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आचार्य श्रीराम शर्मा >> विवाह दिवसोत्सव कैसे मनाएँ

विवाह दिवसोत्सव कैसे मनाएँ

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :24
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4177
आईएसबीएन :00000

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विवाह दिवसोत्सव कैसे मनाये

Vivah Divsotsav Kaise Manayen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विवाह दिवसोत्सव कैसे मनावें ?

एकाकी मनुष्य अपूर्ण है। पति-पत्नी दोनों के सम्बन्ध से एक पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण होता है। स्त्री और पुरुष की अपनी-अपनी कुछ ऐसी विशेषतायें हैं, जो दूसरे में नहीं। इन दोनों के समन्वय से वे अभाव दूर होते हैं, जिनके कारण मानसिक शान्ति और सांसारिक सुख-सुविधाओं का द्वार रुका पड़ा रहता है। गाड़ी के दो पहियों की तरह मानव-जीवन पति-पत्नी के दो आधारों पर चलता है। दो आँख, दो कान, दो हाथ, दो पैर की तरह मनुष्य जीवन भी दो अंगों में विभक्त हैं। दोनों से मिलकर शरीर शोभा पाता है अन्यथा एकाकीपन काने, लँगड़े, लूले, बूचे, व्यक्ति की तरह कुरूप एवं अव्यवस्थित बनकर रह जाता है। उसमें एक अभाव का, एक कसक का निरन्तर अनुभव होता रहता है।

योगी, ज्ञानी, परमार्थी, महामानव अपनी सांसारिक आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को समाप्त कर ज्ञान, परमार्थ एवं ब्रह्म चिन्तन के उस उच्चस्तर पर जा पहुँचते हैं, जहाँ जीवन की लौकिक सुव्यवस्था की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती। उनके लिए अविविहित रहना उपयुक्त हो सकता है। किन्तु जिन्हें स्वाभाविक एवं सरल जीवन जीना है, उनके लिए जोड़े से रहने में जो सुविधा है वह और किसी प्रकार नहीं। अपवाद सब में होते हैं, जो एकाकी जीवन बिना किसी क्षोभ या अभाव का अनुभव किये जी सकते हैं, वे सराहनीय हैं। पर उन्हें कहा अपवाद ही जायगा। साधरणतया हर मनुष्य को अपने समय पर गृहस्थ बनकर रहने की ही आवश्यकता पड़ती है। उसी में सुविधा भी है।


विवाह प्रगति में सहायक



कई व्यक्ति आध्यात्मिक प्रगति में दाम्पत्य जीवन को बाधक मानते हैं और सोचते हैं कि एकाकी रहेंगे तो उन्हें वैरागी माना जायगा, भजन अच्छा बनेगा या स्वर्ग मुक्ति का लाभ जल्दी भी मिल जायगा। ऐसे लोगों को प्राचीनकाल में ऋषियों के जीवन पर दृष्टिपात करना चाहिए, पुराण पढ़ने चाहिए। एक-दो को छोड़कर प्रायः सभी ऋषि गृहस्थ थे, और सबके सन्तानें थीं। सिख धर्म के प्रायः सभी गुरु गृहस्थ हुए हैं। भगवान् राम, कृष्ण, शंकर एवं समस्त देवता गृहस्थ थे। यदि दाम्पत्य व्यवस्था आध्यात्मिक प्रगति में बाधक रही होती, तो हमारा सारा इतिहास ही दूसरे ढंग का होता, गृह त्याग की व्यवस्था तो बुद्ध सम्प्रदाय की देन है। भारतीय धर्म का अंग वह कभी नहीं रही। चार आश्रमों की व्यवस्था में हर व्यक्ति को गृहस्थ होना चाहिए। तीसरेपन में वानप्रस्थ लेकर पत्नी समेत समाज सेवा में लगना चाहिए और अन्त में संन्यास लेना हो तो भी ऋषियों की तरह उस व्यवस्था में भी पत्नी को साथ रखा जा सकता है।
 
