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सबक

राजेन्द्र मोहन भटनागर

प्रकाशक : सुयोग्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4089
आईएसबीएन :81-7901-008-2

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वर्तमान को अतीत बनाने वालों से दुर्द्धर्ष संघर्ष का उपन्यास...

Sabak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सबक वर्तमान को अतीत बनाने वालों से दुर्द्धर्ष संघर्ष का ऐसा उपनिषद् है जो डर कर जीने वालों के मन से उस घुण्डी को निकालने के लिए निमन्त्रण दे रहा है कि तुम उसी अमर पिता की संतान हो जो जीने के हलाहल को अमृत में बदलने का मंत्र जानती थी समय से प्रवाह को यदि किसी ने मोड़ा है उस पर हस्ताक्षर किये हैं और जीने के नये आयाम से यदि किसी ने जोड़ा है तो वह तुम हो, मात्र तुम ! सच सापेक्ष है उसे निरपेक्ष बनाने की जिद छोड़ो अहिंसा तलवार है उसे नपुंसकता से जोड़कर मत देखो। आओ, फिर से एक हो जाने का आओ, फिर से उल्लास मनाने का आओ फिर से समवेत स्वर में गाने का एक नया वेद तैयार करें !

भूमिका


सबके साथ, सबके लिए
‘सबक’ उपन्यास यथार्थ से निकलकर जीवन-स्वप्न में प्रवेश करता है। स्वप्न यथार्थ का ही फल है। यथार्थ से आगे का सत्य कल्पना का सत्य है। कल्पना यथार्थ का भविष्य है।
मैंने जान-बूझकर इस उपन्यास को उपन्यास के उस अतीत की ओर मोड़ा है जो प्रेमचंद के ‘गोदान’ और ‘मंगलसूत्र’ (अपूर्ण उपन्यास) से पूर्व का था। जबकि वर्तमान इतिहास को दोहराने की सोचने के क्रम में अन्दर-ही-अन्दर तैयारी कर रहता अनुभव हो रहा है तब उस पर विचार करना और जरूरी हो जाता है।
पत्रकारिता में ईमानदारी से होने वाले प्रयासों की कड़ी में एक यह भी प्रयास है। पत्रकारिता को बदलने का समय आ गया है। मात्र व्यवसाय पत्रकारिता का धर्म नहीं है। अध्यापक, किसान, सैनिक, पत्रकार, डॉक्टर, इंजीनियर, साहित्यकार, वैज्ञानिक, कलाकार व संगीतकार जब तक व्यवसाय के आधार को अस्वीकार कर आगे नहीं आएँगे तब तक समाज का संरक्षक कौन होगा ? यह प्रश्न आज सबके चेहरे पर चस्पाँ है। किसी को तो नींव की ईंट बनना होगा। पर कौन बनेगा और कब बनेगा, आज इसी ओर सबकी आँख लगी हुई है।

निरन्तर लोकतंत्र पर हमले हो रहे हैं। इसका अर्थ है कि जो लोकतंत्र पर हमला करवा रहे हैं वे कम से कम लोकतंत्र के पक्षधर नहीं हैं। यह उपन्यास उनसे संवाद बनाने का प्रयास है जो इन विषम परिस्थितियों में भी लोकतंत्र के हामी स्वर हैं। उनको इस माध्यम से यह निमंत्रण है कि वे आगे आएँ और अस्तित्व के प्रतिमान को गिरने नहीं दें बल्कि उसके लिए संघर्ष का आह्वान करें।
अंततः मैं यह उपन्यास उस ईमानदार पीढ़ी के नाम करना चाहता हूँ जोकि भारी-भरकम आन्तरिक-बहिर प्रदूषण से पूरे समाज को बाहर निकाल लाने का मन बना चुकी है और शांति के मुखौटों का पर्दाफाश करने के लिए तत्पर है। कब तक और सहा जा सकेगा शांति-अहिंसा के कपोत उड़ाकर अपने धर्म की इतिश्री समझने वालों को ? आखिर कब ? मुझे आशा है कि यह उपन्यास उस सब पर चर्चा उठाने का माध्यम बन सकेगा जो अभी तक चर्चा से दूर की जाती रही है। अस्तु, आपके पत्र की प्रतीक्षा में।

