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आचार्य श्रीराम शर्मा >> संस्कृति पुरुष हमारे गुरुदेव

संस्कृति पुरुष हमारे गुरुदेव

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4198
आईएसबीएन :0000

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संस्कृति पुरुष गुरुदेव...

Sanskrit Purush Hamare Gurudev

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

देवसंस्कृति का पुण्य-प्रवाह इन दिनों सारे विश्व को आप्लावित कर रहा है। यह संस्कृति देवत्व का विस्तार करती रही है, इसीलिए इसे देवसंस्कृति कहा गया है। इस संस्कृति को एक महामानव ने अपने जीवन में जिया-हर श्वास में उसे धारण कर जन-जन के समक्ष एक नमूने के रूप में प्रस्तुत किया। वह महापुरुष थे-परम पूज्य गुरुदेव पं.श्रीराम शर्मा आचार्य जी। गायत्री परिवार के संस्थापक-अधिष्ठाता-युग की दिशा को एक नया मोड़ देने वाले इस प्रज्ञा पुरुष का जीवन बहुआयामी रहा है। उनने न केवल एक संत-मनीषी-ज्ञानी का जीवन जिया, स्नेह संवेदना की प्रतिमूर्ति बनकर एक विराट् परिवार का संगठन कर उसके अभिभावक भी वे बने। आज के इस भौतिकता प्रधान युग में यदि कहीं कोई शंखनिनाद-घड़ियाल के स्वर, मंत्रों की ऋचाएँ-यज्ञ धूम्र के साथ उठते समवेत सामगान सुनाई पड़ते हैं, लोगों को अंधेरे में कहीं पूर्व की सूर्योदय की उषा लालिमा दिखाई पड़ रही है, तो उसके मूल में हमारे संस्कृति पुरुष ही हैं।

इस संस्कृति पुरुष के अवतरण से लेकर उनके द्वारा की गई संस्कृति प्रधान सेवा की साक्षी देता है, यह ग्रंथ। संस्कृति पुरुष विशेषांक के रूप में प्रकाशित नवम्बर 2000 का ‘‘अखण्ड ज्योति’’ अंक जन-जन को प्रिय लगा। उन्हीं की लेखमालओं को क्रमबद्ध कर कुछ संपादित कर हम पाठकों के समक्ष इसे रख रहे हैं। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना की पूर्व वेला में यह ग्रंथ निश्चित ही मननीय, पठनीय बनेगा। उसी गुरुसत्ता के चरणों में यह ग्रंथ एक पुष्पांजलि के रूप में समर्पित है।

ब्रह्मवर्चस


संस्कृति पुरुष परम पूज्य गुरुदेव



सजल भावनाओं एवं प्रखर विचारों के राशि-राशि सितारों से भारतवर्ष की देव संस्कृति का आकाश भरा पड़ा है। अनन्त—अनगिन सितारे हैं। यहाँ वैदिक महर्षियों के ज्ञान-विज्ञान, बृहस्पति की नीति, कृष्ण का कर्म-कौशल, बुद्ध की करुणा, महावीर का त्याग, पतंजलि का योग, मीरा का प्रेम, रैदास-रामानुज की भक्ति, नानक की आस्था, तुलसी की श्रद्धा, राम की मर्यादा, सूर का विश्वास, आचार्य शंकर के धारदार पैने तर्क, महर्षि रमण का तप, स्वामी विवेकानन्द की देव संस्कृति दिग्विजय, तिलक का राष्ट्र प्रेम सभी उज्ज्वल प्रदीप्ति में दीप्तिमान हैं, लेकिन इन सबकी उज्ज्वल ज्योति जब घनीभूत हो संस्कृति पुरुष की भव्य मूर्ति गढ़ती है, तो परम पूज्य गुरुदेव का दिव्य स्वरूप साकार होता है।

