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आचार्य श्रीराम शर्मा >> वानप्रस्थ संस्कार विवेचन

वानप्रस्थ संस्कार विवेचन

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :24
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4137
आईएसबीएन :0000

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वानप्रस्थ संस्कार विवेचन....

Vanpristh Sanskar Vivechan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वानप्रस्थ संस्कार विवेचन

जन्म और मरण की अवधि में दो बार संचय काल
और दो बार उपयोग-काल आता है। बालकपन और
बुढ़ापा संचय-काल है और यौवन तथा परलोक-भोग
उपयोग काल है। संचय की अवधि में जो इकट्ठा कर लिया जाता है, उपभोग-काल में उसी का आनन्द उपलब्ध होता है। बचपन में विद्याध्ययन एवं व्यायाम आदि के द्वारा जो शारीरिक मानसिक बल उपार्जित किया जाता है, उसी का सत्परिणाम यौवन काल में वैभव एवं आनन्द के रूप में उपभोग करने को मिलता है।

बचपन का श्रम यौवन में लाभदायक


जिन्होंने बचपन में परिश्रमपूर्वक पढ़ाई जारी रखी, उच्च शिक्षा प्राप्त की, अच्छी श्रेणी में उर्त्तीण हुए, कला-कौशल सीखी, वे अपने उस अध्ययन-तप का लाभ युवावस्था में उठाते हैं। अपनी बौद्धिक क्षमता बढ़ी-चढ़ी होने के कारण अच्छा व्यवसाय, अच्छी नौकरी, अच्छा काम मिल जाता है। अच्छी आमदनी होती है। प्रतिष्ठा का पद मिलता है। इन उपलब्धियों के फलस्वरूप वे शौक-मौज के, ऐश-आराम के, गौरव-सम्मान के अनेकानेक साधन जुटा लेते हैं। स्वयं मौज में रहते हैं, अपने घर वालों को मौज में रखते हैं तथा दूसरों का भी कुछ भला कर लेते हैं।

वृद्धावस्था और मरणोत्तर जीवन


इसी प्रकार जिनने व्यायाम, ब्रह्मचर्य, आहार-विहार के संयम द्वारा अपना स्वास्थ्य बना लिया, वे सदा निरोग रहते हैं, बहुत दिन जीते हैं, परिपुष्ट रहने से जीवन इन्द्रिय सुख भी भोगते हैं। अच्छी नींद सोते और हँसी-खुशी के दिन बिताते हैं। पुष्ट शरीर से काम भी खूब होता है और विरोधी भी डरते रहते हैं। जो खाते हैं, वही पच जाता है।
बीमारियों की व्याथायें नहीं सहनी पड़तीं, सन्तानें स्वस्थ होती हैं और दवा-दारू का खर्च नहीं करना पड़ता। तात्पर्य यह है कि जिसने बचपन में स्वस्थ रहने की तपश्चर्या कर ली, वह उसका लाभ जवानी में उठाता है। बचपन और कुछ नहीं, यौवन को जैसा भी बनाना हो उसकी तैयारी का समय है। किसी को डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, प्रोफेसर, अफसर, पहलवान आदि जो कुछ महत्त्व प्राप्त करना हो उसकी तैयारी का तप बचपन में ही करना होता है। जो लोग उस तैयारी की अवधि को आलस्य, प्रमाद और उच्छृंखलता में बिता देते हैं, उन्हें उसका दुष्परिणाम युवावस्था में भोगना पड़ता है।

