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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की प्रचंड प्राण ऊर्जा

गायत्री की प्रचंड प्राण ऊर्जा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4114
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है गायत्री की प्रचंड प्राण ऊर्जा

Gayatri Ki Prachand Pran Urja

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गायत्री उपासना से प्राणशक्ति का अभिवर्धन

मनुष्य एक प्राणी है। प्राणी उसे कहते हैं-जिसमें प्राण हो। प्राण निकल जाने पर शरीर निर्जीव होकर सड़ गल जाता है इसलिए मृत्यु होते ही उसे जलाने, गाढ़ने, बहाने आदि का प्रबन्ध करना पड़ता है। मनुष्येत्तर जीवों के मरते ही उनके शरीर को समाप्त करने के लिए श्रृंगाल, कुत्ते आदि पशु गिद्ध कौए, चील आदि पक्षी और चींटी, गिडार आदि कीड़े नष्ट करने के लिए जुट पड़ते हैं। प्राण निकलते ही प्राणी का भौतिक अस्तित्व समाप्त हो जाता है। मनुष्य अथवा अन्य जीव जन्तुओं के जीवित रहने और विविध क्रिया कलाप करते रहने का सारा श्रेय इस प्राणशक्ति को ही है। जिसमें यह तत्त्व जितना न्यूनाधिक होता है उसी अनुपात से उसकी सशक्त समर्थता, प्रतिभा एवं स्थिति में कमी-वेशी दिखाई पड़ती है। मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ एवं समर्थ इसलिए है कि उसमें प्राणतत्त्व का दूसरों की अपेक्षा बाहुल्य रहता है।

सजीवता, प्रफुल्लता, स्फूर्ति सक्रियता जैसी शारीरिक विशेषतायें तथा मनस्विता, तेजस्विता, प्रतिभा, चतुरता जैसी मानसिक विभूतियाँ और कुछ नहीं प्राण रूपी सूर्य की किरणें-प्राणरूपी समुद्र की लहरें हैं। इतना ही नहीं अध्यात्मिक स्तर पर पाई जाने वाली सहृदयता, करुणा, कर्त्तव्य निष्ठा, संयमशीलता, तितिक्षा, श्रद्धा, सद्भावना, समस्वरता जैसी महानताएँ भी प्राण की ही उपलब्धियाँ हैं। प्राण एक विद्युत है, जो जिस क्षेत्र में भी, जिस स्तर पर संयुक्त होती है उसी में चमत्कार उत्पन्न कर देती है।

प्राण शक्ति जीवनी शक्ति का दूसरा नाम है। जो जितना सजीव है उसे उतना ही प्राणवान कहेंगे। यह शक्ति शरीर में चमकती है तो व्यक्ति रूप लावण्य युक्त निरोग, दीर्घजीवी परिपुष्ट एवं प्रफुल्ल दिखाई देता है। उसे परिश्रम से ग्लानि या थकान नहीं वरन्, प्रसन्नता प्राप्त होती है। मन में प्राण का बाहुल्य हो तो मस्तिष्क की उर्वरता अत्यधिक बढ़ जाती है। स्मरण शक्ति, सूझ बूझ, कुशाग्रता बुद्धिमत्ता तुलनात्मक निर्णय क्षमता एकाग्रता जैसी विशेषतायें उत्पन्न हो जाती हैं। अध्यात्म क्षेत्र में इस महत्ता का संचार होने पर व्यक्ति में शौर्य, साहस, अभय एवं सन्मार्ग पर निरन्तर चलते रहने का पुरुषार्थ उत्पन्न हो जाता है।

