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पिंजरे-परिंदे

विभांशु दिव्याल

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4060
आईएसबीएन :81-7043-456-4

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श्रेष्ठ तीन कहानियों का संग्रह....

Pinjare-Parinde

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘मैं अपनी इस स्थिति को तेरे आगे कई बार स्पष्ट कर चुकी हूँ। आज फिर बता रही हूँ कि मेरा निहत्था होना मेरे प्रहार न कर पाने की विवशता में छिपा है। जो मेरे इर्द-गिर्द हैं, मेरे एकदम सगे होने के नाम पर इनके लिए मैं एक पाले हुए कबूतर की तरह हूँ, जिसकी हर तरह से देख-भाल की जाती है, उसे प्यार किया जाता है, उसके पंखों को उँगली के पोरों से सहलाया जाता है, पानी पिलाया जाता है, दाने खिलाए जाते हैं, लेकिन कंबूतर की सबसे बड़ी खुशी उसकी आजाद उड़ान उसको नहीं सौंपी जाती। मेरा पिंजरा कौन सा है, यह भी देख। मेरा उन लोगों के प्रति आक्रामक होने का अर्थ है, जहनी तौर पर उनकी उपेक्षा, और ऐसे कदम उठाते रहना जो उनके सांस्कारिक ढांचों में ढले दिमागों में कीलें ठोकते रहें।

मैं चाहती हूँ, ऐसा करू कि पिंजरे को तोड़कर बाहर आ जाऊँ, पर तभी उनलोगों के अपनी पराजय से पिटे निरीह चेहरे सामने आ जाते हैं....मेरे बाप को ही ले, अगर अपने पंखों को उड़ान देने के लिए उसके घर का पिंजरा छोड़ दूँ तो उसे जो जज्बाती धक्का लगेगा, जो चोट उसके संस्कारी मन को लगेगी वह उसकी बर्दाशत से बाहर होगी। और क्योंकि मैं भी उससे जुड़ी हुई हूँ, यह चोट पहुँचाना मेरे वश से बाहर की बात हो जाती है।....और यही नहीं, मेरा बाप मेरी माँ और अन्य भाई-बहिनों का संरक्षक है। अपने बाप की मानसिक टूटन की वजह बनकर मैं इस संरक्षत्व में कोई दरार नहीं डालना चाहिए। ऐसा करने का साहस नहीं जुटा सकती। मेरी सारी विविशता यही है, जो मेरे हाथ के हर धारदार हथियार को थामे रहती है।’’ नीजा के चेहरे पर थकान के चिह्न उभर आए थे।

पिंजरे-परिंदे’ से

इक्कीस-बाईस साल की रूमानी उम्र, फिरोजाबाद का कस्बाई माहौल, उपन्यास के नाम पर मेरठ, इलाहाबाद से छपने वाले जासूसी उपन्यासों की उपलब्धता या फिर कुशवाह कांत, गुलशन नंदा जैसे उपन्यासकारों की बिकाऊ रूमानी कृतियां और कविता के नाम पर यदाकदा मेलों समारोहों के अवसरों पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों में पढ़ी जाने वाली कविताएं या फिर इन्हीं की तर्ज और लघु संस्करणों के रूप में कस्बाई कवियों के घरों पर आयोजित होनेवाली गोष्ठियों में मेहनत-मशक्कत के बाद तैयार की गयी या कराई गयी कविताएं, या फिर कबीर-तुलसी से लेकर पंत-प्रसाद तक का वह काव्य जो कोर्स की किताबों में कैद था और जिसे अध्यापक इस तरह पढ़ाते थे कि कविता का फलक न उसके पीछे दिखे न उसके आगे।

