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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री के पंच रत्न

गायत्री के पंच रत्न

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 1993
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4184
आईएसबीएन :00000

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गायत्री के पंच रत्न

Gayatri Ke Panchratn

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गायत्री पंचरत्न

आद्य शक्ति गायत्री के गुणगान एवं तत्वदर्शन से भारतीय आर्य-ग्रन्थ भरे पड़े हैं। भावनात्मक, भक्तिपरक, दार्शनिक, विचारपरक एवं व्यावहारिक क्रियापरक सभी तरह के शास्त्रों में इस मूलाधारा का उल्लेख, विवेचन, स्तवन अपने-अपने ढंग से किया गया है। उनसे इस महाशक्ति का स्वरूप एवं महत्त्व प्रकट होता है और उसका लाभ उठाने की दृष्टि प्राप्त होती है। शास्त्रों में समुद्र में से यहाँ अतीव उपयोगी पाँच प्रसंग बहुमूल्य पंचरत्नों के रूप में इस पुस्तक में जिज्ञासुओं के लिए दिये गये हैं। वे है-(1) गायत्री पञ्जर, (2) गायत्री गीता, (3) गायत्री स्मृति, (4) गायत्री संहिता, तथा (5) गायत्री स्तोत्र। इन पाँचों के मुख्य विषय इस प्रकार हैं-

(1)    गायत्री पंजर- इसमें महाशक्ति गायत्री के विराट् स्वरूप का वर्णन है। अनादि, अनन्त, अविनाशी परमात्मा को विभिन्न अवतारों एवं देव स्वरूपों में पहचाना जाता है, किन्तु वह उसी रूप तक सीमित नहीं बन जाता है। उसके सर्वव्यापी, सर्वसमर्थ स्वरूप का बोध उसके विराट् दर्शन से ही होता है। साधक को जब प्रभु-कृपा से दिव्य चक्षु प्राप्त होते हैं तो उसे इष्ट के विराट्स्वरूप का बोध होता है। इस विराट् दर्शन से मनुष्य पापों से सहज ही दूर हो जाता है और अनन्त शक्ति तथा अनन्त आनन्द से अपने आपको जुड़ा हुआ अनुभव करता है।

आद्य शक्ति गायत्री के प्रति शरीरधारी माँ जैसा ममत्व होना भी अच्छी बात है, किन्तु उसके सर्वव्यापी स्वरूप का भान रहना भी आवश्यक है। पंजर का अर्थ होता है-ढाँचा। वेदमाता गायत्री का ढाँचा सम्पूर्ण विश्व है, ऐसा इस स्तोत्र में वर्णन किया गया है। इस तथ्य को हृदयंगम करने वाला साधक सर्वत्र की माँ की सत्ता देखता है। वह सदैव अपने आपको माँ की गोद में बैठा हुआ अनुभव करता है। इस स्थिति में आत्महीनता, भय, संकीर्णता, पापवृत्ति सभी निकृष्टताओं के प्रभाव से बच जाता है। साथ ही कृतज्ञता, स्नेह, सद्भाव, उल्लास आदि से उसका रोम-रोम पुलकित होता रहता है। अन्य मनुष्यों एवं प्राणिमात्र के प्रति द्वेष-दुर्भाव समाप्त होकर अखण्ड आत्मीयता के भाव का विकास होने लगता है।
 
