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चिड़ियाघर की सैर

पृथ्वीनाथ शर्मा

प्रकाशक : स्वास्तिक प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :63
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4073
आईएसबीएन :81-88090-28-x

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प्रस्तुत है रोचक बाल पुस्तक...

Chidiyaghar Ki Sair

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

परिचय

‘चिड़ियाघर की सैर’ के प्रकाशन से मुझे विशेष हर्ष हो रहा है। इतना हर्ष मुझे अपनी अन्य किसी भी पुस्तक के छपने पर नहीं हुआ, क्योंकि इससे बाल-साहित्य-सृजन की मेरी एक पुरानी साधक की आंशिक पूर्ति हुई हैं। मैं बहुत दिनों से यह अनुभव कर रहा हूँ कि पश्चिम में जैसा बाल-साहित्य निकल रहा है वैसा साहित्य हमारे यहाँ बहुत कम है। उनके-जैसी ज्ञान-वर्द्धक, सुन्दर तथा नयनाभिराम बच्चों की पुस्तकें हिन्दी-साहित्य में ढूँढ़े नहीं मिलतीं। यदि हम कहीं अपने बाल-बालिकाओं के लिए उसी अनुपात की, वैसी ही चित्ताकर्षक पुस्तकें प्रस्तुत कर सकें तो नि:सन्देह उनकी क्षमता अधिक पैनी, उनका दृष्टिकोण अधिक विस्तृत और उनका मन अधिक प्रफुल्लित हो जाए। इसलिए मैं समझता हूँ कि अपने देश और जाति के कल्याण के लिए इस ओर प्रयत्नशील होना प्रत्येक जागरूक लेखक का कर्तव्य है; क्योंकि आज के बालक को ही कल का नागरिक बनना है और उसी के द्वारा हमारा भविष्य उज्जवल को सकता है। इन्हीं भावों से प्रेरित होकर मैंने ‘चिड़ियाघर की सैर’ द्वारा एक छोटा-सा पग उठाया है। इसमें अपने बालक-बालिकाओं के लिए कुछ जीव-जन्तुओं का, उनकी आकृति-विकृति उनके स्वभाव तथा उनकी विशेषताओं का वार्तालाप के माध्यम से परिचय दिया है। यदि मेरा यह तुच्छ प्रयास उनका किंचित् भी मनोरंजन तथा ज्ञान-वर्धन कर सकता तो मुझे सन्तोष होगा।

-पृथ्वीनाथ शर्मा

१.चिड़ियाघर में


उस दिन रविवार था। पण्डित मोहनदेव दिसम्बर की मीठी-मीठी धूप में आरामकुर्सी पर बैठे अखबार देख रहे थे। इतने में उनका छोटा पुत्र सुरेश भागता हुआ आया और बोला,‘‘आज तो छुट्टी है। चिड़ियाघर दिखा लाओ।’’
पण्डित जी आनाकानी करने लगे। आरामकुरसी पर से उठने को जी नहीं चाहता था। सोचने लगे क्या जवाब दूँ। इतने में उनकी लड़की सुमन भी आ गई। उसने भी आते ही चिड़ियाघर की रट लगाई। पण्डित जी दुविधा में पड़ गए। बच्चों को टालने का कोई उपाय सोचने लगे।

‘‘चाचा जी, आज तो हम चिड़ियाघर देखकर ही छोड़ेंगे।’’ उन्हें पीछे से आवाज़ आई। मु़ड़कर देखा तो उनकी भतीजी सुरमा उनकी ओर मुस्कराती हुई देख रही थी। अब तो पण्डित जी को चलने के सिवाय कोई चारा ही नजर न आता था। इन तीनों की हठ के सामने वे नहीं ठहर सकते थे। हारकर बोले, ‘‘अच्छा चलो, जल्दी-जल्दी तैयार हो जाओ।’’
बच्चे किलकारियाँ मारते हुए नए कपड़े पहनने के लिए चले गए और पन्द्रह मिनट में ही सज-धजकर लौट आए।
कोठी के बाहर गाड़ी तैयार खड़ी थी। सब उसमें जा सवार हुए। चिड़ियाघर उनके घर से थोड़ी ही दूर था। कुछ ही देर में वे वहाँ जा पहुँचे।

