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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री साधना क्यों और कैसे

गायत्री साधना क्यों और कैसे

डॉ. प्रणय पण्डया

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4119
आईएसबीएन :00000

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गायत्री साधना क्यों और कैसे

Gayatri Sadhana Kyon Aur Kaise

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गायत्री साधना क्यों और कैसे ?

आदिशक्ति, वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता के रूप में गायत्री का परिचय

गायत्री परमात्मा की वह इच्छा शक्ति है, जिसके कारण सारी सृष्टि चल रही है। छोटे से परमाणु से लेकर विश्व-ब्रह्माण्ड तक व नदी-पर्वतों से लेकर पृथ्वी, चाँद व सूर्य तक सभी उसी की शक्ति के प्रभाव से गतिशील हैं। वृक्ष-वनस्पतियों में जीवन की तरंगें उसी के कारण उठ रही हैं। अन्य प्राणियों में उसका उतना ही अंश मौजूद है, जिससे कि उनका काम आसानी से चल सके। मनुष्य में उसकी हाजिरी सामान्य रूप से मस्तिष्क में बुद्धि के रूप में होती है। अपने जीवन निर्वाह और सुख-सुविधा बढ़ाने का काम वह इसी के सहारे पूरा करता है। असामान्य रूप में यह ‘ऋतम्भरा प्रज्ञा’ अर्थात सद्बुद्धि के रूप में प्रकट होती है।

जो उसे सही गलत की समझ देकर जीवन लक्ष्य के रास्ते पर आगे बढ़ाती है। आम तौर पर यह मनुष्य के दिलो दिमाग की गहराई में सोई रहती है। इसको जिस विधि से जगाया जाता है, उसको ‘साधना’ कहते हैं। इसके जागने पर मनुष्य का संबंध ईश्वरीय शक्ति से जुड़ जाता है।

स्वयं परमात्मा तो मूलरूप में निराकार है, सबकुछ तटस्थ भाव से देखते हुए शान्त अवस्था में रहते हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में जब उनकी इच्छा एक से अनेक होने की हुई, तो उनकी यह चाहना व इच्छा एक शक्ति बन गई। इसी के सहारे यह सारी सृष्टि बनकर खड़ी हो गई। सृष्टि को बनाने वाली प्रारम्भिक शक्ति होने के कारण इसे ‘आदिशक्ति’ कहा गया। पूरी विश्व व्यवस्था के पीछे और अंदर जो एक संतुलन और सुव्यवस्था दिख रही है, वह गायत्री शक्ति का ही काम है। इसी की प्रेरणा से विश्व-ब्रह्माण्ड का सारी हलचलें किसी विशेष उद्देश्य के साथ अपनी महायात्रा पर आगे बढ़ रही हैं।

ब्रह्माजी को सृष्टि के निर्माण और विस्तार के लिए जिस ज्ञान और क्रिया-कौशल की जरूरत पड़ी थी, वह उन्हें आदिशक्ति गायत्री की तप-साधना द्वारा ही प्राप्त हुआ था। यही ज्ञान-विज्ञान वेद कहलाया और इस रूप में आदिशक्ति का नाम वेदमाता पड़ा अर्थात् वेदों का सार गायत्री मंत्र में बीज भरा पड़ा है।

सृष्टि की व्यवस्था को संभालने व चलाने की विभिन्न देव शक्तियाँ आदिशक्ति की ही धाराएँ हैं। जैसे एक ही विद्युत-शक्ति अलग-अलग काम करने वाले यंत्रों के अनुरूप लट्टू, ट्यूब लाइट, हीटर, रेफ्रिजरेटर, कूलर आदि विभिन्न रूपों में सक्रिय दिखती है, इसी प्रकार एक ही आदिशक्ति रचना, संचालन, परिवर्तन आदि क्रियाओं के अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु, महेश, जैसी देवशक्तियों के रूप में अलग-अलग प्रतीत होती है। इसी तरह अन्य देव शक्तियाँ भी इसी की विविध धाराएँ हैं व इसी से पोषण पाती हैं। इस रूप में इसे देवमाता नाम से जाना जाता है। देवमाता का अनुग्रह पाने वाला सामान्य व्यक्ति भी देवतुल्य गुण व शक्ति वाला बन जाता है।

सारे विश्व की उत्पत्ति आदिशक्ति के गर्भ में हुई, अत: इसे विश्वमाता नाम से भी जाना जाता है और इस रूप में मां का कृपा पात्र व्यक्ति, विश्व मानव बनकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् पूरा विश्व अपना परिवार के उदार भाव में जीने लगता है।


