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आचार्य श्रीराम शर्मा >> नैतिक शिक्षा - भाग 2

नैतिक शिक्षा - भाग 2

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4200
आईएसबीएन :00000

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नैतिक शिक्षा का दूसरा भाग....

Naitik Shiksha-2

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

अपना देश हजार वर्ष, की गुलामी से छूट चुका है। इस लंबी अवधि में उसे दयनीय उत्पीड़न में से गुजरना पड़ा है। यह दुर्दिन उसे अपनी हजार वर्ष से आरंभ हुई बौद्धिक भ्रांतियों, अनैतिक आकांक्षाओं और सामाजिक ढाँचे की अस्त-व्यस्तताओं के कारण सहना पड़ा, अन्यथा इतने बड़े, इतने बहादुर, इतने साधन-संपन्न देश को मुट्ठी भर आक्रमणकारियों का इतने लंबे समय तक उत्पीड़न न सहना पड़ता।

सौभाग्य से राजनैतिक स्वतंत्रता मिल गई। इससे अपने भाग्य को बनाने-बिगाड़ने का अधिकार हमें मिल गया। उपलब्धि तो यह भी बड़ी है, पर काम इतने भर से चलने वाला नहीं है। जिन कारणों से हमें वे दुर्दिन देखने पड़े, वे अभी भी ज्यों के त्यों मौजूद है। इन्हें हटाने के लिए प्रबल प्रयत्न करने की आवश्यकता है। अन्यथा फिर कोई संकट बाहर या भीतर से खड़ा हो जाएगा और अपनी स्वाधीनता खतरे में पड़ जाएगी। व्यक्ति और समाज को दुर्बल करने वाली विकृतियों की ओर ध्यान देना ही पड़ेगा और जो अवांछनीय अनुपयुक्त हैं, उसमें  बहुत कुछ ऐसा है जिसको बदले बिना काम नहीं चल सकता। साथ ही उन तत्त्वों का अपनी रीति-नीति में समावेश करना पड़ेगा, जो प्रगति, शांति और समृद्धि के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं।

व्यक्ति के निर्माण और समाज के उत्थान में शिक्षा का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। प्राचीन काल की भारतीय गरिमा ऋषियों द्वारा संचालित गुरुकुल पद्धति के कारण ही ऊँची उठ सकी थी। पिछले दिनों भी जिन देशों ने अपना भला-बुरा निर्माण किया है, उसमें शिक्षा को ही प्रधान साधन बनाया है, जर्मनी इटली का नाजीवाद, रूस और चीन का साम्यवाद, जापान का उद्योगवाद युगोस्लाविया, स्विटजरलैंड, क्यूबा आदि ने अपना विशेष निर्माण इसी शताब्दी में किया है। यह सब वहाँ की शिक्षा प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने से ही संभव हुआ। व्यक्ति का बौद्धिक और चारित्रिक निर्माण बहुत करके उपलब्ध शिक्षा प्रणाली पर निर्भर करता है। व्यक्तियों का समूह ही समाज है। जैसे व्यक्ति होंगे वैसा ही समाज बनेगा। किसी देश का उत्थान या पतन इस बात पर निर्भर करता है कि इसके नागरिक किस स्तर के हैं और यह स्तर बहुत करके वहाँ की शिक्षा-पद्धति पर निर्भर रहता है।

अपने देश की शिक्षा पद्धति कुछ अजीब है। यहाँ नौकरी भर कर सकने में समर्थ बाबू लोग ढाले जाते हैं। हर साल निकलने वाले इन लाखों छात्रों को नौकरी कहाँ मिले। वे बेकार घूमते हैं और लंबी-चौड़ी जो महत्त्वाकांक्षाएँ संजोकर रखी गई थीं, उनकी पूर्ति न होने पर संतुलन खो बैठते हैं और तरह-तरह के उपद्रव करते हैं। अपना शिक्षित वर्ग, अशिक्षितों की अपेक्षा देश के लिए अधिक सिर दर्द बनता जा रहा है। इसमें बहुत बड़ा दोष शिक्षा पद्धति का है, जिसमें चरित्र गठन, भावनात्मक उत्कर्ष, विवेक का तीखापन तथा आर्थिक स्वावलंबन की दृष्टि से केवल खोखलापन ही दीखता है।

सरकार का काम है कि वह राष्ट्र की आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार शिक्षा पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन करे, पर इन दिनों जो स्थिति है उसे देखते हुए निकट भविष्य में ऐसी आशा कम ही की जा सकती है, फिर क्या हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा जाए ? और जो कुछ चल रहा है उसे ही चलते रहने दिया जाए ? ऐसा उचित न होगा। हमें जनता के स्तर पर जन-सहयोग से ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित करनी चाहिए जो उपयुक्त प्रयोजन को पूरा करने में कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान कर सके। युग निर्माण योजना ने यही कदम उठाया है।

