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घर न घाट

से. रा. यात्री

प्रकाशक : स्वास्तिक प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4077
आईएसबीएन :0000

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एक रोचक उपन्यास...

Ghar na Ghat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मैंने ज्योंही गेट खोला—उसकी खड़खड़ाहट सुनकर दो मंजिले की मुँडेर पर तीन हट्टे-कट्टे कुत्तों की थूथनियाँ चमकने लगीं। उनकी बेपनाह भौं-भौं से सारी गली गूँज उठी।
बराण्डे में आगे बढ़कर मैं बंद दरवाजे के सामने जाकर खड़ा हो गया। द्वार पर दस्तक देना या कॉलबेल बजाना व्यर्थ था क्योंकि उन तीन डबल डील-डौल वाले कुत्तों की आवाज में मेरा कोई भी प्रयास व्यर्थ हो जाने वाला था।
मैंने लकड़ी के दरवाजे के ऊपर लगे जाली वाले किवाड़ों को थोड़ा-सा हिला-डुलाकर देखा—ताला बंद नहीं था। इसका मतलब था कि भीतर कोई है।

मित्तल साहब यानी उस घर के एकमात्र पुरुष मकान के एकदम पिछले वाले हिस्से में रहते थे। वही एक कमरा उनका स्थायी आवास था। उस अच्छे-खासे बड़े मकान में कम-से-कम पाँच कमरे, सहन-बराण्डा सभी कुछ था, पर पता नहीं क्यों मित्तल साहब उसी कमरे में रहते थे।
एक सँकरी-सी गैलरी से होता हुआ मैं मित्तल साहब के कमरे के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो गया।
अब तक वह तीनों नामुराद कुत्ते छत की सीढ़ियाँ लाँघकर नीचे उतर आए थे और भीतर से बंद किवाड़ों पर पंजों से एक साथ आक्रमण कर रहे थे।

‘‘कौण है जी ?’’ की आवाज भीतर से उभरी जिसमें आने जाने वाले का स्वागत करने का कोई लक्षण नहीं था। इसके तुरन्त बाद कुत्तों की सामूहिक भौं-भौं ने आसमान सिर पर उठा लिया।
अच्छी-खासी काटने वाली तेज धूप में चलकर मैं उस घर में पहुँचा था। द्वार खुलने की तुरन्त अपेक्षा थी। द्वार खुल जाने की स्थिति में एक गिलास सादा पानी तो शायद मिल ही सकता था क्योंकि फ्रिज तो दूसरे कमरे में होगा और उस कमरे के द्वार पर एक मजबूत ताला लटक रहा होगा।
‘‘कौण है जी ?’’ के बाद दरवाजा खुलने के कोई आसार नजर नहीं आए तो मैंने धैर्य खोकर दोनों हथेलियों से किवाड़ पीटने शुरू कर दिए।

‘‘कौण है भाई जो किवाड़ तोड़ने लगरा है ?’’ कहते हुए कोई चारपाई की चरमराहट के बीच अनखनाते हुए उठा और बेदिली से दरवाजा खोलने लगा।
दरवाजा खुलते ही तीनों कुत्ते मेरी ओर झपटे।
कुत्तों के पीछे खड़े मित्तल साहब—साहब कहने की औपचारिकता के लिए मुझे क्षमा किया जाए क्योंकि जो आदमी सामने था वह महज एक मुचियल-सा पट्टीदार कपड़े का जाँघिया पहने, नंग-धड़ंग था और उसकी कमान की तरह आगे को निकली हुई छाती पर काले-सफेद बालों का गुच्छा किसी निर्जन टीले पर खड़ी सूखी हिलती घास का आभास देते थे। साहब कहने की विवशता यह है कि अपने से काफी बड़ी उम्र के आदमी को, चाहे वह किसी लिबास में क्यों न हो—आदरसूचक संबोधन तो देना ही पड़ता है।