गायत्री शक्ति क्या है ?-



प्राणों को तारने वाली क्षमता के कारण आदि शक्ति गायत्री कहलाई। ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथ में इस अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा गया है- ‘गयान् त्रायते सा गायत्री।’ अर्थात् जो गय (प्राण) की रक्षा करती है, वह गायत्री है। शंकराचार्य भाष्य में गायत्री शक्ति को स्पष्ट करते हुए कहा गया है- ‘गीयते तत्त्वमनया गायत्रीति’ अर्थात् जिस विवेक बुद्धि-ऋतम्भरा प्रज्ञा से वास्तविकता का ज्ञान होता है, वह गायत्री है।

सत्य और असत्य का, सही व गलत का, क्या करना, क्या न करना, इसका निर्णय सही ढंग से करने वाली सद्बुद्धि ऐसी अद्भुत शक्ति है, जिसकी तुलना में विश्व की और कोई शक्ति मनुष्य के लिए फायदेमंद नहीं। दूसरी ओर सांसारिक बुद्धि चाहे कितनी ही चतुराई भरी क्यों न हो, कितनी ही तेज, उपजाऊ और कमाऊ क्यों न हो, उससे सच्ची भलाई नहीं हो सकती और नहीं आंतरिक सुख-शान्ति के दर्शन हो सकते हैं। भोग-विलास, ऐशो आराम की थोड़ी बहुत सामग्री वह जरूर इकट्ठा कर सकती है, किन्तु इनसे चिन्ता, परेशानी, व अहंकार आदि ही बढ़ते हैं और इनका बोझ जिन्दगी को अधिक कष्टदायक बनाता है। वह थोड़ी सी बाहरी तड़क-भड़क दिखाकर भीतर की सारी शान्ति नष्ट कर देती है। जिसके कारण छोटे-मोटे अनेकों शारीरिक व मानसिक रोग पैदा हो जाते हैं, जो हर घड़ी बेचैन बनाए रखते हैं। ऐसी बुद्धि जितनी तेज होगी, उतनी ही विपत्ति का कारण बनेगी। ऐसी बुद्धि से तो मंदबुद्धि होना ही अच्छा है।

गायत्री उस बुद्धि का नाम है जो अच्छे गुण, कल्याणकारी तत्त्वों से भरी होती है। इसकी प्रेरणा से मनुष्य का शरीर और मस्तिष्क ऐसे रास्ते पर चलता है कि कदम-कदम पर कल्याण के दर्शन होते हैं। हर कदम पर आनंद का संचार होता है। हर क्रिया उसे अधिक पुष्ट, सशक्त और मजबूत बनाती है और वह दिनों दिन अधिकाधिक गुण व शक्तिवान बनता जाता है; जबकि दुर्बुद्धि से उपजे विचार और काम हमारी प्राण शक्ति को हर रोज कम करते जाते हैं। गलत आदतें, दुर्व्यसन में शरीर दिनों दिन कमजोर होता जाता है, स्वार्थ भरे विचारों से मन दिन-दिन पाप की कीचड़ में फँसता जाता है। इस तरह जिन्दगी के लोटे में कितने ही छेद हो जाते हैं, जिससे सारी कमाई हुई शक्ति नष्ट हो जाती है। वह चाहे जितनी बुद्धि दौड़ाए, नई कमाई करे; पर स्वार्थ, भय और लोभ आदि के कारण चित्त सदा दु:खी रहता है और मानसिक शक्तियाँ नष्ट होती रहती हैं।

ऐसी दुर्बुद्धि से इस अमूल्य जीवन को यूँ ही गवाँ रहे व्यक्तियों के लिए गायत्री एक प्रकाश है, एक सच्चा सहारा है, एक आशापूर्ण संदेश है, जो उनकी सद्बुद्धि को जगाकर इस दलदल से उबारता है, उनके प्राणों की रक्षा करता है व जीवन में सुख, शान्ति व आनंद का द्वारा खोल देता है।

इस तरह गायत्री कोई देवी, देवता या कल्पित शक्ति नहीं है, बल्कि परमात्मा की इच्छाशक्ति है, जो मनुष्य में सद्बुद्धि के रूप में प्रकट होकर इसके जीवन को सार्थक एवं सफल बनाती है।
जीवन व सृष्टि के रहस्यों की खोज में साधनारत ऋषियों ने ध्यान की गहराइयों में पाया कि इनके मूल में सक्रिय शक्तियाँ शब्द रूप में विद्यमान हैं। आदिशक्ति का साक्षात्कार 24 अक्षरों वाले मंत्र के रूप में हुआ, जिसका नाम इसकी प्राणरक्षक क्षमता के कारण गायत्री पड़ा। इसकी खोज का श्रेय ऋषि विश्वामित्र को जाता है।


