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उपन्यास >> काली लड़की

काली लड़की

रजनी पनिकर

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4087
आईएसबीएन :81-7043-663-x

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एक सामाजिक उपन्यास...

Kali Ladaki

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

‘काली लड़की’ एक सामाजिक कहानी है जिसमें मेरा प्रयास नागरिक समाज के उन अंशों को चित्रित करने का रहा है जिसमें काली लड़की रानी का जन्म होता है, पालन-पोषण होता है, वह बाल, युवा, वयःसंधि में पदार्पण करती है। उसके स्वप्न अंगड़ाई लेते हैं। अपने प्रति उपेक्षा और घृणा के वातावरण में वह अपनी बहन कावेरी के साथ ही बड़ी होती है, घर-भर में पिता को छोड़कर और सब लोग उसके अस्तित्व के प्रति उदासीन हैं।
उसे घर में अचानक आ पड़ने वाला भार मानते हैं। किशोरावस्था से ही उसमें कुण्ठाएँ घर बनाती हैं। अन्ततः उसका सम्पूर्ण अस्तित्व उस सबके विरुद्ध भड़क उठता है। वह भविष्य को अपने अनुरूप ढालने को कृत संकल्प होती है और उसमें सफल होती है।

जब यह उपन्यास धारावाहिक रूप में ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित हुआ था, तो मुझे सहृदय पाठकों द्वारा बड़ा प्रोत्साहन मिला। प्रत्येक सप्ताह बहुत से पत्र आते, जो पाठकों की सहृदयता का परिचय देते। जहाँ कथानक, शैली तथा भाषा की पाठकगण प्रशंसा करते वहीं एक प्रश्न भी पूछ लेते, ‘रानी की माँ का जैसा व्यवहार उसमें है, क्या वैसा व्यवहार वास्तव में एक माँ अपनी सगी बेटी से कर सकती है ?’ मुझे आज्ञा दें तो मैं भी यही प्रश्न आपसे पूछूँगी कि एक माँ ऐसा व्यवहार एक बेटी से कर सकती है ? मुझे शत-प्रतिशत आशा है कि आपका उत्तर होगा, एक माँ ऐसा व्यवहार ही नहीं बल्कि इससे बुरा भी कर सकती है। मुझे आधा दर्जन से अधिक ‘काली’—बहनों के पत्र आए, जिनमें अधिकतर उन कठोर यातनाओं का वर्णन किया गया था जो उन्हें काली होने के कारण अपनी माताओं से मिलीं। मानव सदा से आकर्षण और सौंदर्य के प्रति झुकता है, सरल हो उठता है, कुरूप और कुटिलता के प्रति वितृष्णा से भर उठता है...ये संस्कार मानसिक और सामाजिक दोनों रूपों में हैं।

माँ अपनी काली बेटी को अच्छा भोजन भी खाने को नहीं देती क्योंकि उसे भय रहता है कि लड़की बड़ी दिखलाई देगी तो उसका विवाह जल्द करना पड़ेगा। काली लड़की के लिए योग्य वर मिलना मुश्किल होगा। उस अनिवार्य कठिनाई को कुछ वर्षों तक टाल जाने के लिए माँ बेटी को पेट भर खाना नहीं देती। दूध से मुख धुलाती है लेकिन पीने को नहीं देती।
प्रस्तुत उपन्यास में काली लड़की मैंने ‘त्रस्त’ सन्तान का प्रतीक लिया है। सन्तान, विशेषकर लड़की, यदि कोई अभाव लेकर जन्म लेती है तो माता-पिता की सहानुभूति खो बैठती है। उसके स्वाभाविक गुण भी नजरअन्दाज कर दिए जाते हैं और उसके भीतर की नारी दबी हुई है, घुटी हुई रह जाती है। वह अनायास ही परिवार के अन्य सदस्यों से दबती रहती है। काश ! उनके अभिभावक और माता-पिता उनकी यातनाओं का अनुमान लगा पाएँ। इससे अधिक क्या कहूँ, आप स्वयं निर्णय कर लीजिए।