तो इस माहौल में अगर कविता कर्म करना हो तो कवि सम्मेलनी कविता रचे, दोहे-सवैये लिखे या फिर छायावादी कवियों की आड़ी-तिरछी नकल करे और अगर कोई उपन्यास लिखना हो तो वैसे लिखे जो कुशवाह कांत प्रभृति लिख चुके थे या जैसे गुलशन नंदा प्रभृति लिख रहे थे, और अगर किसी नवोदित की पहुंच में शरतचंद्र आ गये हों तो थोड़ी बहुत उनकी भाव-भंगिमा और शैली भी अपना ले। दरअसल मेरे रचना कर्म का प्रारंभिक संस्कार इसी माहौल ने रचा था। ‘मन देहरी न लांघ’ की रचना की शैली-संस्कार इसी माहौल में से तैयार हुआ था। किसी भी लेखक के रचनाकर्म की दिशा कच्चे माल की उपलब्धता से भी तय होती है कि किसी लेखक को सिखाने-समझाने के लिए किस तरह के रचनाकार उपलब्ध हैं और ‘मॉडल’ स्वरूप किस तरह की रचनाएं उपलब्ध हैं। उपलब्धता के दायरे का सिकुड़ना-फैलना लेखक के रचना कर्म के सिकुड़ने-फैलने से सीधे जुड़ा रहता है।
‘मन देहरी न लांघ’ को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।

-विमांशु दिव्याल

पिंजरे-परिंदे


नीहास ने नई हुई किताबों को एक बार फिर उलट-पलट डाला, मगर एक भी ऐसी नहीं लगी जो पढ़ने की मन: स्थिति बनाती। खरीदते समय सभी किताबें किसी न किसी कारण से अच्छी लगी थीं, परन्तु इस समय कोई भी किताब उस पर हावी नहीं हो पा रही थी। फिर उसने इलाहबाद से निकलने वाली एक पत्रिका के सैक्स अपराध विशेषांक को उठा लिया। एक बलात्कार कथा पढ़नी शुरू की परन्तु सात-आठ पंक्तियों के बाद ही उकताहट होने लगी। वही सब, नीरस, वाहियात।
लेकिन कहानी की शुरूआत की प्रतिक्रिया उस पर इस रूप में हुई कि कोई बेहद अश्लील किताब पढ़ने की इच्छा होने लगी। अपनी किताबों की शेल्फ का पिछवाड़ा उसने खंगाल डाला। अँग्रेजी की दो किताबें हाथ में आ गईं। दोनों ही पढ़ी हुईं। दोनों की कहानियाँ गडमड होकर दिमाग में उग आईं। क्षणांश में ही किताबों की पठनीयता समाप्त हो गई। किताबें वहीं पटक बाहर बरामदे में निकल आया।

कमरे के ठीक सामने के नीम पर बैठा कबूतर का जोड़ा ही पहले नजर में आया। एक-दूसरे में डूबा हुआ। एक-दूसरे की गर्दन में चोच धँसाता हुआ। गुटर गूँ। गुटर गूँ। जबरन दृष्टि कबूतरों पर टिकाए रखी। यकायक एक बेहूदी बात मन में पैदा हुई – इन में से एक को पकड़े और गर्दन मरोड़ दे। उहं, यह भी कोई बात हुई।...कबूतरों पर से हटकर नजर गुलमोहर की शाखों पर टिक गई। छोटी-छोटी पत्तियाँ पीली होकर झड़ रही थीं। शाखों का भूरा नंगापन खुल रहा था। नजर फिर उचट गई।
प्राय: उसके वजूद में भीतर तक पैठ जाने वाला इस समय भी जैसे उसकी सारी प्रतिरोध शक्ति को धकियाकर उसे जकड़ लेना चाहता था। वह चाहता था कि इस खलाव को किसी तरह बाहर उलीच दे, परन्तु उलीचने वाले हाथ लुंज होकर लटक गए थे। वह फिर कमरे में लौट आया।