(2) गायत्री गीता- ‘गीता’ सम्बोधन किसी विषय के मर्म की व्याख्या के संदर्भ में प्रयुक्त होने लगा है। गायत्री का संदेश आध्यात्मिक एवं सांसारिक दोनों दृष्टियों से अत्यधिक अर्थपूर्ण एवं उपयोगी है। गायत्री गीता में प्रणव ॐ व्याह्यतियों-भूर्भुवः स्वः सहित गायत्री मन्त्र के नौ शब्दों में सन्नहित मर्म को प्रकट करने का प्रयास किया गया है। यह ज्ञान इतना परिमार्जित एवं महत्त्वपूर्ण है कि यदि मनुष्य इसे भली प्रकार समझ ले और जीवन-व्यवहार में उतार ले तो लोक-परलोक दोनों में सुख-शान्ति का लाभ पा सकता है।
(3) गायत्री स्मृति- इसके अन्तगर्त गायत्री साधकों को लिए गायत्री के संदेश-निर्देशों का उल्लेख है। गायत्री मंत्र के रूप में 24 अक्षरों में से प्रत्येक अक्षर एक विशेष निर्देश, विशेष शिक्षा देता है। वह विस्मरण में उपेक्षा के गर्त में न डाल दिया जाय, स्मृति में सदैव बना रहे तभी कल्याण पथ पर प्रगति संभव है। गायत्री स्मृति में साधकों के लिए उन्हीं महत्वपूर्ण सूत्रों को स्पष्ट किया गया है।
(4) गायत्री संहिता-संहिता में विषय विशेष से संबंधित सिद्धान्तों, मर्यादाओं एवं नियमों का समावेश होता है। गायत्री संहिता में आद्यशक्ति के प्रभाव का वर्णन करते हुए गायत्री साधना को सफल एवं अधिक प्रभावशाली बनाने के सूत्रों का उल्लेख किया गया है। इसे पढ़-समझकर साधक मोह-बुद्धि से मुक्त होकर साधना-पथ पर आरुढ़ होने में सक्षम हो जाते हैं।
(5) गायत्री स्तोत्र- यह माँ की भाव भरी वन्दना है। माँ गायत्री के व्यापक स्वरूप और उनके अनन्त वैभव का स्मरण करते हुए उनके चरणों में पुनः-पुनः नमन किया गया है। इस वन्दना के आठ पद हैं इसलिए इसे गायत्री अष्टक भी कहते हैं।
यह सभी स्तोत्र नियमित पाठ करने योग्य है। पाठ दो दृष्ठियों से किया जाता है। एक माता के सही स्वरूप एवं उससे संबंधित तत्वदर्शन को हृदयंगम करने के लिए, दूसरे माँ के प्रति अपनी श्रद्धा, आस्था व्यक्त करने तथा उसे अधिक पुष्ट बनाने और उनकी कृपा एवं पुण्य प्राप्त करने के लिए। दोनों ही दृष्टियों से वे इन पंचरत्नों का पाठ परम लाभप्रद सिद्ध होता है।

।। अथ गायत्री पञ्जरम् ।।



भूर्भुवः स्व: खल्वित्येतैर्निगमत्वप्रकाशिकाम्।
महर्जनस्तपः सत्यं लोकोपरिसुसंस्थिताम्।।1।।


भूः भुवः स्वः द्वारा निगम का प्रकाश करती है, महः, जनः, तपः, सत्यं, इन लोकों के ऊपर स्थित है।


गानादिना विनोदादि कथालापेषु तत्पराम्।
तदित्यवाङ्मनोगम्य तेजो रूपधरां पराम्।।2।।

गान आदि से युक्त विनोद और कथा आदि से तत्पर वह, वाणी और मन से अगम्य होने पर भी तेज रूप धारण किये हुए है।

जगतः प्रसवित्रीं तां सवितुः सृष्टिकारिणीम्।
वरेण्यमित्यन्नमयीं पुरुषार्थफलप्रदाम्।।3।।

जगत् का सृजन करने वाली उसको सविता की सृष्टिकर्त्री कहा गया है। वह वरेण्य अर्थात् अन्नमयी है और पुरुषार्थ का फल देती है।

अविद्या वर्ण वर्ण्या च तेजोवद्गर्भसंज्ञिताम्।
देवस्य सच्चिदानन्द परब्रह्म रसात्मिकाम्।।4।।

वह (माया रूप) अविद्या है, वर्ण (शब्दों) द्वारा वर्णनीय है, तेजयुक्त है, गर्भ संज्ञावाली है तथा सच्चिदानन्द परब्रह्म देव की रसमयी है।

यद्वयं धीमहि सा वै ब्रह्माद्वैतस्वरूपिणीम्।
धियो योनस्तु सविता प्रचोदयादुपासिताम्।।5।।

हम ध्यान करते हैं कि वह अद्वैत ब्रह्म स्वरूपिणी है, सविता स्वरूपा हमारी बुद्धि को उपासना के लिये प्रेरणा देती है।

तादृगस्या विराट् रुपां किरीटवरराजिताम्।
व्योमकेशालकाकाशा रहस्यं प्रवदाम्यहम्।।6।।

इस प्रकार वह विराट रूप वाली है, वह सुन्दर किरीट धारण करती है। व्योम केश है, आकाश अलकें हैं, इस प्रकार इसका रहस्य कहा जाता है।

मेघ भ्रकुटिकाक्रान्तां विधिविष्णुश्विर्चिताम्।
गुरु भार्गवकर्णां तां सोमसूर्याग्निलोचनाम्।।7।।

भौंहों से आक्रान्त मेघ हैं, ब्रह्मा, विष्णु और शिव से जो अर्चित है, गुरु, शुक्र जिसके कान हैं, सोम, सूर्य अग्नि जिसके नेत्र हैं।