कहने का तात्पर्य इतना भर है कि दाम्पत्य जीवन की श्रेष्ठता, उपयोगिता एवं आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता है। उससे दो अभावग्रस्त पक्ष एकत्रित होकर अपनी विशेषता से दूसरे का अभाव पूरा करते और एक पूर्ण व्यक्तित्व के निर्माण की व्यवस्था बनाते हैं। मानव जन्म पाने के बाद दूसरा सबसे बड़ा सौभाग्य विवाह ही माना गया है। इसी से तो ‘या बेटा जाये या बेटा विवाहे’ की उक्ति के अनुसार जन्म और विवाह की खुशी को समान माना गया है। वरन सच तो यह है कि जन्म से विवाह का आनन्द हमारे समाज में अधिक माना जाता है। जन्म के अवसर पर जितने गीत, मंगल, उत्सव, गाजे-बाजे आदि की खर्च की व्यवस्था होती है, उससे कई गुनी अधिक विवाह के अवसर पर होती है। जन्म की अपूर्णता को विवाह पूर्ण करता है, इसलिए, आनन्द, उल्लास एवं लाभ किसी भी प्रकार कम नहीं। एक बैल से खेती करना मुश्किल पड़ता है। इसी प्रकार एकाकी जीवन में असुविधायें ही भरी रहती हैं। असुविधा को सुविधा में, अवरोध को प्रगति में, अवसाद को उल्लास में परिणत कर देने वाला विवाह सचमुच मानव प्राणी का असाधारण सौभाग्य ही है।


नये समाज का नया निर्माण



हर व्यक्ति एक निर्माता ब्रह्मा है, वह एक नये समाज का सृजन, निर्माण एवं विकास करता है। कहते हैं कि यह सृष्टि आदम और हब्बा, मनु-शतरूपा ने मिलकर बनाई। हर गृहस्थ अपने आप में एक आदम-हब्बा मनु-शतरूपा बनता है और एक नई सृष्टि का सृजन पालन एवं विकास करता है। यदि यह उत्तरदायित्व ठीक तरह निबाहा जा सके, तो उससे नये समाज का, नये संसार का निर्माण होगा। हर गृहस्थ अपना दाम्पत्य कर्तव्य गृहस्थ संचालन ठीक तरह करने लगे तो बीस वर्ष उपरान्त नये युग, नये समाज, नये संसार का वातावरण आँखों के सामने उपस्थित हो सकता है। हर गृहस्थ एक गुरुकुल है, जिसमें जन्मे, पले बढ़े बालक वैसे ही बनते हैं, विशाल मानव समाज की एक सुगठित इकाई है। समाज परिवारों के रूप में ही तो विभक्त है। शासन को जैसे छोटे-छोटे थानों में बाँट दिया जाता है, उसी तरह यह विश्व या समाज गृहस्थों के रूप में विभक्त है। इन घटनाओं की जैसी भली-बुरी स्थिति होती है, उसी के अनुरूप समाज बन जाता है। समाज का जैसा भी स्वरूप अभीष्ट हो हमें उसका ढांचा गृहस्थ जीवन में खड़ा करना होगा। राष्ट्र का नया निर्माण गृहस्थ जीवन से ही संभव है। पूरे खेत में एक साथ पानी नहीं भरा जा सकता, सिंचाई क्यारियों द्वारा ही होती है। युग का निर्माण, गृहस्थ निर्माण के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।


विकृतियों का समाधान



आज हमारा सारा समाज अगणित उलझनों और समस्याओं से घिरा, व्यथा वेदनाओं से, क्लेश-कलह से, दुःख-दारिद्र से संत्रस्त हो रहा है। इसका कारण हमारे गृहस्थ जीवनों में दाम्पत्य सम्बन्धों में फैल रही विकृतियाँ ही हैं। ऐसे सौभाग्यशाली गृहस्थ बहुत कम ही मिलेंगे, जिनमें पति-पत्नि दूध, पानी की तरह एक होकर रहे हों, अपना आपा दूसरे में घुला चुके हों, दो मिलकर एक हो चुके हों, जिनमें तनिक भी दुःख अविश्वास या सन्देह न हो, जिनमें दोनों की इच्छायें-आकांक्षायें मिल कर एक हो गई हों, जिनने जीवन के कर्तव्य और उत्तरदायित्वों का भार समान रूप से उसी तरह अपने कंधों पर लाद लिया हो जैसे दो बैल एक जुए को कंधों पर रखकर वहन करते हैं।