जाड़ों की रात लम्बी हो जाती है। नींद टूट जाती है तो लगता है कि अभी रात बहुत शेष है। सिमरन वत्रा के साथ यही हुआ। उसकी नींद उचट गई और फिर वह तरह-तरह के विचारों की पोटली खोलने लगी।
सिमरन वत्रा कहाँ से कहाँ आ गई। उसने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि उसके साथ ऐसा होगा और कुछेक महीनों में वह एकदम अपरिचित और अकेली हो जाएगी। और उसे महानगर में शरण लेनी पड़ेगी। जहाँ सम्बन्धों की दुनिया नए सिरे से उसकी ज़िंदगी में हस्तक्षेप करने लगेगी। हर आहट पर उसका खरगोशी मन चमक उठेगा।
सिमरन वत्रा दुनिया के बारे में जानती ही क्या है ? उसके लिए सब कुछ नया, अपरिचित और संदेह से युक्त है। नितेन पारेख से उसका परिचय अनेक आशंकाओं से घिरा हुआ था। वह अपने कटु और भयांतक अनुभवों से अंदर ही अंदर इतना भयभीत हो गई थी कि वह अपना समय सुरक्षा कवच के साथ ही व्यतीत करना चाहती थी। उसका किसी पर विश्वास नहीं रहा था। पुरुष की परछाईं तक उसे डरा जाती थी।

ऐसे में नितेन पारेख के साथ रूम पार्टनर हो जाना उसको बेचैन कर रहा था। परपुरुष की छाया से अपने को दूर रखने वाली वह कैसे ऐसा दुस्साहस जुटा पाई। क्या समाज उसको यह अनुमति दे सकता है ? वह तो अति आधुनिकाओं को भी पीछे छोड़ गई।
सिमरन वत्रा ने पुनः चाहा कि उसे नींद आ जाए और इसलिए उसने हाथ-पाँव धोकर मन ही मन कहना शुरू कर दिया—शिव-शिव रटे संकट कटे। वह बराबर कहती रही लेकिन नींद चुपके से कहीं और खिसक गई, बिना बताए।
सिमरन वत्रा बलात् अतीत को अंधी कोठरी में ढकेलकर वर्तमान की ओर मुड़ गई। इन्द्रेश्वरी सामने आ खड़ी हुई और उससे पूछने लगी, ‘‘तूने पत्रों में नितेन पारेख के बारे में लिखा है ?’’
‘‘हाँ, तो !’’
‘‘वह पुरुष है।’’
‘‘दीदी, यह तुम्हें क्या हो गया है। पुरुष तो पुरुष रहेगा, चाहे तुम जितनी बार पूछो।’’
‘‘लेकिन उससे सम्बन्ध ?’’
‘‘एक किरायेदार का उसके सह-किरायेदार से जो सम्बन्ध होते हैं वही मेरे थे।...दीदी, तुम अनर्गल सोचकर परेशान मत हो।’’ सिमरन वत्रा की खोज़ी आँखें जान चुकी थीं कि उसकी दीदी इन्द्रेश्वरी थानेदार की भूमिका में आ चुकी हैं और उस बयान पर उसके हस्ताक्षर करवाना चाहती है जो उसने नहीं दिया है।
‘‘परन्तु, सिमू...।’’ इन्द्रेश्वरी इतना ही कह पाई कि वह बीच में ही बोल उठी, ‘‘दीदी, किंतु-परन्तु के बाहर भी दुनिया है, जिसमें तुम्हारी सगी छोटी बहन कुछ समय अपनी बड़ी बहन के पास बिताने चली आई है। सोचा था कि इस अकेली ज़िंदगी को कहीं थोड़ा-बहुत सुकून और आत्मीयता मिल सकती है तो वह अपनी दीदी के पास। मन हुआ था कि सम्बन्धों पर जमी राख को कुरेदकर समझूँ कि उनमें कितनी ऊष्मा बची है।’’