जिन लड़कों ने बचपन में पढ़ने से जी चुराया वे बड़े होने पर बिना पढ़े गँवार बने रहे और आजीविका, पद तथा सामाजिक सम्मान की दृष्टि से गये-गुजरे स्तर पर पड़े रहने के लिए विवश हुए, कोई अच्छा काम न पा सके, उच्चस्तरीय लोगों के बीच शिर उठाकर बैठ सकने की स्थिति न रही। इसी प्रकार जिनने व्यायाम न किया, आहार-विहार में असंयम बरता, ब्रह्मचर्य तोड़ा उनको जवानी आने से पूर्व ही बुढ़ापे ने धर दबाया। तरह-तरह की बीमारियों के शिकार बने रहे। देह से कुछ महत्वपूर्ण काम न हो सका। दवा-दारु में पैसा उड़ता रहा, देह कष्ट भुगतती रही, इन्द्रिय सुख भोगने का सौभाग्य ही न मिला, सन्तानें दुबली हुईं, अल्प अवधि में ही काल कलवित हो गये, जब तक जिये तब तक भी दूसरे उपहास, उपेक्षा अथवा तिरस्कार की दृष्टि से देखते और घृणा भरा व्यवहार करते रहे। बलवान शत्रुओं ने सताने में कमी न छोड़ी। अपनी दुर्बलता अपने को भी डराती एवं परेशान करती रही। बचपन में शरीर बल संचय के कर्त्तव्य की जो उपेक्षा की गई थी उसका दण्ड यौवन में, भुगता ही जाना था, भुगतना पड़ा,। संचय काल की बर्बादी उपभोग-काल में विपत्ति बनकर सामने आती है, यह एक सुनिश्चित तथ्य है।

तप और उसका वरदान


जिन्हें यौवन काल समुचित स्थिति में व्यतीत करने की महत्वाकांक्षा हो, उन्हें बचपन एवं किशोर अवस्था में उसके लिए आवश्यक तप करना ही होता है। इसके बिना और कोई रास्ता युवावस्था को शानदार बनाने का है नहीं। अपवाद की बात दूसरी है, छप्पर फाड़कर किसी को दौलत मिले, तो यह उसका पूर्व संचित भाग्य कहा जायगा, पर आमतौर पर ऐसा होता नहीं, होता यही है कि जो किया जाता है, उसका फल मिलता है। इसलिए क्या अभिभावक, क्या अध्यापक, क्या शुभचिन्तक, क्या अच्छे मित्र सभी एकाग्रता और दिलचस्पी से अपने बौद्धिक एवं शारीरिक विकास में लगे रहें। जो लड़के इस सलाह को मान लेते हैं वे आगे चलकर सुख पाते हैं। जो इन परामर्शों पर कान नहीं धरते उन्हें समय आने पर उस उपेक्षा का बेतरह पश्चात्ताप करना पड़ता है।

दृश्य यौवन की तरह एक अदृश्य यौवन भी है। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म की शक्ति एवं महत्ता कहीं अधिक होती है। स्थूल शरीर की तुलना में हमारा सूक्ष्म शरीर अधिक सामर्थ्यवान है। शरीर बल की तुलना में बुद्धि-बल का उपयोग अधिक है। ठीक उसी प्रकार मरणोत्तर यौवन का महत्त्व इस दृश्य यौवन की अपेक्षा ठहरती है, पर मरने के बाद स्वर्ग-नरक की अवधि तुलना में बहुत अधिक लम्बी होती है। उनमें मिलने वाले सुख एवं दु:खों का स्तर भी जवानी में मिलने वाली थोड़ी-सी सुख-सुविधाओं की तुलना में कहीं अधिक गहरा होता है। स्वर्ग में जो आनन्द है वह सांसारिक पदार्थों में कहाँ ? नरक में जो व्यथा-वेदना है, स्थूल जगत में उसका हजारवाँ अंश भी नहीं। यहाँ तो सुख-दु:ख को बँटाने वाले भी कई मिल जाते हैं, पर वहाँ तो सब कुछ अकेले ही सहना पड़ता है।

यौवन उसे कहते हैं जिसमें शक्तियाँ पूर्ण रूप से विकसित हों। सांसारिक जीवन में हमारी अन्त:चेतना बहुत करके प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती हैं। इन्द्रिय-लिप्सा एवं सांसारिक आकर्षण एवं मानसिक भ्रम-जंजाल उसे दबाये बैठे रहते हैं। पर मरणोत्तर काल में वे सभी हट जाते हैं और अन्त:चेतना अपने प्रौढ़ रूप में विकसित होती है। तब उसके सुख-दु:ख की अनुभूतियाँ भी तीव्र हो जाती हैं।