2.ऊदबिलाव


पानी के एक बड़े हौज़ में इर्द-गिर्द लोगों का जमघट लगा था। पण्डित जी भी बच्चों के लिए वहीं पहुंचे। परन्तु वहाँ पानी के सिवाय कुछ नजर न आता था। सुरमा बोली, ‘‘चाचा जी, यहाँ तो कुछ भी नहीं।’’ वह अभी यह कह ही रही थी कि एक भूरी-भूरी कोमल त्वचा वाली चीज़ जल से बाहर निकली। उसकी लम्बाई कोई एक हाथ के लगभग होगी। उसके मुँह में एक छोटी-सी मछली थी जिसे वह हौज़ के किनारे बैठकर पूँछ हिला-हिला कर खाने लगी। ‘यह क्या है ?’’-तीनों बच्चों ने एक साथ ही पूछा।

‘‘ऊदबिलाव।’’ पण्डित जी ने जवाब दिया। ‘‘यह पृथ्वी और जल में एक समान रह सकता है।’’ ‘‘इसकी शक्ल तो नेवले से मिलती-जुलती है।’’ सुरेश ने कहा। साँप और नेवले की लड़ाई उसने कई बार देखी थी। इसलिए नेवले को वह खूब पहचानता था।

‘‘तुम बिलकुल ठीक कहते हो।’’ पिता ने जबाव दिया, ‘‘ऊदबिलाव और नेवला एक ही बिरादरी के हैं। परन्तु ऊदबिलाव की तरह नेवला पानी में तैर नहीं सकता। ऊदबिलाव के पंजों के साथ एक पतली-सी झिल्ली चिपकी रहती है जिसके कारण वह तैर सकता है। नेवले के पंजों में ऐसी झिल्ली नहीं होती।

इनके बातें करते-करते ही ऊदबिलाव ने मछली खत्म कर दी। यह देखकर सुरमा ने पूछा, ‘‘भला यह इतनी जल्दी मछली कैसे खा गया ?’’

‘‘ऊदबिलाव के दाँत बहुत तीखे होते हैं उसे मछली खाते देर नहीं लगती।’’-पण्डित जी ने जवाब दिया।
मछली खाकर ऊदबिलाव ने अपनी छोटी-छोटी आँख से चारों ओर देखा और फिर शिकार की तलाश में पानी में घुस गया। ऊदबिलाव की कहानी सुनकर और फिर उसका पानी में छिप जाना देखकर तीनों बच्चे हैरान हो गए। सुरमा ने अपने पिताजी से पूछा, ‘‘क्या हर रोज इसी तरह ऊदबिलाव अपनी लीला किया करता है ?’’
‘‘हाँ, इसका यही काम है। मछली ही ऊदबिलाव की खुराक है और इसी प्रकार कभी पानी में तथा बाहर फिरता रहता है।’’
‘‘ऊदबिलाव भी क्या जानवर है !’’ सुरमा ने कहा।

3.दरियाई शेर और सील मछली


मछली के परों-सी पूँछ और वैसे ही बेड़ोल-से दो बड़े पाँव फैलाए दरियाई शेर हौज़ के किनारे बैठा था। लम्बी गर्दन और थूथनी ऊपर उठाकर ज़रा घृणा की नजर से हौज़ से कुछ दूर तक फैले हुए पानी की ओर देख रहा था। शायद उसे अपने समुद्र वाले दिन याद आ रहे थे। उसके निकट ही लम्बे-लम्बे काले बालों का कोट पहने सील मछली आधी के करीब पानी में छिपी तैर रही थी।

‘‘दरियाई शेर और सील।’’ पण्डित जी ने अपनी छड़ी से बारी-बारी दोनों की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘ये दोनों पृथ्वी और जल में एक समान रह सकते हैं। दोनों के दाँत शेर आदि जानवरों की भाँति इतने तीखे होते हैं कि माँस फाड़ने में इन्हें ज़रा भी कष्ट नहीं होता और इनका काम भी माँस से ही पड़ता है; क्योंकि मछली ही इनकी खुराक है।’’ सुरमा, जो उनकी ओर बड़े ध्यान से देख रही थी, बोली, ‘‘सील के तो कान नहीं हैं। क्या यह सुन नहीं सकती ?’’
‘‘बड़ी अच्छी तरह।’’-पण्डित जी ने जवाब दिया, ‘‘इसके कान ऊपर के चमड़े की तह के नीचे छिपे रहते हैं, इसलिए दीख नहीं पड़ते। तभी तो इन्हें ‘कान रहित सील’ कहते हैं।’’