यह प्राण शक्ति ही प्राणी की विशेषता है, यही उसकी वास्तविक सम्पत्ति है। इसी के मूल्य पर भौतिक समृद्धियाँ एवं सफलतायें मिलती हैं। इसलिये यह कहना उचित ही है कि जिसके पास जितनी प्राण शक्ति है वह उतनी ही मात्रा में जीवन संग्राम में विजय वरण करता है, उतना ही यशस्वी बनता है। प्राण का उपार्जन ही समस्त सम्पत्तियों की अधिपति महा सम्पत्ति का उपार्जन करना है। यह महा सम्पत्ति जिसके पास जितनी मात्रा में होती है वह उतना ही अपने अभीष्ट लक्ष्य में सफल होता चला जाता है। प्राणवान व्यक्ति भले ही डाकू, तस्कर, ठग, शासक, नेता, वैज्ञानिक, अध्येता, व्यापारी, कृषक, सैनिक, महात्मा आदि कोई भी क्यों न हो, अपने प्रयोजन में असाधारण सफलता प्राप्त करेगा। अपनी दिशा में उन्नति के शिखर पर अवस्थित दिखाई देगा। अस्तु इस प्राण की सभी को आवश्यकता रहती है। यह बात अलग है कि कौन उसके लिए प्रयत्न करता है और कौन हाथ पर हाथ रखे बैठा रहता है, किसे उसको प्राप्त करने का मार्ग विदित है और कौन उससे अपरिचित रह रहा है।

गायत्री महामंत्र का प्रमुख उद्देश्य प्राण शक्ति को उपलब्ध करना ही है। उसकी उपासना यदि ठीक प्रकार से की जाय तो उपासक में प्राण शक्ति की अभिवृद्धि शीघ्र ही होने लगती है और वह इस अभिवर्धन के आधार पर कई तरह की सफलतायें प्राप्त करने लगता है। कहने वाले इस गायत्री माता का अनुग्रह, आशीर्वाद कहते हैं, पर वस्तुतः होता यह है कि उस उपासना से साधक में प्राण शक्ति विकसित होती चली जाती है। उससे उसके व्यक्तित्व में कई प्रकार से सुधार परिवर्तन होते हैं, कई तरह के आकर्षण बढ़ते हैं, फलस्वरूप कठिनाईयों के अवरोध कार्य में से हटते हैं और सफलताओं का पथ प्रशस्त होता है।

यह आन्तरिक परिवर्तन बहुत ही सूक्ष्म होता है, इसलिए वह मोटे तौर पर दिखाई नहीं देता, पर थोड़ा गम्भीरता पूर्वक निरीक्षण करने से कितनी ही विशेषतायें गायत्री उपासना में संलग्न व्यक्ति में दीख पड़ती हैं। प्रगति का आधार मनुष्य का विकसित व्यक्तित्व ही है। देवता किसी की भौतिक सहायता नहीं करते, वे व्यक्ति में दीख पड़ती हैं। प्रगति का आधार मनुष्य का विकसित व्यक्तित्व ही है। देवता किसी की भौतिक सहायता नहीं करते, वे व्यक्ति के व्यक्तित्व में कुछ ऐसे सुधार कर देते हैं, जिससे वह सफलता पर सफलता प्राप्त करता हुआ, अभीष्ट प्रयोजन की दिशा में तेजी से आगे बढ़ता चला जाता है। गायत्री की उपासना वस्तुतः प्राण शक्ति की ही उपासना है। जिसे जितना प्राणबल उपलब्ध हो गया समझना चाहिए, उसकी उपासना उतने ही अंशों में सफल हो गई।

गायत्री का देवता सविता है। सविता का भौतिक स्वरूप रोशनी और गर्मी देने अग्रि पिण्ड के रूप में परिलक्षित होता है पर उसकी सूक्ष्म सत्ता-प्राण शक्ति से ओत-प्रोत है। वनस्पति, कृमि, कीट, पशु-पक्षी जलचर, थलचर और नभचर वर्गों के समस्त प्राणी सविता देवता द्वारा निरन्तर प्रसारित प्राण शक्ति के द्वारा ही जीवन धारण करते हैं। वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि इस जगती पर जो भी जीवन के चिह्न हैं, वे सूक्ष्म विकिरण शीलता के ही प्रतिफल हैं। सावित्री उस प्राणवान सविता देवता की अधिष्ठात्री है। उसकी स्थिति के अनन्त प्राण शक्ति के रूप में आँका जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