काली लड़की
1

 

 

मैं अपनी आँखों के आँसू सुखा चुकी हूँ। सच तो यह है कि आँखों से अविरल जलधार जीवन में दो या तीन बार से अधिक मैंने कभी बहाई ही नहीं। जब कभी ऐसी परिस्थिति आती, आँसू बहाने की इच्छा होती, तो मैं अपने आँसुओं को चुपके-चुपके अन्तस् में ही टपका लेती। मन पर पड़ते खून के आँसू ! उनमें घायल आत्मा का लाल रक्त बहता। काली त्वचा होने पर भी रक्त लाल ही रहता है।
कहानी कहकर आपकी सहानुभूति नहीं उभारना चाहती। दया, करुणा तथा सहानुभूति से मुझे चिढ़ है। संसार में कुछ विरोधी सम्बन्धों को छोड़कर कोई किसी से सहानुभूति कर सकता है क्या ? मुझे तो ढोंग ही लगता है। मैं अपनी सफाई भी नहीं देना चाहती। त्वचा उज्जवल होने न होने पर भी कृत्य उज्जवल हो सकते हैं, यह जानने की किसे फुरसत है !
मैं जन्म से काली हूँ। माँ गोरी, पिता का गेहुँआ रंग, बहन गोरी और मैं काली। मेरी बहन मुझसे छह वर्ष बड़ी है। वह मेरे साथ खेलती भी नहीं थी। पहली आवाज जो मेरे कानों में पड़ी वह थी कि मैं काली हूँ। सब मुझे ‘काली’—‘काली’ कहकर पुकारते। हमारे घर में एक नौकरानी थी, जिसे मेरे जन्म से पूर्व रखा गया था। मेरी माँ को पूर्ण आशा थी कि लड़का होगा। लड़के के पालन-पोषण में हाथ बटाने के लिए उन्होंने यह नौकरानी रखी थी। लड़के की आशा में केवल एक लड़की पाकर, वह भी काली, उन पर गाज गिरी होगी इसमें किसी को सन्देह नहीं होना चाहिए।

मुझे बचपन की सब बातें तो याद नहीं और न मैं उस कटु जीवन को अधिक याद करना ही चाहती हूँ। कुछ धुँधली-सी स्मृतियाँ-भर हैं। एक बात तो बचपन से ही नासूर की तरह मुझे गलाती रही, वह है...मैं काली हूँ। आप कहेंगे कि भारत जैसे देश में, आधी जनसंख्या काली है। यह तो तर्क की उक्ति है। एक मध्यवर्गीय परिवार में जिसमें सब गोरे हों, एक लड़की का काला होना मानो उसके भाग्यहीन होने का सबसे बड़ा चिह्न है, अँधेरे भविष्य का प्रतीक है। मेरी माँ शायद मेरा रंग देखकर जड़ हो गई होंगी। उन्होंने उस दुर्भाग्य की छाया को दूर करने के लिए मेरा नाम रानी रख दिया। जब मैं राजा-रानियों की कहानियाँ सुनने-समझने के योग्य हुई तो मुझे यह बात बार-बार चुभती, क्या कहीं काली रानी भी होती है ? रानी को तो परियों की तरह सुन्दर होना चाहिए। मेरा नाम रानी क्यों रखा गया ? बड़ी हुई तो स्कूल में मेरा प्रवेश कराया गया।

कक्षा में एक नटखट लड़का बोल ही पड़ा, ‘‘तुम्हारा नाम रानी नहीं कोयल होना चाहिए था।’’ मेरे नन्हे-से कोमल हृदय पर चोट किसी चाबुक की मार से कम न लगी। मैं खिलखिला कर हँस पड़ी। मेरा बाल-हृदय जैसे एकाएक प्रौढ़ हो गया। स्कूल में वह पहला दिन था, मुझे अपनी माँ कि प्रति विरक्ति हो आई। उस समय तो ऐसा लगा था जैसे माँ पर केवल क्रोध आया था, पर वह घृणा थी। मेरे हृदय ने गवाही दे दी कि मेरी गोरी माँ ने मुझसे उपहास किया है।
अपनी नौकरानी...चाँदी पर भी क्रोध आया। चाँदी प्रायः मुझे गोद में लेती तो मेरे साधारण सीधे काले केशों को सहलाती जाती और साथ ही मेरा माथा चूमकर कहती, ‘‘रानी बिटिया, किसी दिन राजा की रानी बनेगी। इन भाव-भरी बड़ी-बड़ी आँखों में कौन अपना भाग्य नहीं खोजना चाहेगा ?’’

