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बर्फ का दानव

जसबीर भुल्लर

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4062
आईएसबीएन :81-7043-541-2

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानी-संग्रह

Rajani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जोगी, देश की ढेर सारी मांगों में एक मांग यह भी है कि हम हथियार वाले दूसरे इन्सानों को मारें.... हांड मांस के पुतलों को। अपने मामले में भी यही हुआ है। बहुत सारे आदमी तुमने भी मार डाले होंगे, मैंने भी अपनी गोलियों से बहुत मारे हैं, पर जोगी इन कत्लों के लिए तुम भी मुजरिम नहीं हो...इन मौतों के लिए मैं भी गुनहगार नहीं हूं। हमने वही किया जो एक अच्छे सिपाही को करना चाहिए। अगली जंग में मुझे तुम पर ही गोली चलानी पड़े या हो सकता है कि मैं तुम्हारी गोली का शिकार हो जाऊँ। उस वक्त हम मोर्चे में बैठे सिपाही का फर्ज निबाह रहे होंगे। हमारी दोस्ती तब भी कायम रहेगी...आपस में हमारी लड़ाई कैसी ?

जसबीर भुल्लर के बारे में

जसबीर भुल्लर गल्प के विलक्षण हस्ताक्षर और पंजाबी कहानी के गौरव हैं। वे पल भर के लिए भी मानवीय मूल्यों और गरिमा को दृष्टि से ओझल नहीं होने देते। वे चाहे किसी वेश्या के चकले के बारे में लिख रहे हों या फौजी जीवन के बारे में अथवा प्रेम के बारे में। उनकी कहानियों की विशिष्टता यह है कि वे सामान्य आदमी और बौद्धिक वर्ग दोनों को ही गहरे तक छूती हैं।
उनकी कहानियों का स्वभाव सहज है पर उनका ढंग उनकी तृष्णा है। जसबीर भुल्लर की कुछ कहानियों ने रूप की बुनावट के पक्ष से पंजाबी साहित्य में कई नये अध्याय आरम्भ किए हैं। वे रूप की बुनावट का यूँ प्रयोग करते हैं कि पाठक कथा के ब्यौरों से गुजरने के स्थान पर कहानी को विजुअल में देखने लग जाता है।
जसबीर भुल्लर की प्रतीकात्मक शैली पीड़ा, संताप और बारूदी दहशत के साथ-साथ फौजी त्रासदी का शिखर निर्मित करती है और प्रतीकात्मकता इन कहानियों को सुगठित और प्रखर रुप में प्रस्तुत करती है। फौजी जीवन के छोटे-छोटे आख्यान, जख़्मी फौजियों की मानसिकता, बारूद, जंग, निचुड़ता लहू, रक्तरंजित देह, दूर बैठे आशंकात्रस्त परिवार, मुल्कों की हदें, मृतक साथियों के शव व अन्य भी बहुत कुछ जो जसबीर भुल्लर की आलंकारिक शैली द्वारा धड़कने लगता है। फौजी जीवन से सम्बन्धित ब्यौरे जसबीर भुल्लर के पास कमाल के हैं।

जसबीर भुल्लर के भीतर का लेखक यह बात दृढ़ता से स्थापित कराने में सफल होता है कि हर विगत काल की ऐतिहासिकता चाहे किसी भी ऐतिहासिक सन्दर्भ में अंकित हो या न हो, लोक मन ऐसे ब्यौरों की बाख़ूबी सहेज लेता है।
जसबीर भुल्लर के पास अपना नवीन अन्दाज़, काव्यात्मक मुहावरा, कहानी कहने की सूक्ष्म कलात्मकता और नई तथा युक्तियों के साथ-साथ मानवतावादी पैठ की बाहुलता है। उनकी कहानियाँ निश्चय ही मानव गरिमा का श्रेष्ठ आख्यन हैं।
जसबीर भुल्लर को कई मान-सम्मान और पुरस्कार भी प्राप्त हुए हैं, पर जो मोह और हुँकारा उन्हें अपने पाठकों से प्राप्त हुआ है वह समस्त पुरुस्कारों और सम्मानों से सर्वोपरि है।

आभार

हंस, कथादेश, वागर्थ, साक्षात्कार, अक्षर पर्व, इन्द्रप्रस्थ भारती व दैनिक जागरण का जिनमें ये कहानियां पंजाबी से हिन्दी में अनूदित होकर प्रकाशित हुईं।

