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आचार्य श्रीराम शर्मा >> संस्कारों की पुण्य परंपरा

संस्कारों की पुण्य परंपरा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :24
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4163
आईएसबीएन :0000

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संस्कारों की पुण्य परंपरा....

Sanskaron Ki Punya Parampara

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संस्कारों की पुण्य परंपरा

मानव जाति की सुख-शान्ति एवं प्रगति की सर्वोपरि आवश्यकता का महत्व हमारे तत्त्वदर्शी पूर्वज, ऋषि-महर्षि भली प्रकार समझते थे। अतएव इसके लिए उन्होंने प्रबल प्रयत्न भी किये, अपने बहुमूल्य जीवनों को इसी आवश्यकता की पूर्ति के साधन विनिर्मित एवं प्रचलित करने में घुला दिया। उनकी इस पुण्य प्रक्रिया को संस्कृति का सृजन कहा जाए, तो उपयुक्त ही होगा। हमारा सारा धर्म साहित्य इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए लिखा गया है। योगाभ्यास, ईश्वर, उपासना, तपश्चर्या, इन्द्रिय-निग्रह, संयम, सदाचार, व्रत-उपवास, तीर्थयात्रा, देव-दर्शन, दान-पुण्य, कथा-प्रवचन, यज्ञ-अनुष्ठान आदि का जितना भर भी धर्म कलेवर हमें दृष्टिगोचर होता है उसके मूल में मात्र एक ही प्रयोजन सन्निहित है कि व्यक्ति अधिकाधिक निर्मल, उदार, सद्गुणी, संयमी एवं परमार्थ परायण बनता चला जाय। इसी स्थिति के लिए जिस स्तर की उच्च विचारणा अभीष्ट है, उसका क्रमिक निर्माण उपरोक्त प्रकार की विचारणा एवं कार्य-पद्धति से सम्भव होता है। यह धर्म-प्रयोजन कर्मकाण्ड हमारी चेतना को उस स्तर पर विकसित करने का प्रयत्न करते हैं, जिसे अपनाने पर जीवन अधिक पवित्र, उत्फुल्ल एवं लोकोपयोगी बन सके।
 
धरती पर स्वर्ग अवतरित करने की ऋषि प्रणाली-केवल शास्त्र रचना एवं धार्मिक विधि निषेधों का प्रचलन करने तक ही ऋषियों ने अपना कर्तव्य समाप्त नहीं वरन् यह भी स्मरण रखा कि इस प्रेरणा को स्थिर एवं अग्रगामी रखने के लिए उन्हें निरन्तर कठोर श्रम भी करना होगा और अपनी शक्ति, सामर्थ्य को उसी पुण्य प्रयोजन में खपा भी देना होगा। उनकी जीवन यापन पद्धति में सर्वोपरी, सर्वाधिक स्थान इसी बात का था कि वे जन-जीवन में धर्म-चेतना सजीव एवं सुविकसित रखने के लिए निरन्तर प्रवचन द्वारा प्रशिक्षित करते रहे और साथ ही ऐसे रचनात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत करते रहें, जिनके माध्यम से धर्म को सचमुच का विकास का अवसर मिलता रहे।

 ब्राह्मणों और संतों की जीवन प्रणाली यही है। वे अपने व्यक्तिगत जीवन की सुरक्षा एवं प्रखरता के लिए स्वाध्याय, उपासना, तपश्चर्या, गोपालन, कृषि आदि की व्यवस्था हुई। लक्ष्य तो उनका जन-जागरण रहता था। जन-जागरण का अर्थ है- व्यक्ति के अन्त:करण में धर्म-भावना एवं आदर्शवादिता पर सुदृढ़ रहने का सुदृढ़ संकल्प और उस ओर ऊँचे से ऊँचे स्तर तक बढ़ते हुए महापुरुष नर-रत्न बनने का उत्साह एवं साहस। ब्राह्मण एवं सन्त जन समाज के अन्त:करणों में इसी प्रकार की सद्-प्रवृत्तियों को उगाने-बढ़ाने की कृषि किया करते थे। यही क्रम उनकी जीवन साधना का सबसे उज्ज्वलपन था। जब तक ब्राह्मण का यह त्याग बलिदान भरा सत्प्रत्न प्रकाशवान् बना रहा तब तक इस देश में सुख-शान्ति की ऐसी अमृतधारा बहती रही, ऐसी शीतल मन्द-सुगन्ध मलय समीर बहती रही, जिससे सारा विश्व अपने को धन्य मानता रहा। आज तो सब कुछ उलटा हो गया है। दुर्भाग्य ने ब्राह्मण और सन्त का लक्ष्य भी उलट दिया। वे अपनी व्यक्तिगत समृद्धि के लिए ऋद्धि-सिद्धियों का उपार्जन करने की अभिलाषा के लोभ में पड़े हैं, बेचारों को मिलना तो है क्या ?