आज तो इससे सर्वथा विपरीत स्थिति है। लोक-लज्जा, बच्चों का मोह, गृह व्यवस्था, वासना आदि के कच्चे धागों से परस्पर किसी प्रकार बँधे तो हुए हैं, पर मन जिनके सर्वथा विपरीत हैं। एक-दूसरे के प्रति असीम घृणा और अविश्वास भरे हुए हैं। मजबूरियों ने उन्हें जोड़ तो रखा है, पर मन एक-दूसरे से फटे दूध की तरह बिलग-बिलग बने हुए हैं। सांसारिक व्यवस्था तो एक को दूसरे की रखनी पड़ती है, पर मन में वह भावना नहीं जिसमें एक को देख दूसरा जिये जैसी स्थिति का अनुभव हो। मनों में भरा हुआ यह दुर्भाव सन्तान के मनःक्षेत्र का विकृत सृजन करता है। पति-पत्नी के शरीरों से मिलकर बच्चे का शरीर बनता है और मनों से मिलकर मन। माता पिता का जैसा रंग रूप, कद कलेवर ढांचा तथा स्वास्थ्य होगा, उसी से मिलता-जुलता बच्चों का भी होता है। ठीक इसी प्रकार पति-पत्नी के बीच जैसे सम्बन्ध, जैसे मनोभाव चल रहे होंगे, उसी भली या बुरी स्थिति अनुरूप बालक का मनःक्षेत्र विनिर्मित होगा। परस्पर द्वेष, दुर्भाव रखने वाले पति-पत्नी केवल क्रोधी, उद्दण्ड, उच्छृंखल, ईर्ष्यालु, द्वेषी, स्वार्थी एवं निकृष्ट घरातल के मनःक्षेत्र वाले बालकों को ही जन्म दे सकते हैं।

छोटे बच्चे अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। गर्भ से लेकर पाँच वर्ष की आयु तक वे अपनी मनोभूमि का ढाँचा खड़ा कर लते हैं। इसके बाद तो स्कूली और कामकाजी पढ़ाई ही शेष रह जाती है। माता-पिता द्वारा घर का सूक्ष्म वातावरण जैसा भी कुछ बना रखा गया है, उसी के अनुरूप तरंगें बालकों के कोमल अन्तःकरण पर स्वयमेव जमती चली जाती हैं। उनके व्यक्तित्व का तीन चौथाई निर्माण इसी स्थिति में हो जाता है। बड़े होकर वे वैसे ही बनते हैं। आज नई पीढ़ी में हमें जो दोष दुर्गुण दिखाई पड़ते हैं, इसका अधिकांश दोष उनके माता-पिता का है। यदि वे ठीक तरह अपने दाम्पत्य प्रेम को सुरक्षित रख सके होते और दैनिक जीवन में सद्भावनाओं का उल्लास भरा वातावरण बनाये रख सके होते तो निश्चय ही उन घरों में महापुरुष, नर रत्नों की फसल उपजी होती।


क्षोभ को उल्लास में बदलें



व्यक्तिगत जीवन के आनन्द-उल्लास एवं सामाजिक जीवन की सुख-शान्ति का आधार यदि सफल दाम्पत्य जीवन को कहा जाय तो उसमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं। यह क्षेत्र जितना उपेक्षित एवं विकृत पड़ा रहेगा उसी अनुपात से हर व्यक्ति अतिरिक्त क्षोभ में जलता-कुढ़ता प्रगति की ओर अग्रसर होने से वंचित बना रहेगा और उसी अनुपात से समाज में अशान्ति, विपत्ति एवं अव्यवस्था बनी रहेगी। इस स्थिति को यदि बदलना हो तो हमें नींव को सींचना होगा। दाम्पत्य सम्बन्धों में स्नेह, सद्भावना, कर्तव्य, उत्तरदायित्वों का परिपूर्ण समावेश ही एक मात्र वह उपाय है जिससे व्यक्ति, परिवार एवं समाज की प्रगति एवं समृद्धि सम्भव हो सकती है। इस तथ्य की उपेक्षा करके हम सुख-शान्ति की अभिवृद्धि के जो भी उपाय करेंगे वे अधूरे एवं अवास्तविक होने के कारण असफल ही रहेंगे। उपवन को हरा-भरा फला-फूला देखना हो तो धोने से नहीं, जड़ सींचने से काम चलेगा, हमें वस्तुस्थिति समझनी चाहिए और समस्याओं का उद्भव जहाँ से होता है। उसी स्थान पर उनके सुलझाने का प्रयत्न करना चाहिए।

 

प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. विवाह प्रगति में सहायक
  2. नये समाज का नया निर्माण
  3. विकृतियों का समाधान
  4. क्षोभ को उल्लास में बदलें
  5. विवाह संस्कार की महत्ता
  6. मंगल पर्व की जयन्ती
  7. परम्परा प्रचलन
  8. संकोच अनावश्यक
  9. संगठित प्रयास की आवश्यकता
  10. पाँच विशेष कृत्य
  11. ग्रन्थि बन्धन
  12. पाणिग्रहण
  13. सप्तपदी
  14. सुमंगली
  15. व्रत धारण की आवश्यकता
  16. यह तथ्य ध्यान में रखें
  17. नया उल्लास, नया आरम्भ

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