अलमारी खोलकर ऊपर रखे कपड़े खींच कर बाहर निकाल दिए। वह छोटे-छोटे रुमाल तलाशने लगा – नईशा द्वारा यदा-कदा भेंट में दिए गए रुमाल। एक कमीज की तह में छिपे हुए दो रुमाल निकाल कर उसने हथेली पर फैला लिए। रुमालों के आसपास ठहरी हवा को उसने नासापुटों में भरने की कोशिश की। एक बार। दो बार। तीन बार। फिर बार-बार। खुशबू का छोटा-सा कतरा भी पकड़ में नहीं आया। उसे अन्यथा कुछ घट जाने का तीव्र अहसास हुआ। जैसे उसके हाथ से कोई संभाल कर पकड़ी हुई मोंगरे की डाल एकाएक छूटकर पकड़ से बाहर हो गई हो।
जब नईशा ने दिए थे तब इन रुमालों में एक खास तरह की खुशबू थी। बाद में भी वह खुशबू बनी रही थी। परन्तु इस बार....एक बार फिर वह रुमालों को नाक के पास ले आया। मुट्ठी में लेकर उन्हें मींड़ डाला जैसे किसी तागे से लिपटी खुशबू उँगलियों के दबाव से घबराकर बाहर निकल आएगी। परन्तु व्यर्थ।
‘‘क्या तलाश रहा है ?’’

खुशबू खो गई है।’’ उसके मुँह से बेसाख्ता निकला। अगले ही क्षण वह चौंक कर पलटा।
 नीजा खड़ी थी, मुस्कराती हुई।
‘‘कब आई तू ?’’ उसके चेहरे पर हल्की सी झेंप आई। अनजाने ही वह रुमालों को छिपाने की कोशिश करने लगा।
‘‘नईशा के भेंटे रुमाल हैं ?’’
वह चुप रहा।
‘‘खुशबू तलाश रहा है इनमें ?’’ नीजा के चेहरे की मुसकान उपहासात्मक हो गई।
वह नीजा का चेहरा ताकता रहा। किसी गोपनीय क्षण के एकाएक विवस्त्र हो जाने की पीड़ा से उत्पन्न हुए असमंजस की चपेट में आया हुआ सा।
‘‘तेरी दीवानगी की दाद तो देनी ही पड़ेगी।’’ अब नीजा के चेहरे पर हँसी उसकी आँखों में ठहर गई थी।
पलभर की ऊहापोह से उबरकर नीहास बोला, ‘‘तू कहाँ से टपक पड़ी इस वक्त ?’’
‘‘मेरे टपकने का भी कोई वक्त होता है क्या !’’ उसने अपना बैग एक कुर्सी पर उछाला और निहायत की फूहड़ तरीके से सोफे पर धप से बैठ गई।

‘‘ये तेरे पापा का सोफा नहीं है। टूट गया तो....’’
मगर नीजा ने उसे वाक्य पूरा नहीं करने दिया, ‘‘पापा का नहीं है, तभी इतनी आजादी से बैठ लेती हूँ। पापा का होता तो अब तक मेरे तीन-चार कीलें चुभ गई होतीं।’’
वह आराम की मुद्रा में अधलेटी हो गई।
नीहास ने अलमारी खुली छोड़ी और रुमाल हथेली पर बिछाए नीजा की ओर बढ़ आया, ‘‘कहाँ से आ रही है ?’’
‘‘कितना बेतुका सवाल है। है कोई अहमियत इस सवाल की इस समय ? कहाँ से आ रही है, यह कोई मायने नहीं रखता। कहाँ से आ गई हूँ, इसकी जरूर कुछ मतलब हो सकता है।....और कहाँ हूँ, यह तुझे शायद पता होगा। या नहीं है ?’’
कुछ तीखा सा कहने की इच्छा हुई। मगर न कोई बात ही मिली, न शब्द मिले। बस, अचकचाया हुआ नीजा की तरफ देखता रहा।

‘‘तू कभी-कभी निरा बच्चा मालूम होने लगता है।’’ नीजा ने उशकी हथेली पर बिछे रुमालों पर पारखी दृष्टि डालते हुए कहा, ‘‘देखने में सुन्दर हैं।’’ फिर वही मुस्कान !
वह झुँझला गया, ‘‘तू कहना क्या चाहती है ?’’
‘‘यही कि खुशबू खो गई है।’’ नीजा इस बार खिलाखिला कर हँस पड़ी। उसकी इच्छा हुई कि सामने सोफे पर अधलेटी इस लड़की को कूट डाले। ‘‘क्यों, मेरी पिटाई करने की तबियत हो रही है क्या ?’’
कैसे तुरन्त अन्दर उतर जाती है यह लड़की !
‘‘तबियत होने से ही क्या होता है....’’