यह विश्वव्यायी प्राणशक्ति जहाँ जितनी अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती है वहाँ उतनी ही सजीवता दिखाई देने लगती है। मनुष्य में इस प्राण तत्त्व का बाहुल्य ही उसे अन्य प्राणियों से अधिक विचारवान् बुद्धिमान, गुणवान्, सामर्थ्यवान एवं सुसभ्य बना सका है। इस महान शक्ति पुंज का प्रकृति प्रदत्त उपयोग करने तक का ही सीमित रहा जाय तो केवल शरीर यात्रा ही संभव हो सकती है और अधिकांश नरपशुओं की तरह केवल सामान्य जीवन ही जिया जा सकता है, पर यदि और किसी प्रकार अधिक मात्रा में बढ़ाया जा सके तो गई गुजरी स्थिति में ऊँचे उठकर उन्नति के उच्चशिखर तक पहुँच सकना संभव हो सकता है।
 
गायत्री महामन्त्र में वही प्रक्रिया या तत्त्वज्ञान सन्निहित है। जो विधिवत् उसका आश्रय ग्रहण करता है, उसे तत्काल अपनी समग्र जीवनी शक्ति का अभिवर्धन होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। जितना ही प्रकाश बढ़ता है, उतना ही अन्धकार दूर होता है, इसी प्रकार आन्तरिक समर्थता बढ़ने के साथ-साथ जीवन को दुख दारिद्र का और घर व संसार को भवसागर के रूप में दिखाने वाले नाटकीय वातावरण से भी मुक्ति मिलती है।

गायत्री मन्त्र का नामकरण उसकी इसी विशेषता के आधार पर हुआ है, गायत्री शब्द के तीन अक्षरों में यही भावार्थ ओत-प्रोत है।

शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है-


सा हैषा गयांस्तत्रे प्राणाः व गयास्तत्प्राणांस्तत्रे। तद्यद गायांस्तत्रे तस्याद् गायत्री नाम।

 
अर्थात् गय कहते हैं प्राण को। त्री अर्थात् त्राण, रक्षण करने वाली, जो प्राण की रक्षा करे उस शक्ति का नाम गायत्री हुआ।
और भी देखिये-


गयाः प्राणा उच्यन्ते, गयान् प्राणान् त्रायते सा गायत्री।


-सन्ध्या भाष्य

 
‘गय’ प्राण को कहते हैं, जो प्राणों की रक्षा करे उसे गायत्री कहते हैं।

गायन्तं त्रायते इति वा गायत्री प्रोच्यते तस्मात् गायन्तं त्रायते यत।


याज्ञवल्क्य


प्राणों का संरक्षण करने वाली होने से उसे गायत्री कहा जाता है।


गायतस्त्रायसे देवि दत्गायत्रीति गद्यसे।
गयः प्राण इति प्रोक्तस्तत्त्राणादपीति वा।


नारद


‘‘जो गाने से त्राण (रक्षा) करे वह देवी गायत्री कही जाती है, अथवा जो गय अर्थात् प्राणों का त्राण करने वाली है वह गायत्री है।’’


गातारं त्रायते यस्माद् गायत्री तेन गीयते।


स्कन्द पुराण 9।51


गायन करने वाले को त्राण उद्धार करती है, इसलिए उसे गायत्री कहते हैं।


तेषाएते पञ्च ब्रह्मपुरुषा स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपाला: एतानेव पंचब्रह्म पुरुषान् स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपालान् वेदास्य कुले वीरो जायते प्रतिपद्यते स्वर्गलोकम्।


हृदय की चैतन्य ज्योति गायत्री-ब्रह्म रूप है। उस तक पहुँचने के लिए प्राण ध्यान, अपान, समान उदान ये पाँच प्राण द्वारपाल हैं। इनको वश में करना चाहिए, जिसके कि हृदयस्थित गायत्री रूप बह्म की प्राप्ति सम्भव हो सके। इस क्रिया से उपासना करने वाले को स्वर्ग सुख प्राप्त होता है और उसकी कुल परम्परा में वीर जन उत्पन्न होते हैं।