गायत्री मंत्र के उच्चारण से दिव्य शक्तियों का जागरण-



गायत्री महामंत्र की विशेषता का भौतिक कारण इसके अक्षरों की आपसी गुन्थन, जो स्वर विज्ञान और शब्द ऐसे शास्त्र के ऐसे रहस्यमय आधार पर हुआ है कि उसके उच्चारण भर से सूक्ष्म शरीर में छिपे हुए अनेकों शक्ति केन्द्र अपने आप जाग्रत हो उठते हैं। दिव्य दृष्टि वाले ऋषियों के अनुसार सूक्ष्म शरीर में अनेकों चक्र-उपचक्र, ग्रंथियाँ-कोष, मातृकायें-उपत्यिकाएँ और सूक्ष्म नाड़ियाँ भरी पड़ी हैं, जिनके जागने पर व्यक्ति अनेकों गुण और शक्तियों का स्वामी बन जाता है।

गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों के उच्चारण से मुख, ओष्ठ, कंठ, तालु, मूर्धा आदि पर जो दबाव पड़ता है, उसके कारण ये केन्द्र वीणा की तार की तरह झंकृत हो उठते हैं और एक ऐसी स्वर लहरी उठती है कि जिसके प्रभाव से अंदर विद्यमान सूक्ष्म ग्रंथियाँ जाग्रत् होकर अपनी शक्ति को प्रकट करने लगती हैं। इस तरह साधक एक चुम्बकीय शक्ति से भरने लगता है, जो ब्रह्माण्ड में फैली गायत्री शक्ति व उसकी धाराओं को खींचकर अंदर भरने लगता है। गायत्री की शक्ति तरंगें रेडियो या दूरदर्शन प्रसारण की विद्युत-चुम्बकीय धाराओं की तरह आकाश में फैली हुई हैं। गायत्री मंत्र के उच्चारण से उत्पन्न चुम्बकत्व साधक के मन को उस स्तर पर ‘ट्यून’ कर लेता है और उनसे सम्पर्क जोड़ता है। इस तरह जो काम योगी लोग कठोर तप-साधानाओं द्वारा लम्बे समय में पूरा करते हैं, वही काम गायत्री के जप द्वारा थोड़े समय में आसानी से पूरा हो जाता है।

गायत्री मंत्र की शब्द शक्ति के साथ जब व्यक्ति की साधना द्वारा शुद्धि की हुई सूक्ष्म प्रकृति अर्थात् उसका नेक इरादा और श्रेष्ठ सोच भी मिल जाती है, तो ये दोनों कारण गायत्री शक्ति को ऐसी बलवती बनाते हैं कि यह साधकों के लिए दैवी वरदान सिद्ध होती है। गायत्री मंत्र को और भी शक्तिशाली बनाने वाला कारण साधक की श्रद्धा और विश्वास है। विश्वास की शक्ति से सभी परिचित हैं। झाड़ी को भूत, रस्सी को साँप और पत्थर को देवता बना देने की क्षमता विश्वास में है। रामायण में तुलसीदास जी ने ‘श्रद्धा-विश्वास’ की तुलना भवानी-शंकर से की है।

अत: गायत्री साधक जब श्रद्धा और विश्वास पूर्वक साधना करता है, तो शब्द शक्ति और नेक इरादे से जुड़ा गायत्री साधना का प्रभाव और भी बढ़ जाता है। तथा यह एक अद्भुत शक्ति सिद्ध होती है।

गायत्री तीन गुणों वाली शक्ति है। ह्रीं-सद्बुद्धि, श्रीं-समृद्धि और क्लीं-शक्ति प्रधान, इसकी तीन विशेष धाराएँ हैं। इन्हें गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी संगम भी कह सकते हैं। देवशक्तियों से जोड़ने पर इन्हें सरस्वती, लक्ष्मी, काली और ब्रह्मा, विष्णु, महेश रूप में जाना जाता है। वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता इसी के तीन रूप है। गायत्री साधना से सब साधक के मन, बुद्धि और भावनाओं को इस त्रिवेणी में स्नान करने का अवसर मिलता है, तो स्थिति कायाकल्प जैसी बन जाती है।


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