गायत्री तपोभूमि में अवस्थिति युग निर्माण योजना के अंतर्गत कई वर्ष से एक युग निर्माण विद्यालय चल रहा है। इसका प्रधान विषय जीवन जीने की कला, चरित्र गठन, मनोबल, विवेक-जागरण, समाज निर्माण जैसे तथ्यों का सांगोपांग शिक्षण और अभ्यास कराना है। साथ ही गृह उद्योगों का एक शिक्षण भी जुड़ा रखा गया है, जिसमें कोई सुशिक्षित व्यक्ति अपने निर्वाह के उपयुक्त समुचित आजीविका उपार्जन कर सके। मजदूरों को कड़ा परिश्रम करके थोड़े पैसे कमाकर भी गुजर करने की आदत रहती है, पर जिनका रहन-सहन सभ्य-समाज के उपयुक्त बन गया, उन प्रशिक्षितों से न तो उनका-सा कठिन शारीरिक श्रम हो पाता है और न कम पैसों में गुजर होती है। बेकारी का हल सार्वजनिक रीति से जापान ने निकाला है। वहाँ घर-घर कुटीर-उद्योगों की विद्युत-संचालित मशीनें लगी हैं। अब बिजली बहुत सस्ती है, उसकी उपलब्धि हो जाती है। उसका उपयोग करके शारीरिक श्रम बचाया जा सकता है और उत्पादन भी अधिक हो सकता है।

युगनिर्माण विद्यालय में ऐसे ही उद्योगों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है। बिजली की विभिन्न मशीनों की मरम्मत, रेडियो, ट्रांजिस्टरों का निर्माण, सुगंधित तेल बनाना। प्रेस व्यवसाय के अंतर्गत कंपोज, छपाई, बाइंडिंग, रबड़ की मुहरें, व्यवस्था आदि प्रशिक्षणों का क्रम बहुत दिनों से चल रहा था। यह शिक्षितों को स्वावलंबन देने की दिशा में एक अति महत्त्वपूर्ण कदम है। इसके अतिरिक्त मुख्य विषय वही है, जिसके आधार पर जीवन जीने की कला, व्यक्तित्व का विकास, प्रतिभा, दूरदर्शिता, विवेकशीलता, चरित्र गठन, मनोबल, देशभक्ति, लोक मंगल के लिए उमंग आदि सद्गुणों को सुविकसित किया जा सकता है। जो उत्साह वर्धक परिणाम इस प्रशिक्षण से निकले उनने इस बात के लिए प्रेरणा दी, कि इस शिक्षा प्रणाली को अधिक परिष्कृत और व्यवस्थित ढंग से चलाया जाए तथा इसे मथुरा के छोटे विद्यालय तक सीमित न रखकर देश व्यापी बनाया जाए।

विचार यह किया है कि व्यक्ति निर्माण तथा समाज निर्माण के लिए आज की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए एक प्रशिक्षण व्यवस्था की जाए जो प्रस्तुत समस्याओं का समाधान कर सकने में समर्थ हो। आज का व्यक्ति अगणित कुत्साओं और कुण्ठाओं से घिरा हुआ हेय से हेयतर स्तर तक गिरता चला जा रहा है। लोगों की शिक्षा और संपदा बढ़ रही है, पर वे व्यक्तित्व की दृष्टि से उल्टे अधः पतित होते चले जा रहे हैं। समाज में सहयोग नहीं शोषण पनप रहा है। दिन-दिन अनैतिकता, अवाँछनीयता, उच्छृंखलता, अदूरदर्शिता, एवं असामाजिकता की विघटनकारी प्रवृत्तियाँ बढ़ती जा रही हैं और भीतर ही भीतर अपनी संघ शक्ति खोखली होती जा रही है। न इस सामाजिक स्थिति में व्यक्ति को उत्साह मिल रहा है और न व्यक्ति मिल-जुल कर समाज का स्तर उठा रहे हैं। विनाश और विघटन बढ़ रहा है और भविष्य का क्षितिज अंधकार से घिरता चला जाता है। इसको रोकने के लिए ऐसी तीव्र विचार-पद्धति का विकास आवश्यक है जो जनमानस को झकझोर कर रख दे और विनाश की ओर बढ़ते कदमों को रोक कर उन्हें निर्माण की दिशा में अग्रसर करे।

