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न्याय का स्वरूप

अमर्त्य सेन

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :384
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4154
आईएसबीएन :9788170288664

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इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक में विद्वान लेखक ने न्याय की विभिन्न परिभाषाओं-परिकल्पनाओं पर गंभीरता से विचार किया है

Nyaya Ka Swaroop - A Hindi Book - by Amratya Sen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने अर्थशास्त्र को परंपरागत संकुचित दायरे के बाहर विकासशील देशों की समस्याओं, जैसे गरीबी की आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के साथ जोड़ा है। उनकी प्रत्येक नई पुस्तक इसलिए चर्चा का केन्द्र बन जाती है क्योंकि वे अर्थशास्त्री की दृष्टि में सामाजिक समस्याओं पर नये ढंग से विचार करते हैं और नई संभावनाएं बनाते हैं। नोबल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन को अपनी इस नई देन के लिए विश्व-भर में सम्मानित किया जा रहा है।

इससे पहले भी उन्होंने अपनी पुस्तकों में सामाजिक न्याय पर विशद् चर्चा की है और इसके विभिन्न पक्षों पर विचार किया है। न्याय एक ऐसा आदर्श है जो आज भी जनसाधारण की पहुँच के बाहर है। यह भी विचारणीय है कि वर्तमान न्याय व्यवस्था में जीवन-मूल्यों की रक्षा और वृद्धि कहाँ तक हो पाती है। इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक में विद्वान लेखक ने न्याय की विभिन्न परिभाषाओं-परिकल्पनाओं पर गंभीरता से विचार किया है और उनके मत में न्याय को अभी तक ठीक दिशा नहीं मिल पाई है। संसार के प्रसिद्ध विचारकों रूसो, कांट, लॉक, हॉब्स ने अपने-अपने समय में इस विषय पर विचार किया है और वे तत्कालीन नीतिकारों के विचारों से प्रभावित रहे हैं। इस पुस्तक में न्याय, विशेषकर सामाजिक न्याय के स्वरूप को परिभाषित करने का, विभिन्न दृष्टिकोणों से उसे परखने का प्रयत्न किया गया है।

एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पुस्तक जो नई सोच के साथ न्याय की व्यवस्था के सभी पक्षों पर मौलिक विचार प्रस्तुत करती है। समीक्षकों की दृष्टि में यह पुस्तक इस संसार में अन्याय के विरुद्ध सार्थक आवाज़ उठाती है और न्याय की नई व्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत करती है।

अर्थशास्त्र विशेषज्ञ डॉ. अमर्त्य सेन विश्व के प्रखर विचारक हैं। ग़रीबी, अकाल और विकास के आर्थिक पक्षों पर उनके अध्ययन और लेखन ने अन्तराराष्ट्रीय स्तर पर गहरा प्रभाव छोड़ा है। अर्थशास्त्र के साथ दर्शन भी अमर्त्य सेन का विषय रहा है और पिछले कुछ वर्षों में उनकी पुस्तकों में अर्थशास्त्र और दर्शन, दोनों का समावेश देखने को मिलता है।

वर्तामान में अमर्त्य सेन अमरीका में स्थित हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में दर्शन और इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर हैं। वे 1998 से 2004 तक इंग्लैड की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के ट्रिनिटी क़ॉलेज में मास्टर रहे। 1998 में अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया था।

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तर्क और वस्तुनिष्ठता

हमारे समय के एक महान दार्शनिक लुड्विग विट्टजेन्स्टीन ने दर्शनशास्त्र पर अपने पहले ग्रन्थ ट्रक्टेटुस लॉजिको-फिलोसोफिक्स (Tractatus Logico-Philosophicus), 1991 के आमुख में लिखा था : ‘‘जो कुछ कहने योग्य है, वह स्पष्ट रूप से कहा जाना चाहिए और जो बात कहने योग्य नहीं हो, उस पर चुप रहना श्रेयस्कर है।’’ उनसे दशकों पहले एडमंड बर्क ने भी कुछ कह पाने की कठिनाई की बात की थी–किन्तु साथ ही उन्होंने ‘चुप रहने की असमर्थता’ द्वारा उस कठिनाई का निवारण भी कर दिया था। वैसे अच्छा ही हुआ कि विट्टेन्स्टीन महाशय भी सदैव अपने इस उपदेश का अनुसरण नहीं कर पाए। पॉल एंजलमैन को 1917 में एक पत्र में उन्होंने एक बहुत ही रहस्यमय टिप्पणी की थी, ‘‘मैं बडी मेहनत से काम करता हूँ और सोचता हूँ कि काश मैं बेहतर और कुशाग्रमति होता। ये दोनों एक ही तो हैं।1 क्या कुशाग्रमति (तेज़तर्रार) व्यक्ति होना और बेहतर मानव होना एक ही बात है ?