‘गा’ चेति सर्वगा शक्ति, ‘यत्री’ तत्र नियन्त्रिका।


अर्थात् ‘गा’ शब्द यह सर्व गायत्री शक्ति का बोधक है। उस शक्ति को जो नियन्त्रित करने वाली सत्ता है उसे ‘यत्री’ कहना चाहिए। गायत्री अर्थात् सर्वव्यापी परा और अपरा प्रकृति पर नियन्त्रण करने वाली आत्म चेतना।

गायत्री मंत्र के शब्दार्थ से प्रकट है कि यह मनुष्य में सन्निहिति प्राणतत्त्व का अभिवर्धन, उन्नयन करने की विद्या है। ‘गय’ अर्थात् प्राण। ‘त्री’ अर्थात् त्राण करने वाली जो प्राणों का परित्राण, उद्धार संरक्षण करें वह गायत्री। मंत्र शब्द का अर्थ-मनन, विज्ञान, विद्या, विचार होता है। गायत्री मंत्र अर्थात् प्राणों का परित्राण करने की विद्या।
गायत्री मंत्र का दूसरा नाम ‘तारक तंत्र’ भी है। साधना ग्रन्थों में उसका उल्लेख तारक तंत्र के नाम से भी हुआ है। तारक अर्थात् पार कर देने वाला। तैरा कर पार निकाल देने वाला। गहरे जल प्रवाह को पार करके निकल जाने को-डूबते हुए बचा लेने को तारना कहते हैं। यह भवसागर ऐसा ही है, जिसमें अधिकांश जीव डूबते हैं। तरते तो कोई विरले हैं।

जिस साधन से तरना संभव हो सके उसे ‘तारक’ कहा जाएगा। गायत्री मंत्र में यह सामर्थ्य है उसी से उसे ‘तारक मंत्र’ कहा जाता है।
प्राण-शक्ति की न्यूनता होने पर प्राणी समुचित पराक्रम कर सकने में असमर्थ रहता है और उसे अधूरी मंजिल में ही निराश एवं असफल हो जाना पड़ता है। क्या भौतिक, क्या आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में अभीष्ट सफलता के लिए आवश्यक सामर्थ्य की जरूरत पड़ती है। इसके बिना प्रयोजन को पूर्ण कर सकना, लक्ष्य को प्राप्त कर सकना असंभव है। इसलिए कोई महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक साधन जुटाना आवश्यक होता है। कहना न होगा कि भौतिक उपकरणों की अपेक्षा व्यक्तिगत की प्रखरता एवं ओजस्विता कहीं अधिक आवश्यक है।

गायत्री का उपयोग करने के लिए भी शौर्य, साहस और सन्तुलन चाहिए। बढ़िया बन्दूक हाथ में है, पर मन में भीरुता, घबराहट भरी रहे तो वह बेचारी बन्दूक क्या करेगी। चलेगी ही नहीं, चल भी गई तो निशाना ठीक नहीं लगेगा, दुश्मन सहज ही उससे इस बन्दूक को छीन कर उल्टा आक्रमण कर बैठेगा। इसके विपरीत साहसी लोग छत पर पड़ी ईंटों से और लाठियों से डाकुओं का मुकाबला कर लेते हैं। साहस वालों की ईश्वर सहायता करता है, यह उक्ति निरर्थक नहीं है। सच तो यही है कि समस्त सफलताओं के मूल प्राण में प्राण-शक्ति ही साहस, जीवट, दृढ़ता, लगन, तत्परता की प्रमुख भूमिका सम्पादन करती है और यह सभी विभूतियाँ प्राण-शक्ति की सहचरी हैं।

