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आचार्य श्रीराम शर्मा >> पुंसवन संस्कार विवेचन

पुंसवन संस्कार विवेचन

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :24
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4176
आईएसबीएन :0000

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पुंसवन संस्कार विवेचन....

Punsavan Sanskar Vivechan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पुंसवन संस्कार-विवेचन

परामर्श और प्रशिक्षण यों सदा ही श्रेयकर होते हैं, पर यदि उन्हें उपयुक्त समय पर, उपयुक्त वातारण में, उपयुक्त ढंग से किया जाय, तो उसका कुछ दूसरा ही प्रभाव होता हैं। यों एक-दूसरे का तिलक, माला के समय सम्मान करते हैं, पर युद्ध में जा रहे सैनिक को जब समारोह पूर्वक लोगों द्वारा भावनापूर्वक विदाई दी जाती है, तिलक, माला से सम्मानित किया जाता है, तो वह उसे सदा ध्यान में रखता है और जीवन-मरण का अवसर आने पर भी अपने कर्तव्य पर यह सोच कर जमा रहता है कि भागने पर तो जिन लोगों ने वीरता दिखाने का उपदेश दिया था उन्हें क्या मुँह दिखाऊँगा। यों लोग झूठी कसम खाते रहते है, पर गंगाजी में खड़े होकर या गंगाजली हाथ में लेकर कसम खाने का अवसर आने पर धर्म भीरू लोग झूठी कसम प्रायः नही खाते। मरते समय जो आदेश बुजुर्ग लोग अपने घर वालों को देते हैं या दूसरों से अनुरोध करते हैं, उस बात को प्रायः याद रखा जाता है और बहुधा लोग उसे पूरा करने का प्रयत्न करते रहते हैं।

चुनौती स्वीकार करने में पिछले दिनों लोग पान का बीड़ा उठाकर खाते थे और यह घोषित करते थे कि जिस काम को दूसरे पूरा नहीं कर पा रहे है उसे मैं पूरा करुँगा। यह पान का बीड़ा प्रतिज्ञा को पत्थर की लकीर बना देता था। और उसे हर कीमत पर लोग पूरा ही करते थे। साधारण प्रकार से की गयी प्रतिज्ञाओं और घोषणाओं को लोग भुला देते है पर जल हाथ में लेकर देव सान्निध्य में संकल्प पढ़कर जो घोषणा की जाती है, उसे आमतौर से लोग निबाहते ही हैं। युद्ध में लड़ने आमतौर से सैनिक जाया ही करते हैं और अपने ढंग से लड़ते भी है, पर प्राचीनकाल में जब केसरिया बाना पहनकर जुझारु प्रथा पूरी करने के लिए सैनिक निकलते थे, तब उनकी मार बड़ी विकट हो जाती थी। यों हाथ में हाथ डाल कर कई प्रेमी-प्रेमिकाएं घूमते रहते हैं, पर विवाह के समय मंत्र पूर्वक किया गया प्राणिग्रहण संस्कार दोनों को जोड़ देने वाला गजब का विश्वास पैदा करता है। वरमाला एक छोटी-सी दो आने मूल्य की साधारण फूल माला ही तो है, उसे वर-बधू एक-दूसरे को पहना देते हैं तो उनका आत्म समर्पण मान लिया जाता है, यों मोटे तौर से कितनों को माला पहनाने और  पहनने का क्रम चलता रहता है।