‘‘इसके लम्बे-लम्बे कोमल बाल कितने अच्छे लगते हैं।’’ सुमन ने कहा।
‘‘तुम अब की बात कर रही हो पर जब यह छोटी होती है तो इसके बाल बहुत ही सुन्दर होते हैं और होते भी हैं बिलकुल सफेद। इसलिए एस्कीमो लोग, जिनके देश में यह अधिक पाई जाती है, अपने सफेद कोटों के लिए इनके बच्चों का शिकार बड़े उत्साह से करते हैं।’’ तो क्या बड़े होने पर इनके बालों का रंग बदल जाता है ?’’
‘‘हाँ, ज्यों-ज्यों यह बड़ी होती है इनके बालों का रंग गहरा होता जाता है।’’
‘‘क्या दरियाई शेर का शिकार नहीं किया जाता ?’’ क्यों नहीं, इस बेचारे का तो चमड़ा, चर्बी, माँस, पूँछ और पाँव के पर सभी काम में आते हैं।’’
पण्डित जी अभी यह कह ही रहे थे कि वह एक बार ज़ोर से दहाड़ा और फिर अपने पाँवों द्वारा फिसलता हुआ पानी में कूद पड़ा। मानो यह प्रसंग उसे नहीं भाया।

4.शेर


अपनी कोठरी के बाहर लोहे की सीखचों से छिदे हुए खुले स्थान में शेर अपनी गर्दन के लम्बे-लम्बे बालों को हिलाता हुआ शाही शान से इधर-उधर घूम रहा था। नीचे पक्का फर्श था, परन्तु उसके चलने से ज़रा भी आहट नहीं हो रही थी।
‘जानते हो इसके चलने की आवाज़ क्यों नहीं आ रही है ?’’-पण्डित जी ने कहा और स्वयं ही जवाब देने लगे, ‘‘क्योंकि इसके पाँव गद्देदार होते हैं।’’
बालक हैरानी से शेर की ओर देख रहे थे। कुछ देर तो सब चुप रहे, आखिर सुरेश ने पूछा, ‘‘भला, इसे जंगल का राजा क्यों कहते हैं ? यह हाथी से तो छोटा है।’’

पण्डित जी ने हँसकर कहा, ‘‘शरीर की मोटाई पर मत जाओ। शायद तुम्हें यह पता नहीं कि इसका अगला पंजा जंगल के सभी जानवरों के पंजों से अधिक ज़ोरदार होता है और इसके हृदय के जोड़ का तो शायद संसार में ही नहीं। इसलिए इसके सामने हाथी भी नहीं ठहर सकता।’’
वे अभी बातें कर ही रहे थे कि सुमन ने एक मुट्ठी-भर चने, जो वह साथ लाई थी शेर की ओर फेंके। परन्तु उसने उन्हें सूँघा तक नहीं।

‘‘वह बन्दर नहीं है, सुमन !’’ पण्डित जी ने कहा, ‘‘यह तो माँसाहारी जानवर है, यह चने आदि नहीं खाता। यह तो जंगल के जानवरों का शिकार करके उन्हें खाता है।’’
इतने में शेरनी भी आ गई। उसके साथ दो छोटे-छोटे प्यारे-प्यारे बच्चे थे। सिंह ने उनकी ओर देखा और फिर चारों पृथ्वी पर बैठ गए। बच्चे एक-दूसरे के साथ खेलने लगे।
इतने में शेर को शायद भूख लग आई। पृथ्वी पर मुँह रखकर लगा ज़ोर-ज़ोर से दहाड़ने। उसके बच्चों ने भी पिता का अनुकरण किया, परन्तु उनकी आवाज़ बिल्ली की म्याऊँ से कुछ ही अधिक ऊँची निकल सकी।

