊबने लगा था मैं। मैंने कहा, ‘‘अरे छोड़ो, इस अजय नाम के मनुष्य को। दोपहर को तुम्हें एक आदमी मिलता है और तुमसे मित्रता करने की इच्छा प्रकट करता है। शाम को मित्रता के दावे को प्रमाणित करने के लिए वह आ नहीं रहा। मेरे लिए इस बात को समझ पाना कुछ कठिन है, सारा मामला अटपटा-सा लगता है। मुझे तो लगता है कि तुमको कोई झांसा दे गया, मूर्ख बना गया।’’

‘‘हां, दोस्त मुझको भी अब ऐसा ही लगने लगा है। लेकिन ठहरो। वह देखो वह आ रहा है अजय।’’
मैंने देखा कि सामने से एक दुबला-पतला-सा लड़का आ रहा है। चैक डिजाइन की लाल रंग की बुश्शर्ट और बीस इंच की मोहरी की पतलून पहने, सिर को सीधा किए परन्तु शरीर को इधर-उधर झुलाते हुए वह इतनी तीव्रता से आ रहा था मानो भाग रहा हो। वह तीर की भाँति हिल रहा था। मुझे हंसी आ गई।
आते ही कहा, ‘‘क्षमा करना कुन्दन भाई। देर हो गई।’’

कुन्दन ने मेरी ओर देखा। अजय ने कहा, ‘‘यार, जब चलने लगा तो उसी समय घर में कोई जान-पहचानवाला आ गया। मैं उससे अपना पिण्ड छुड़ाना चाहता था। परन्तु वह चमगादड़ की तरह चिपक गया। मुझे यकीन है कि तुम बुरा नहीं मानोगे। मानता हूं कि मैंने पहला इम्प्रेशन गन्दा डाला है। परन्तु, यार, दोस्त हूं तुम्हारा और दोस्त में बुरा मानने की क्या बात है और मुझे क्षमा भी नहीं मांगनी चीहिए। मित्रता का अपमान होता है। क्यों प्रकाशजी ! अरे हां, मेरा नाम अजय है।’’

उसने अपना दायां हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने स्वतः ही अपनी दायां हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया। उसने मेरे हाथों को जोर से दबा दिया। मेरी दृष्टि उसके सिर से पांव तक दौड़ गई और पांव से सिर तक आती हुई उसके मुख पर आकर अटक गई।

‘‘आप मुझको पहचान जाएंगे। एक ही बार में मुझको देख भर लेने से तो मैं एक दुबला-सा इन्सान ही आपकी आंखों के सामने आऊंगा। मैंने कहा न कि मेरा नाम अजय है। जो कि जीता न जा सके। माता-पिता को यही नाम पसन्द आया होगा। मैं सच ही जीता नहीं जा सकता। लगता है कि मेरी पर्सनैलिटी को मेरे मां-बाप ने पहले ही भांप लिया था।’’
मैं आंखें फाड़कर उसको देखता रहा। बिना बोले और बिना कुछ सोचे। वह चुप कर गया। मैं मानो सोते से जागा। मैंने झट से कहा, ‘‘आपसे मिलकर प्रसन्नता हुई।’’ ‘‘इतनी जल्दी आपको प्रसन्न कर सकूंगा ऐसा मैंने नहीं सोचा था। और मैं यह तो मानता हूं कि आपने ऐसा औपचारिकतावश नहीं कहा होगा क्योंकि औपचारिकता की दोस्तों में आवश्यकता नहीं होती।’’
कुन्दन बोला, ‘‘अरे नहीं साहिब। प्रकाश सच कह रहा है। मैं भी तुम्हारी बातों से और स्पष्टवादिता से प्रभावित हो गया था। इसी बात को लेकर मैं तुम्हारी प्रशंसा कर रहा था।’’
अजय ने कहा, ‘‘बहुत कम लोगों में किसी को समझ पाने की योग्यता होती है।’’
‘‘मनुष्य को समझ पाना तो सबसे कठिन काम है।’’
‘‘अरे, मेरे जैसे मनुष्य को समझना कोई कठिन नहीं।’’
‘‘वह कैसे ?’’
‘‘हमारे जैसे लोगों के जो दिल में होता है वही जबान पर आता है। हमारे तो बोले गए शब्द ही दिल की बात कह देते हैं।’’
‘‘कुन्दन बोला, ‘‘भई, आपसे मिलकर मजा आ गया। आपकी संगत अच्छी रहेगी।’’
‘‘देखते हैं कि आप मुझको कब तक झेलते हैं।’’
‘‘दिल पक्का होना चाहिए।’’
‘‘अच्छा, अब बताओ कि आपको आज घूमना नहीं क्या ?’’
‘‘आपका इन्तजार कर रहे थे और आप ही उलाहना दे रहे हो।’’
‘‘चलो, आज स्टेशन की ओर चला जाए।’’
‘‘हम तो पहले ही स्टेशन चलने का निर्णय ले चुके हैं।’’ मैंने कहा।
हम तीनों स्टेशन की ओर चल पड़े।
‘‘यार कुन्दन, वह देखो उस आदमी को, क्या अजब चाल से चल रहा है। लगता है कि बीवी से झगड़ा करके आ रहा है या पीए हुए है। यार, ये लोग झगड़ा करके बाजार में क्यों आ जाते हैं ?’’
‘‘हो सकता है उसकी चाल ही ऐसी हो।’’ मैंने कहा।