सपनों की शिनाख्त

फौज़ी बूटों से उसके पाँव उकताये भी हुए थे और थके हुए भी। फिर भी पैर घर के लिए बेसब्र थे।
अस्त होते सूर्य के नजदीक झुलसा-सा घर उस वक्त चुप और गर्क में उदास था। शाम की फैलती परछाइयों में उसे खेतों में खड़ी फसल मु्रझाई हुई महसूस हुई।
घर के खाते से तो सिपाही सुबेग सिंह कब का मर चुका था। युद्धक्षेत्र से प्राप्त परिचय-पत्र उसकी मृत्यु का साक्षी था।
युद्ध की पोशाक में जब वह युद्ध के लिए निकला था तो उसके पास। टीन के उन गोल टुकड़ों पर उत्कीर्ण नाम, नम्बर उसकी पहचान थी। नीचे अंकित सैनिक का धर्म, मरने के बाद उसके दाह-संस्कार या दफन का निर्णय सरल कर देता था। रक्त के ग्रुप की अंकित जानकारी आहत सैनिक को तत्काल रक्त देकर जीवन-दान देने में सहायक होती थी।
उस रात हमले के दौरान भी मजबूत धागे से बँधा एक परिचय-पत्र उसके गले में लटक रहा था। दूसरा कलाई में बँधा था। पर इस्पात का परिचय-पत्र उसकी ढाल नहीं था। एक गोली परिचय-पत्र के करीब बाँह की हड्डी को चकनाचूर कर गई थी।
अपनी रायफल उसने वहीं रख दी थी और दायें हाथ से बाँह को उठाने का प्रयत्न किया था। हाथ घाव से बहते रक्त से सन गए थे। उसने पलटी मार कर एक गड्ढे में आश्रय लिया था।
रात की स्याह स्लेट पर गोलियाँ लकीरें खींचती रही थीं। युद्धास्त्रों के शोर में चीखें गुम होती रही थीं।
गड्ढे की पनाह में पड़ी जिन्दगी धीरे-धीरे निचुड़ रही थी।
उसने पेटी खोली पिट्ठू उतारा और पानी वाली बोतल से रम के दो घूँट भरे। मरुस्थल की रात में ठिठुरे हुए शरीर में कुछ आँच लहकी। ऐसे ही कठिन वक्त के लिए उसने बोतल में पानी की जगह रम भरी थी। वह जानता था, पानी तो वह किसी भी मुर्दे की बोतल से पी सकता था।
कलाई में बँधा परिचय-पत्र घाव में चुभ रहा था। उसने दातों से धागे की गाँठ खोल कर परिचय-पत्र उतार फेंका था। रम से घाव धोकर पिट्ठू से रूई और पट्टी निकाली थी और घाव पर कस कर बाँध दी थी। किसी मुर्दे के जंगलबूट का एक पाँव कोहनी के नीचे रख कर एक और पट्टी लपेट ली थी। रायफल की शिलिंग का हार-सा बनाकर गले में डाल लिया था और शिलिंग के आसरे बाँह का भार उठा लिया था।

इतने कष्टसाध्य श्रम ने उसे थका डाला था। उसने रम की एक और घूँट भरा और दाँत भींचकर आँखें मूँद लीं। लड़ाई के बाद उनकी लाशों को मानवीय सम्मान मिलना चाहिए था, उनके कमान अफसर ने यह बात सोची।
लाशों को दफनाने के लिए भेजी गई टुकड़ी के जवान पहले मृतकों की गिनती करते रहे थे और फिर थक गए थे। उन्होंने परिचय-पत्र उतार-उतार कर शवों को एक गड्ढे में फेंकना शुरू कर दिया था। इसी बीच अचानक ही दुश्मन के तोपखाने से गोलाबारी होने लगी थी। दुश्मन का तोपखाना वैसे तो वहाँ से पच्चीस-तीस किलोमीटर दूर था पर उसके द्वारा प्रेषित मौत दूर नहीं थी। लाशों को दफनाने का काम अधूरा छोड़कर उन्हें भागना पड़ा था। उनकी पलटन के पास उस दिन बहुत सारे परिचय-पत्र एकत्र हो गये थे। एक परिचय-पत्र उनमें सिपाही सुबेग सिंह का भी था।
क्लर्कों ने टीन के परिचय-पत्रों से पलटन के समस्त शहीदों के नम्बर, नाम पढ़े थे। और पहले से तैयार चिट्ठियों के रिक्त स्थानों में भर दिए थे।
उस रात चिट्ठियाँ रुदन का सुराग लेकर अपने आप में गुम घरों में सेंध काटने चल दी थीं।
यह पूरी घटना पुराने एक साथी ने बतायी थी, जो पिछले दिनों सिपाही सुबेग सिंह को रेजीमेंट-सेन्टर में मिला था।
उसका सामान जब घर भेजा गया था तो जंग के मैंदान से मिला परिचय-पत्र भी उसमें शामिल था।
दूसरा परिचय-पत्र अभी तक उसके पास था।