उस समय यह बात समझ में नहीं आती थी। जरा बड़ी हुई, अपनी काली सूरत आईने में देखने की लालसा बढ़ी तो मैंने जाना कि सचमुच मेरे चेहरे का नक्शा बुरा नहीं। दीदी हमेशा गाढ़े रंग की साड़ियाँ पहनतीं, माँ भी लगभग वैसा ही पहनतीं। मुझे हीन समझ कर दीदी और माँ की उतरन दे दी जाती, जिन्हें कभी-कभी तो मैं चाँदी को दे देती, लेकिन जब विवश होकर मुझे पहनना पड़ता तो मेरा काला रंग घना काला हो उठता।
स्कूल में कुछ लड़कियाँ मुझसे दबती थीं। वे सुन्दर मुख और शरीर पाकर भी, घर से गणित के प्रश्न हल करके न ला सकती थीं। उन्हें भूगोल भूलभुलैया लगता और विज्ञान के घंटे में अक्सर उनका समय स्कूल के नल के पास या ‘कॉमन रूम’ में कटता। ऐसी लड़कियों को सदैव सहायता की आवश्यकता रहती जो मैं तुरन्त देती, इसलिए वे लड़कियाँ मुझे अपने पास बैठने देतीं, मुझे काँच की चूड़ियाँ तथा रिबन उपहार में देतीं। दीदी हमेशा कहतीं, ‘‘जाने तुम्हारी सहेलियाँ इतनी सुन्दर कैसे हैं !’’ इन्हीं लड़कियों में एक लड़की सुन्दरी शर्मा का मेरे जीवन के साथ बड़ा महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध रहा।

मेरी आयु उस उस समय चौदह और पन्द्रह के बीच होगी, अक्सर दीदी के ब्याह की बात चलती। वह बी.ए. में दो बार फेल हे चुकी थी। पढ़ने में उसका मन नहीं लगता था। वह आईने के सामने खड़ी होकर श्रृंगार करती, माँ के साथ, मोहल्ले की स्त्रियों के साथ गप्प मारती। चाँदी, माँ और जो स्त्री घर पर आई हो उनके साथ बैठकर ताश खेलती। मुझे इन ताश खेलने की गोष्ठियों में कभी किसी ने नहीं बुलाया। घर में कोई चाय-पार्टी हो, त्यौहारों पर सगे-सम्बन्धी जमा हों तो दीदी और माँ मेरी ओर केवल उस समय ध्यान देतीं जब देखतीं कि काम-काज में हाथ बटाने के लिए किसी की आवश्यकता है। अक्सर ऐसा होता कि मेरे हिस्से का काम भी चाँदी ही निबटा देती। उसके साँवले हाथ, जिन पर ओऽम और राम गुदा हुआ था, फुर्ती से काम करते। पन्द्रह तोले के कड़े घुमा-घुमा कर पान से रचे होंठों और पीले मटमैले दाँतों से मुस्करा कर काम निबटा देती और मुझे पढ़ने के लिए भेज देती।

उस समय मुझे पता था कि कमरे में मुझे वापस क्यों भेजा जा रहा है। सब जानते थे कि मैं पढ़ने में तेज थी। फिर यों बार-बार पढ़कर, इतना अधिक पढ़कर क्या होगा। मैं दस दिन भी ध्यान दूँगी तो श्रेणी में मेरा प्रथम स्थान तो कहीं गया ही नहीं। माँ को केवल यह चिन्ता है कि कहीं कोई सम्बन्धी यह न कह दे, ‘‘अरी गौरी, इस अपनी काली लड़की को कहाँ ब्याहेगी ? इसे तो कोई भी न लेगा। हे राम ! माता-पिता गोरे, बहन गोरी और यह काली !’’
कोई दूसरी फौरन बोल उठती—‘‘गौरी जीजी, तुमने सूर्य या चन्द्र-ग्रहण लगते वक्त परहेज नहीं किया होगा नहीं तो लड़की इतनी काली कैसे होती !’’