मुझे देखकर वह खुशी से—जितनी खुशी एक सूखे और चीकड़ चेहरे पर टँकी आँखों से प्रकट हो सकती है—चहके, ‘‘ओ हो जी आप—म्हारे साड्डू (साढ़ू) साब आए हैंगे यो तो।’’
उन्होंने कुत्तों को लताड़ा और दरवाजे से परे हटाते हुए बोले, ‘‘आवो जी—म्हारे धन्न भाग।’’
मैंने गैलरी के फर्श पर रखी अपनी अटैची उठाई और कमरे में दाखिल हो गया।
मेरे पीछे-पीछे तीनों कुत्ते (वह सब कुतियाँ थीं) भी आए और लपक-झपक करने लगे। उनकी सूँघा-साँघी, चाटा-चूटी को तभी विराम लग पाया जब मित्तल साहब ने उन्हें लतियाते हुए कमरे से बाहर कर दिया।
मित्तल साहब मेरा चेहरा देखते हुए बोले, ‘‘कॉ से आणा हो रिया जी—होर के हाल-चाल हैं थारे ?’’
हाल-चाल बतलाने से पहले मैंने उनके कमरे का हुलिया देखा। हुलिया देखने से भी पहले मैंने उस सड़ांध को अपने नथुनों में महसूस किया जो उस दड़बे का जोरदार चरित्र बन चुकी थी।

उनकी ढीली चारपाई के बान टूटकर फर्श से गलबहियाँ कर रहे थे। जाड़ा, गर्मी, बरसात और बाकी सभी मौसमों का बिस्तर गोल-गोल लिपटा सिरहाने की तरफ मुँह बाए पड़ा था। तकिया उस बिस्तर से बाहर था और उसे अनुमान के सहारे ही तकिये का भग्नावशेष कहा जा सकता था।
इधर-उधर बेंत की कही जा सकने वाली कुछ कुर्सियाँ भी थीं पर उनकी बेंत कुछ इस ढब से गायब थी कि उन्हें कुर्सियों के ढाँचे कहा जा सकता था।
सामने की अलमारी में अल्लम-गल्लम शीशियों और बोतलों के बीच में माडर्न पेंटिंग का आभास देता पानी उतरा आईना और दाँत टूटा कंघा भी मौजूद था। फर्श पर कभी झाड़ू भी लगा करती है इस तथ्य से कमरे के वाशिन्दे का विश्वास शायद सिरे से ही मिट चुका था।

प्यास से मेरा गला चटक रहा था। मैंने इधर-उधर निगाह दौड़ाई कि कहीं पानी की कोई व्यवस्था दीख जाए पर मेरी नज़र दीवार में जड़ी खूँटियों पर मैली तहमद, लट्ठे का कुरता और सिलवटों भरी पतलूनों और कमीजों में अटककर रह गई।
मेरी खोज़ी नजर सहसा एक खस्ता हाल स्टूल पर गई। उस पर एक ऐतिहासिक कृति के रूप में जो सुराही टिकी थी उस पर एक टूटी प्लेट बतौर ढक्कन अटकी हुई थी।
उस सुराही में स्थित द्रव को पीने की कल्पना से ही मैं सिहर उठा। पता नहीं वह कितने बरस पुरानी होगी कि उसके सारे वजूद को हरी काई ने ही नहीं ढँक रखा था बल्कि सफेद रेह की पर्त भी उसे अपने में समाए हुए थी।
‘‘अभी आता हूँ !’’ कहकर मैंने गर्द से लथपथ फर्श पर अटैची टिकाई और बाहर सहन में निकल गया। आँगन के कोने में लगे हैंडपंप को खींचकर मैं चुल्लू से पानी पीने लगा।
पानी पीकर लौटा तो कमरे की बीहड़ दशा देखकर सोचने लगा—यहाँ अगर मैं बैठना भी चाहूँ तो कहाँ बैठूँगा ?
वह बोले, ‘‘आवो जी बैठ्ठो जी साड्डू साब। काँ से आणा हो रा है सिरीमान जी का ?’’
जहाँ से मैं आ रहा था मैंने उन्हें बतला दिया।