मैं भली प्रकार जानता हूँ कि एटलांटिक पार के पाठ्यान्तर में अच्छा होने के निहित नैतिक गुण तथा ‘सकुशल होने’ में निहित स्वास्थ्य-सम्बन्धी टिप्पणी (कोई नई पीड़ा नहीं, रक्तचाप सामान्य आदि) के बीच का अन्तर कहीं डूबकर खो गया है। मैं तो बहुत समय से अपने मित्रों की सुस्पष्ट अशिष्टता को लेकर चिन्ता करना छोड़ चुका हूँ जो यह पूछे जाने पर कि ‘आप कैसे हैं ?’ तुरन्त आत्मश्लाघापूर्ण उत्तर देते हैं कि ‘मैं बहुत अच्छा हूँ।’ पर विट्टजेन्स्टीन अमरीकी नहीं थे और 1919 का समय विश्व पर अमरीकी पाठ्यान्तरों की विजय-पताका फहराने से पूर्व का समय था। अतः जब उन्होंने बेहतर और कुशाग्रमति होने को एक माना तो इसमें निश्चिय ही कोई सारगर्भित दृढ़ोक्ति निहित रही होगी।

तो फिर वे क्या उद्घोषणा कर रहे थे ? सम्भवतः इस कथन में यह तथ्य छुपा है कि अनेक बार आत्मभ्रमित व्यक्ति ही बहुत गलत प्रकार की हरकतें कर जाते हैं। कुशाग्रमतिहीनता कभी-कभी सद्व्यवहार में नैतिक विफलता का कारण बन सकती है। यह सोच लेना कि क्या करना कुशाग्रतासूचक होगा–भी अन्य व्यक्तियों के प्रति बेहतर व्यवहार करने में सहायक हो सकता है। आधुनिक द्यूतक्रीड़ा सिद्धान्त ने तो यह बात स्पष्ट रूप से समझा दी है।2 अच्छे व्यवहार का एक विवेकपूर्ण कारण (उसके फलस्वरूप) स्वहित संवर्धन भी हो सकता है। वास्तव में यदि किसी समूह के सभी सदस्य परस्पर सहायक सद्व्यवहार के नियमों का पालन करें तो वे सभी बहुत महान हित-लाभ के भागी हो सकते हैं। सभी को बर्बाद कर देने वाले कार्य करना किसी भी समूह के सदस्यों के लिए कुशाग्रमति सम्पन्न कार्य नहीं कहलाएगा।3

किन्तु सम्भव है विट्टजेन्स्टीन का यह अभिप्राय नहीं रहा हो। कुशाग्रमति हमें अपने लक्ष्यों, उद्देश्यों और जीवनमूल्यों के विषय में अधिक स्पष्ट चिन्तन की क्षमता प्रदान कर सकती है। अभी-अभी उल्लिखित जटिलताओं के बावजूद यदि स्वहित को अन्ततः एक आदिम कोटि का विचार ही मान लें तो फिर उन अधिक परिष्कृत वरीयताओं एवं दायित्वों, जो हमें प्रिय हों और जिनको पाने का हम प्रयास करेंगे, वे केवल हमारी तर्कक्षमता पर निर्भर रह जाएँगे। (दूसरे शब्दों में) सामाजिक रूप से गरिमापूर्ण व्यवहार करने के लिए किसी व्यक्ति के पास स्वहित-संवर्धन के अतिरिक्त कुछ सुविचारित कारण होने चाहिए।