बन्द दरवाजे को सिपाही सुबेग सिंह की प्रतीक्षा नहीं थी।
उसे देखकर सब हतप्रभ रह गये थे, फिर खुश हुए थे, हँसे थे और परेशान हो गये थे। उनके चेहरों पर चिन्ता और तनाव फैल गया था। निंदी बकटुट उसकी ओर दौड़ी थी, फिर झिझक कर ठिठक गयी थी।
उनके बीच बस थोड़ा-सा ही फासला शेष रह गया था। सुबेग सिंह ने कन्धे से किटबैग उतार कर नीचे रख दिया और लम्बे-लम्बे डगों से वह फासला मिटा दिया।
निंदी ने उसकी छाती में सिर गड़ा दिया और फूट-फूट कर रोने लगी। पर अगले ही क्षण वह सचेत हो गयी और सिर पर लम्बा सा पल्ला खींच लिया।
संत कौर ने सुबेग सिंह के सिर पर हाथ फेर कर उसका माथा चूमा और मन भर लिया।
गुरदीप ने बड़े भाई के आलिंगन में कराह जैसा निश्वास भरा—‘भाऊ (भाई), तुम पहले क्यों नहीं आये ?’
सूबेदार ज्वाला सिंह ने सिपाही सुबेग सिंह की पीठ थपथपायी—‘हौसला कर, सब ठीक हो जाएगा।’
सुबेग सिंह के आगमन के चाव को दीमक लग गयी। उसने सोचा, उसकी कटी हुई बाँह देखकर सब मुरझा गये थे। उसने दायें हाथ से कटी हुई बाँह को थपथपाया और एक लम्बा साँस भरकर हँसने की कोशिश की—युद्ध को कोई-न-कोई निशानी तो देनी होती है।’
पलँग, कुर्सियाँ बिछाकर आँगन के चौके के करीब ही बैठ गये वे।
उखड़े-उखड़े स्वर में गुरदीप बोला—‘भाऊ, हमें तो तुम्हारे मरने की खबर पहुँची थी। हमने तो तुम्हारा भोग (तेरहवीं) भी डाल दिया था। और तुम इतने सालों बाद अब आये हो जब...।’
गुरदीप की अधूरी छोड़ी बात अधूरी ही रह गयी। सिपाही सुबेग सिंह ने हँसते हुए कहा—‘अगर मैं वहीं मर जाता तो...?’
‘सुख-सुखाँ की बोली बोल पुत्तर।’ संत कौर ने मीठी-सी झिड़की दी—‘शुक्र है, जंग की सांसत खत्म हुई। मैं तो कहती हूँ, मेरी उमर भी मेरे पुत्तर को लग जाये।’
‘पर यह सब हुआ कैसे ?’ बात को मोड़ देते हुए सूबेदार ज्वाला सिंह ने सिपाही सुबेगसिंह की कटी हुई बाँह की ओर इशारा किया।
निंदी ने झांखड़ की आग जलाई और पतीले में अदहन डालकर चूल्हें पर रख दिया। कुछ देर बाद पानी उबलने लगा।
सुबेग सिंह ने चूल्हे की आग से नज़र दूसरी ओर घुमायी और आँगन में फैल रहे अँधेरे की ओर देखने लगा।
अँधेरा उस रात उसकी आँखों में भी उतर आया था।....
युद्ध के कोलाहल से बेखबर पड़ा रहा था वह। उसके चारों ओर कौवों की संख्या बढ़ गयी थी। और अब गिद्ध भी पहुँचने वाले थे।