संस्कृति पुरुष परम पूज्य गुरुदेव में देव संस्कृति के सभी तत्त्व अपने मौलिक, किन्तु सार रूप में समाहित हैं। उनके व्यक्तित्व में भावनाओं की सजलता है, तो कृतित्व में विचारों की प्रखरता है, जो सजल श्रद्धा और प्रखर प्रज्ञा दोनों एक साथ हैं। वंदनीया माताजी उन्हीं की छाया हैं। उन्हीं में समाहित हैं। उनमें संस्कृति की मधुरिमा एवं सम्मोहन दोनों ही हैं।

पूज्य गुरुदेव के विचारों में तप की इतनी प्रबल शक्ति है कि उनका साहित्य पढ़ते समय भी उनका तप-प्राण निरन्तर आस-पास मंडराता रहता है। उनके शब्द कभी बड़े प्यार से हमें अपनी बाहों में भर लेते हैं, सहलाते हैं, प्रेम भरा आश्वासन देते हैं। कभी हमारा आहावन करते हैं और हमारे अहसास को प्रखर करते रहते हैं। उनके शब्दों में जीवन्तता है, अधिकार है, आत्मविश्वास है और है निर्भयता। यह सामर्थ्य उनकी आध्यात्मिक साधना से उद्भूत है। उन्हें पढ़ने वाला इस अनोखेपन का एहसास पाये बिना नहीं रहता।

उनकी भाषा अत्यन्त सरल, रसमयी, अर्थ को सटीक अभिव्यक्ति देने वाली और हृदयस्पर्शी है। जीवन एवं संस्कृति, अतीत एवं वर्तमान, धर्म और विज्ञान, प्राच्य एवं पाश्चात्य के किसी भी पहलू के भीतर पैठते समय जब वे उसके एक-एक रहस्य को उजागर करते हैं, विश्लेषण एवं समन्वय करते हैं, तो ऐसा लगता है, मानों किसी गीत की कड़ी को बार-बार नये स्वरालंकारों से सजा रहे हों। वे देव संस्कृति के हर रहस्य को हमारे दैनंदिन जीवन में घटने वाले, हम सबके जाने-पहचाने उदाहरण देकर तर्क संगत रूप से प्रस्तुत करते हैं। परमपूज्य गुरुदेव निश्चित ही इस युग के संस्कृति पुरुष हैं। उनमें भारतीय संस्कृति के अस्तित्व एवं अस्मिता का गौरव सम्पूर्ण रूप से प्रकाशित है। मनुष्य में देवत्व एवं धरा पर स्वर्ग के अवतरण का संकल्प उन्होंने किया है। इस संकल्प को साकार करना प्रत्येक मनुष्य का दायित्व है।


देव पुरुष का अवतरण


ब्रजमण्डल अपने आप में भारतीय संस्कृति की सारी मधुरता संजोये है। चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य, रूप गोस्वमी, जीव गोस्वामी आदि संतों की साधना भूमि यही है। मीरा यहीं प्रेम विह्वल हुई थीं। भक्त रसखान तो हर जन्म में ब्रजभूमि में ही रहना चाहते थे। भले ही उन्हें पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पति यहाँ तक की पाषाण होकर ही क्यों न रहना पड़े। ब्रज की धरती का यह सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक अनूठापन निश्चित ही विधाता को भी भा गया। तभी तो नियति ने अपनी अकाट्य लिपि लिखी। देव शक्तियों ने नवयुग की सांस्कृतिक चेतना के रूप में संस्कृति पुरुष परम पूज्य गुरुदेव के अवतरण का विधान बनाया।

