लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> धर्म-पथ

धर्म-पथ

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4133
आईएसबीएन :0000

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

187 पाठक हैं

नवयुग आदि आयेगा तो विचार शोधन द्वारा ही, क्रान्ति होगी तो वह लहू और लोहे से नहीं विचारों की विचारों से काट द्वारा ही होगी।

Dharam Path

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नवयुग आदि आयेगा तो विचार शोधन द्वारा ही, क्रान्ति होगी तो वह लहू और लोहे से नहीं विचारों की विचारों से काट द्वारा ही होगी। समाज का नव निर्माण होगा तो वह सद्विचारों की प्रतिष्ठापना द्वारा ही सम्भव होगा। अभी तक जितनी मलिनता समाज में प्रविष्ट हुई है, वह बुद्धिमानों के माध्यम से ही हुई है। द्वेष-कलह, नस्लवाद, व्यापक नर-संहार जैसे कार्यों में बुद्धिमानों ने ही अग्रणी भूमिका निभाई है। यदि वे सन्मार्गगामी होते, उनके अन्तःकरण पवित्र होते, तप ऊर्जा का सम्बल उन्हें मिला होता तो उन्होंने विधेयात्मक विज्ञान प्रवाह को जन्म दिया होता, सत्साहित्य रचा होता, ऐसे आन्दोलन चलाए होते। यह भी मनीषा के एक मोड़ की परिणति है ऐसे मोड़ की जो सही दिशा में होता तो ऐसे समर्थ सम्पन्न राष्ट्र को कहाँ से कहाँ ले जाता।

धर्म-सार

इतिहास बताता है कि विश्व में सबसे ज्यादा झगड़े अगर किसी कारण हुए हैं तो वह धर्म है। वर्तमान में सबसे ज्यादा झगड़े-फसाद जिसके कारण होते हैं, तो वह धर्म ही है। सारी मानव जाति सबसे ज्यादा श्रद्धा-आस्था अगर किसी के प्रति रखती है, तो व धर्म ही है और सबसे ज्यादा पुनीति एवं सबसे ज्यादा पवित्र अगर किसी को मानती है, तो वह धर्म ही है। दुनिया भर में जिसके नाम पर दान-पुण्य होता है, वह भी धर्म ही है और विश्व भर में सबसे ज्यादा अगर किसी विषय पर चर्चा होती है, तो वह भी धर्म ही है और आज के आधुनिक युग में सबसे ज्यादा कत्लेआम अगर किसी के नाम पर होता है, तो वह भी धर्म ही है।

वह बात दूसरी है कि यह सब कुछ धर्म की आड़ में होता है। यह सब धर्म की शाखाएं, जिन्हें संप्रदाय कहा जाता है, उनके मानने वाले लोग करते हैं, जिसे शुद्ध रूप में सांप्रदायिकता कहा जाना चाहिए यहाँ पर लोगों को यह बात याद रखनी चाहिए कि कोई संप्रदाय, धर्म ही नहीं हो सकता है, और धर्म के नाम पर लड़ने-लड़ाने, मरने-मारने वाले धार्मिक नहीं हो सकतें, उन्हें साम्प्रदायिक कहना ही उचित होगा। धर्म और संप्रदाय में उतना ही अंतर है, जितना कि सागर और नदी में होता है, लेकिन धर्म के नाम पर झगड़े-फसाद, सामूहिक कत्लेआम एक ऐसी सच्चाई है जिसे हर इंसान को स्वीकार करना ही पड़ेगा, किन्तु आदमी इसे स्वीकार करते हुए शर्मिदा होता है।