अपने और परायों की एक खेप कट चुकी थी। वह इन्सानों की कटी हुई फसल के बीच पड़ा था। वहाँ न दुश्मन का सुराग था, न अपनों का पता। वे कब के जा चुके थे।
शीत के चंगुल से दिन बाहर आ गया था। हौले-हौले दिन को तपना था और फिर मृगजल हो जाना था। वहाँ से जाने की तैयारी में उसने बगल वाले मुर्दे से रोटी लेकर खायी थी। एक दूसरे मुर्दे की बोतल से पानी पिया। किसी तीसरे मुर्दे की वाटर बाटल अपनी पेटी से बाँध ली।
दूर कहीं गोलियाँ चलने की मध्यम आवाजें सुनी उसने। वहाँ से उसने एक रायफल उठायी और आवाजों के भ्रम की दिशा में चल दिया।
मृगजल की झील की यात्रा के मध्य उसकी प्यास उग्र हो गयी। होंठों पर पपड़ी जम गयी। वह खड़ा हो गया। उसके पीछे लड़खड़ाते हुए पैरों के निशान थे और सामने रेत का अन्तहीन विस्तार।
उसके जख्म में ढेर सारी रेत भर गयी थी। बाँह सूज गयी थी। नजरों के सामने धरती काँप रही थी। पर उसे घाव की पीड़ा से अधिक मरुस्थल का खौफ था।
गनीमत यह थी कि उसकी टाँगों ने उसके शरीर का बोझ अब तक उठा रखा था। उसने भभके हुए पानी का घूँट भरा और चल पड़ा, पर उसके शरीर की शक्ति उसके हौसले के कद के अनुरूप नहीं थी। वह ठोकर खाकर मुँह के बल गिर पड़ा था और वहीं उलटा पड़ा हांफने लगा था।
उसने दिल को कच्चा करने वाली गंध महसूस की। वह एक मानव खोपड़ी पर सिर रख कर हांफ रहा था। मृत सैनिक का बाकी शरीर भी वहीं रेत में दबा पड़ा था।
वह तेजी से आगे सरक गया था।
निंदी ने उसके अन्तिम भुजपास में बिसुरते हुए कहा था—‘तुम्हें मेरे लिए जिन्दा वापिस आना है।’
उसने गर्म पानी का आखरी घूँट भरा और बोतल उलट दी। पानी की दो बूँदें रेत ने सोख लीं।
पानी का घूंट और निंदी के बोल उसके हौंसले का सम्बल थे। सम्बल के सहारे उठ खड़ा हुआ वह।
इस बार की लड़ाई के लिए उसे न हथियारों की जरूरत थी, न गोली-गोले की। उसने पिट्ठू उतार दिया और रायफल अपने भाईचारे वाले की खोपड़ी के निकट उल्टी गाड़ दी अटेन्सन होकर उसने बेनाम सैनिक को श्रद्धांजली दी और भारी बोझ जैसा पाँव आगे बढ़ाया।
पसीना चू कर उसकी आँखों में भर रहा था। कमीज के कफ से उसने पसीना पोंछा। पोरों से आँखें मलीं और रेत के विशाल समुद्र को घूरा।
दूर बिस्कुटी रेत पर काले धब्बे थे।

उसकी जिजीविषा उसे खींच कर काले धब्बों तक ले गयी। वे काले धब्बे डक बोर्ड थे। लोहे की पत्तियों में जकड़े लकड़ी के पटरे। फौजी ट्रकें रेत में न धँस जायें इस डर से डक बोर्ड बिछाये जाते थे। मीलों तक ट्रक इन पटरों पर चलते थे। रेत पर डक बोर्ड बिछे होने का अर्थ था फौजी दूर नहीं थे।
वह डक बोर्ड के साथ-साथ चलता रहा।
डक बोर्ड अचानक खत्म हो गए, वह फिर भी चलता रहा। उसकी बाँह का दर्द इन्तहा तक पहुँच गया था पर इस पीड़ा से वह प्यास बड़ी थी, जो उसे चला रही थी।
पर जल कहाँ था ?
खीझकर उसने अपनी प्यास से कहा, वह मर जाये, पर प्यास थी कि मर ही नहीं रही थी, वह खुद मर रहा था।
उस पर बेहोशी तारी हो रही थी।
उसने कुछ कदम आगे बढ़ाये और फिर रेत पर ढेर हो गया।
भूखे गिद्ध पता नहीं कब से उसकी राह ताक रहे थे। वे एक-एक कर नीचे उतर आये।
सिपाही सुबेग सिंह ने अपने शरीर पर तीखी चोचों की पीड़ा महसूस की। उसने आँखें खोल लीं और बाँह उलार कर गिद्धों के खदेड़ा।
गिद्धों के भारी डैनों की हवा से कुछ रेत उड़ी।
अगले क्षण सिपाही सुबेग सिंह की बाँह नीचे गिर गई। वह गहन तन्द्र में डूब गया था।
झिझक के कारण गिद्ध कुछ देर तक दूर रहे फिर निःशंक होकर अपने भोजन पर चोंच मारने लगे।