अब मेरे सामने सबसे बड़ा संकट यह उपस्थित हुआ कि मैं उनसे क्या बातें करूँ। मुझे उम्मीद थी कि जब मैं उस घर में पहुचूँगा को कमला (मित्तल साहब की पत्नी) घर में ही मिलेगी। पर वह अभी तक अपने स्कूल से लौटी ही नहीं थी।
मुझे कमरे के बीचोंबीच, पशोपेश में पड़ा देखकर वह बोले, ‘‘अजी सतीर (शहतीर) के माफक क्यूँ खड़े हो—बैठ क्यूँ नी जात्ते।’’
अब मेरे सामने—बिस्तर से लदी-फंदी झिलंगी चारपाई पर टिक जाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं रह गया। मैं इस तथ्य की और से असावधान नहीं रहा कि अगर मैं जरा भी फैलकर बैठा तो धसककर फर्श पर जा पहुँचूँगा।’’
उन्होंने मुझे ललकारा, ‘‘अजी तम किस तरियों बैठरे हो ? केरक (जरा) अराम से तो बैट्ठो। इस बखत आप घरो (घर) में हो—टेसन की बिरंच पै नी बैट्ठे हो।’’
मैंने किंचित् फैलकर बैठने की मुद्र दिखाई पर फिर भी मैं टिका पाटी पर ही रहा।
अब उन्हें थोड़ी राहत मिली। बोले, ‘‘हाँ तो होर सुणाओ—उंघै (उधर) के, के हाल-चाल हैंगे ?’’
मैंने मुख्तसर जवाब दिया, ‘‘सब ठीक-ठाक खुशी खुर्रम हैं।’’

मैंने उनसे कमला के घर वापस लौटने का समय पूछा तो वह बोले, ‘‘बस जी’ कोई मिलट जा री है—बस तावली (शीघ्र) आत्ती ई होगी इबजा।’’
मैंने कलाई घड़ी देखी—ढाई बजने जा रहे थे। यों मुझे कमला से मिलने की कोई खास ललक अथवा आतुरता नहीं थी—बस उसके आ जाने को लेकर यही उतावली थी कि उसके आ जाने पर बड़ा कमरा खुल जाता और मैं उधर आराम से बैठ जाता। वह मकान में घुसते ही पहला बड़ा-हॉ़लनुमा कमरा था और उसमें ठीक-ठाक फर्नीचर पड़ा था। उस कमरे की सफाई और रख-रखाव भी ठीक-ठाक था।
मुझे चुप देखकर वह बोले, ‘‘आपकी खात्तर चा बणाऊँ—थके-हारे आ रे हो। चा पी के ताजगी आ जागी।’’ यह कहकर वह हँसे।
मैंने देखा इस दौरान नीचे-ऊपर के उनके कई दाँत टूट चुके थे। चेहरे पर सघन झुर्रियों का जाल फैल गया था। कन्धों, गले और छाती की त्वचा में जगह-जगह सिकुड़नें पड़ गई थीं। मूँछों और सिर के किनारों पर अटके बालों को उन्होंने इतनी लापरवाही से रँगा था कि उनके गंजे सिर पर डाई के चकत्ते साफ नजर आ रहे थे।

मैंने जब उन्हें पहली बार देखा था—उस स्वरूप को अब अपने मानसिक नेत्रों में ला सकना सम्भव नहीं रह गया था। उस दौर में वह गोरे-चिट्टे—भरे-पूरे बदन के निहायत खूबसूरत और सजीले जवान थे। लिबास में भी उनका कोई जवाब नहीं था। वह चाहे सूट में होते थे—चाहे लट्ठे या कुरते-पायजामे में—उनकी नफासत और शऊर देखने से ताल्लुक रखते थे।
यह कुछ थोड़े से वर्षों में ही इन्हें क्या हो गया ? जैसे दमकते सूरज पर कालिख पुत गई हो। मैं मन-ही-मन सोचने लगा यह कैसा ग्रहण लग गया मित्तल साहब को।
मुझे संजीदा देखकर वह पूछ बैठे, ‘‘क्या सोचरे हो जी—हमें बी तो बतावो। चा पीणी हो तो बोल्लो—मैं इमी एक मिलट में बणा देत्ता हूँ।’’