ऐसी बातचीत के समय मैंने कई बार छिप कर अपनी माँ के मुख की भाव-भंगिमा देखी। मेरी माँ मेरे सामने तो केवल एक दीर्घ निःश्वास छोड़ इतना ही कहतीं, ‘‘जहाँ इसका भाग्य इसे ले जाएगा वहीं ब्याही जाएगी। लड़कियाँ भी कहीं किसी की कुँवारी रही हैं !’’ किन्तु जब मैं ओट में होती तो मेरी माँ अपने माथे पर हाथ मारकर कहतीं, ‘‘इसका भाग्य ही खोटा है, इसने पिछले जन्म में खोटे कर्म किए थे, उनका फल इस जन्म में भोगना ही होगा। हम लोग साधारण स्थिति के आदमी, ऐसी काली लड़की का अगर ब्याह करना होगा तो हमें दस हजार का दहेज देना पड़ेगा। नहीं जानती ये दस हजार कहाँ से आयेगा। बहन जब से यह पैदा हुई है, चिन्ता के मारे मेरा तो भोजन भी आधा रह गया है। कद्दू की बेल से भी जल्दी यह लड़कियाँ बढ़ती हैं।’’ इतना कहने पर माँ एक बार और माथा पीट लेतीं। यदि पिताजी वहाँ उपस्थिति होते तो वह फौरन कह देते, ‘‘लड़की पढ़ने में इतनी तेज है, क्या हुआ यदि जरा साँवली है। हिन्दुस्तान में बहुत-से आदमी इससे भी काले हैं।’’
माँ का हृदय उतना विशाल नहीं था, वह फौरन उत्तर देतीं, ‘‘किसी द्रविण से ही इसका विवाह होगा और कौन इसे ले जाएगा।’’ पिताजी माँ की बात का उत्तर न देकर सदा विषय बदल देते।

ऐसे छोटे-छोटे कटु वाक्य सुनना तो दिनचर्या के अंग थे। वास्तव में मेरा संघर्ष उस समय आरम्भ हुआ जब मेरी बहन कावेरी का विवाह हुआ। दूध जैसी श्वेत चिकनी त्वचा वाली, सलीकेदार कपड़े पहनने वाली, बात करने से पहले ही स्वयं अपनी बात पर हँस देने वाली कावेरी को कमल देखने आए। उनकी अब तक यह आदत थी कि जिस चीज को वह देखतीं, वह उसी को ही जातीं, मानो वह स्वयं मलिका हों और उनके आस-पास के सब लोग उनकी प्रजा।
उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में कुछ ऐसा ही भाव रहता। जाने-अनजाने उनकी इस भावना के आगे लोग झुक भी जाते। जाने क्यों और कैसे, उनका रूप सब लोगों को मोहित कर देता।

हाँ, तो जिस दिन कमल बाबू दीदी को देखने आए, मुझे बाहर आने की मनाही कर दी गई थी। माँ नहीं चाहती थीं कि मेरी छाया भी कमल देख पाएँ। उन्हें डर था कि काली साली देख कर कहीं वह यह न समझें कि कावेरी उनकी बेटी नहीं, किसी की माँगे की लड़की दिखला दी गई है। मैंने माँ के नियन्त्रण के होते हुए भी कमल की एक झलक पा ही ली। कुछ विशेषता नहीं लगी मुझे। गेहुँआ रंग, मझोला कद, केवल साधारण। माँ दीदी के लिए यह साधारण-सा वर क्यों ढूँढ़ रही है ? उन्हें कमल किसलिए पसन्द है ? इसमें कौन-सी विशेषता है ? वह दीदी को पसन्द करके चले गए तो मैंने अवसर पाकर चाँदी से पूछा, ‘‘चाँदी, माँ को यह साधारण-सा वर कैसे पसन्द आ गया ?’’