बहुत देर तक अँधेरे में हाथ-पाँव मारता रहा था वह और फिर चुप पसर गयी थी।
अँधेरा कुछ छना तो उसने आँखें खोलीं।
एक अजनबी सैनिक उस पर झुका हुआ था—‘शुक्र है, तुम्हें होश आ गया।’
दुश्मन देश के सैनिक हास्पिटल में पड़ा हुआ था सुबेग सिंह। गिद्धों ने जगह-जगह से उसके शरीर को नोंच डाला था। घावों पर पट्टियाँ बंधी हुई थीं और उसकी एक बाँह बाजू के नीचे के हिस्से के आगे से काटी जा चुकी थी।
‘गश्ती दल अगर अचानक न पहुँच जाता तो गिद्धों ने तुम्हें खा लेना था।’ दुश्मन फौजी ने खुलासा किया।
यह फौजी भी अजीब होते हैं। खुद ही इन्सानों को मारते हैं और खुद ही उन्हें बचाने का प्रबन्ध करते हैं। सिपाही सुबेग सिंह ने जब अपने ऊपर झुके सैनिक की वर्दी की ओर देखा तो उसकी आँखों से पानी बहने लगा। दुश्मन सैनिक ने उसे टोंक दिया—‘रोओ मत। यह आँसू किसी और वक्त के लिए सहेज कर रखो। फौजी को आँसुओं की बहुत जरूरत होती है।’
सिपाही सुबेग सिंह एक युद्ध बन्दी था। क्या करना था उसे अपने आँसुओं का ? एकाकी जीवन जीने के लिए उसे सपने चाहिए थे। उसने आँसुओं को रेत हो जाने का श्राप दे दिया और कल्पना में जीने लगा।
धीरे-धीरे सिपाही सुबेग सिंह के जख्म भर गये, पर दोनों मुल्कों के जख्म ठीक होने में काफी वर्ष लग गये।
समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद युद्धबन्दियों की अदलाबदली हुई। फौजी कार्यवाही के अन्तर्गत छानबीन शुरू हुई। कागज-पत्र पूरे किये गये और सुबेग सिंह को फौज से मुक्त कर दिया गया।
जब उसने खुली हवा में आकर साँस ली तो जंग उस पर अपनी इबारत लिख चुकी थी। यह इबारत उसका अपंग वजूद नहीं था और न ही शरीर पर छपे जख्मों के निशान। इस इबारत के शब्द व्यतीत काल के खण्डहरों से मिले किसी पत्थर पर खुदे शिलालेख की तरह थे, जो अब तक पढ़ने में नहीं आ रहे थे।
चूल्हे में झाँखड़ जलता रहा। आग के सामने बैठी निंदी राख होती रही।
बीते वर्षों में सच ने अपने नक्शे बदले थे। सुबेग सिंह के वापिस घर लौटने से वह सच त्रस्त हो उठा था।
सिपाही सुबेग सिंह बेखबर था। बातों के प्रवाह में उसने अगली कड़ी जोड़ी—‘एक बार तो माँ तेरे बेटे का, कीर्तन-सोहला (सोने से पहले रात के वक्त किया जाने वाला पाठ। यहाँ इसे मृत्यु पाठ के सम्बन्ध में लिया गया है) पढ़ा ही जाने वाला था।’
संत कौर ने उसे झिड़का—‘ढंग की जुबान निकाला करो मुँह से।’