5.बाघ


स्याह धारीदार सुनहली मखमल का कोट पहने बाघ लोहे के सीखचों के पीछे खड़ा था। मुँह खुला हुआ था। चमकती हुई आँखों से क्रूरता टपकी पड़ती थी।
‘‘यह तो बाघ है !’’-तीनों बच्चे एक साथ ही बोल उठे।’’ हाँ, परन्तु तुमने कैसे जाना ?’’ –पण्डित जी ने पूछा।
‘‘बैठक में इसकी खाल जो बिछी है।’’-सुरेश ने कहा।
‘‘हाँ, इसकी खाल सचमुच बहुत सुन्दर और चमकीली होती है। देखो, धूप-छाँह की तरह है कि नहीं।’’ ‘‘हाँ।’’ ‘‘बस, यही खाल इसे शिकार करने में सहायता देती है। ’’ पण्डित जी कहने लगे, ‘‘जंगल में जहाँ लम्बी-लम्बी घास और सरकण्डों के भीतर यह रहता है, वहाँ धूप सुनहली और चमकीली होती है और छाँह काली। इसलिए यह जंगल का एक अंग बन जाता है और दूसरे जानवर इसे देख नहीं सकते।’’

‘‘नदियों और सरोवरों के किनारों पर ऐसी ही लम्बी-लम्बी घास में छिपकर यह बैठ जाता है। जब जंगल के जानवर हिरन आदि प्यास से व्याकुल हो वहाँ पानी पीने आते हैं, तब यह उन पर टूट पड़ता है और मारकर ही चैन लेता है। सुबह से शाम तक यह जीवों को मारता हुआ थकता नहीं। ‘मारो, मारो’ ही इसका मूल मन्त्र है। इसे भूख हो चाहे न हो, हत्या किए ही जाएगा।’’

‘‘तो, क्या शेर ऐसे नहीं करता ?’’-सुमन ने पूछा। नहीं, शेर इस जैसा क्रूर तथा दुष्ट नहीं। वह केवल भूख लगने पर ही शिकार करता है, पर यह तो हर समय लड़ने पर ही तुला बैठा रहता है। यह अपने भाई पर भी वार करने से नहीं झिझकता। यहाँ तक कि यह शेर पर भी कभी-कभी आक्रमण कर बैठता है। क्योंकि यह जितना दुष्ट है उतना ही बहादुर भी है।’’ ‘‘तो क्या यह शेर को हरा देता है ?’’-सुरमा ने पूछा।
‘कई बार !’’ –पण्डित जी ने जवाब दिया, ‘‘यद्यपि इसके पंजे शेर से छोटे होते हैं परन्तु यह शेर से लम्बा होता है और लगभग उस जितना ताकतवर भी होता है।’’ पण्डित जी अभी यह कह रहे थे कि श्रीमती बाघ ने कोठरी से निकलकर पति की ओर देखा। बाघ ने संकेत समझ लिया और लोगों की ओर से मुँह मोड़कर कोठरी में चला गया।

6.बंदर और लंगूर


बन्दर और लंगूर के पिंजरे साथ-साथ थे। एक पिंजरे में कोई छ:सात बन्दर और दूसरे में कोई चार-पाँच लंगूर उछल-कूद मचा रहे थे।
‘‘ये, जिनके हाथ-पैर काले हैं, लंगूर हैं और दूसरे बन्दर।’’ पण्डित जी ने कहा। ‘‘हम जानते हैं।’’ प्राय: सभी बच्चे बोल उठे। ‘‘तो क्या यह भी जानते हो कि ये हमारे भाई-बन्द हैं।’’ ‘‘हमारे !’’ सुरमा बोली और सभी बच्चे आश्चर्य से पण्डित जी की ओर देखने लगे। ‘‘हाँ, कई विद्वानों की यह राय है कि दुनिया के शुरू में हम सब बन्दर थे। जिन्होंने तरक्की कर ली वे तो मनुष्य बन गये और बाकी सब रहे बन्दर के बन्दर।’’ ‘‘सच ?’’ सुमन ने प्रश्न किया।

‘‘देखते नहीं हो ?’’ पण्डित जी कहते चले गए, ‘‘इनके हाथ-पैर इनका चेहरा-मोहरा मनुष्य से कितना मिलता-जुलता है। तुम सुनकर हैरान होगे कि इनके दाँतों की बनावट बिलकुल हमारे जैसी होती है और उनकी संख्या भी हमारे दाँतों जितनी होती है। अमरीका के कुछ खास तरह के बन्दरों के दाँतों की संख्या बत्तीस की बजाय छत्तीस होती है।’’
‘‘क्या अमरीका के बन्दर भी इन जैसे ही होते है ?’’ सुरमा ने पूछा।