चाँदी ने कहा, ‘‘तुम अभी बच्ची हो, रानी ! कमल बाबू के पास रुपया है। वह कावेरी बिटिया को चाँदी में तोल सकते हैं, सोने में मढ़ सकते हैं।’’
‘‘इनके पास इतना रुपया कहाँ से आया ?’’
‘‘काले बाजार से, बिटिया !’’
मेरा मुख लाल हो गया। मैट्रिक में पढ़ती थी, फिर भी मुझे, ‘काले बाजार का अर्थ नहीं मालूम था। मैं समझी चाँदी मुझसे व्यंग्य कर रही है। मेरा हृदय चीत्कार कर उठा, परन्तु और दिनों की भाँति वह भी मौन चीत्कार था। चाँदी के पास उस दिन इतनी फुरसत कहाँ थी कि अपनी बात का प्रभाव मेरे मुख पर देख सकती। वह छोटा-सा उत्तर देकर अपने काम में लग गई।

वह रात मेरे लिए भयानक रात थी। बाहर आकाश पर चाँद निकला था, तारे भी चमक रहे थे। मार्च का महीना था, सर्दी अधिक थी, खिड़की खुली थी, मैं अपने पलंग पर बैठी स्वयं को धिक्कारती रही। इतनी गई-बीती हूँ मैं कि मुझे अपने होने वाले जीजा के समने नहीं दिया जाने गया ! आखिर वह क्या करते ? खा जाते ? दीदी को न कैसे कर देते ? काली मैं हूँ, मेरी छाया भी दीदी पर नहीं पड़ सकती। वह काली कैसे हो जाएँगी, मेरी उस दिन की व्यथा कौन समझ सकता है ? जिसने चोट न खाई हो वह पीड़ा क्या जाने !

‘कमल जी’, इस नाम से उन्हें हमारे घर में पुकारा जाता रहा। उनके चले जाने के बाद, माँ और दीदी में बहुत देर तक बातचीत होती रही। दीदी और मैं एक कमरे में सोती थीं। साढ़े ग्यारह बजे तक दीदी कमरे में नहीं आयीं तो मैंने बत्ती बुझा दी। माँ-बेटी में सहेलियों का-सा व्यवहार है। माँ, दीदी से केवल चौदह वर्ष बड़ी हैं और मुझसे बीस-इक्कीस वर्ष। मैं उत्सुकता लिए दीदी की प्रतीक्षा कर रही थी, चाहे सुबह उठकर वह मुझे पहली बात यही सुनातीं कि ‘‘तुम्हारा काला मनहूस मुख मैं नहीं देखना चाहती।’’ यह कह कर वह अपने गोरे-गोरे हाथ देखने लगती। मैं इतनी काली नहीं हूँ कि नीग्रो लगूँ, परन्तु घर के अन्य सदस्यों से तो निःसन्देह मेरा रंग काला था।
विवाह दीदी का हो रहा था, धड़कने मेरी तेज हो रही थीं। बारह बजे के लगभग दीदी जब आईं तो मैंने छूटते ही पूछा, ‘‘दीदी, तुम्हें अपना होने वाले दूल्हा पसन्द है ?’’