‘माँ जंग की बातें जंग के बाद कुछ नहीं कहतीं’। वह हँसा था और बात आगे बढ़ायी थी—‘एक रात मैं मोर्चे पर बैठा गोलियाँ दाग रहा था कि दुश्मन के टैंकों ने हमला बोल दिया। गड्ढे, टिब्बे झाड़ियों को रौंदते टैंक आगे ही बढ़े आ रहे थे। धूल के बगूले आकाश छू रहे थे। धूल के गुबार में कभी कोई टैंक दिखाई देता और कभी अन्य टैंक के उठे गुबार में छुप जाता। टैंक लगातार गोले बरसा रहे थे। सैनिकों के चिथड़े उड़े जा रहे थे क्या देखता हूँ कि एक टैंक सीधा मेरी ओर बढ़ा आ रहा है। वह टैंक किसी भी पल मुझे कुचल सकता था। मुझे चारों तरफ चल रही गोलियाँ बिसर गयीं। मोर्चा छोड़कर बकटुट भागा मैं और एक लाश से ठोकर खा कर मुँह के बल गिर पड़ा।’
सन्त कौर ने ‘वाहेगुरु-वाहेगुरु’ किया।
सिपाही सुबेग सिंह एक पल को रुका फिर बोला—‘टैंक तो जैसे पागल हाथी था। चिघाड़ता हुआ मेरे ऊपर से फलाँग गया।’
‘हाय रब्बा !’ निंदी का त्राह निकल गया।
‘समझ लो रब्ब ने हाथ देकर बचा लिया। मैं टैंक के ट्रैकों के बीच अडोल पड़ा रहा और मेरी रायफल की बैरल कुचलता टैंक आगे निकल गया। तुम मानोगी नहीं मेरे खरोंच तक नहीं आयी। लड़ाई खत्म हुई तो सुख की साँस आयी।’
‘लड़ाई यूँ खत्म नहीं होती। लड़ाई तो फौजी के साथ उम्र भर चलती है।’ सूबेदार ज्वाला सिंह ने गला साफ करने के लिए खँखारा और उठते हुए बोला—‘मेरी रहिरास (संध्याकालीन पाठ) की बेला हो गयी है। पाठ निपटा लूँ फिर तसल्ली से बैठ कर बातें करेंगे।’
संत कौर भी उसके साथ उठ कर चल दी।
‘सामान मैं बस अड्डे पर रुड़े हलावाई के पास रख आया हूँ।’ दोनों के जाने के बाद सुबेग सिंह ने गुरदीप सिंह को बताया।
‘कोई नहीं...मैं भेजता हूँ किसी को।’
‘अब काहे को भेज रहे हो।’ उठने लगे गुरदीप सिंह को उसने रोक दिया—‘अँधेरा गाढ़ा होने को है। कल देखा जायेगा।’
‘जैसा तुम कहो।’
गुरदीप सिंह कुछ देर बैठा रहा फिर आँगन के चक्कर लगाने लगा।
सुबेग सिंह पलंग से उठ कर चूल्हे की आँच के सामने जा बैठा। वह मंद-सा हँसा—‘देखो मेरे चारों ओर कैसे घूम रहा है। मैं तो कहता हूँ कि चार फेरे देकर इसका भी काम निपटा दें अब।’
निंदी ने चोर आँखों से सुबेग सिंह की ओर देखा। सुबेग सिंह का चेहरा अथाह उल्लास से चमक रहा था। निंदी ने फिर सिर झुका लिया और तिनके से जमीन पर हाशिए बनाने लगी।
सुबेग सिंह हँसा—‘आज लकीरें ही खींचती रहोगी क्या ?’
वह चुप रही।

बाहर के दरवाजे का हुड़का लगा हुआ था। बन्द दरवाजे के कुण्डे में खुला हुआ ताला लटक रहा था। गुरदीप बेचैनी से दरवाजे तक गया और ताला बन्द कर चाबी घुमा दी।
वापिस मुड़ा तो चौके की मुंडेर के पास खड़ा हो गया। आगे को झुकते हुए कुछ उखड़े स्वर में बोला—‘भाऊ, हम अगर यहीं बैठे रहेंगे तो निंदी से कोई काम नहीं होगा। चलो, हम लोग भी खिसके यहाँ से।’
सिपाही सुबेग सिंह चिहुँक उठा। उसने कानों से आँच निकलने लगी। क्या गुरदीप अपनी भाभी को अब निंदी कहने लगा है ? उसकी सोच ने होनी को कयास कर पिछले पाँच वर्षों के कई पृष्ठ खंखाल डाले। हवा के एक ही झोंके से उसके अन्दर जल रहे दीये की लौ बुझ गयी।
उसी क्षण एक भैंस खुल गयी। गुरदीप ने भागकर भैंस को पकड़ा और फिर से खूँटे से बाँध दिया। उसने भूसे वाले कमरे से झूल निकाले और मवेशियों पर डालने लग गया।
गुरदीप की एक ही बात ने कई गुंजलकें डाल दी थीं। इन गुंजलकों को जाने बिना सुबेग सिंह की कही बात कलह डाल सकती थी। वह उठा और गुम-सुम सा चौबारे की सीढ़ियाँ चढ़ गया। निंदी आज शाम से ही हाथ घिसा रही थी। वह नहीं चाहती थी कि आज चूल्हे का काम निपटे
वह सुबग की साँसों में जी थी। उसकी कल्पना में जागी थी रातों को। उसकी सलामती के लिए मनौतियाँ मानी थीं।
—और फिर वह मर गया था।
सिपाही सुबेग सिंह की मौत की खबर आने पर वह कई मौतें मरी थी।
—और इस पल सिपाही सुबेग सिंह का जीवित होना निंदी को जीते जी मारे डाल रहा था।
सिपाही सुबेग सिंह के मरने की खबर पुरानी हो जाने के पश्चात् भाईचारे के इकट्ठ में निंदी की गुरदीप के साथ चादर डाल दी गई थी।
‘ओय रब्बा; क्या करूँ मैं निंदी बिलख उठी थी। उसने चूनर का पल्लू मुँह में लेकर चीथ डाला था।