‘‘होता क्यों नहीं। तू अपने मुँह से कह तो सही...मैं पिटने को तेरे बिल्कुल करीब आ जाऊँ....’’
‘‘मेरे हाथ की हड्डियाँ इlनी मजबूत नहीं हैं कि उन्हें फालतू तोडूँ।’’ अपने हाथ में लगे रुमालों के प्रति सचेष्ट होकर वह उन्हें अलमारी में रखने को मुड़ा।
नीजा कह रही थी, ‘‘नईशा के लिए तेरी यह दीवानगी देखकर बड़ा अजीब-सा लगता है। तेरी उम्र, पढ़ाई-लिखाई, तेरी मानसिक परिपक्वता, सबके आगे एक सवाल खड़ा हो जाता है। लेकिन तुझे देखकर कहानियों के यथार्थ पर भरोसा करने का जी होता है।’’
‘‘तेरा किस पर भरोसा करने को जी होता है, किस पर नहीं, इससे मुझे कुछ नहीं लेना-देना।’’ नीहास अब अचानक स्थिति से निकलकर पूरी तरह सामान्य हो गया था, ‘‘लेकिन उम्र, पढ़ाई लिखाई, जिन्दगी के किस अंश को पूरी तरह पकड़ती है, मैं आज तक नहीं समझ सका। रही मानसिक परिपक्वता की बात, तो ऐसी कोई चीज होती है क्या ? तुझे तेरे सोचों पर ख्यालों के मुताबिक मैं किसी काम में जुता नजर आता तो शायद मेरी मानसिक परिपक्वता के आगे कोई सवाल नहीं खड़ा होता।’’ वह नीजा से उलझने के लिए सन्नद्ध था।

‘‘छोड़ यार, मैं तुझसे मनोविज्ञान पर बहस करने नहीं आई हूँ। तू जो कह रहा है, वह भी ठीक होगा। और मैं जो कह रही हूँ, वह तो ठीक है ही। वैसे तुझे सच बताऊँ, मुझे नईशा से ईर्ष्या होती है। कोई दूसरा अर्थ मत लगाना इसका। और न इसे एकदम मेरी व्यक्तिगत बात समझ लेना। मेरे कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि इस दुनिया में ऐसी लड़कियाँ भी होती हैं जिन्हें कोई इतना प्यार दे सकता है। नईशा की जगह मैं होती....’’ नीजा ने धीमे स्वर में कहा।
नीजा ने बात का रुख पूरी तरह पलट दिया था। बहस के लिए नीहास की सन्न्द्धता अर्थहीन हो गई। तब व्यंग्य को छोड़ अपनी पकड़ में लेते हुए वह बोला, ‘‘इस डायलाग के बाद थोड़ी सी कमी रह गई है।’’
‘‘क्या ?’’

‘‘ठंडी आह नहीं भरी तूने।’’ वह मुस्कराया।
नीजा ने तुरन्त कहा, ‘‘भरी थी, पर तू देख ही नहीं पाया। यही तो मेरा दुर्भाग्य है कि मेरी कोई भी अच्छी चीज किसी को नजर नहीं आती। तभी तो कह रही थी कि अगर मैं झोली फैलाकर निकलूँ तो किसी को मेरी झोली ही नजर नहीं आएगी। खैर कोई बात नहीं, तू देखे तो दुबारा भरूँ ठंडी आह।’’ नीजा का सारा चेहरा इस पल मासूमियत में डूबा हुआ था।
नीहास मुस्कराए बिना रह सका, ‘‘नहीं, फालतू बरबाद मत कर। सँभालकर रख, कभी काम आएगी।’’                
नीजा अब सोफे पर औंधी लेट गई थी। अपनी ठुड्डी, कोहनियों के बल हथेलियों के बीच लिए हुए।