‘‘तो क्या जाना ?’’
‘‘क्या जानना था, दीदी ! तुम्हारी और जीजू की आत्मीयता ने मुझमें फिर से जीने का हौसला पैदा कर दिया।’’ सिमरन वत्रा ने धीरे-धीरे कहा।
‘‘देख, मुझे बड़ी बहन का फर्ज निभाने दे, सिमू।...जो पूछूँ, सीधे-सीधे उसका जवाब दे और ज़िद छोड़ दे।...तुझे मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि तू जिद्दी शुरू से है। लेकिन इन परिस्थितियों में तुझे अपनी ज़िद छोड़नी पड़ेगी और यह बतलाना पड़ेगा कि नितेन पारेख कौन है।’’
‘‘पुरुष मित्र।’’
‘‘तू उसके साथ रही थी न ?’’
‘‘हाँ, रही थी।’’
‘‘बिना शादी किए ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘फिर भी कुछ नहीं है, क्यों ?’’ इन्द्रेश्वरी के स्वर में व्यंग्य था।
‘‘हाँ, फिर भी कुछ नहीं है, दीदी।’’ सिमरन वत्रा ने बिना उसकी ओर देखे, ऐसे कहा जैसे कहने जैसा कुछ हो ही नहीं। चेहरा जस का तस—ठहरे हुए चाँद-सा स्थिर।
‘‘झूठ।’’
‘‘ठीक है दीदी, तुम भी मेरी तरह निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हो।’’ सिमरन वत्रा के होंठों पर जरा-सी मुस्कान ठहर कर तत्काल गायब हो गई।
‘‘औरों से सुना है कि...।’’
‘‘वह मुझे नहीं जानना।’ तेजी से पर शांत लहज़े में सिमरन वत्रा ने कहा, ‘‘उस पर मुझे कोई आपत्ति भी नहीं है।’’
‘‘पर मुझे है।’’

‘‘इट इज युअर प्रॉब्लम, दीदी।’’
‘‘तू यहाँ, हम लोगों के साथ है इसलिए ?’’
‘‘चली जाऊँगी—बस।’’
‘‘पर बताएगी नहीं।’’
‘‘यही समझ लो।’’
‘‘जाएगी कहाँ ?’’
‘‘कहीं भी, जहाँ मन ले जाएगा।’’
‘‘सिमरन ऽ...!’’ इन्द्रेश्वरी तेज स्वर में बोली।
‘‘प्लीज...मेरे बारे में कुछ नहीं सोचो।...मैं स्वयं अपने बारे में नहीं सोचती।’’
‘‘क्यों नहीं सोचती ?’’
‘‘क्योंकि मैंने जो कुछ किया है, वह खूब सोच-समझकर। उसके परिणाम मेरे हैं। उसके लिए उत्तरदायी भी मैं हूँ।’’ सिमरन वत्रा ने कुछ सख़्त होते हुए कहा।
इन्द्रेश्वरी होंठ काटकर रह गई। जानती थी कि वह जिद्दी शुरू से है और लीक से हटकर चलने की उसकी आदत रही है। अधिक मेल-जोल भी उसे नहीं सुहाता—बहुत कुछ रिजर्व नेचर की है। उसने अपने को पीछे ढकेलते हुए कहा, ‘‘सिमू, तू शायद बुरा मान गई। न बाबा, मैं अब तुझसे कुछ नहीं पूछूँगी। तेरा जैसा दिल चाहे, कर—मुझे उससे कोई सरोकार नहीं है।’’
दरअसल वह उसके मांगलिक जीवन के प्रति अधिक सतर्क हो गई थी यह सोचकर कि अभी भी उसका घर बस सकता है और पहाड़-सी ज़िंदगी सुकून की राह पर आ सकती है।