कमरे की बत्ती जल रही थी और दरवाजा उढ़का हुआ था। यह कमरा उसका नहीं था पर वह उढ़का हुआ दरवाजा ढेल कर अन्दर चला गया था।
सामने दीवार पर उसकी तस्वीर लटक रही थी। तस्वीर में वह फौजी तरीके से तना बैठा था। उसके भिंचे होंठों पर मन्द मुस्कान-सी थी। यही मुस्कराहट उसकी आँखों में भी नज़र आ रही थी।
नई-नई शादी हुई थी तब उसकी। दोनों तरनतारन के गुरुद्वारे में माथा टेकने गए थे। वहाँ उसने और निंदी ने एक साथ तस्वीर खिंचवायी थी। यह उसी तस्वीर का व्यतीत हो चुका अर्द्धांश था, जिसे इन्लार्ज करवा कर टाँग दिया गया था।
तस्वीर पर काले धागे से पिरोया उसका पहचान-पत्र लटक रहा था। तस्वीर के नीचे फर्श पर उसका किटबैग टेढ़ा पड़ा था। इस कमरे से वह बस बस यूँ ही मिलने चला आया था। फिर गुरदीप उसका किटबैग यहाँ क्यों रख गया था ?
उसने किट बैग उठाया और कमरे के बाहर आ गया। आँगन में झाँका। चौके में गुरदीप, निंदी की ओर झुका कोई बात कर रहा था।

सुबेर सिंह को लगा शीत बयार ने झंझावत का रूप धारण कर लिया है। पूरा घर उस वक्त अँधेरे की घेरे बंदी में था। दूर भट्टल गाँव की जलती हुई इक्का-दुक्का रोशनियाँ अँधेरे को छेदने का प्रयास कर रही थीं।
उसके दाँत बजने लगे।
उसने अपने कमरे का दरवाजा खोलकर बत्ती जलाई और किट बैग नीचे रख दिया। विद्युत-प्रकाश में उसने अपने संशयों के अर्थ बिखरे हुए देखे। दासे पर निंदी और गुरदीप की स्टील के फ्रेम में मढ़ी तस्वीर पड़ी थी। पहले इस फ्रेम में उसकी और निंदी की तस्वीर लगी रहती थी।
तस्वीर की पृष्ठभूमि में एक शीशमहल था। तस्वीर में वे दोनों हँस रहे थे। निंदी और गुरदीप सिंह के हँसने से पर्दे पर पेंट शीशमहल, फव्वारा और रंग-बिरंगे फूल सजीव हो उठे थे।
दासे के बगल में ही खूँटी पर निंदी और गुरदीप के कपड़े टँगे थे। दोनों के कुछ कपड़े बिस्तर पर भी पड़े हुए थे। धोकर सुखाने के बाद निंदी को उन कपड़ों को सहेजने का वक्त ही नहीं मिला था शायद।
उसे पश्चाताप हुआ था—वह इस कमरे में क्यों आया ? वह इस घर का कोई नहीं था। वह जंगल में खोया हुआ कोई अजनबी था, जो रात-भर के ठहराव के लिए यहाँ रुक गया था।
अपनी उजाड़ बियाबान हथेली की ओर देखा सुबेग सिंह ने। कुछ भी तो नहीं बचा था उसके पास। जिन सपनों को दो मुल्कों की भयानक जंग नहीं मार पायी, जो सपने कटे-बिखरे, लहूलुहान अंगों की भीड़ में भी जीवित रहे थे, घर के आँगन ने उन सपनों की हत्या कर दी।
वह निढाल होकर बैठ गया।
जब वह रंगरूट था, उसे उस समय की स्कीम याद हो आयी।...उसके आगे-पीछे गोलियाँ चल रही थीं। सिर के ऊपर से गोलियाँ निकल रही थीं। वह निरन्तर दौड़ रहा था। उसने गड्ढे, गढ़हिया, कीचड़ के चिल्ले को पार किया, कंटीली तारों के अवरोध को फलाँगा, गहरे पानी में तैरा और सांसम्-साँस हुआ अन्ततः अपने मोर्चे पर जा डटा था और रायफल सँभालते हुए टीन के बने सिपाहियों पर गोलियाँ दागने लगा था।
तब भी गोलियाँ असली ही चल रही थीं। चाँदमारी के कानफोड़ू शोर ने युद्ध के वातावरण का सृजन कर दिया था। इस स्कीम का उद्देश्य बस इतना ही था कि रंगरूटों के दिल से जंग का भय मिट जाये।
छुट्टी पर वापिस आने के बाद सोत्साह बताया था सुबेग सिंह ने—‘बापू जी, मैं जान गया हूँ कि जंग क्या होती है।’
सूबेदार ज्वाला सिंह उस वक्त झीना-सा हँसा था—‘पुत्तर, गोलियों का कोलाहल और हाथियों का शोर जंग नहीं होता।’
सिपाही सुबेग सिंह को बूढ़े बाप की गाहे-बगाहे कही बातें कभी पूरे तौर पर समझ नहीं आती थीं। आज उन बातों के सारे अर्थ मेख बनकर उसके माथे पर गड़ गये थे।