बाबूजूद इसके पता नहीं क्या कारण है कि लोग न तो धर्म की सच्चाई जानने की कोशिश कर रहे हैं और न ही उसका पीछा छोड़ने को तैयार हैं। इतना ही नहीं, धर्म के विरोध में एक भी शब्द सुनने को तैयार नहीं है। आज भी लोगों के मन में वैसी ही श्रद्धा कायम है, जैसी कि हजारों-हजार साल पहले थी। लोगों की धर्म के प्रति श्रद्धा में कुछ कमी आएगी यह कहना बहुत मुश्किल है। लोग अपने धर्म के प्रति कितने भावुक और श्रद्धावान हैं इसका अंदाजा इसी  बात से लगाया जा सकता है कि तथाकथित धर्म के ठेकेदार, धर्म के विरोध में लिखने वाले अपने ही बंधुओं को कत्ल करने तक की छूट दे देते हैं, और उनकी हत्या करवाने के लिए लोगों को आदेश देते हैं। लेकिन फिर भी धर्म-धर्म है। यह उनका धर्म हो सकता है, जैसा कि विश्वास होता है। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती है कि यह कैसा धर्म है-जो अपने विरुद्ध जरा सी बात भी सहन नहीं कर सकता ? यह कैसा धर्म है, जो अपने आपको जरा भी बदलना नहीं चाहता, बल्कि बदलाव चाहने वाले व्यक्ति को ही उल्टे समाप्त कर देना चाहता है ? धर्म की ऐसी वीभत्स सोच देखकर तो लगता है कि यह तो धर्म कदापि नहीं हो सकता है। यह तो कुछ और ही है, जो धर्म की आड़ में धर्म को कलंकित करने पर तुला हुआ है। धर्म तो सारी मानवता का कल्याण चाहता है। धर्म तो अपने विरोधी तक को हंसकर गले लगाता है। धर्म वह होता है, जो दुश्मन को भी कहता है, कि दोस्त ! अगर तुम मुझे मारना ही चाहते हो, तो अवश्य मारना लेकिन मेरे साथ हंसकर जरा दो बातें कर लो, उसके बाद तुम अपना काम कर लेना।


ऐसा होता है धर्म कहता है- इस प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जगत में जड़-चेतन का तुच्छ से तुच्छ अंश भी ऐसा नहीं है, जिसके लिए क्रोध किया जा सके। बल्कि इस जगत का हर अंश उतने ही प्रेम का हकदार है, उतनी ममता का हकदार है, जितना कि ईश्वर। अगर उस अंश को हमारे द्वारा प्यार नहीं किया जाता, उसके प्रति करुणा ममता नहीं दर्शायी जाती तो यह सरासर अन्याय ही होगाः-


सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रति गच्छति।



वास्तव में धर्म का ही रूप है और वह है, सारी दृष्टि का कल्याण। सारी मानवता की निर्लिप्त भाव से सेवा और सहानुभूति। यह जीवन सारा का सारा उसी का है। इसमें अपने लिए, कुछ भी नहीं, अगर हम धर्म के अंदर प्रविष्ट हो जाएं तो जीवन का हर क्षण धर्म बन सकता है। धर्म हमारी आत्मा बन सकती है, धर्म हमारा शरीर बन सकता है, धर्म हमारी बुद्धि बन सकती है, धर्म हमारा मन बन सकता है और हम स्वयं धर्म बन सकते हैं, बशर्ते हम धर्म को धारण करें। अगर हम धर्म को धारण नहीं करते हैं, तो धर्म हमारा परित्याग कर देता है, हम धर्म विहीन हो जाते हैं, और धर्म विहीन जीवन, अस्तित्व विहीन कर देता हैः-

 
धर्म एव हतोहन्ति, धर्मों रक्षति रक्षतः।


धर्म-कथा



प्रत्येक छोटी सी वस्तु के पृष्ठ भाग में एक वृहत् भंडार होता है-बूँद के पीछे समुद्र, बीज के पीछे पेड़, पैसे के पीछे टकसाल। और यह सच्चाई भी है। इसे नकारा नहीं जा सकता है। जब यह सच्चाई है, तो फिर क्या हमारे जीवंत-जागृत जीवन को मानवीय गौरव-गरिमा के गुणों से परिपूर्ण करने वाले ज्ञान के पीछे कुछ नहीं है ? किसी दुखित-पीड़ित व्यक्ति को देखकर अचानक जो करुणा-ममता की दिव्य ज्योति कभी-कभी हमारे अंतःकरण में देदीप्यमान हो उठती है क्या उसका सूर्य कोई नहीं है ? समस्त मानवता को देवतुल्य समस्त सृष्टि को स्वर्गमय बनाने की जो महान प्रेरणाएं हमारे हृदय में उदित होती रहती हैं क्या उनका महान भंडार कोई नहीं है ? मनोजगत में जो तुच्छ से महान बनने और समस्त सृष्टि को सुंदरतम बनाने की प्रेरणाएँ अनुभूतियाँ प्रवाहित हो उठती हैं क्या उनका कोई आधार ही नहीं है ? ऐसे ढेरों प्रश्न अनायास मानव-मन में कौंधते रहते हैं।