पटाक्षेप हुआ चुपचाप, अनाहट किए। होश सँभालने के बाद से सिमरन वत्रा अपनी दुनिया को आत्मलीन बनाने की कोशिश करती रही। जिसके साथ वह घर छोड़कर भाग ख़ड़ी हुई थी वह काँइयाँ निकला, अधरझूल में छोड़कर गायब हो गया। फिर वह किस मुँह से घर लौटती। नीलाम हुई इज़्ज़त को और कैसे छीलती। माँ सदमे से चल बसी और कुछ दिन बाद पिता भी। इन्द्रेश्वरी तीन बच्चों की माँ है—एक लड़का, दो लड़कियाँ। तीनों तराऊपर की संताने हैं और सयाने होने लग रहे हैं। उसका मन आज भी उसमें है। हालाँकि वह जीजू पर निर्भर है। कदाचित् जीजू ने उससे यह जानकारी प्राप्त करने के लिए इन्द्रेश्वरी से कहा हो। बद अच्छा, बदनाम बुरा वाली बात उस पर लागू होती है। सौ चूहे खा बिल्ली हज़ को चली। वास्तव में उस जैसी उच्छृंखल और आज़ाद ख़याल का क्या भरोसा। कहीं उसका वहाँ आना उसके लिए संकट, अशांति और लोकलाज का कारण तो नहीं बन गया। शायद ऐसा ही है।
सिमरन वत्रा ने घबराकर वर्तमान पर जैसे ही परदा गिराया वैसे ही नितेन पारेख उसके सामने आ खड़ा हुआ। एकदम कच्ची जान-पहचान। वह भी ‘टाइम्स’ में पत्रकार था जब उसने ‘टाइम्स’ ‘ज्वॉइन’ किया था। पत्रकारिता में उसका पहला क़दम था। वहाँ का माहौल भी एकदम अलग था। नितेन पारेख ने शायद उसके मन की हिचकिचाहट को पढ़कर ही उससे कहा था, ‘‘वत्रा, यह महासागर है...आई मीन...महानगर। यहाँ सारे क़ायदे-क़ानून समुद्री हैं।...यहाँ कोई किसी का नहीं है। पैसा, शोहरत और मौज-मस्ती यहाँ के बौने आदमी का एकमात्र लक्ष्य है।’’
वह महानगर का ख़ाका खींचे जा रहा था, बेमतलब। और सिमरन वत्रा उसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रही थी। फिर भी उसने कहा, ‘‘वत्रा, यहाँ तुम्हें अकेले नहीं रहना चाहिए।’’

सिमरन वत्रा ने उसका कारण नहीं पूछा। दूध का जला छाछ फूँक-फूँक कर पीता है, पर कब तक ? वह महानगर में है तो स्पष्ट है कि वहाँ की ऊपरी हवा उसे बख्शेगी नहीं। उसे लड़ना होगा....अपने से भी और अपने बाहर से भी। नितेन पारेख उसके सामने प्रस्ताव रख रहा था, ‘‘वत्रा, तुम्हें ऐतराज न हो तो तुम मेरे साथ शेयर कर सकती हो।’’
सिमरन वत्रा को उसकी आत्मीयता पर संदेह हुआ, लेकिन उसकी आहट उसे नहीं लगने दी। वह उसे अपने घर पर आमंत्रित कर रहा था, वह मान गई। उसके साथ चली भी गई।
पाँचवे माले पर उसने टू रूम्स फ्लैट ले रखा था। पॉश कॉलोनी थी वह। वहाँ उसका एक कमरा खाली पड़ा था। दूसरे कमरे में एक फोल्डिंग पलंग, दो कुरसियाँ और टेबुल थी। इधर-उधर किताबें, मैगजीन और कागज बिखरे हुए थे। वह पूछ रही थी, ‘‘अकेले रहते हो ?’’
‘‘हाँ, वत्रा। अनाथालय की परवरिश है मेरी। आगे-पीछे कोई नहीं है।...जाति, धर्म, संप्रदाय आदि से दूर का रिश्ता भी नहीं है।’’
सिमरन वत्रा कहीं गहरे असोचे डूब गई। उसे चारों तरफ एक तख्ती लटकी नज़र आ रही थी, जिस पर लिखा हुआ था—आगे ख़तरा है। है तो है। उसका कोई उपाय क्या ?
नौकरी मिली, यह क्या कम है। अंग्रेजी में एम.ए. और अव्वल डिवीजन में। लिखने में रुचि। पढ़ाकू वह जन्मजात से ही है। एक डर तो निकला कि पेट कैसे भरेगी। अब दूसरा डर लगता है कि वह भी जाल फाँदकर निकल भागा तो !
‘‘टिफिन सिस्टम है यहाँ। ऑफिस में भी टिफिन आता है और घर में भी।
चाय स्वयं बना लेता हूँ और नाश्ता रेडीमेड ले आता हूँ। कपड़े लॉउन्ड्री में—नो झंझट। दोनों कमरों में लैट्रिन बाथ अटैच्ड। ड्राइंग रूम और रसोई कॉमन। ये चॉइस तुम्हारी है कि रूम कौन-सा पसंद करो। किराया साढ़े चार हजार—फिफ्टी-फिफ्टी।’’ इतना कहकर वह उठकर चल पड़ा। जवाब नहीं पूछा। सिमरन वत्रा मोटरसाइकिल पर उसके पीछे बैठी। टाइम्स का रेस्ट हाउस आया। टाटा के साथ वह दौड़कर पल-भर में ओझल हो गया।