‘‘जब लोगों को चलना नहीं आता तो घर में बैठा करें। अपना मजाक उड़ाने क्यों चले आते हैं।’’
हममें से कोई कुछ नहीं बोला।
वह कहने लगा, ‘‘अरे, उसको देखो। पान चबाता हुआ आ रहा है। मुंह कैसे चला रहा है मानो कोई गाय जुगाली कर रही हो। मुझे तो उसको देखकर हंसी आ रही है।’’
’’तो भई हंस लो।’’ कुन्दन ने कहा और जोर से हंस दिया।
मैंने कुन्दन की ओर देखा और कुन्दन ने मेरी ओर देखा। हम दोनों मुस्करा दिए।
उसने कहा, ‘‘वह देखो साइकिल रिक्शावाला। रात के दस बज गए हैं। लोग अपने घरों में बैठकर आराम कर रहे हैं। इसको न जाने क्या मजबूरी है कि आराम को तिलांजलि देकर सड़कों पर मारा-मारा फिरता है।’’
‘‘घर में खानेवाले बहुत होंगे और दिनभर की कमाई से इसका गुजारा नहीं हो पाता होगा।’’

‘‘तभी तो मैं कहता हूँ कि सरकार का दोष है। हमारे लीडर देश का नाम लेकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। कहते हैं कि गरीबी हटाएंगे। बेचारे गरीब अमीर बनने के सपने देखने लगते हैं और इनको वोट देते हैं। वोट लेने के पश्चात् और पदवी के हाथ में आ जाने के पश्चात् ये भूल जाते हैं और गरीबों की गरीबी हटाने के बजाय अपनी गरीबी हटाने की चिन्ता में लगे रहते हैं। इससे गरीब एम.एल.ए. तो अमीर हो जाता है और गरीब बेचारा सोचता रह जाता है कि उसकी गरीबी कब दूर होगी। कब ये नेता जादू की छड़ी घुमाएँगे और उसको दो समय की रोटी दे सकेंगे।’’
अजय बोलता जा रहा था और हम एक-दूसरे का मुख देख रहे थे। बीच-बीच में आंखें मिलते ही हमारे मुख पर हल्की-सी मुस्कान बिखर जाती थी।

‘‘स्वार्थी तो वह पहले से ही था। सबसे पहले वह अपने हित की रक्षा करता है। यह उसकी प्रवृत्ति है। वह सदा बचा हुआ खाना ही दूसरो को देता है।’’
‘‘स्वयं भूखा रहकर अपना खाना दूसरों को देनेवाले भी होते हैं।’’
‘‘बहुत कम।’’
‘‘हमारा धर्म तो स्वार्थ त्याग की बात करता है परहित की शिक्षा देता है और लाभ भी केवल नाम मात्र ही प्राप्त करने की बात कही गई है।’’
‘‘अमीर लोग गरीबों को और अधिक गरीब बनाते जा रहे हैं। ऊंची जाति का व्यक्ति बाकी सभी लोगों को नीची जाति का समझता है। यही कारण है कि देश में आज कुलीन लोगों की संख्या कम है जबकि छोटी जाति के लोगों की संख्या अधिक है।’’
कुन्दन बोला, ‘‘यही कारण है कि आज वोट लेने वाले, कुर्सी के लिए, जाति-पाँति को प्रश्न बनाकर देश में दंगे करवा रहे हैं। वे लोग जो कि छोटी जाति के होने की सच्चाई को छिपाते थे आज डंके की चोट पर अपनी जाति बताते हैं।’’
अजय ने कहा, ‘‘यहां तक कि अमीर भाई गरीब बहन के साथ उतना मेल नहीं रखता जितना कि वह अमीर बहन के साथ रखता है। आजकल तो मानवीय सम्बन्धों को भी पैसे के तराजू में तौला जाता है।’’