 वास्तव में बात ऐसी नहीं है। ज्ञान की एक छोटी सी किरण के पीछे भी एक विशाल कल्पतरु, असीम भंडार, अक्षय समुद्र लहरा रहा है। यह हमारा जीवन उसी से धन्य हो रहा है, उसी से अपनी ऊर्जा प्राप्त कर रहा है। हमारे जीवन का ज्ञान न तो लावारिस है और न ही अनाथ या अनायास मिला हुआ है, बल्कि हमारे जीवन का ज्ञान हमारे जीवन के सारे क्रिया-कलाप एक नियम बद्धता से संचालित हो रहे है हैं और एक सत्ता से संचालित हो रहे हैं। वह सत्ता है ईश्वर। उसी को हमने ईश्नरीय ज्ञान के नाम से पुकारा है, उसी को ईश्वरीय ज्ञान कहा है और उसी को हमने धर्म कहा है। प्रत्येक आत्मा ईश्वरीय ज्ञान की ही एक नन्हीं किरण है, जो निरंतर ज्ञान के महासूर्य धर्म की ओर अग्रसर होने को लालायित रहती है। सृष्टि का प्रत्यक्ष–अप्रत्यक्ष जीवन उसी महासूर्य की एक झलक पाने, थोड़ा सा भी पयपान करने की आशा लेकर ही धरा पर आया है और यही हमारे जीवन का भी सार है।

धर्म को शास्त्रीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो ‘धृ’ धातु में ‘मन’ कृदंत लगाकर ‘धर्म’ शब्द बना है। इसका अर्थ होता है- धारण किए जाने वाला, आचरण किए जाने योग्य।’ धार्यते जनैरिति धर्मः ‘मनुष्यों द्वारा जिसे आचरण में लाया जाए, वही धर्म कहलाता है। धर्म को धारण करने वाला, धर्म का अपने जीवन में अचारण करने वाला, धर्म के आधार पर अपने जीवन को जीने वाला व्यक्ति धार्मिक कहलाता है। इस दृष्टि  से धर्म वह होगा जिसका आचरण करने से, जिसको धारण करने से मनुष्य-जीवन सुव्यवस्थित रूप से चलता रहे व जिसके अनुसार चलने से मनुष्य अपने निर्दिष्ट लक्ष्यानुसार जीवन विर्वाह करता हुआ अपने जीवन को सार्थक बनावे।

भगवान ने जब मनुष्य को बनाया तो उसकी मनुष्य मात्र से यह अपेक्षा थी कि अपना स्वयं का ऐसा मर्यादापूर्ण आदर्श जीवन बनाए जिससे स्वयं उसका जीवन तो सफल हो ही साथ ही जिस परिवार, जिस समाज व जिस युग में वह है उस परिवार, समाज व युग को भी अपने कृत्यों, अपने आचरणों से सुव्यवस्थित बनाए रख सके। इस दृष्टि से धर्म का लक्ष्य मनुष्य में शिवत्व का विकास करना है। स्वामी विवेकानंद ने ‘राजयोग की  टीका’ नामक पुस्तक में बताया है कि धर्म का लक्ष्य मनुष्य में देवत्व या ईश्वरत्व की उपलब्धि ही है। धरती का हर मनुष्य इस तरह का आचरण करे कि उसका जीवन  सुव्यवस्थित, सुनियोजित बना रहे वह अपने कर्तव्य पथ पर चलता रहे धर्म के विपरीत आचरण, व्यवहार न करे, तो वह देवत्व तक स्वयंमेव पहुँच सकता है।

मनुष्य का विकास एवं अभ्युदय तो धर्म का ‘व्यष्टि परक’ तत्व है। धर्म का समष्टिपरक स्वरूप भी निर्धारित है। यदि हर मनुष्य धर्म द्वारा निर्धारित रीति से आचरण करे, अस्तेय, अपरिग्रह अहिंसा जैसे सद्गुणों को अपने जीवन में अंगीकृत कर ले तो मनुष्य का यह व्यष्टिपरक गुण ही समष्टिपरक हो जाता है। जब-सब मनुष्य धर्मानुकूल आचरण करने लगेंगे तो फिर कहीं कोई धर्म विपरीत आचरण न  होने से ‘‘यही धर्म’’ समष्टिपरक बन जाएगा इसलिए तो हमारे ऋषि मुनियों की यह मान्यता रही है कि यदि व्यक्ति सुधर जाए तो समाज भी बदल जाए। व्यक्ति से ही समाज बनता है, व्यष्टि से ही समष्टि बनती है अतः यदि व्यक्ति अपने आपको धर्मनिष्ठ बना ले तो पूरा समाज व युग भी धर्मनिष्ठ ही बन जाएगा। यही धर्म का लक्ष्य भी है- व्यष्टि रूप में मनुष्य देवतुल्य बने व समष्टि रूप में यह धरती ही स्वर्ग बन जाए।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book