आख़िर कब तक वह रेस्ट हाउस में रह पाएगी—एक महीना हुआ जा रहा था। शायद वहाँ रुकने की आख़िरी सीमा भी आ गई थी। इस बीच कई बार नितेन पारेख से मुलाकात हुई, लेकिन रूम की चर्चा कभी नहीं उठी। उसे बराबर याद पड़ता है कि उसने यह भी कहा था, ‘‘वत्रा, इतना किराया देते हुए तुम्हें अखरता है। कोशिश है कि कोई हमव्यवसायी उसमें शेयर कर ले। मोटरसाइकिल का लोन माथे पड़ा ही हुआ है—नम्बर दो की पत्रकारिता है। पे भी कम है और कैडर तो अखबार में काम करने वाले का प्रायः एक-सा ही है।...तुम्हारे बारे में पता नहीं, अपनी नौकरी स्थायी नहीं है।’’
तो क्या उसे कोई रूममेड मिल गया ? सिमरन वत्रा यहाँ पहुँच कर ठहर जाती थी। दिन-भर हैलो...हाय...और छुट्टी का टाइम होते ही सब फिर से अजनबी—अपने-अपने रास्तों पर अकेले अँधेरे सन्नाटे में अचाहे धँसते हुए।
सिमरन वत्रा इस अनुभव से गुजर रही थी कि यहाँ कोई अपनी ज़न्दगी नहीं जी पा रहा है, सबको ज़िंदा रहने के लिए एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करने पड़े हैं और वे भी स्वेच्छा के नाम पर। आज़ाद रहने का है यह एग्रीमेंट !
उसका मन धीरे-धीरे डर-खतरों को पार करना सीख रहा है। सम्बन्धों की दुनिया हित साधने का औपचारिक जरिया बना हुआ है। वह कटी पतंग की तरह तो वहाँ नहीं जी सकती। एक दिन, उठते हुए उसने नितेन पारेख को पुकार लिया। कॉफी हाउस में जाकर पूछ बैठी, ‘‘तुम्हारे प्रोजेक्ट का क्या हुआ, पारेख ?’’
नितेन पारेख सकते में आकर पूछ बैठा, ‘‘कौन-सा प्रोजेक्ट, वत्रा ?’’
‘‘जिसके साथ शेयर करने की बात तुमने चलाई थी, पारेख।’’
‘‘यू मीन...अपार्टमेंट्स में फ्लैट वाला प्रोजेक्ट।’’ कुछ याद करते हुए नितेन पारेख ने कहा।
‘‘मैं तैयार हूँ।’’ सिमरन वत्रा ने सीधे आक्रमण कर दिया। उसे बचने का कोई अवसर नहीं दिया।