दशरथ एवं कौशल्या, वसुदेव एवं देवकी की ही तरह पं. रूप किशोर शर्मा एवं देवी दानकुँवरि को ऋषियों एवं देवों ने मिलकर चुना। पं. रूपकिशोर शर्मा आगरा जनपद के आँवलखेड़ा ग्राम में रहने वाले जमींदार थे और देवी दानकुँवरि उनकी सहधर्मिणी। इन ब्राह्मण दम्पति में ब्रह्मणत्व सच्चे अर्थों में साकार हुआ था। पं. रूपकिशोर जहाँ एक ओर भारती संस्कृति के प्रति अगाध निष्ठावान् थे, वहीं वह संस्कृति के ज्ञान-विज्ञान के विविध पक्षों में निष्णात भी थे। संस्कृत के असाधारण पाण्डित्य के साथ ज्योतिष विद्या एवं आयुर्वेद शास्त्र पर उनका परिपूर्ण अधिकार था। भागवत के कथावाचक के रूप में देश के अनेक राजा-महाराजा उनका सम्मान करते थे। आस-पास के सामान्य जनों में भी उनके प्रति एक आंतरिक श्रद्धा भाव था।

देवि दानकुँवरि परम तपस्वी नारी थीं। पवित्रता उनमें लिपटी-सिमटती थी। दाम्पत्य जीवन के अनेक सुखद वर्षों के बाद उन्हें एक दिन लगा कि जैसे कोई ज्योतिर्मय चेतना उनके गर्भ में प्रवेश कर गयी है। उस दिन से उन्हें अपूर्व उल्लास की अनुभूति होने लगी। उनके मुख-मण्डल पर अलौकिक आभा आ गयी। घर-परिवार एवं अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं को उनके शरीर से यदा-कदा सुगन्ध का अहसास भी होता। इन महिलाओं में से प्रायः सभी को माँ बनने का अनुभव  हो चुका था। वे गर्भ के लक्षणों से परिचित थीं, पर वे लक्षण तो कुछ और ही थे। इन महिलाओं में से एक-आध तो उनको जब-तब टोक भी देतीं-लगता है तुम्हारी कोख में कन्हैया स्वयं आये हैं, तभी तो तुम्हारी ओर आजकल नजर टिका कर देखना भी मुश्किल हो गया है। चेहरे पर नजर ही नहीं टिकती।

देवी दानकुँवरि भी अपने में आये परिवर्तनों से चकित थीं। उनके मन में हर समय आध्यात्मिक पवित्रता की तरंगे उठती रहती थीं। जबसे उनका गर्भकाल शुरू हुआ, उन्हें विचित्र सपने आने शुरू हो गये थे। ये सपने उनकी दृष्टि में विचित्र इसलिए थे, क्योंकि वह इनका अर्थ नहीं खोज पाती थीं; हालाँकि इन स्वप्नों को देखने के बाद वह गहरी आध्यात्मिक तृप्ति एवं उल्लास से भर जाती थीं। वह अपने स्वप्नों में प्रायः हिमालय के हिम शिखरों को देखतीं। यदा-कदा उन्हें यह लगता कि हिमलाय के आँगन में तेजस्वी महर्षि बैठे यज्ञ कर रहे हैं। यज्ञ मंत्रों की सस्वर गूँज से उनके मन-प्राण गूँज उठते थे।

कभी-कभी अर्द्ध निद्रा में उन्हें लगता कि सूर्य मण्डल से गायत्री महामंत्र की ध्वनि तरंगें निकलकर उनके रोम-रोम में समा रही हैं। गायत्री महामंत्र का इतना सस्वर एवं सम्मोहक पाठ उन्होंने कभी न सुना था। दोपहर को जब वह घर-गृहस्थी के कामों को निबटाकर थोड़ी देर के लिए विश्राम करतीं, तो उन्हें लगता कि अनेक देवी-देवता उनके आस-पास हाथ जोड़े खड़े हैं। जैसे वे सब उनकी स्तुति कर रहे हों। अपने इन स्वप्नों की चर्चा वह अपने पति से भी करतीं। उनके पति भी उनमें आये इस परिवर्तन को देखकर चकित थे। वह उनको समझाते हुए कहते-लगता है तुम किसी देव शिशु की जननी बनने जा रही हो। यह कहकर पं. रूपकिशोर किसी अनजानी गहनता में खो जाते।


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