नीहास तय नहीं कर पाया कि नीजा ने उसके शब्द ठीक से सुने भी थे या नहीं। वह इस समय कहीं और पहुँची हुई प्रतीत हुई। नीजा के इस स्वभाव को वह बहुत अच्छी तरह पहिचान गया है। गंभीर से गंभीर बहस को अपने चन्द वाक्यों से एकदम हल्की जमीन पर लाकर खड़ा कर देगी, बहस में जोर-शोर से हिस्सा लेगी फिर इस तरह चुप मार जाएगी जैसे बहस से उसका दूर-दूर तक का संबंध नहीं। अभी लगेगा कि नीजा आपके पास पूरी शख्सियत के साथ मौजूद है, लेकिन अगले ही पल वह आपके पास नदारद होगी....इस पल नीजा उसके पास से नदारद थी।

बिना कुछ बोले कॉफी बनाने के लिए उठ गया। वैसे जब नीजा होती थी, तो उससे ही कॉफी बनाने की जिद करता था। अकसर बनाती भी वही थी। परन्तु इस क्षण नीजा को अपने हाथ की कॉफी पिलाने की इच्छा अधिक सबल थी।
कॉफी बनाते हुए नीहास ने महसूस किया, थोड़ी देर पहले वह किस खलाव को बाहर उलीचने की कोशिश कर रहा था, वह स्वत: ही दूर उचट गया है। नीजा की उपस्थिति के कारण ही ऐसा हुआ था।....तो घोर एकान्तिकता से उत्पन्न खलाव किसी भी आत्मीय की उपस्थिति से भरे जा सकते हैं ? उसने अपने आप से पूछा।
फिर भले ही यह आत्मीय् नईशा न हो, और भले ही यह भरना अल्प अवधि के लिए हो। कॉफी बनाना उसे भला लग रहा था। वह अपने अन्दर हल्का हल्का-सा उत्साह भी महसूस कर रहा था।
कॉफी के प्याले लेकर वह ठिठका खड़ा रहा।

नीजा ने बाँहों की तकियानुमा गुंजलक में अपना सिर छुपा रखा था। घुटनों से मुड़े हुए उसके पाँव लगातार आगे-पीछे हिल रहे थे। हिलती हुई पिंडलियों का गोश्त उसकी आँखों में दहकने लगा। उसकी पुरुष देह का कोई कोना सुगबुगाने लगा। हाथ में लगे कॉफी के एक प्याले में मन्द सी थरथराहट हुई....अगले ही पल एक दूसरी अनुभूति उसके पास आकर ठहर गई।....ये सब थरथराहटें, सुगबुगाहटें नईशा की हैं। किसी और का इन पर कोई हक नहीं।
‘‘नीजा !....नीजा ये कॉफी ले !’’ जैसे वह सोई हुई नीजा को जगा रहा हो।
‘‘इतना जोर से क्यों बोल रहा है ? न तो मेरे कान खराब हैं, और न मैं सो रही हूँ,’’ नीजा ने उठते हुए और साथ ही साथ बिखरी हुई साड़ी पैरों पर खींचते हुए कहा।
नीहास ने महसूस किया, वह वाकई बहुत जोर से बोल रहा था। नीजा न तो सो रही थी, न उसके कान खराब थे। तब क्यों इतनी जोर से बोल रहा था वह ? शायद नंगी पिंडलियों के गोश्त से पैदा हुई थरथराहट से मुक्ति पाने के लिए ! हाँ, इसलिए !

कॉफी की चुस्की लेते हुए नीजा बोली, ‘‘एक बात तो है, तू कॉफी अच्छी बनाने लगा है। नईशा को पिलाई है कभी बनाकर ?’’
‘‘मेरी समझ में नहीं आता तुझे नईशा की क्यों चिन्ता रहती है ? तू सिर्फ अपनी बात क्यों नहीं बोलती ?’’ नीहास स्वयं नहीं समझ सका कि उसकी यह खीझ वास्तविक थी या सन्दर्भ बनाने के लिए जबरन पैदा की गई।
‘‘तू अगर तरीके से सोचे तो समझ में आ जाएगा। मैं अपनी बात करना चाहूँ तो उससे तू जुड़ जाता है, और तेरे संबंध में कोई भी बात की जाए, उससे कहीं न कहीं नईशा जुड़ जाएगी। नईशा के बिना तेरी कोई भी बात कहीं से पूरी नहीं होती, इसलिए मैं भी सोचती हूँ कि बात सीधे नईशा से ही शुरू करूँ, और वहीं समाप्त भी।’’
‘‘तू समझती है, तुझे यह सब अच्छा लगता है ?’’