दीदी जाने माँ से क्या-क्या बातें करके आई थीं, तुरन्त बोलीं, ‘‘इतनी गोरी होने पर तो मुझे यह पति मिला है, यदि तुम्हारी-सी काली होती तो क्या होता ?’’
‘‘मैं ढीठ हो चुकी थी, फिर पूछा, ‘‘बताओ न दीदी, तुम्हें पसन्द है ?’’
‘‘पसन्द क्यों नहीं रानी, तू तो झूठमूठ की रानी है, मैं सचमुच की रानी बन जाऊँगी। जानती है दिल्ली में उनका बहुत बड़ा व्यापार है, लाखों का लेन-देन है, चार मकान हैं, दो मोटरें हैं। अब विवाह के बाद मेरे लिए नई मोटर खरीद रहे हैं।’’
मैंने डरते-डरते पूछा था, ‘‘दीदी, ब्याह में दूल्हा की मोटरें ही देखी जाती हैं ?’’
‘‘हाँ, और क्या ! उसका सोना और रुपया देखने में भी कोई हर्ज नहीं।’’
मैं इस विवाह के विषय में सोचने लगी, जो रुपया- पैसा देखकर रचाया जा रहा था। दीदी के एक-एक वाक्य में माँ की युक्तियों की गंध आ रही थी। वैसे भी दीदी और माँ के विचार एक-से थे। मैं दीदी की बातों में डूबती-उतराती रही। निकट के थाने में तीन का घण्टा बोला, बस, इतना सुन सकी। उसके बाद शायद सो गई।

2

 

 

दीदी का ब्याह हो गया। जाते समय दीदी इतना रोईं कि पिताजी की आँखें भी भर आईं। पिताजी को मैंने जीवन में केवल दो बार ही रोते देखा—एक तो दीदी की विदाई के दिन और दूसरी बार, फिर बताऊँगी।
मुझे माँ इस योग्य नहीं समझती थीं कि मुझ से कुछ पूछे, दीदी का कपड़ा या गहना बनवाते समय मेरी राय की उन्हें कोई अपेक्षा न थी। जिसकी त्वचा काली हो वह क्या जाने कि कौन-सी साड़ी के साथ कौन-सा ब्लाउज फबेगा। माँ खुले हाथों खर्च कर रही थीं। बूआ ने टोका, ‘‘रानी का ब्याह भी तो होगा, उस पर खर्च नहीं करोगी, जो इसी शादी पर सारा धन लुटा रही हो ?’’
माँ ने उदास होकर उत्तर दिया था, ‘‘नहीं जानती, भगवान को क्या मंजूर है। रानी का विवाह होगा तो किसके साथ ? कौन इसे अपनाएगा ?’’
‘‘वाह ! भाभी, वाह ! रानी कुँवारी ही रहेगी ! हमारी सत्या (बूआ की ननद) रानी से भी साँवली है। फिर रानी के नक्श तो बहुत अच्छे हैं, आँख भी सुन्दर है।’’

उसके बाद माँ ने जो कहा उसने मेरी आत्मा को झकझोर दिया। क्या कोई भी माँ अपने बच्चे के लिए वैसा कह सकती है ? जब मैंने जन्म लिया था तो क्या माँ को प्रसव-पीड़ा कम हुई थी ? मैंने सुना था कि माँ को सभी बच्चे प्यारे होते हैं, बच्चों में भेद केवल पिता बरतते हैं। विश्वास कीजिए—यह व्यवहार मेरी अपनी माँ ने मेरे साथ किया।
माँ ने कहा, ‘‘सच पूछो, जीजी, मैंने रानी को जी भर कर कभी देखा भी नहीं है। जब भी मैंने उसे देखा, सरसरी नजर से ही देखा। मुझे उसे बहुत अच्छी तरह देखते डर लगता है। अभागिन इतनी काली है—मैं सोचती हूँ किसी देवी का श्राप है, जो ऐसी लड़की मेरी कोख से पैदा हुई।’’

बूआ की आँखों में पानी छलछला आया, ‘‘दुखी मत हो भाभी, लड़की पढ़ने में बड़ी तेज है, जरूर कुछ-न-कुछ बन जाएगी। तुम इसे लेडी डाक्टर बनाओ डाक्टरी पढ़ने का उत्साह दो।’’
इस पर माँ ने कहा, ‘‘जीजी, एक तो हमारी हैसियत नहीं है कि इसे डाक्टरी पढ़ने के लिए भेजें, दूसरे यह कि डाक्टर बन कर जिन बच्चों को पैदा करवाएगी वे भी इसके काले हाथो से काले ही होंगे।