कुशाग्रमति स्वहित के ही बेहतर बोध नहीं बल्कि यह समझने में भी सहायक हो सकती है कि किसी एक के कार्यों से अन्य व्यक्तियों के जीवन किस प्रकार प्रभावित हो सकते हैं। तर्कशील चयन सिद्धान्त ने जिन्हें अर्थशास्त्रियों ने परिष्कृत किया और अन्य अनेक समाज विज्ञान प्रशाखाओं ने बड़े उत्साहपूर्वक अपना लिया है, हमें एक विचित्र-सी सूझ देने का भरसक प्रयास किया है कि तर्कशील चयन का अर्थ केवल स्वहित संवर्धन है (वस्तुतः तर्कशील चयन सिद्धान्तों ने इस चयन की परिभाषा ही इस प्रकार की है)। किन्तु यदि अपना हित सिद्ध नहीं हो तो किसी के लिए कुछ भी करने के विचार को ‘तर्कहीन मूर्खता’ मानने के विचार का काफी प्रतिरोध भी हुआ है।4

हमारा अन्य व्यक्तियों के प्रति क्या दायित्व है या हमें औरों से क्या मिला है ? ये गम्भीर चिन्तन-मनन के विषय हैं।5 यही मनन हमें स्वहित के अति संकीर्ण दृष्टिबोध से आगे ले जाएगा, हमें सम्भवतः यह बोध भी कराएगा कि हमारे अपने सुविचारित ध्येयों का तकाज़ा है कि हम केवल स्वहित-संवर्धन की इन संकीर्ण सीमाओं को पार कर जाएँ। किन्हीं दशाओं में केवल अपने लक्ष्यों (भले ही वे स्वहित मात्र से प्रिरित नहीं हों) की प्राप्ति के प्रयास करने से रोकने के कारण भी उपस्थित हो सकते हैं। इसका कारण वे सामाजिक व्यवहार के नियम हो सकते हैं जो हमारे साथ-साथ इसी विश्व में बसे अन्य व्यक्तियों के लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रयास की गुंजाइश की रचना भी करते हैं। कुछ टीकाकारों की बात विचित्र-सी लगती है कि कोई व्यक्ति अन्यों के लक्ष्य साधन की गुंजाइश पैदा करने के लिए स्वल्क्षय साधन पर ‘एकाग्रता से विचलित हो सकता है। कुछ तो इसे इसी बात का ‘प्रमाण’ मान लेते हैं कि जिन्हें हम अपने लक्ष्य कहते थे, वे हमारे थे ही नहीं। किन्तु यदि व्यवहारिक तर्क के विस्तार को पर्याप्त रूप से समझ लें तो इसमें कोई विचित्रता नहीं बचती। इन प्रश्नों पर हम अपने अध्याय 8 और 9 में विस्तार से चर्चा करेंगे।

विट्टजेन्स्टीन के समय में भी ‘‘तर्कशील चयन सिद्धान्त’’ के कुछ ‘पूर्वाभास’ विद्यमान थे। सम्भवतः उनका संकेत यही था कि कुशाग्रमति हमें अपने सामाजिक सरोकारों एवं दायित्वों के विषय में अधिक स्पष्ट रूप से सोच पाने में सहायक होती है। कई बार कहा जाता है कि कुछ बच्चे अन्य बच्चों या जीवों के प्रति केवल इस कारण क्रूरतापूर्ण व्यवहार कर जाते हैं कि उन्हें अन्यों के दर्द या कष्ट की अनुभूति नहीं होती—यह अनुभूति बैद्धिक परिपक्वता के साथ-साथ ही विकसित होती है।
हम निश्चित रूप से यह तो नहीं जानते कि विट्टजेन्स्टीन का अभिप्राय क्या था। किन्तु इस बात के बहुत साक्ष्य हैं कि वे अपने दायित्वों और प्रतिबद्धताओं के मनन पर बहुत समय लगाते रहे हैं। इन सबके परिणाम सदैव बहुत विवेकपूर्ण नहीं रहे। जब 1938 में हिटलर अपनी विजय-यात्रा निकाल रहे थे तो विट्टेन्स्टीन वयना जाने पर उतारू हो रहे थे। उनके यहूदी होने, चुप न रह पाने और व्यवहार में कूटनीतिक नहीं होने के कारण यह एक खतरनाक कदम हो सकता था। इसी कारण कैम्ब्रिज महाविद्यालय के उन सहयोगियों ने उन्हें बलपूर्वक वहाँ जाने से रोका था। इन सहयोगियों में अर्थशास्त्री पियरों सर्राफा का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है–सर्राफा ने ही विट्टजेन्स्टीन को उनके ट्रैक्टेटुस ग्रन् की कुछ स्थापना पर पुनः विचार करने की प्रेरणा भी दी थी। विट्टजेन्स्टीन की विभिन्न वार्ताओं-चर्चाओं में यह भी स्पष्ट होता है कि वे सोचते थे कि उनकी बौद्धिक क्षमता का उपयोग विश्व को बेहतर बनाने के निमित्त होने ही चाहिए। इस सन्दर्भ में उनकी जीवनी का रे मोंक द्वारा किया गया नामकरण बहुत ही सटीक प्रतीत होता है–लुडविग विट्टजेन्स्टीन : द ड्यूटी ऑफ जीनियस।