खटका सुनकर सुबेग सिंह ने सिर ऊपर उठाया। उसके चेहरे का दर्द उसकी चुप में था। उसके दुख की ताब गुरदीप से झेली न गयी। वह आगे बढ़कर भाई के पैरों की ओर झुक गया। विमूढ़-सा हुआ बोला—‘भाऊ, सच जानो तुम्हारा मुजरिम हम दोनों में से कई नहीं है। किस संताप से नहीं गुजरे हम दोनों। न माँ जैसी भाभी को पत्नी स्वीकार करना आसान होता है और न बेटे जैसे देवर को पति मानना।’
गुरदीप के इतना कहने से उन पलों की तरतीब नहीं बदली, जो पल सुबेग सिंह की हथेली पर रख दिये गये थे।
कमरे के बाहर शीत बयार चल रही थी। शीत ने रात के घुप्प अँधेरे से मिलकर टिमटिमा रहे तारों को खा लिया था।
कमरे में उदासी भरी शून्यता थी। सुबेग सिंह उस शून्यता को घूरता रहा। जिन आँसुओं की लगाम उसने अब तक थाम रखी थी, वही लावारिस से आँसू आँखों में फैल गये। दूसरी ओर मुँह घुमाकर उसने आँखें पोंछ लीं।
सुन्न श्मसान में मरे हुए सपनों के मरसिये जैसे बोल उभरे—‘मैं क्या जानता था कि मेरे साथ ऐसा होगा। मैं ना ही आता तो क्या था।’
हवा के आवेग से दरवाजा चौड़-चपाट खुल गया था। काले अम्बर में गुमशुदा सितारों की टिमटिमाहट का भ्रम-सा हुआ था। वह उठकर खड़ा हो गया। उसके ठिठुरे हुए बोलों ने सिर उठाया—‘अब भी क्या है ?’
गुरदीप को सिपाही सुबेग सिंह के शब्दों से पता नहीं कैसी अनहोनी की बू आयी थी कि वह घबराया हुआ माँ-बाबू के कमरे की ओर दौड़ा।
सिपाही सुबेग सिंह ने किटबैग उठाया और आहिस्ता-आहिस्ता सीढ़ियाँ उतर गया।
निंदी अभी भी चूल्हे के आगे सिर झुकाए बैठी थी। इस वक्त वह सिपाही सुबेग सिंह की निंदी नहीं थी, किसी लापता फौजी की पत्नी थी, जो सदियों से चूल्हे की बुझ रही आग के आगे बैठी सुलग रही थी।
सुबेग सिंह को देखकर वह घबराई हुई-सी उठ खड़ी हुई। सुबेग सिंह ने अन्तिम बार उसे नजर भर देखा—‘अच्छा...अच्छा फिर...मैं चलता हूँ।’
वह अकेला था, आखिर किस-किस मोर्चे पर लड़ता वह। वह अपनी जंग हार चुका था।
उसने दूसरा पहचान-पत्र चौके की मुंडेर पर रख दिया और चल पड़ा वहाँ से। वह कुछ कदम चला और फिर ठिठककर खड़ा हो गया।
बाहर दरवाजे पर ताला पड़ा हुआ था। उसने घूम कर पीछे देखा। निंदी के अलावा भी कुछ लोग आँगन में आ जुटे थे। वह किसी भी चेहरे को पहचान नहीं पाया था। उस समय किसी को भी पहचान सकना उसके लिए संभव नहीं था। वे जो भी थे, उससे कई योजन दूर खड़े थे।
उसके ‘होने’ और ‘न होने’ के मध्य कोई अन्तर शेष नहीं रह गया था। उसने अँधेरे की ओर हाथ पसारे और जोर से हुटक उठा। अपना आँसू-भीगा चेहरा लिए वह हाँफता हुआ बंद दरवाजे के निकट बैठ गया।

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