सर्वश्रेष्ठ परम्परा

मानव कल्याण की महान परम्पराओं में जितने भी आयोजन एवं अनुष्ठान हैं उनमें सबसे बड़ी परम्परा संस्कारों एवं पर्वों की है। संस्कारों, धर्मानुष्ठानों द्वारा व्यक्ति एवं परिवार को तथा पर्व-त्यौहारों के माध्यम से समाज को प्रशिक्षित किया जाता है। इन पुण्य परम्पराओं पर जितनी ही बारीकी से हम ध्यान देते हैं उतना ही अधिक उनका महत्त्व एवं उपयोग विदित होता है। पर्व-त्यौहारों की चर्चा अन्यत्र करेगे, यहाँ तो हम षोडस संस्कारों की उपयोगिता एवं आवश्यकता पर ही प्रकाश डालेंगे।

यों स्वाध्याय-सत्संग, प्रशिक्षण, चिन्तन, मनन आदि का प्रभाव मनुष्य की मनोभूमि पर पड़ता ही है और उनसे व्यक्ति के भावना स्तर को विकसित करने में सहायता मिलती ही है और इनकी उपयोगिता को स्वीकार करते हुए सर्वत्र इसका प्रचलन रखा भी जाता है पर साथ ही एक बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिए कि अन्त:चेतना को उच्च प्रयोजन के लिए उल्लसित एवं सूक्ष्म बनाने के कुछ वैज्ञानिक उपकरण भी हैं और उनका महत्त्व स्वाध्याय, सत्संग आदि चलित उपकरणों की अपेक्षा किसी भी प्रकार से कम नहीं है। इन व्यक्तित्व निर्माण के वैज्ञानिक माध्यमों को ही, ‘‘संस्कार’’ कहा जा सकता है। संस्कार वे उपचार हैं जिनके माध्यम से मनुष्यों को सुसंस्कृत बनाना सबसे अधिक संभव एवं सरल है। कहने की आवश्यकता नहीं कि सुसंस्कारित व्यक्ति के निजी, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में कितनी श्रेयस्कर एवं मंगलमय सिद्घि हो सकती है।


विज्ञान सम्मत प्रक्रिया


बालक के गर्भ में प्रवेश करने से लेकर जीवनयापन की विविध परिस्थितियों में से गुजरते हुए शरीर छोड़ने तक विविध अवसरों पर ‘‘संस्कारों’’ का आयोजन करने का हमारे धर्म शास्त्रों में विधान है। इन विधानो से व्यक्ति की अन्त:चेतना पर एक विशेष प्रभाव पड़ता है और उसका सुसंस्कारी बन सकना सरल हो जाता है। विशिष्ट प्रयोजनों के लिए उपयुक्त, विशिष्ट शक्ति सम्पन्न वेद-मन्त्रों में अपनी विशिष्ट क्षमता होती है, उनका निर्माण ऐसी वैज्ञानिक पद्धति से हुआ है कि विधिवत् सस्वर उच्चारण किये जाने पर वे आकाश तत्व में एक विशिष्ट विद्युत प्रवाह तंरगित करते हैं। उनका प्रयोजन पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है जैसा उस मन्त्र का उद्देश्य है। मन्त्रों की शक्ति प्रसिद्ध है। फिर वेद-मंत्रों की शक्ति का तो कहना ही क्या ?

 शब्द शास्त्र के सूक्ष्मदर्शी वैज्ञानिकों ने अगणित प्रयोग परीक्षणों से पूर्वकाल में यह पता चलाया था कि किन शब्दों का किन-किन शब्दों के साथ तालमेल बिठाया जाय और उनका किस प्रकार उच्चारण किया जाय तो उससे किस प्रकार का प्रवाह नि:सृत होगा और उसका सुनने वालों पर अथवा जिनके निमित्त उनका उच्चारण किया जा रहा है उन पर क्या प्रभाव होगा ? इसी निष्कर्ष के आधार पर वेद मंत्र बने हैं और उनमें से किस प्रकार का किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार का प्रयोग किया जाय, इसका निर्धारण ग्रह-सूत्रों एवं कर्मकांड प्रयोजन के लिए विनिर्मित धर्म-ग्रंथों में हुआ है।  यज्ञ उपचार के साथ-साथ इन मंत्रों का सीधा प्रभाव पड़ता है। जिस प्रकार बिजली, भाप, अणु, रसायन, पदार्थ-विद्या आदि का अपना विज्ञान है उसी प्रकार मन्त्र-शास्त्र एवं यज्ञादि कर्मकाण्डों का भी अपना विज्ञान है। यदि कोई उसका प्रयोग ठीक प्रकार से कर सके तो मनुष्य के ऊपर उसका असाधारण प्रभाव पड़ सकता है और उस प्रभाव का असाधारण लाभ उठाया जा सकता है। व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाने में संस्कार पद्धति का क्रिया-कलाप इतना अधिक सफल हो सकता है कि उससे आज भी आश्चर्यचकित हुआ जा सकता है।