स्वर्ग-नरक के सुख-दु:खों का स्तर इसलिए इस संसार की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ा होता है। नये जन्म की सारी भूमिका भी इसी मरणोत्तर यौवन में बन जाती है। जिस प्रकार युवावस्था में जैसा शरीर होता है, वैसा ही सन्तान का भी स्वास्थ्य होता है। ठीक इसी प्रकार प्राणी को मरणोत्तर काल में जैसी संवेदनायें भुगतनी पड़ती हैं, ठीक उसी स्तर का पुनर्जन्म भी होता है। नरक भोगने वाले प्राणी इस संसार में उतरते हैं, तो उन्हें नीच योनियों में कष्टकारक परिस्थिति में जन्मना पड़ता है और जो स्वर्ग से आते हैं वे अपनी आत्मिक स्थिति के अनुरूप उत्कृष्ट स्तर वातावरण में जन्मते और महत्वपूर्ण जीवनयापन करते हैं।


उच्चस्तरीय सुख के लिए उच्चस्तरीय तप


इस मरणोत्तर यौवन को सुखी एवं समुन्नत स्तर का बनाने के लिए बुढ़ापे में तैयारी करनी पड़ती है। जिस प्रकार बचपन की सीमा-रेखा में यौवन जुड़ा है, उसी प्रकार बुढ़ापे की सीमा-रेखा से मरणोत्तर यौवन जुडा हुआ है। इसलिए उस सूक्ष्म, अदृश्य किन्तु महान यौवन की तैयारी भी ठीक इन्हीं दिनों करनी पड़ती है। जिन्होंने अपनी ढलती आयु का ठीक उपयोग कर लिया, उसने मरणोत्तर यौवन को सुव्यवस्थित बनाने की योजना बना ली, किन्तु जो उस महत्वपूर्ण अवधि को आलस्य, प्रमाद और माया-मोह में गँवाते रहे उनका महान मरणोत्तर यौवन उसी प्रकार अन्धकारमय बनता है जैसा कि उच्छृंखल और अवारा बच्चों का सांसारिक जीवन अस्त-व्सस्त रहता है।

 कितने ही बेवकूफ लड़के अपनी ढीठता में इतने ग्रसित होते हैं कि भावी जीवन के बनने-बिगड़ने की बात में उन्हें कोई सार दिखाई नहीं पड़ता। इसी तरह कितने ही बूढ़े ऐसे अदूरदर्शी होते हैं कि वे अजर-अमर बने रहने पर विश्वास करते मरणोत्तर यौवन की समस्याओं को फूँटी आँख से भी नहीं देखना, सोचना चाहते। उस संबंध में सोचने की उन्हें फुरसत ही नहीं मिलती। नाती-पोतों की ममता उन्हें छोड़ती ही नहीं। जो कमाना, जो करना, जो सोचना सो सब बेटे-पोतों के लिए ही। इस प्रकार के मूढ़ताग्रस्त बुड्ढे फिर चाहे वे पढ़े-लिखे हों या अनपढ़ सच्चे अर्थों में मूढ़मति कहे जायेंगे। आज हमारा समाज उच्छृंखल लड़कों और अदूरदर्शी मंद मति बूढ़ो से भरा पढ़ा है। फलस्वरूप हम प्राचीन गौरव गरिमा से दिन-दिन नीचे गिरते हुए पतन के गहरे गर्त में गिरते चले जा रहे हैं।

इस स्थिति को बदलना ही होगा। नव-निर्माण की, युग परिवर्तन की समस्या इसी प्रकार हल होगी। बालतों में अनुशासन, संयम, परिश्रम एवं शिष्टाचार की भावनाएँ विकसित करके उन्हें सांसारिक प्रगति में योगदान कर सकने योग्य बनाना आवश्यक है। उसी प्रकार वयोवृद्धों को कहना होगा कि वे मरणोत्तर जीवन को समुन्नत बनाने की तैयारी में लग गया। यहाँ तैयारी दुहरे लाभ की है।

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