‘‘सवाल किसी बात के अच्छे-बुरे लगने का नहीं है। सवाल यह है कि मैं तेरे पास बैठ कर क्या बात करूँ।....इस बात में मुझे कोई रुचि नहीं है कि कहाँ कोई मुख्यमंत्री बदला, कहाँ ट्रेन दुर्घटना हुई, कहाँ थानेदार ने रिपोर्ट लिखाने आई महिला के साथ बलात्कार किया....किस चीज के भाव बढ़े....’’
‘‘बस...बस... ! यह क्या जरूरी है कि तू मेरे पास बैठे, और बात करे ही करे ?’’ नीहास सचमुच उखड़ गया।
‘‘तेरा गुस्सा प्यारा ही लगता है। और अब तुझे गलतफहमी भी नहीं होनी चाहिए कि तेरे इस तरह के व्यवहार से मैं बोलना बंद कर दूँगी, या तेरे पास आना बन्द कर दूँगी।’’
‘‘अच्छी जबरदस्ती है।’’

‘‘अच्छा एक बात बता, मेरी यह जबरदस्ती तुझे वाकई बुरी लगती है ?’’ नीजा सीधे उसकी आँखों में देख रही थी। उसकी अपनी आँखों में चटक स्मित उतर आया था।
इस बार नीहास ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह सीधे नीजा की आँखों में भी नहीं देख सका। नीजा का आना उसके मन पर कभी भी बोझिल होकर नहीं तना। इसके विपरीत जब भी कभी अपने भीतर की घुमड़ ने उसे बेचैन किया है, विशेष रूप से नईशा के खयालों ने, तो उसने चाहा है कि नीजा उसके करीब हो और वह अपना दिल-दिमाग आगे उड़ेल दे। नीजा से कुछ भी कहने में उसे किसी असुरक्षा के अहसास ने परेशान नहीं किया। नीजा जब भी उसके पास से गई है तो तल्ख मन:स्थिति में छोड़कर कभी नहीं। उसके और नीजा के बीच भी एक रिश्ता है, वह महसूस करता, परन्तु उसने अपनी ओर से इस रिश्ते को कोई संज्ञा प्रदान करने की कोशिश कभी नहीं की। नीजा के मन में भी उसके लिए एक जगह है। वह इस जगह की भी सही व्याख्या नहीं कर सका। इस जगह के बारे में स्वयं नीजा अपने शब्दों में दोलन पैदा करती रहती है। हर समय उसकी बातों का एक ही अर्थ निकलता तो वह कोई स्थिर राय कायम भी करता। लेकिन लगता है, जैसे नीजा हर बार नए अर्थ को नए शब्दों में गढ़ती है। कोई क्या अनुमान लगाए ? इतना अवश्य है कि नीजा के मन में उसके लिए कुछ है, और यह ‘कुछ’ हमेशा ही उसे तृप्तिदायक अनुभूति तक ले जाता रहा है।
‘‘तूने जवाब नहीं दिया ?’’

‘‘क्या जवाब दूँ ! हर बात का जवाब भी तो नहीं होता। जबरन कोई जवाब दिया जाए तो फिर यह आवश्यक नहीं कि वह जवाब हो ही। और हर जवाब के लिए शब्द भी नहीं मिलते।’’
‘‘ऐसी बात नहीं है।’’ नीजा की मुस्कान पहले से अधिक सघन हो गई, ‘‘अगर जवाब देने वाला कहीं कोई बेईमानी न कर रहा हो तो उसे शब्दों की मोहताजी नहीं रहती।’’
‘‘चल, जो हो।’’ नीहास ने स्वयं विषय से परे हटना चाहा, ‘‘तेरे पापा कहीं बाहर गए थे, आ गए क्या ?’’
‘‘मैं इस समय यहाँ चली आई हूँ, इससे क्या साबित होता है ?’’ नीजा ने मेज पर रखी पेंसिल उठा ली और दाएं हाथ के अँगूठे पर आढ़ी-तिरछी लाइनें खींच रही थी। लघु चुप्पी के बाद बोली, ‘‘मैं सोच भी नहीं सकती थी कि किसी लड़की के लिए उसके बाप का आगमन इस कदर घुटन ला सकता है।’’
नीजा घुटन की बात करे, और उसमें उसके बाप का जिक्र न हो, ऐसा अभी तक नहीं हुआ था। नीहास बोला, ‘‘अब तो सोचती है.....?’’