प्राण ही वह तेज है जो दीपक के तेल की तरह मनुष्य के नेत्रों में, वाणी में, गतिविधयों में, भाव-भंगिमाओं में, बुद्धि में, विचारों में प्रकाश बन कर चमकता है- मानव जीवन की वास्तविक शक्ति यही है। इस एक ही विशेषता के होने पर अन्यान्य अनुकूलताएँ तथा सुविधाएँ स्वयमेव उत्पन्न, एकत्रित एवं आकर्षित होती चली जाती है। जिसके पास यह विभूति नहीं उस दुर्बल व्यक्तित्व वाले सम्पत्तियों को दूसरे बलवान् लोग अपहरण कर ले जाते हैं। घोड़ा अनाड़ी सवार को पटक देता है। कमजोर की सम्पदा, जर, जोरू, जमीन दूसरे के अधिकार में चली जाती है।
जिसमें संरक्षण की सामर्थ्य नहीं वह उपार्जित सम्पदाओं को भी अपने पास बनाये नहीं रख सकता। विभूतियाँ दुर्बल के पास नहीं रहती। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए विचारशील लोगों को अपनी समर्थता-प्राण-शक्ति बनाये रखने तथा बढ़ाने के लिए भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रयत्न करने पड़ते हैं। आध्यात्मिक प्रयत्नों में प्राण-शक्ति के अभिवर्धन की सर्वोच्च प्रक्रिया गायत्री उपासना को माना गया है। उसका नामकरण इसी आधार पर हुआ है।

शरीर में प्राण-शक्ति ही नीरोगिता, दीर्घजीवन, पुष्टि एवं लावण्य के रूप में चमकती है। मन में वहीं बुद्धिमता, मेधा, प्रज्ञा के रूप में प्रतिष्ठित रहती है। शौर्य, साहस, निष्ठा, दृढ़ता, लगन, संयम, सहृदयता, सज्जनता, दूरदर्शिता एवं विवेकशीलता के रूप व प्राण-शक्ति की ही स्थिति आँकी जाती है। व्यक्तित्व की समग्र तेजस्विता का आधार यह प्राण ही हैं, शास्त्रकारों ने इसकी महिमा को कण्ठ से गाया है और जन-साधारण को इस सृष्टि की सर्वोत्तम प्रखरता का परिचय कराते हुए बताया है कि वे भूले न रहें, इस शक्ति-स्रोत्र को, इस भाण्डागार को ध्यान में रखें और यदि जीवन लक्ष्य में सफलता प्राप्त करनी हो तो इस तत्त्व को उपार्जित, विकसित करने का प्रयत्न करें।

प्राणवान् बनें और अपनी विभिन्न शक्तियों में प्रखरता उत्पन्न होने के कारण पग-पग पर अद्भुत सफलताएँ-सिद्धियाँ मिलने का चमत्कार देखें। प्राण की न्यूनता ही समस्त विपत्तियों का, अभावों और शोक-सन्तापों का कारण है। दुर्बल पर हर दिशा में आक्रमण होता है। दैव भी दुर्बल का घातक होता है। भाग्य भी उसका साथ नहीं देता। मृत-लाश पर जैसे चील, कौए दौड़ पड़ते हैं, वैसे ही हीनसत्व मनुष्य पर विपत्तियाँ टूट पड़ती हैं। इसलिए हर बुद्धिमान को प्राण का आश्रय लेना ही चाहिए।


प्राणो वै बलम्। प्राणो वै अमृतम्। आयु: प्राण:। प्राणो वै सम्राट्।


बृहदारण्यक 5.14.4


प्राण ही बल है, प्राण ही अमृत है। प्राण की आयु है। प्राण ही राजा है।


यो वै प्राण: सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राण:।


कौ. 3.3


जो प्राण है, सो ही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है, सो ही प्राण है।


यावद्ध्यस्मिन् शरीरे प्राणो वसति तावदायु:।


कौषीतकि


जब तक इस शरीर में प्राण है तभी तक जीवन है,


प्राणो वै सुशर्मा सुप्रतिष्ठान:।


शतपथ ब्राह्मण 4.4.1,14


प्राण ही इस शरीर रूपी नौका की सुप्रतिष्ठा है।


एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामहि देहिषु
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत्सदा।।


प्राण, अर्थ, बुद्धि और वाणी द्वारा केवल श्रेय का ही आचरण करना देहधारियों का इस देह में जन्मसाफल्य है।