मैंने टालते हुए कहा, ‘‘नहीं जी। चाय-वाय की तो कोई इच्छा ही नहीं है।’’ फिर मैंने उनसे उनके बारे में पूछा, ‘‘भाया जी ! आप इतने कमजोर कैसे हो गए ? क्या इन दिनों कुछ तबियत खराब चल रही है।’’ मैंने कमला के खत का कोई हवाला नहीं दिया।
मेरी जिज्ञासा की उन पर विचित्र प्रतिक्रिया हुई। वह इधर-उधर देखकर बोले, ‘‘इमी तो मैं दरजणों औरताँ की खात्तर इकेल्ला ई भतेरा हूँ। कल ई भरी दुपहरी में...।’’ फिर स्वर धीमा करके बोले, ‘‘आप इहाँ सी होत्ते तो आपकू बी...।’’ फिर मुझे तसल्ली देते हुए कहने लगे, ‘‘आप तो इभी ठैरेगो ई। याणी (बाली) उमर की आपकी खात्तर बी ल्या दूँगा।’’
इतना ही नहीं अपनी दुर्बलता की ओर किए गए संकेत से वह इतने उत्तेजित हो उठे थे कि सहसा हाँफते हुए बोले, ‘‘कमली (उनकी पत्नी कमला) तो मेरे करमों से पनाह माँग जा है। उसे मैं एक बी रात...।’’ अपनी बात खत्म करते-करते उनकी आँखों में एक असह्य गलाज़त उभर उठी।

मेरे कान इतने नंगेपन का विवरण सुनने के अभ्यस्त कहाँ थे ? मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि वह मेरे सामने इतनी बेहुदा और भौंड़ी बातें करेंगे। पहले कभी इस तरह का कोई प्रसंग सामने नहीं आया था। यह ठीक है कि उनकी तालीम कुछ नहीं थी, विचारों की सुन्दरता उनके पास नहीं थी, भाषा में भी उनका कुछ लेना-देना नहीं था, मगर क्या अपढ़ लोग अपने रिश्तेदारों से बातें नहीं करते हैं ?
मुझे लगा हो न हो इस बीच वह जरूर ही सनक गए हैं। अन्यथा इतना सफाई पसन्द, नफासत से रहने वाला आदमी भयंकर गलाज़त में रह सकता था ? जंगली जानवरों की माँद से भी इतनी ही सड़ाँध शायद आती हो। पहले मैं जब भी आता था वह खूब गर्मजोशी से मिलते थे—हँसते-बोलते थे—साढ़ू होने की वजह से हँसी-मजाक भी कर लेते थे पर इस दफा तो जैसे सारी सीमाएँ ही टूट गई थीं।
इस कमरे में उनका अकेला या कमला के साथ वाला कोई फोटो भी नजर नहीं आ रहा था जबकि बाहर वाले कमरे में जहाँ सभी लोग आकर बैठते थे उनके कमला के साथ कितने ही फोटो, फ्रेम में जड़े रखे थे। एक दो फोटोग्राफ ऐसे भी थे जिनमें वह और कमला कश्मीरी लिबास पहने टट्टुओं पर सवार थे।