‘‘आप तो सुधारवादी लगते हैं।’’ मैंने कहा।
‘‘अरे, मैं कोई वादी नहीं हूं। अपना तो नियम है कि ऐश करो। जो मिल जाए उसको भोग लो, जो दिल चाहे उसको कर लो। उस कार्य को अच्छा अथवा बुरा बताने का काम लोगों को दो। वे अपना काम करें और आप आनन्दमय जीवन व्यतीत करते जाओ।’’
हम स्टेशन पहुंच गए थे। बातों का सिलसिला था कि समाप्त नहीं हो रहा था। स्टेशन तक पहुंचने में बहुत समय लग गया था। अजय को आदत थी कि अपनी बात पर जोर देने के लिए वह खड़ा हो जाता था। और खड़ा रह कर ही बात पूरी करता था। कुन्दन का विचार था कि वापस चला जाए जबकि अजय स्टेशन के अन्दर जाकर गाड़ियों का आना-जाना देखना चाहता था। वह चाहता था कि प्लेटफॉर्म पर घूमा जाए और दूरगामी गाड़ियों के आने पर जमा होने वाली भीड़ को देखा जाए, गाड़ी में बैठी सवारियों को जांचा जाए और प्लेटफॉर्म पर होने वाले वियोग से उत्पन्न और स्वागत से पैदा होने वाले वातावरण का अनुभव किया जाए। मैंने कहा, ‘‘अजय बाबू, समय इतना अधिक हो चुका है कि इस समय महत्त्वपूर्ण गाड़ियाँ जा चुकी हैं। इसलिए हमको वापस चलना चाहिए।’’

अजय कुछ नहीं बोला और चुपचाप हमारे साथ चल पड़ा। वापसी पर वह चुप कर गया। बोला नहीं बल्कि इधर-उधर देखता रहा। उसकी आंखें आने-जानेवालों को ध्यान से देख रही थीं। उनकी अवस्था की जांच कर रही थीं। आता हुआ रिक्शा, उसमें बैठी हुई सवारी, सामने से आती हुई कोई युवती और उसके साथ चलने वाला आदमी, भीख मांगनेवाला लड़का, चने भटूरे को प्लेट में डालकर ग्राहक को देने वाला रेहड़ी का मालिक और प्लेट पर टूटकर पड़नेवाला व्यक्ति, सब उसकी आंखें देख रही थीं।

चौराहे पर पहुंचकर उसने पैण्ट को झाड़ा, कमीज के कालर पर हाथ फेरा। मैं उसको देखता रहा। हमारा विचार चाय पीने का था। मैं उसको कहने ही वाला था कि चाय पीते हैं। वह पहले ही बोल पड़ा, ‘‘अच्छा दोस्तों, आपके साथ बहुत अच्छा समय काटा। आशा है कि ऐसा समय हम प्रतिदिन व्यतीत किया करेंगे। अब मैं चलता हूं।’’
उसने हमसे बारी-बारी से हाथ मिलाया और तेज पग उठाता हुआ घनी आबादी की ओर चला गया और कुछ ही समय के अन्दर आंखों से ओझल हो गया। हम दोनों मूर्तियां बने खड़े रहे। कुछ क्षण पश्चात् मानों हमें होश आ गया। हम निद्रा से जागे। कुन्दन ने अंगड़ाई ली । मैं उसको देखता रहा।
उसने कहा, ‘‘अच्छा प्रकाश, मैं भी घर चलता हूं। आज कुछ थकावट-सी हो रही है।’’ उसने हाथ सिर के पीछे करके अंगड़ाई ली। मैंने भी अनुभव किया कि मैं भी थक गया था। हमने एक दूसरे से विदा ली और अपने-अपने घर की ओर चल पड़े।

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