तीसरे दिन सिमरन वत्रा उस अपार्टमेंट्स में चली आई—बाहर वाला कमरा उसने हथिया लिया। मन में उसने पक्का निश्चय कर लिया कि परपुरुष के साथ ज्यादा मेलजोल नहीं, हदबंदी में ढील नहीं और उसके साथ जाने के लिए लिफ्ट की कोई जरूरत नहीं। उस कमरे में उसका समय पढ़ते-लिखते और योजना बनाते बीत जाता। वह कई अखबारों में आर्टिकल भेजने लगी थी। वे छपने लगे। उन पर चर्चा होने लगी और आमदनी का नया रास्ता खुल गया। जबकि नितेन की रुचि इस तरफ़ नहीं थी। हालाँकि वह खामोश रहता था—अपनी ओर से वह उससे कोई बात नहीं चलाता और न साथ चलने के लिए आग्रह करता। पहले की तरह चाय बनाता बॉलकनी या ड्राइंगरूम में बैठकर चाय सिप करते हुए देश-विदेश के अखबार उठाता। यदाकदा उन पर रंगीन पेंसिल घुमाता—बेमतलब।
सिमरन वत्रा की शंकाएँ निर्मूल होकर रास्ता नापने लगीं। एक वर्ष बीत गया—झील के पानी की तरह वे दोनों हलकी-फुलकी बातों की नाव खेते हुए बराबर दो अनजाने छोर पर बने रहे। प्रसन्न भी। वह समय पर भुगतान देती रही और टिकिट लगी रसीद पाती रही। उसके आग्रह को टालते हुए नितेन पारेख कहता होता, ‘‘शंका को झाँकने के लिए कोई छिद्र नहीं। पैसा देती हो तो उसकी रसीद लेने का तुम्हारा अधिकार बनता है और मेरे मन में कोई चोर जन्म नहीं ले पाता। व्यवहार में संकोच के लिए कोई स्थान नहीं है।...वी हैव टू बी प्रैक्टीकल।’’

नितेन पारेख भावनाओं के भँवर में नहीं पड़ता। न किसी बात को लेकर बैठता। वह एक बार राधा मुकर्जी को गहरा उदास देखकर समझ रहा था, ‘‘भावनाओं पर अंकुश लगाने में दक्ष होने का आभास करो। ज़िंदगी को गणित की तरह लो। फिर उदासी की परछाईं भी पास नहीं फटकेगी।...जमाने ने दरियाओं पर बाँध बना डाले हैं। युग बदला है तो हमें भी उसके अनुसार बदलना होगा....। प्लीज, कंट्रोल युअरसेल्फ।’’
सिमरन वत्रा अपने प्रधान संपादक की आँखों से डरती थी। वह जानता था कि सब जानते हैं कि वह विश्वसनीय नहीं है—खासतौर पर लड़कियों के मामले में। वह सिमरन वत्रा को लेकर ‘ट्यूर’ की तैयारी कर बैठा था। उसने ऐन मौके पर बीमारी की सूचना भिजवा कर अवकाश ले लिया था। ऐसा उसने तीसरी बार किया था। उसका नतीज़ा यह निकला कि उसे कनफर्म नहीं किया गया। सिमरन वत्रा ने उसका नोटिस नहीं लिया। वह बराबर अपना काम करती रही। साथ ही साथ वह अन्य अख़बार में भी प्रयत्न करने लगी। अनेक राष्ट्रीय समस्याओं पर उसके लेखों ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा था।
नितेन पारेख ने इस बार ज़रूर हस्तक्षेप किया था यह कह कर कि लड़ाई से भागना बुज़दिली है अगर दूसरी जगह तरक्की नहीं मिल रही हो तो। युद्ध मनुष्य की ज़रूरत है। मनुष्य होने की पहचान भी उसी से बनती है।
उसने जो कहा, वह परोक्ष में। सिमरन वत्रा कुछ नहीं बोली। इंटरव्यू दे आई। वह माह पूरा भी नहीं हुआ कि उसे वहाँ अपार्टमेंट भी मिल गया अधिक वेतन पर लेकिन उसी कैडर में। धीरे-धीरे वह जान गई थी कि यह उसकी अपनी ज़न्दगी है, उसके बारे में हर छोटा या बड़ा निर्णय उसे अकेले ही लेना होगा—किसी को दावत देने से कोई लाभ नहीं। उसने इस्तीफा भी दे दिया। वह मंजूर भी हो गया। तब ऑफ़िस में हलकी-सी सुरसुराहट हुई। वह भी मात्र फेअरवेल पार्टी देने के लिए।