इसके बाद बूआ ने क्या उत्तर दिया, मैं सुनने के लिए नहीं रुकी, छत पर चली गई। मेरे भीतर कुछ टूट गया था। मेरी माँ मेरी बूआ से बात कर रही थीं। क्या अपनी जननी भी ऐसी बात कर सकती है ? माँ का प्यार मैंने कभी नहीं पाया था, परंतु मैं देखती थी कि माँ का प्यार होता कैसा है, किया कैसे जाता है। मेरी माँ दीदी को तो प्यार करती थीं, मैंने कई बार उन्हें दीदी के मुख की ओर वात्सल्य भरी नजर से देखते हुए देखा है। दीदी के रूठने और मचलने पर वह क्या नहीं करती रहीं। एक बार शहर में एक प्रदर्शनी हो रही थी। दीदी ने उसमें साठ रुपये की एक साड़ी देखी, तो उनका मन मचल उठा। साठ रुपये की साड़ी ! माँ के पास इतने रुपये नहीं थे कि उस साड़ी को वहीं दिलवा देतीं ? पिताजी छोटे-से बैंक के मैनेजर थे, केवल चार सौ रुपये पाते थे। जिनमें घर का खर्च, हम लोगों की पढ़ाई-लिखाई, रिश्तेदारों के शादी-ब्याह, सभी कुछ तो करना पड़ता था। साठ रुपये की साड़ी माँ दीदी को कैसे ले देतीं ? घर आकर दीदी ने खाना नहीं खाया। सहानुभूति जतलाने के लिए नहीं, सचमुच ही प्रेमवश होकर माँ से भी खाना नहीं खाया गया। बहुत रोना-धोना हुआ, फिर रात को दीदी माँ के साथ सोईं और दूसरे दिन साड़ी खरीद ली गई थी।

वही माँ मेरे लिए, अपनी सन्तान के लिए, ऐसे शब्द प्रयोग कर रही हैं। मैं तिलमिला उठी थी। जी चाहता था कि नीचे हलवाई ने जो बड़ी-सी कड़ाही घी की मिठाई तलने के लिए गर्म की है, उसमें कूद पड़ूँ, छलाँग लगा दूँ। वह जलन शायद इस जलन से कम होगी जो मेरे हृदय को बुरी तरह तड़पा रही है।
मैं वैसा नहीं कर सकी। भाग्य में बदा मुझे अभी देखना बाकी था। जब-जब मैं माँ के प्यार के अभाव में दुःखी होती, तो मुझे पिताजी की याद आ जाती। कितने उदार हैं ! दीदी के लिए घड़ी लाए तो मेरे लिए भी। माँ ने पूछा, ‘‘कावेरी का तो विवाह है, रानी पर फिजूल खर्च करने की क्या आवश्यकता थी ?’’
पिताजी शान्त चित्त से बोले थे, ‘‘रानी प्रथम श्रेणी में मैट्रिक पास हुई है। उसे कॉलेज जाना होगा। कॉलेज में घड़ी की आवश्यकता तो पड़ेगी।’’

माँ चुप रहीं। इस बात का उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। मुझे पिताजी से उपहार पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई। बचपन से ही बड़ी उपेक्षा पाने के कारण मेरा हृदय अत्यधिक कोमल और संवेदनशील हो गया था। चाँदी के कहने पर माँ ने मुझे हल्के रंग की दो रेशमी साड़ियाँ दिलवा दीं, जिन्हें मैं विवाह के अवसर पर पहनूँ। मैंने उन्हें विवाह के अवसर पर नहीं पहना था। उस भीड़-भाड़ में किसको चिन्ता थी कि कोई मेरे कपड़े देखता ? किसे गरज थी ? जो देखता कि मैंने क्या पहना है और क्या नहीं।
जब दीदी एक बार ससुराल रहकर घर लौटीं तो कमल बाबू को दिखलाने के लिए वह यह न समझे कि मेरे पास अच्छे कपड़े नहीं, मैंने वह साड़ियाँ पहनी थीं। उस घटना की याद कर आज भी टीस होती है।
    

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