मैं उन तस्वीरों की याद करके सामने ढीली-ढाली चारपाई में धँसे मित्तल साहब का पिचका सूखा चेहरा देखकर धक्क से रह गया। उनका चेहरा कभी गोरा-चिट्टा और भरा-भरा था, इस सत्य पर विश्वास करना कठिन हो रहा था। वक्त आदमी के साथ यह क्या कारगुजारी कर बैठता है ! प्यार की हसीन वादियाँ कब गहरी खाई-खंदकों में बदल जाती हैं, इसका किसी को पता नहीं चल पाता।
उस हवालात में छत के पंखे की व्यवस्था जरूर थी पर वह जड़ पड़ा था। मैंने मित्तल से पूछा, ‘‘क्यों जी, यह पंखा चला क्यों नहीं रखा ?’’
‘‘अजी इस चोद्दे की कुछ न पूच्छो। चलता-फिरता कदी बी हड़ताल पै बैठ जा है। फेर तो इसे डंडा मार के ई चलाना पड़े है।’’

पंखे की कैफियत बयान करते-करते वह कमरे से बाहर हो गए और कहीं से एक बाँस उठा लाए। बाँस ऊपर हवा में भांजते हुए उन्होंने पंखे के ब्लेड बाँस से घुमाने शुरू कर दिए।
कई मिनट की धींगा-मुश्ती के बाद पंखा चालू हो गया। जब पंखे ने रफ्तार पकड़ ली तो मित्तल के चेहरे पर एक जुगुप्सा जगाने वाली मुस्कान उभर उठी।
उन्होंने आँख मिचमिचाकर कहा, ‘‘यो साला बी डंडे का यार ई लिकड़ा।’’

उस दमघोटू माहौल में पंखे के चलने से थोड़ी हवा लगी तो साँस में साँस आई पर साथ ही दिमाग में यह सवाल भी उभरा कि इस शख्स के साथ मैं यहाँ कितनी देर अकेला रह सकता हूँ।
मैं नहाने के लिए बेचैन था क्योंकि मेरा सारा बदन पसीने से चिपचिपा रहा था और कपड़े शरीर को काटते से लग रहे थे।
उन्होंने शायद मेरी हालत का अनुमान लगा लिया था। दिलासा-सी देते हुए बोले, ‘‘सुराई का पाणी तो ठंडा नी होगा—मैं पाणी ठंडा करण खात्तर बरफ ल्या रा हूँ।’’
मैंने सोचा—इस बहाने ये कुछ देर के लिए बाहर तो जाएँगे। हो सकता है इनके लौटने से पहले कमला आ ही जाय। मैंने उन्हें बाहर जाने से नहीं रोका।
जब वह मुचड़ा हुआ पायजामा और सिलवटोंभरी चारखाने की एक बुश्शर्ट पहनकर बाहर निकल गए तो मैं उनके कमरे से बाहर निकलकर सहन में आ गया। आधे सहन में छाया आ गई थी। मैं उसी हिस्से में घूमने लगा। रह-रहकर मैं यही सोचता जा रहा था कि इतना पढ़-लिखकर भी कमला ने पति के रूप में इस निकम्मे को क्यों चुना ? पर इस ‘क्यों’ का उत्तर खोजना इतना आसान नहीं था। इसके पीछे लम्बे वक्त का इतिहास था—जिसकी जाँच पड़ताल के बाद ही वस्तुस्थिति का पता चल सकता था।

2

एक बार फिर कुत्तों की करख्त भौं-भौं से सारा घर थर्रा उठा। द्वार पर कोई था। मैं सहन पार कर गैलरी के द्वार पर पहुँचा ही था कि किसी ने बाहर से बोल्ट किया हुआ दरवाजा खोला। शायद मित्तल घर से बाहर जाते हुए बाहर से चटखनी लगा गए थे।
दरवाजा खुला तो सामने कमला दिखाई पड़ी। वह मोटे खद्दर की किनारीदार साड़ी पहने हुए थी। बाल लगभग सारे सफेद हो चुके थे। इस दौरान उनका घनापन भी विलुप्ल हो चला था। देह बहुत भारी-भरकम लगभग थुल-थुल और चेहरा सूजा-सूजा हंडिया सा नज़र आता था। वह अपनी मोटी-मोटी पिंडलियों पर झूलती-सी आगे बढ़ी। उसकी बगल में कई छोटे-बड़े रजिस्टर दबे थे।