तीन दिन बाद एक तारीख थी। एक तारीख को वह उस ऑफिस में नहीं जाकर दूसरे ऑफिस की सीढ़ियाँ चढ़ रही होगी। उसका ऑफिस नई दिशा में है, जहाँ वह रह रही थी, वहाँ से काफी दूर। यह सब सोचकर नितेन पारेख उसे अपने साथ चाय पर आमंत्रित करते हुए पूछ बैठा, ‘‘वत्रा, प्लीज डोंट टेक इटअदरवाइज—लेकिन मेरी चिंता तुम जानती हो कि इससे तुम अपार्टमेंट छोड़ो तो कम-से-कम एक माह पहले मुझे बता ज़रूर देना ताकि मैं किसी दूसरे की....शायद तुम जैसा बढ़िया रूममेड नहीं मिल पाए लेकिन जैसा भी मिले, टॉयरेबिल हो...तलाश जारी रख सकूँ।’’
सिमरन वत्रा के गुलाबी होंठों पर स्मित मुस्कान कुछ-कुछ अर्थपरक होकर घने बादलों से घिरे आकाश में निश्शब्द चपला-सी कौंध गई। उसने चाय ‘सिप’ करने के बाद कहा, ‘‘चाय कुछ ज्यादा मीठी नहीं है क्या, पारेख ?’’
‘‘शायद---।’’ नितेन पारेख दबे स्वर में बोला। दरअसल शायद उससे अपने आप निकल गया था बिना उसे बताए।
सिमरन वत्रा को इस बार विद्रूप से भरकर मुस्कराना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि महानगरीय चरित्र का वह ऐसा हिस्सा नहीं थी कि दूसरा आपकी अन्दरूनी प्रतिक्रिया को जानकर सचेत हो सके। उसने कहा यह सोचकर ही था कि सन्नाटा मौका पाते ही दबोचने का प्रयत्न न करने लगे। कर्टसी के नाते भी तब तक कुछ-न-कुछ बोलते रहना चाहिए जब तक सामने वाला दायें-बायें न झाँकने लगे या कलाई पर बँधी घड़ी पर निगाहें टिकाने न लग जाए। वह कह रही थी, ‘‘इसके मालिक को यदि पता चल जाए कि कम सुगर लेने वाले कितने ग्राहक हैं तो उसे कितना लाभ हो, पर...।’’ उसने वेटर को बुलाकर कहा, ‘‘सुगर बहुत ज्यादा है—जाओ, थोड़ी-सी फीकी चाय लेकर आओ।’’

वेटर दूसरे प्याले में फीकी चाय रख गया। उसने दोनों प्यालों की चाय को मिलाया और ‘सिप’ करने के बाद बोली, ‘‘यदि वहाँ कहीं बैचलर सुविधा मिल गई तो, पारेख।....इसलिए तलाश तो जारी रखनी चाहिए...इससे खाली मन को कुछ न कुछ सुकून तो मिलता ही है, ऐसा मुझे लगता है। तुम्हारी तसल्ली के लिए मैं इतना कह सकती हूँ कि एक जैण्टलमैन के साथ मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगी और यह जानते हुए तो कतई नहीं कि उसका पार्टनर किराया अफोर्ड करने की स्थिति में नहीं है।’’
नितेन पारेख जुम्ले की सचाई परखने की इरादे से वकील की भूमिका में आ गया। इससे पहले कि वह कोई प्रश्न करता, सिमरन वत्रा ने एक सौ का नोट वेटर के हवाले कर दिया। उसने नितेन पारेख की ओर नहीं देखा। वेटर प्लेट में सौंफ-मिस्त्री के साथ शेष रुपये सजाकर इस इरादे से लाया कि उसे अपने मेहरबान के प्रति अतिरिक्त विनम्रता बर्तनी है, मलाई मार कर।
रुपये उठाते हुए पाँच रुपये का नोट प्लेट में छोड़कर सिमरन वत्रा उठ खड़ी हुई।
दो माह बीत गए पर नितेन पारेख को कोई नोटिस नहीं मिला। वह यही सोचते हुए अखबार पलट रहा था शीर्षकों पर सरसरी निगाहें डालते हुए। पता नहीं उसे अपने से खुंदक क्यों हो रही थी ? क्या वह डिप्रेशन से घिरता जा रहा था। निस्संदेह वह उन दिनों का सामना करने की तैयारी में जुटा था जब उसे वहाँ से छुट्टी मिल सकती थी, क्योंकि इस बार भी वह स्थायी नहीं हुआ था और संपादक भी उसे अपने पास नहीं आने दे रहा था। उसके दो आर्टिकल भी नहीं छापे जबकि वे आर्टिकल उससे जोर देकर लिखवाए गए थे। उसके दिमाग़ में आते-जाते राह में खड़ी उस भिखारिन पर दृष्टि जा टिकती थी जो कहती कुछ नहीं थी, सिर्फ कटोरे में पड़े पैसों को खनकाती रहती थी।...आखिर, वह कन्नी क्यों काटने लगा है ? वह यह किससे जाने ?