‘‘सोचती हूँ।’’ नीजा ने सर को झटका दिया, ‘‘अब तो भागती हूँ। पापा कल रात को आए हैं। सुबह नाश्ते पर ही उन्होंने घोषणी की थी कि आज का दिन बच्चों के साथ बिताने का इरादा है उनका। पापा के सारे दिन घर पर बने रहने के ख्याल से ही मुझे दहशत होने लगती है।....मैं भाग ली।’’ चन्द क्षणों की चुप्पी के बाद बोली, ‘‘तुझे अपना कोई काम- वाम करना हो तो करता रह। मैं तीन-चार घंटे बाद ही जाऊँगी।’’
‘‘काम-वाम तो कुछ नहीं करना, एकाध खत लिखना है, पर उसका भी मूड नहीं है।’’
‘‘कोई नया उपन्यास खरीदा हो तो दे, उसी में सिर खपाया जाए।’’

‘‘उपन्यास बाद में पढ़ना, पहले एक बात का जवाब दे। इतने घने रिश्ते भी इतने अर्थहीन क्यों हो जाते हैं ?....तेरा ही उहाहरण है, बाप-बेटी का रिश्ता, और इस कदर तना हुआ। क्या तुझे अपने पापा से कोई हमदर्दी नहीं होती ?’’
‘‘तू सवालों को इतना उलझा क्यों देता है ? एक बेटी के नाते बाप से हमदर्दी होना एक बात है, और अपनी व्यक्तिगत इच्छा-आकांक्षाओं को पूरी तरह जीने के लिए सचेष्ट लड़की का परिवार के मुखिया से टकराव होना, दूसरी बात है।
‘‘मुझे अपने पापा से हमदर्दी हो, तो इसका मतलब यह तो नहीं, उनके पास बैठने, उनकी बाते सुनने, और ‘हाँ पापा’, ‘हाँ पापा’, का तकिया कलाम अख्तियार करने की अनिवार्यता हो जाए। हालाँकि वे चाहते यहीं है, पर ऐसा करने में मेरे दिमाग की नसे चटकने लगती हैं। मैं उन लोगों से नफरत कर सकती, और कटकर एकदम अलग खड़ी हो सकती, तो शायद इतनी मानसिक यातना नहीं झेलनी पड़ती।’’ नीजा की आँखों में कुछ-कुछ हताशा झाँकने लगी थी।
‘‘एक रिश्ता मानसिक यातना का कारण बन जाए, तो उसकी अर्थहीनता नहीं है ? इससे रिश्ता टूटता नहीं क्या ?’’
‘‘अर्थहीनता तो है, मगर टूटना नहीं। आदमी के साथ विडम्बना यही तो है कि रिश्ता अर्थहीन होकर भी टूट नहीं पाता और दूसरा रिश्ता सार्थक होते हुए भी जुड़ नहीं पाता।’’

‘‘तात्पर्य ?’’
‘‘तू अपना ही उदाहरण ले। नासिरा से भी तेरा एक रिश्ता था, वह क्या टूट गया है ? और नईशा से भी तेरा एक रिश्ता है, वह क्या जुड़ गया है ?’’ बोलते हुए नीजा के चेहरे पर मुस्कान की रेखा तक नहीं थी।
नीहास को महसूस हुआ, नीजा की इस बात ने जैसे उसे खलावे में उछाल दिया है, और वह किसी बिन्दु पर टिकने के लिए बेतहाशा हाथ-पैर मार रहा है।