‘‘वे इनसे मिलते-जुलते तो बहुत हैं, लेकिन उनके नथुने ज़रा अन्तर पर होते हैं शरीर दुर्बल होता है और पूँछ इनसे लम्बी होती है। क्या, वे भी इन्हीं बन्दरों-जैसे शरारती होते हैं ?’’ ‘‘हाँ, बन्दर सब बन्दर ही होते हैं।
‘‘बन्दर लम्बी छलाँग लगाता है या लंगूर ?’’ पण्डित जी से फिर प्रश्न किया गया।
‘‘लंगूर। इसके लिए तो पचास-साठ फीट तक छलाँग लगा जाना भी कोई बड़ी बात नहीं।’’ पण्डित जी अभी ये बातें कर ही रहे थे कि किसी ने बाहर से ढेरों भूने हुए चने अन्दर फेंकने शुरू कर दिए। इस पर पिंजरों के अन्दर बहुत ही छीना-झपटी मच गई। ‘‘ये चनों पर किस तरह टूट रहे हैं। सुमन बोली।
‘‘हाँ, चने, मूँगफली और अखरोट आदि इन्हें बहुत भाते हैं। इनकी कुछ किस्मों को छोड़कर ये प्राय: शाकाहारी ही होते हैं।’’ ये शब्द पण्डित जी को काफी ऊँचे स्वर में रहने पड़े, क्योंकि अब बन्दर तथा लंगूर जरूरत से ज्यादा हल्ला मचा रहे थे।

7.मृग


हिरन बड़ी-बड़ी जादूभरी आँखों से हिरनी और उसके साथ बैठे हुए अपने छोटे से छौने की ओर देख रहा था। बच्चे उन्हें देखकर मुग्ध हो गए। सुरेश ने प्यार से पुचकारकर हिरन को अपनी ओर बुलाना चाहा, परन्तु वह सकुचाकर और भी पीछे हट गया।
‘‘यह बहुत शर्मिला जानवर है।’’-पण्डित जी ने कहा, ‘‘कभी तुम्हारे पास नहीं आएगा।’ सुरेश ने बहुत ज़ोर लगाया पर हिरन न माना।

यह इसकी अद्भुत सुन्दरता का दोष है, पण्डित जी कहने लगे, जितना ही कोई सुन्दर होता है उतना ही लजीला भी। इसके शरीर में दो चीज़ें बहुत सुन्दर हैं। इसकी आँखें और सींग। दोनों पर ही यह बेतरह लट्टू है। दोनों पर इसे बहुत अभिमान है।
क्या हमारा बड़ा चाकू इसके सींग का बना हुआ है ? सुरमा ने पूछा।
नहीं, वह तो बारहसिंगा के सींग का है। सुरेश ने कहा, इसकी खाल भी तो बहुत सुन्दर है।

पण्डित जी ने जवाब दिया, सुन्दर होने के साथ-साथ इसकी खाल पवित्र भी बहुत मानी गई है। हमारे ऋषि-मुनि इसी की खाल पर बैठकर तपस्या किया करते थे। पुराने जमाने में इसकी खाल को ओढ़ा भी करते थे।
‘‘परन्तु इसकी टाँगें तो बहुत पतली हैं?’’ सुमन बोली। हाँ, उसके पिता ने जवाब दिया, यह भी इन्हें देखकर प्राय: रो ही देता है। परन्तु जिस समय शेर आदि जानवर इसका पीछा करते हैं उस समय ये टाँगे ही इसके काम आती हैं। जितनी इसकी टांगे पतली हों उतना ही तेज यह भागता है।–यह कहकर पण्डित जी चुप हो गए। फिर कुछ देर ठहरकर बोले-‘‘तुमने भेड़-बकरी तो देखी होंगी।’’
‘‘हाँ,’’ बच्चों ने जवाब दिया। ‘‘शायद तुम सुनकर हैरान होगे कि हिरन भी उनका भाई-बन्द है।’’ ‘‘भेड़ का !’’ सुरेश बोल उठा।
‘‘हाँ, यह सब जुगाली करने वाले पशु हैं और इन सबके सींग होते हैं।’’
बच्चे पण्डित जी की बात सुनकर हँस रहे थे, मानो उसे कोई चुटकुला समझ रहे हों।


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