पिंगलेडाद्वयं नूनं वायुनासापुटान्विताम्।
सन्ध्यौभयोष्ठपुटितां लसद्वागुपजिह्वकामं।।8।।

इडा, पिंगला दोनों नासापुट हैं। दोनों सन्ध्या, दोनों ओष्ठ है, उपजिह्वा की वाणी है।

सन्ध्याद्युमणिकण्ठा च लसद्वाहुसमन्वताम्।
पर्जन्य हृदयासक्तं वसुसुस्तनमण्डलाम्।।9।।

उस सन्ध्या रूपी द्युमणि से कण्ठ शोभित है। वाहु शोभायुक्त है तथा पर्जन्य हृदय है और स्तनमण्डल वसु है।

वितताकाशमुदरं सुनाभ्यन्तरदेशकाम्।
प्रजापत्याख्जघनां कटीन्द्राणीतिसंज्ञिकाम्।।10।।

आकाश उदर है, अन्तरदेश नाभि है। जघन प्रजापति है, कटि इन्द्राणी है।

उरू मलयमेरुभ्यां सन्ति यत्रासुरद्विष:।
जानुनी जहनु कुशिकौ वैश्र्वदेवसदाभुजाम्।।11।।

ऊरु मलय मेरु हैं, जहाँ असुर द्वेषी देव निवास करते हैं। जानु में जहनु कुशिक हैं, भुजायें वैश्वदेव हैं।

अयंनद्वयं जंघांघं खुरादि पितृसंज्ञिकाम्।
पादांघ्रिनखरोमादि भूतलद्रुमलांछिताम्।।12।।

जंघाओं के दोनों आदि स्थान अयन है, खुर आदि पितृ है, पद, अंघ्रि, नख, रोम आदि, पेड़ड तल के पेड़ आदि कहे हैं।

ग्रहराशिदेवर्षयो मूर्तिं च परसज्ञिकाम्।
तिथिमासर्तुर्वर्षाख्यं सुकेतुनिमिषात्मिकाम्।।

माया कल्पित वैचित्र्यां सन्ध्याच्छादन संवृताम्।।13।।
ग्रह, राशि, देव, ऋषि, परसंज्ञक, शक्ति की मूर्तियाँ हैं। तिथि, मास, ऋतु, वर्ष तथा सुकेतु आदि निमेष हैं। माया से रचित विचित्रता वाली तथा सन्ध्या के आवरण से युक्त है।

ज्वलत्कालानलप्रभां तडित्कोटिसमप्रभास्।
कोटिसूर्यप्रतीकाशां चन्द्रकोटिसुशीतलाम्।।14।।

कालाग्नि की तरह ज्वलन युक्त है, करोड़ों बिजलियों के समान प्रभायुक्त है, करोड़ों सूर्य की तरह प्रकाशवान् और करोड़ों चन्द्रमा के समान शीतल है।

सुधामण्डलमध्यास्थां सान्द्रानन्दाऽमृतात्मिकाम्।
प्रागतीतां मनोरभ्यां वरदां वेदमातरम्।।15।।

सुधा मण्डल के मध्य में आनन्द और अमृतयुक्त है, प्राक् है, अतीत है, मनोहर है, वरदा है और वेदमाता है।

षडंगा वर्णिता सा च तैरेव व्यापकत्रयम्।
पूर्वोक्त देवतां ध्यायेत्साकारगुणसंयुताम्।।16।।


इसके छ: अंग है, यह तीनों भुवनों में व्याप्त है। इन पूर्वोक्त गुणों से संयुक्त देवता का ध्यान करना चाहिये।

पञ्चवक्त्रां दशभुजां त्रिपञ्चनयनैर्युताम्।
मुक्ताविद्रुसौवर्णां स्वच्छशुभ्रसमाननाम्।।17।।

पाँच मुँह हैं, दश भुजा हैं, पन्द्रह नेत्र हैं और मुक्ता, विद्रुम के तुल्य सुवर्ण, सफेद तथा शुभ आनन हैं।

आदित्य मार्गगमनां स्मरेद् ब्रह्मस्रूपुणीम्।
विचित्रमन्त्रजननीं स्मरेद्धिद्यां सरस्वतीम्।।18।।

वह सूर्य मार्ग से गमन करती है, उस ब्रह्म स्वरूपिणी का स्मरण करना चाहिये। उन विचित्र मंत्रों की जननी विद्या सरस्वती का स्मरण करना चाहिये।

 

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