संपादक की स्टैनो मिल कैथरीन का केबिन खुला था। सम्पादक प्रधानमंत्री के साथ पत्रकारों के दल में विदेश गया हुआ था, चार दिनों के लिए। तीन दिन हो चुके थे उसे गए हुए। नितेन पारेख का दिमाग तिलिस्मी हो उठा। वह कैथरीन के पास बैठकर बोला, ‘‘कोई ख़ास काम नहीं है, मिस कैथरीन।’’
मिस कैथरीन नितेन पारेख को देखकर कुछ चौंकी। उसने लगाई हुई ऐनक को फिर से लगाया और बैठने का रुख भी बदला। वह पूछ रही थी, ‘‘क्या चाहिए ?’’
नितेन पारेख चौकड़ी भूलकर पूछ बैठा, ‘‘क्या हमारे ख़िलाफ यहाँ कुछ पक रहा है ?’’
‘‘हम कैसे जानता ?’’
‘‘शायद कुछ सुना-सुनाया हो ?’’
मिस कैथरीन समझती थी कि नितेन पारेख नेक युवक है—रिज़र्व नेचर का है। सौम्य और जैण्टलमैन है। उसने कुछ सोचा। फिर से उसकी ओर देखा। उसके दिमाग़ में वह और अनाथालय घूमने लगा वातचक्र में उड़ते पीपल के सूखे पत्तों-सा। उसने धीरे से कहा, ‘‘तुम्हारा बौस ख़फा लगता है। हो सकता है वह निकट भविष्य में कोई एक्शन ले।’’
‘‘पर क्यों, कैथरीन ?’’
‘‘यह सब हम नहीं जानता।’’
‘‘कुछ-कुछ अनुमान-अंदाज़ से, प्लीज़ मिस कैथरीन..हमारा कोई नहीं है। नितेन पारेख का स्वर तनिक भीगा हुआ था।
‘‘तुम्हारा है क्यों नहीं—मिस सिमरन वत्रा तो है ना।’’ कैथरीन तपाक से बोल गई।
‘‘नहीं...नहीं..मिस कैथरीन, उससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है।’’
‘‘वो—वो तुम्हारे साथ रहता है, पारेख।’’

‘‘एक कमरा किराया लेकर।....हम इतना किराया अकेला अफोर्ड नहीं कर सकता इसलिए मिस कैथरीन...।’’ कंठ छूकर नितेन पारेख कहता, ‘‘हम गॉड को साक्षी मानकर कहता है कि इसके अलावा हमारा उससे कोई सम्बन्ध नहीं है।’’
‘‘हमें सफाई देने से क्या, पारेख ! बौस ऐसा मानता है।’’
‘‘फिर मैं क्या करूँ ?’’
‘‘हम क्या बताएगा तुम्हें ?’’
‘‘तब ?’’
‘‘सिमरन अच्छा लड़की था। वक्त को सूँघ लिया और गुडबाई कर गया।’’
‘‘तो मुझे भी...।’’
‘‘हम यह नहीं कह सकता...यह सब तुम्हें सोचना है।’’
‘‘थैंक्स, मिस कैथरीन, वेरी-वेरी थैंक्स।’’ कहकर नितेन पारेख उठ खड़ा हुआ।
कैथरीन मन ही मन क्रॉस बनाकर गॉड से प्रार्थना करने लगी, ‘‘उसकी मदद करना..वह नेक इंसान है। नेक इंसान का आज कोई नहीं है।’’
नितेन पारेख उदास रहने लगा। उसका कोई सोर्स भी नहीं है। किससे बात करे ? क्या सिमरन से ? वह तो अपने कमरे में घुसने के बाद ड्राइंगरूप में भी आकर नहीं बैठती। कभी-कभार शौपिंग या कहीं घूमने की बात भी नहीं उठाती। इसने नई नौकरी की चर्चा उससे नहीं की। सलाह-मशविरा भी नहीं किया। फिर क्या बात करे उससे ?  
 

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