ज्ञानोदीप्ति विचार परम्परा की समीक्षा

यदि सचमुच विट्टजेन्स्टीन का अभिप्राय यही था, तो वे एक विशेष दृष्टि से यूरोपीय ज्ञानोदीप्ति परम्परा से जुड़े दिखाई देंगे। उस परम्परा ने बेहतर समाज के निर्माण में स्पष्ट मस्तिष्क द्वारा किए गए मनन और तर्क को प्रमुख सहयोगी माना था। अठारहवीं शती में तो विशेष रूप से यूरोपीय ज्ञानोदीप्ति के बौद्धिक प्रयासों में सुव्यवस्थित तर्क के माध्यम से सामाजिक उन्नयन का विशेष महत्त्व रहा है।

किन्तु, सारे ज्ञानोदीप्ति काल में प्रचलित विचारतन्त्र में तर्क की प्रधानता के विषय में सामान्यीकरण कठिन ही लगता है। इसाइया बर्लिन ने तो स्पष्ट किया है कि उस ज्ञानोदीप्तिकाल में भी अनेक प्रकार की तर्क विपरीत विचारधाराएँ प्रचलित थीं। पर फिर भी ज्ञानोदीप्ति पूर्ववर्ती विचारधाराओं की अपेक्षा, ‘किसी न किसी रूप से, तर्क पर आग्रह’ एक बड़े वैचारिक प्रत्यंतर का आभास दिलाती है। आजकल तो अनेक राजनीतिक परिचर्चाओं में यह भी कहा जाने लगा है कि ज्ञानोदीप्ति ने तर्क के प्रभाव क्षेत्र को कुछ अधिक ही मान लिया था। यह भी सत्य ही है कि उस काल ने आधुनिक चिन्तन पर तर्कशीलता पर आश्रय की इतनी गहरी छाप छोड़ी है कि ज्ञानोदीप्ति उपरान्त विश्व में अनेक प्रकार वैचारिक ज्यादतियाँ करने की प्रवृत्ति घर कर गई है। प्रतिष्ठित दार्शनिक जोनाथन ग्लोवर ने इसी आपेक्ष में अपना सुर मिलाते हुए कहा है : ‘‘मानव मनोविज्ञान विषयक ज्ञानोदीप्ति चिन्तन अधिकाधिक ‘झीना एवं मशीनी’-सा लग रहा है और अब तो उस चिन्तन की यह आशा कि ‘‘मानवतावाद एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार से सामाजिक प्रगति होगी’’ भी कुछ सरलता (भोलेपन) जैसी ही बात लग रही है।6 ज्ञानोदीप्ति के अन्य आलोचकों की भाँति ही उन्होंने भी कहा है कि ‘‘स्टालिन और उसके उत्तराधिकारी भी इसी ज्ञान से प्रेरित थे और पोल पोट भी, अप्रत्यक्षतः इसी से प्रभावित था।’’ किन्तु ग्लोवर धर्म या परम्परा के सहारे इस समस्या का समाधान नहीं चाहते–(इस सन्दर्भ में वे ‘ज्ञानोदीप्ति’ के ही प्रबल समर्थक हो जाते हैं) अतः उनका सारा आक्रोश उन दृढ़तापूर्वक धारित विश्वासों/मतों पर केन्द्रित रहता है जिन्हें तर्क के अतिविश्वस्त प्रयोग से बढ़ावा मिलता है। उनका आग्रह है कि ‘‘स्टालिन की उजड्डता का मूल भी ‘विश्वास’ में ही था।’’