मानसिक चिकित्सा की प्रखर पद्धति- जिस प्रकार अभ्रक आदि सामान्य पदार्थों का आयुर्वेद शास्त्र के ज्ञाता अनेक बार अग्नि संस्कार करते हैं और उससे मकरध्वज सरीखी बहुमूल्य रसायनें बनाते हैं, उसी प्रकार मनुष्य पर षोडस संस्कारों को सोलह बार प्रयोग करके भारतीय धर्नानुगामी को सुसंस्कारी बनाया जा जाता है। यह विज्ञान अद्भुत है। अब तक शरीरगत दुर्बलताओं एवं बीमारियों के समाधान का ही बहुत करके अन्वेषणं प्रयास किया गया है। आयुर्वेद, होम्योपैथी, तिब्बी एलोपैथी, नेचरोपेथी आदि चिकित्सा पद्धतियाँ प्राय: शरीरगत कष्टों को ही दूर करती हैं। अब हुआ तो पागलों के लिए मानसिक अस्पतालों में एक लँगड़ी-लूली, परिक्षणात्मक व्यवस्था चल रही है। सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है मनुष्य की मानसिक विकृतियों एवं दुर्बलताओं के समाधान की। इन्हीं के कारण मानव जाति को सबसे अधिक कष्ट भोगना पड़ता है। प्रगति के पथ को अवरुद्ध करने वाली प्रधान बाधा यह विकृतियाँ ही हैं, पर इनके निराकरण का कोई उपाय न किसी चिकित्सा पद्धति ने खोजा और न प्राप्त ही किया।

सनकी, तुनकमिजाज, बहमी, कंजूस, संशयी, अविश्वासी, ओछे, निर्दयी, स्वार्थी, रूखे, कामुक, व्यसनी, चंचल, अस्त-व्यस्त, उद्विग्न, आवेशग्रस्त, क्रोधी, अस्थिरमति, भावुक, अन्ध-विश्वासी, दुराग्रही, उच्छृंखल, अहम्मन्य, दुस्साहसी, अतिवादी, शेखीखोर, ईर्ष्यालु मनुष्यों की समाज में कमी नहीं। इस प्रकार के मनोविकार वस्तुत: एक प्रकार के हलके मानसिक रोग ही हैं। जिस प्रकार शरीर में अनेक ऐसे रोग भी होते हैं, जिनका कष्ट तो सहते रहना पड़ता है, पर चारपाई पर गिरने का अवसर नहीं आता। उसी प्रकार मन मस्तिष्क में भी ऐसे कितने रोग होते हैं, जिनका प्रभाव मनुष्य को अधपगले जैसी स्थिति में ले जाकर पटक देता है। यद्यपि वह देखने में सामान्य श्रेणी का ही प्रतीत होता है और उसमें ऐसा लक्षण नहीं दीखता, जिससे उसे पागल खाने में बन्द किया जा सके।

कुसंस्कारी व्यक्ति प्राय: अधपगले जैसी स्थिति में रहते हैं। वे अपनी आदतों के कारण अपने साथी संबंधियों की नाक में दम किये रहते हैं। उनसे प्राय: सभी लोग खिन्न एवं असन्तुष्ट रहते हैं, महत्वपूर्ण कार्य कर सकने की प्रतिभा भी नष्ट हो जाती है, ऐसी दशा में कोई ऊँची सफलता प्राप्त कर सकेंगे इसकी तनिक भी आशा या सम्भावना नहीं रहती। जिन्दगी के दिन किसी प्रकार पूर्ण कर लें, यही उनके लिए बहुत होता है। इस प्रकार की मानसिक अस्त-व्यस्तता मनुष्य का एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य है। खेद है इस व्यपाक दुर्भाग्य के निराकरण के लिए भौतिकवादी जगत में कोई ठोस प्रयत्न नहीं किया गया, अथवा यों कहना चाहिए कि इस दिशा में जो छुट-पुट प्रयत्न किये गये उनमें कोई सफलता नहीं मिली।


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