नईशा, मैं नीहास, नीजा के शब्दों के धक्के से खलाव में उछला हुआ नीहास, फिर तुम्हारे घर की तरफ चल रहा हूँ। हमेशा की तरह इस बार भी सोच रहा हूँ कि तुम से दो टूक बात करूँगा। तुम से अपने-तुम्हारे बीच इस रिश्ते की कैफियत तलब करूँगा। तुम्हारे साथ बैठकर किसी फैसले पर पहुँचने की कोशिश करूँगा – ऐसा फैसला जो तुम्हारा भी उतना ही हो जितना मेरा, जिससे जज्बाती जुड़ाव तुम्हारा भी उतना ही गहरा हो, जितना मेरा। और उससे तुम्हारे भी दिल की रगें उसी तरह बिंधी हुई हों जिस तरह मेरी। यह भी सोच रहा हूँ कि इस बार हमेशा की तरह खाली मुट्ठी लेकर वापस न लौटूँ – अनिश्चय के भंवर में डूबता-उतराता, टूटता-जुड़ता, बिखरता-सिमटता।
मैं शब्द गढ़ रहा हूँ। वे शब्द जो मेरे भीतर के उस सब की सही आकृति बना सकें जो सिर्फ तुम्हारा होकर रह गया है। वे शब्द, जो तुमसे जुड़ी मेरे मन की गहनतम अनुभूति को ज्यों का त्यों तुम तक पहुँचा सकें। वे शब्द जो मेरे हृदय के स्पन्दनों को तुम्हारे हृदय के स्पन्दनों में बदल सकें। मैं शब्द गढ़ रहा हूँ। मेरे साथ प्राय: ऐसा हुआ है कि जब मुझे शब्दों की सबसे अधिक जरूरत हुई, तभी शायद मुझसे कतरा कर निकल गए हैं और मैं खड़ा रह गया हूँ। अबोला। चुपचाप। इस बार भी ऐसा ही हुआ है। अन्दर का सारा उफान अन्दर ही रह गया है। चेहरे पर उतर आई है एक नि:संग तटस्थता – तुम्हें सामने पाकर।

‘‘आज मैं आपको याद कर रही थी।’’ तुमने कहा है।
क्या सचमुच याद कर रही थीं ? या मुझे सामने देखकर महज औपचारिकता वश कहा है यह तुमने। अगर याद कर रही थीं तो क्या याद करने में वह कशिश रही होगी जो मेरे तुम्हारे पास आने में रही है ? लेकिन प्रत्यक्ष में सिर्फ मुस्करा कर रह गया हूँ। कहा, पूरा का पूरा अनकहा होकर भीतर ही रह गया है।
‘‘मम्मी भी कई बार पूँछ चुकी हैं आपके लिए।’’ तुमने फिर कहा है।
‘‘क्या ?’’
मेरे चौंकने पर तुम हँसने लगी हो, ‘‘कहाँ खो गए थे आप ?’’
‘‘कहीं नहीं, क्या कहा तुमने ?’’ मैंने अपने आप में वापस लौटते हुए पूछा है।....यह शायद तुम कभी न समझो कि मैं कहाँ खो जाता हूँ।

‘‘मैं कह रही थी, मम्मी आपको कई बार पूछ चुकी हैं।’’ तुम्हारा चेहरा चंचल मुस्कान से उद्भासित है।
‘‘मम्मी क्यों पूछती हैं ?’’ लेकिन अगले ही क्षण अपने कुछ गलत बोल जाने का अहसास होता है, और मैं तुरन्त दूसरा सुधार-वाक्य बोलता हूँ, ‘‘मेरा मतलब, मम्मी किस लिए पूछ रही थीं ?’’
मैं तुम्हारी दिमागी जहनियत का कायल हूँ। छोटी-से-छोटी चीज भी तुम्हारी पकड़ से नहीं छूटती। तुम्हारी मुस्कान, और फिर प्रतिमुस्कान से मैं समझ गया हूँ कि तुमने मेरी हड़बड़ाहट को पकड़ लिया है। लेकिन इस हड़बड़ाहट के पीछे क्या था, क्या उसे भी पकड़ सकी हो तुम ?
तुम्हारी मम्मी अन्दर आई हैं तो मैं उठ खड़ा हुआ हूँ – सम्मान की भावना से।

 

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