अपनी रचना मोरल हिस्ट्री ऑफ द ट्वंटीअथ सैंचुरी में सुविख्यात दार्शनिक जोनाथन ग्वोवर (Jonathan Glover) ने बहुत सशक्त शब्दों में आलोचना का स्वर उठाया है। उनका कहना है कि मानव मनोविज्ञान विषयक ज्ञानोदीप्ति दृष्टिकोण बहुत ही झीना और मशीनी लगने लगा है तथा मानवतावाद और वैज्ञानिक जीवनदृष्टि के प्रसार के माध्यम से सामाजिक प्रगति की आशाएँ बहुत ही अटपटी लगने लगी हैं।7 उन्होंने (ज्ञानोदीप्ति के अन्य आलोचकों की भाँति ही) आधुनिक युग में निरंकुशता की भर्त्सना करते हुए आग्रह किया है कि ‘‘न केवल स्टालिन उसके उत्तराधिकारी ही ज्ञानोदीप्ति धारा से अभिभूत थे, बल्कि पोल पोट भी आप्रत्यक्ष रूप से उसी चिन्तन से प्रभावित था।8 किन्तु ग्लोवर इन समस्याओं का समाधान धार्मिक या परम्परावादी निष्ठा के आधार पर नहीं करना चाहते (और इस दृष्टि से वे ‘ज्ञानोदीप्ति के अपरिहार्य’ भी मानते हैं।) इसी कारण से उनका सारा आक्रोश दृढ़तापूर्वक धारण किए गए विश्वास के प्रति रहता है और उनका मानना है कि तर्क का अतिशय प्रयोग इस दृढ़ता में बड़ा योगदान देता है। उनका आग्रह है कि स्टालिन की उजड्डता का उद्गम स्रोत उस प्रकार के विश्वासों में ही रहा है।9

दृढ़विश्वास एवं कट्टर श्रद्धाओं की शक्ति के विषय में ग्लोवर के संकेत का विरोध कर पाना कठिन ही रहेगा। स्टालिनवाद में विचारधारा की भूमिका विषयक उनकी अवधारणा को चुनौती देना भी सहज नहीं है। यहां हम गलत विचारों की नकारात्मक प्रभावोत्पादक क्षमता की बात पर प्रश्न नहीं उठा रहे। हमारा प्रश्न तो यही है कि क्या इसे सामान्य रूप से तर्क के प्रभाव क्षेत्र और विशेष रूप से ज्ञानोदीप्ति चिन्तनधारा की आलोचना मान लेना उचित होगा ?10 क्या वीभत्सतापूर्ण राजनेताओं के अधकचरे विश्वासों और अंधश्रद्धापूर्ण व्यवहार का दोष ज्ञानोदीप्ति विचार परम्परा पर मढ़ा जा सकता है ? कितने ही ज्ञानोदीप्ति विचारकों ने तो चयन में तर्क की भूमिका पर बल देते हुए अंधश्रद्ध का कड़ा विरोध किया था–क्या फिर भी उस चिन्तन को बाद के नातओं की ज्यादतियों के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है ? ‘स्टालिनवाद की उजड्डता’ का विरोध तो निश्चय ही अन्य विधियों से भी हो सकता है–कुछ ऐसा ही उसके समकालिक असन्तुष्टों ने किया भी था। उन्होंने उस व्यवस्था की कथनी और करनी में भारी अन्तर को तर्कों द्वारा उजागर और सदाशयता के दावों के विपरीत उस व्यवस्था की बर्बरता को विश्व के सामने प्रकट किया था। यह बर्बरता इतनी विकट एवं व्यापक थी कि अधिकारी वर्ग इसे छिपाए रखने के लिए सैंसर और पवित्रीकरण (तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर उन्हें भव्य स्वरूप प्रदान करना) की नीति अपनाने को विवश रहते थे।

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