ऐसा शिक्षण, शिक्षण-संस्थाओं में भी चलना चाहिए सरकार को ऐसे कदम उठाने चाहिए। पर वर्तमान स्थिति में सरकार जिस दल-दल में फँसी है, उससे उबरना ही उसे कठिन पड़ रहा है। ऐसे मौलिक सूझ-बूझ के साहस भरे कदम उठाने की फिलहाल तो उससे आशा नहीं करना चाहिए। यह कार्य जन स्तर पर आरंभ किया जाए तो भी उसमें कुछ प्रगति हो सकती है। आरंभ यदि सही दिशा में किया जाए और उसका स्वरूप छोटा हो, तो भी अपनी उपयोगिता के कारण उसके आगे बढ़ने की बहुत संभावना रहेगी। युग निर्माण-योजना ने ऐसा ही साहस किया है।

यह विचार किया गया है कि युग निर्माण विद्यालय मथुरा का प्रयोग देश के सभी समान स्तर के विद्यालयों में लागू करने का प्रयास किया जाए। अतः यह प्रस्तावित है कि सभी माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालय अपने नियमित पाठ्यक्रम के अतिरिक्त युग निर्माण योजना द्वारा प्रस्तुत नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम स्वैच्छिक आधार पर लागू करें। इसी प्रयोजन हेतु ‘‘युग निर्माण के आदर्श और सिद्धांत’’ पुस्तक की सहायता से यह पुस्तक पाठ्यक्रम के रूप में तैयार की गई है। इस पुस्तक के आधार पर नौतिक शिक्षा पर वार्षिक परीक्षा आयोजित की जानी चाहिए। माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालयों में अध्ययनरत छात्र स्वेच्छा से इस परीक्षा में बैठ सकेंगे। उत्तीर्ण करने पर परीक्षार्थी को ‘‘नैतिक शिक्षा निष्णात’’ का प्रमाण पत्र दिया जाना चाहिए।

नैतिकता व्यक्ति के आचरण में परिलक्षित होनी चाहिए। यह तभी संभव है जब नैतिक मूल्यों की जानकारी के साथ-साथ उसकी मानसिक और वैचारिक पृष्ठभूमि भी उच्च स्तर की हो। इस प्रकार के विकास में वातावरण  का बहुत महत्व होता है। अतः नैतिक शिक्षा का पाठ्यक्रम चलाए जाने के साथ-साथ यह भी आवश्यक होगा कि विद्यालय में एक ऐसे वातावरण का निर्माण हो जो विद्यार्थी के लिये प्रेरणाप्रद हो, और उसे उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की तरफ आकर्षित करे।

खंड-1
अधिकार गौण और कर्त्तव्य प्रधान


सुविधाओं का लाभ उठाने और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वस्तुओं का उत्पादन करना पड़ता है। यह उत्पादित वस्तुएँ ही संपदा कहलाती हैं। सिक्का तो इस उत्पादन शक्ति का प्रतिनिधि मात्र है जिसे वस्तुओं के स्थानांतरण की सुविधा के लिए चलाया गया है। संपदा उत्पादन के तीन पक्ष हैं—(1)  पूँजी (2)  अनुभव (3) श्रम। इन तीनों को भले ही एक व्यक्ति जुटाए, पर काम इनकी सम्मिलित शक्ति से ही चलेगा। जीवन-यापन की आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए अन्न से लेकर यंत्रों तक और शिल्पियों से लेकर व्यवस्थापकों तक विभिन्न स्तर के जड़–चेतन साधन जुटाने पड़ते हैं। यही संपदा उत्पादन का तंत्र हमारी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने और सुविधाएँ जुटाने में समर्थ होता है।

इन दिनों उत्पादन क्षेत्र में दो प्रधान पक्ष हैं—(1) मालिक, (2) मजदूर। दोनों के उचित सहयोग से संपदा ठीक तरह उपजती है। जिनके पास पूँजी एवं अनुभव नहीं है, वे मजदूर अकेले कुछ बड़ा काम नहीं कर सकते। सहयोग के बिना दोनों की क्षमता व्यर्थ है। सरकारी व्यवस्था तंत्र भी छोटे कर्मचारियों से लेकर बड़े अफसरों तक श्रमिकों की श्रृंखला में ही आते हैं। सरकार वेतन का तथा कर्म पद्धति का निर्धारण करती है, कर्मचारी श्रम करते हैं, दोनों का सहयोग, दोनों की सद्भावनाओं का तारतम्य घनिष्ठतम ही कहना पड़ेगा।

दुर्भाग्यवश इन दिनों मालिक और श्रमिक वर्ग में दिन-दिन खाई चौड़ी होती जा रही है और सहयोग के सूत्र शिथिल हो रहे हैं। उसका परिणाम उत्पादन की कमी के रूप में सामने आ रहा है और महँगाई बढ़ रही है। इसका दुष्परिणाम सभी को भुगतना पड़ा रहा है और देश का अर्थतंत्र लड़खड़ाने लगा है। इस अवांछनीय स्थिति को रोका और सँभाला जाना चाहिए।





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