विशेष परिस्थिति-विशेष भावना

उपरोक्त कुछ उदाहरणों में यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि कुछ विशेष अवसरों पर विशेष ढंग से किया गया प्रशिक्षण एवं संकल्प ऐसा प्रभावशाली होता है कि वह लोगों के मनों में गहराई तक प्रवेश कर जाता है और उसे निबाहने में कभी-कभी ही कोई अड़चन आती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ऋषियों ने जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ एवं अवसरों पर ऐसे भावपूर्ण वातावरण में की गई शिक्षा प्रक्रिया का प्रचलन किया है, जिसे यदि ठीक ढंग से किया जाए तो उसका प्रभाव पड़ना ही चाहिए। संस्कारो का प्रचलन इन्हीं मनोवैज्ञानिक तथ्यों को ध्यान में रखकर किया गया है। जिसका संस्कार किया जाता है वह या उसके  अभिभावक अपने परिचय समाज के सामने एक सम्माननीय स्थिति में बैठाए जाते हैं। विवाह में जिस प्रकार दूल्हा की वेष-भूषा सवारी तथा स्थिति एक विशेष ढंग की होती है, सभी की आँखें उसे सामयिक ‘हीरो’ की निगाह से देखती है।, इसी प्रकार जिसका संस्कार किया जा रहा है, उसके प्रति एक विशेष आकर्षण एवं आदरपूर्ण स्थिति लोगों की आँखों में होती है। वह स्वयं भी इस स्थिति में गर्व, गौरव एवं उत्साह अनुभव करते है। यह अनुभूति मनुष्य को अपनी दृष्टि में महत्त्वपूर्ण एवं सम्मान बनाती है।

भावात्मक स्थिति का दूरगामी परिमाम होता है। आत्महीनता की ग्रन्थियों से ग्रसित, अपने आप को नगण्य, तुच्छ, उपेक्षणीय समझने वाले व्यक्तियों को अपने स्वरूप, महत्व, स्तर एवं सम्मान का बोध होता है। आत्म विकास, आत्म निर्माण, आत्मोत्कर्ष के लिए इस प्रकार की अनुभूति अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होती है। ऐसे प्रेरणात्मक अवसर लोगों को जीवन में समय-समय, बार-बार मिलते रहें। इसके लिए संस्कार का प्रचलन कितना उत्तम है उसका ठीक मूल्यांकन उत्कृष्ट कोटि के वैज्ञानिक  ही कर सकते हैं। प्राचीन काल में इस देश में जन साधारण को जो धरती के देवता कहलाने का क्षेय प्राप्त था, उसमें इस प्रकार धार्मिक, आध्यात्मिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

उचित ढंग से उचित प्रयोग

फूहड़, ढंग से प्रयोग की गई उत्तम वस्तु भी निरर्थक एवं हानिकारक बन जाती है। संस्कारों को मनाये जाने का वर्तमान स्वरूप बिल्कुल फूहड़पन से ही भरा पड़ा है। न उसमें शिक्षा न संस्कार, न प्रेरणा न भावना, न आकर्षण। सब कुछ केवल एक बेगार भुगतने का खर्चीली चिन्ह पूजा की तरह ही भुगता दिया जाता है। ढेरों समय, श्रम और धन खर्च करने पर भी कोई यह नहीं समझ पाता कि इस अगड-बगड में क्या लाभ हुआ ? अधिक से अधिक इतना मान लिया जाता है कि किन्ही देवताओं की पूजा-अर्चा मात्र हो गई। पण्डित लोग अपनी आजीविका चलाने के लिए संस्कारों की पूजा पद्धति को जारी रखने पर तो जोर देते हैं पर उनकी उपयोगिता सिद्ध नहीं कर पाते, फलस्वारूप यह परम्परायें समाप्त होती चली जा रही हैं। विवाह अब  एक मात्र वैदिक संस्कारों में से बचा है। शेष 15 तो उपेक्षा एवं अश्रद्धा के गर्त मे गिर कर विलीन जैसे ही हो गये हैं। हजारों में से कोई एक इनकी आवश्यकता अनुभव करके व्यवस्था बनाता है। इस चिन्ताजनक स्थिति में अब समाप्त किया जाय और संस्कारों का प्रचलन पुनः सुचारू रूप से आरम्भ किया जाए, यही उत्तम है। यदि समाज को सुसंस्कृत बनाना है, तो संस्कारों का माध्यम अपनाना ही पड़ेगा। सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए इस महान प्रक्रिया को पुनः सजीव करना आवश्यक है।