मुझे सामने पाकर वह जोर लगाकर मुस्कराई और स्वर में यथाशक्य उल्लास भरकर पूछने लगी, ‘‘कितनी देर हो गई आपकू यहाँ सी आये।’’
यद्यपि मुझे उस घर में घुसे एक-सवा घंटा बीत चुका था पर मैंने टालू अन्दाज में कहा, ‘‘कोई ज्यादा देर नहीं हुई।’’
कमला के पीछे पाँच-सात किशोरियाँ भी दरवाजा लाँघकर घर में दाखिल हो गईं। उन सबके हाथों में ढेर-सी किताबें कापियाँ थीं। मैंने सोचा, कमला लड़कियों की जाँचने वाली कापियाँ इन्हीं के सिर पर लादकर लाई है’।
‘‘चलो उंघे (उधर) !’’ कहकर कमला ने अपने पर्स से एक चाभी निकालकर किसी लड़की को दी और वह स्वयं उस तरफ गई जहाँ मित्तल का स्थायी दड़बा था। उसने मित्तल की कोठरी में ताक-झाँक की और उसे वहाँ न पाकर मुझसे पूछा, ‘‘ये काँ सी चले गये ?’’
‘‘ यद्यपि मुझे यह बतलाते हुए झिझक हुई कि वह बर्फ लेने गये हैं क्योंकि फ्रिज के ताले में बंद होने की वजह से मुझे ठंडा नहीं मिल पाया था, पर मैंने बात घुमा दी, ‘यहीं कहीं गये होंगे। शायद साढ़ू, की खातिरदारी के लिए शीतल पेय लेने गये हों।’’ यह कहकर मैंने एक खोखला ठहाका लगाया।

उसने मानो इस बात पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। वह बोली, ‘‘आप यहाँ सी हॉल कमरे में बैट्ठो...जाँ बी गये होंगे थोड़ी सी बर में चक्कर काटकूट के आजाँगे।’’ यह कहने के बाद उसने एक लड़की का नाम लेकर आदेश दिया कि वह मित्तल के कमरे से मेरी अटैची उठा लाए।
कमरा खुला था—मैं कमरे में दाखिल हो गया। यह कमरा या हाल खूब सजा-धजा था। बढ़िया सोफा सेट, दीवान, डाईनिंग टेबिल और दो-दो पंखे छत में लटक रहे थे।

कमला लड़कियों को लेकर अपनी स्टडी में चली गई जिसमें डबलबैड और दीवार से जुड़ी लम्बी-चौड़ी बार्डरोब थी। रंगीन टी.वी., ड्रेसिंग टेबिल, फ्रिज और दीगर सामानों से वह कमरा भरा पड़ा था। वहीं दीवान पर पसर कर वह लड़कियों को ट्यूशन पढ़ाती थी और लड़कियाँ फर्श के कालीन पर फैलकर बैठ जाती थीं।
कमला रसोई में पहुँचकर लड़कियों के नाम लेकर वहीं से आदेश देने लगी, रामो तू एक्टिव-पैस्सिव कर—दम्मो तू एक्सप्लेनेसन। सुक्की (शायद यह लड़की का असली नाम नहीं रहा होगा। वह लम्बी और दुबली होगी इसीलिए कमला ने उसे यह नाम दिया होगा) चल यहाँ सी आके चा बणा।’’

गरज यह कि थोड़ी देर में ही कमला ने सभी लड़कियों को एक हड़बोंगभरी व्यस्तता के जाल में फाँस लिया और खुद भी खटर-पटर करती रही।
एक लड़की के हाथों उसने मुझे काँच का जग और स्टेनलैस स्टील का गिलास भेजा। जग के पानी में बर्फ के क्यूब्स तैर रहे थे।
लड़की ने मुझे पानी दिया और मैं अभी उसे पी भी नहीं पाया था कि दूसरी लड़की एक बड़ी-सी ट्रे में टी-पाट, प्याले, नमकीन, मिठाई वगैरह सँभाले सामने आ खड़ी हुई।