या ते तनूर्वाचि प्रतिष्ठिता या श्रोत्रे या च चक्षुषि।
या च मनसि सन्तताशिवां तां कुरुमोत्क्रमी:।।


प्रश्रो. 2.12


हे प्राण ! जो तेरा रूप वाणी में निहित है तथा जो श्रोतों, नेत्रों तथा मन में निहित है, उसे कल्याणकारी बना, तू हमारे देह से बाहर जाने की चेष्टा मत कर।


प्राणस्येदं वशे सर्वं त्रिदिवे यत् प्रतिष्ठितम्।
मातेव पुत्रान् रक्षस्व श्रीश्र्च प्रज्ञां च विधेहि न इति।।


प्रश्रो. 2.13


हे प्राण ! यह विश्व और स्वर्ग में स्थित जो कुछ है, वह सब आपके ही आश्रित है। अत: हे प्राण ! तू माता-पिता के समान हमारा रक्षक बन, हमें धन और बुद्धि दे।


सं क्रामतं मा जहीतं शरीरं, प्राणापानौ ते सयुजाविह स्ताम्।
शतं जीव शरदो वर्धमानोऽग्निष्टे गोपा अधिपा वसिष्ठ:।।


अथर्व. 7-53-2


हे प्राण ! हे अपान ! इस देह को तुम मत छोड़ना। मिल-जुलकर इसी में रहना। तभी यह देह शतायु होगी।
व्यक्ति का व्यक्तित्व ही नहीं इस सृष्टि का कण-कण इस प्राण शक्ति की ज्योति में ज्योतिर्मय हो रहा है। जहाँ जितना जीवन है, प्रकाश है, उत्साह है, आनन्द है, सौन्दर्य है वहाँ उतना ही प्राण की मात्रा विद्यमान समझनी चाहिए। उत्पादन शक्ति और किसी में नहीं केवल प्राण में ही है। जो भी प्रादुर्भाव, सृजन, अविष्कार, निर्माण, विकास-क्रम चल रहा है, उसके मूल में यही परब्रह्म की परम चेतना काम करती है। जड़ पंचतत्त्वों के चैतन्य की तरह सक्रिय रहने का आधार यह प्राण ही है। परमाणु उसी से सामर्थ्य ग्रहण करते हैं और उसी की प्रेरणा से अपनी धुरी तथा कक्षा में हैं। विश्व ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रह, नक्षत्रों की गतिविधियाँ इसी प्रेरणा शक्ति से प्रेरित हैं। कहा भी है-


प्राणाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते।
प्राणेन जातानि जीवन्ति। प्राणं प्रयत्नयभिसंविशन्तीति।

तैत्तरीय/भृगुवल्ली 3

प्राण शक्ति से ही समस्त प्राणी पैदा होते हैं। पैदा होने पर प्राण से ही जीते हैं और अन्तत: प्राण में ही प्रवेश कर जाते हैं।


सर्वाणि ह वा इमानि भूतानि प्राणमेवा-
भिसंविशन्ति प्राणमभ्युज्ज्हिते।।


छान्दोग्य. 1.11.5


यह सब प्राणी, प्राण में ही उत्पन्न होते हैं और प्राण में ही लीन हो जाते हैं।



तेन संसारचक्रेऽस्मिन् भ्रमतीत्येव सर्वदा।
तदर्थं ये प्रवर्तन्ते योगिन: प्राण धारणे।।
तत एवाखिला नाडी निरुद्ध चाष्टवेष्टनम्।
इयं कुण्डलिनी शक्तीरन्ध्रं त्यजति नान्यथा।।


योगी गोरखनाथ


प्राण वायु के कारण जीव समूह इस संसार-क्रम में निरन्तर भ्रमण करता है। योगी लोग दीर्घ-जीवन प्राप्त करने के लिए इस वायु को स्थिर करते हैं। इसके अभ्यास से नाड़ियाँ पुन: कामादि अष्टदोष से दूषित नहीं हो पातीं। नाड़ी शुद्ध होने पर कुण्डलिनी शक्ति अपने रन्ध्र को छोड़ देती है, अन्यथा नहीं छोड़ती।



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