कहना न होगा कि बालक को संस्कारवान् बनाने के लिए सबसे प्रथम उसके जन्मदाता माता-पिता को सुसंस्कृत होना चाहिए। उन्हें अपने आपकों बालकों के  प्रजनन तक ही दक्ष नहीं रहने देना चाहिए वरन् सन्तान को सुयोग्य बनाने योग्य ज्ञान तथा अनुभव भी इससे पूर्व ही कर लेना चाहिए। जिस प्रकार मोटर चलाने से पूर्व ही पुर्जों की आवश्यक जानकारी प्राप्त कर ली जाती है, उसी प्रकार गृहस्थ जीवन आरम्भ करने से पूर्व इस सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी इकट्ठी कर लेनी चाहिए। अच्छा होता अन्य विषयों की तरह शिक्षा व्यवस्था में दाम्पत्य जीवन एवं शिशु-निर्माण के सम्बन्ध में शास्त्रीय प्रशिश्रण दिये जाने की व्यवस्था रही होती।

शिशु का समग्र विकास

माता-पिता के शरीर से बालक का शरीर, मन से मन और स्वभाव बनता है। इसलिए जिस तरह अच्छी फसल उगाने के लिए भूमि और बीज दोनों की समर्थता आवश्यक मानी जाती है उसी तरह माता-पिता के शरीर, मन और स्वभाव को परिष्कृत बनाने का प्रयत्न किया जाय। जो इन तीनों दृष्टियों से सुयोग्य नहीं उन्हें अपने समान अयोग्य सन्तान उत्पन्न करके समाज की उलझनें नहीं बढ़ानी चाहिए। खेद की बात यही है कि विषय-विकारों से ग्रसित लोग यह अनुभव नहीं करते कि नये प्राणी को सुयोग्य एवं सुविकसित बनाने की शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक, क्षमता यदि उनमें नहीं है तो वे क्यों सन्तानोत्पादन जैसे महान उत्तरदायित्व को उठाने के लिए कदम बढ़ाते हैं, फिर भी एक के बाद दूसरे बच्चे उपजते ही चले जाते हैं, यह एक सामाजिक अपराध है। हीन परिस्थितियों के व्यक्ति यदि अपनी ही प्रतिमूर्ति ही दीन-हीन प्रजा और भी उत्पन्न करेंगे तो अपने स्वयं के लिए ही नहीं सारे समाज के लिए संकट उत्पन्न करेगे।

गर्भाधान संस्कार

षोडश संस्कारों से सबसे प्रथम संस्कार गर्भाधान का है। जिसका अर्थ यह है कि यह दम्पति-युग्म अपनी प्रजनन प्रवृत्ति से समाज को सूचित करता है। विचारशील लोग यदि उसकी स्थिति इसके लिए अनुपयुक्त समझें तो उन्हें इसके लिए मना भी कर सकते हैं। प्रजनन वैयक्तिक मनोरंजन नहीं वरन् सामाजिक उत्तरादायित्व है। इसलिए समाज में विचारशील लोगों को निमंन्त्रित कर उनकी सहमति लेनी पड़ती है। यही गर्भाधान संस्कार है अखण्ड ब्रह्मचारी एवं शरीर-मन से निरोग, पति-पत्नी का अन्य जीव जन्तुओं की भाँति एक बार के समागम में ही गर्भ स्थापित हो जाना संभव है। पूर्व काल में यही सब होता था। आज लोगों के शरीर खोखले हो गये और काम-क्रीड़ा को भी वैयक्तिक मनोरंजन मान लिया, तो फिर गर्भाधान का महत्व भी चला गया। इतने पर भी उसकी मूल भावना को भुलाया न जाए तब भी यदि कहा जा सकता है कि वह परस्पर किसी रूप में जीवित है।


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