मुझे लगा इस घर में घुसने के बाद मजबूरी में मेरी जो उपेक्षा हो गई थी उसकी भरपाई करने के लिए ही कमला मेरी ताबड़तोड़ खातिरदारी कर रही थी।
मैंने चाय का अभी एक घूँट ही लिया था कि दरवाजे पर पहुँचकर कुत्तों ने फिर हंगामा बरपा कर दिया।
कमला ने ‘राणी देखियो तो जाके’ कहकर एक लड़की को दरवाजा खोलने भेज दिया।
द्वार खुलते ही मित्तल की खरखरी आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘आगी महाराणी जी की सुवारी ? मिहमान बखत से घर में आया बैठ्ठा है—होर देवी जी का कहीं पता-सता नी है।’’
चाय छोड़कर मैं तुरन्त कुर्सी से उठा और कमरे के बाहर निकलकर बराण्डे में जा खड़ा हुआ।
मित्तल दोनों हाथों में बर्फ का एक बड़ा-सा डला पकड़े, सहन के बीचों-बीच खड़े थे। मुझे कमरे से बाहर आया देखकर खिसियाई-सी हँसी हँसते हुए बोले, ‘साड्डू साब। इब आपकू बाजार की बर्फ की के जरूरत—इब तो थारी साली साबा ने थारी ढेर सी खात्तर कर दी होगी।’’
मैंने उनके व्यंग्य को दरग़ुज़र करते हुए कहा, ‘‘आजाइए ! चाय पी लीजिए।’’

उन्होंने बर्फ पकड़े-पकड़े ही अपने दोनों हाथ हिलाए और बोले, ‘‘ना जी ! मैं घपैरी (दोपहरी) में चा नी पीत्ता—नुकसान दे जा मरद जात कूट।’’
चाय के नुकसान दे जाने वाला संकेत ही काफी था। मित्तल ने उसके साथ ‘मरद जात’ लगाकर अपनी बात की अश्लीलता को पूरी तरह उजागर कर दिया।
मैंने यह सोचकर कि कहीं वह लड़कियों के सामने और कोई आल-पताल न बकने लगें, उनसे कहा, ‘‘चलो चाय मत लो—ठंडा पानी ही सही। आप इधर आओ तो सही।’’

पर उन्होंने कमरे की ओर जाने का कोई संकेत नहीं दिया—बर्फ का टुकड़ा पकड़े-पकड़े अपने कमरे में चले गए। यही नहीं उन्होंने भड़ाक की आवाज करते किवाड़ों को काफी मजबूती से भेड़ लिया। उनका यह आचरण मुझे बहुत असम्मानजनक लगा मगर उनकी मानसिक उथल-पुथल का ख्याल करके मैं चुप लगा गया।
जब मैं चाय पी चुका तो कमला ने एक लड़की को भेजकर मुझे भी अपने कमरे में बुलवा लिया। मैं सोफे पर जाकर बैठ गया तो उसने पूछा ‘‘किंघे से आणा हो रहा है ? होर सबकू साथ क्यूँ नी लेते आए ?’’
‘‘मैं महज दो रोज के लिए देहरादून गया था इसलिए किसी को संग नहीं ले गया था।’’
कमला ने अपनी शिष्याओं से उलझे-उलझे ही मेरी बात उड़ती-उड़ती सुनी और बोली, ‘‘बालकों के इस्कूल तो बंद होगे होन्गे ? इब म्हारे कोलिज में बी परसों से तातील हो री है। आप बच्चों कू साथ ले यात्ते तो मैं उनैं हरदुआर नुव्हा लात्ती। बाबूजी का दोस्त वहाँ सी एक धरमसाला का मनीजर है।’’

मैंने कहा, ‘‘हाँ वो तो ठीक है पर मेरा प्रोग्राम बहुत जल्दी में ही बना था। इस बार आया तो सबको साथ लेता आऊँगा। उधर तो बेपनाह गर्मी पड़ रही है—शायद यहाँ कुछ कम हो।’’
‘‘हाँ पहाड़ धोरेई है नी !’’ कहकर कमला फिर लड़कियों में लग गई।
मैंने लड़कियों की तरफ से आँखें हटाकर अपने पढ़ने के लिए कोई सामग्री तलाश करनी शुरू कर दी। दीवार से जुड़ी रैक में शायद कुछ किताबें हों यह सोचकर मैं उठ गया।
मैंने काँच सरकाकर एक किताब निकाली—विनोबा भावे के प्रवचन थे। मैंने पुस्तक के पृष्ठ पलटते हुए कहा, ‘अंय ! क्या तुम विनोबा जी की चेली हो गई हो।’’
इसी समय मेरे कानों में चटाक-चटाक की आवाज गूँज उठी। अनायास मेरी आँखें दूसरी ओर घूम गईं। कमला लड़कियों के गालों पर तड़ातड़ तमाचे जड़ रही थी और लड़कियाँ बेचारी हया में डूबी सिर झुकाए चाँटों के प्रहार सहन कर रही थीं।
मैं उस दृश्य को देखकर विजड़ित हो उठा। विनोबा के प्रवचन मेरे हाथ में इस तरह झूलकर रह गए मानो मेरे हाथ में कोई जिबह की हुई मुर्गी लटक रही हो।

सहसा मेरे मुँह से कोई बात नहीं निकली और मुझे उस समय उस कमरे में होने पर गहरा अफसोस हुआ। निश्चय ही कमला उन बेचारी लड़कियों को रोज ही उसी तरह पीटती होगी और वे भी सम्भवतः गुरु-प्रसाद समझकर उसे मानापमान की भावना से अलग हटकर ग्रहण करती होंगी। पर बाहर के एक अनजान व्यक्ति के सामने युवती होती बालिकाओं का यों पीटा जाना घोर अपमानजनक और दुखदायी था।

किताब हाथ में थामे मैं बाहर जाने लगा तो कमला उत्साहपूर्वक बोली, ‘‘मैं तो कई साल्लों से विनोबा जी के पवनार आसरम में जात्ती हूँ। गर्मियों की सारी छुट्टी कदी-कदी तो वहीं सी कट जा हैं। मेरे साथ होर बी कई मास्टरनी चली जा हैं। विनोबा जी के उपदेश सुनके मन को बड़ी श्यान्ती मिले है। इब तो मेरी हुईं सी जाके रहणे की इच्छा हो री है।’’
मैं हैरत में पड़कर उसका सूजा हुआ सा भारी-भरकम चेहरा देखता रह गया। लड़कियों को इतने अशिष्ट और क्रूर तरीके से चपतियाने का दुःख उसकी आँखों में नहीं था। गोया जो कुछ उसने किया था वह सहज और सामान्य ही था। पर मैं भीतर तक शर्मिन्दगी महसूस कर रहा था और लज्जावनत लड़कियों की ओर निगाह उठाने की मेरी हिम्मत जवाब दे गई थी।
इतनी देर में कमला ने विनोबा को निष्कासित कर दिया था और फिर पूरी तरह अपने में लौट आई थी। वह पूछ रही थी, ‘‘खाणा कितनी बर (देर) में खावोगे।’’
मैं उसे टालते हुए बोला, ‘‘अब खाना क्या खाऊँगाजी। तीन-साढ़े तीन तो हो ही रहे हैं। अभी-अभी तो चाय पी है। शाम को जल्दी खा लूँगा। आप अपनी स्टूडैन्ट्स को पढ़ाओ।’’

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