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आचार्य श्रीराम शर्मा >> विज्ञान एवं अध्यात्म का समन्वित स्वरूप

विज्ञान एवं अध्यात्म का समन्वित स्वरूप

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4202
आईएसबीएन :00000

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विज्ञान और अध्यात्म का स्वरूप

Vigyan Evam Adhyatm Ka Samanavit Swaroop

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अध्यात्म का स्वरूप और प्रयोजन

इस विश्व ब्रह्मांड में दो-शक्ति-सत्ताएँ आच्छादित हैं। एक जड़ दूसरी चेतन। इन्हीं को प्रकृति और पुरुष भी कहते हैं। स्थूल और सूक्ष्म भी। इन दोनों का पृथक- पृथक अस्तित्व और महत्त्व है, पर सुयोग तभी बनता है जब वे एक दूसरे की सहायक बनकर संयुक्त शक्ति के रूप में विकसित होतीं और अपने चमत्कार दिखाती हैं।

उदाहरण के लिए शरीर को ही लिया जाए। काया पंचतत्त्वों द्वारा विनिर्मित है। अंग अवयवों में रक्त-मांस, तंतु-झिल्ली, अस्थिमज्जा का मिलन-एकीकरण है। इसीलिए उनसे इच्छानुरूप काम कराया जा सकता है। शरीर तंत्र की प्रकृति की करामात भी इसे कह सकते हैं। इतने पर भी वह अपूर्ण है। उसके भीतर एक चेतना काम करती है। उसी का अचेतन भाग श्वास- प्रश्वास, निमेष-उन्मेष, आकुंचन-प्रकुंचन, सुषुप्ति- जागृति आदि की व्यवस्था करता और इच्छानुरूप कार्य करने का आदेश देकर अनेकानेक क्रिया कृत्य संपन्न करता है।

जब तक जड़-चेतन का संयोग है, तभी तक प्राणी जीवित रहता है। दोनों के विलग हो जाने पर मृत्यु हो जाती है। मरा हुआ शरीर देखने में यथावत रहने पर भी सर्वथा निर्जीव हो जाता है। तेजी से सड़ने-गलने लगता है, ताकि उसके घटक पृथक-पृथक होकर अपनी मूल स्थिति में जा पहुँचें। निर्जीव शरीर बेकार है। शरीर रहित आत्मा अपना अस्तित्व भले ही बनाए रहती हो, पर उसका प्रकट परिचय देने तक की स्थिति में नहीं रहती। मरणोपरांत अदृश्य प्राण चेतना किस रूप में रहती है ? पुनर्जन्म से पूर्व उसे किस स्थिति में कहाँ रहना पड़ता है ? उसका केवल अनुमान ही लगाया जाता रहता है। कदाचित आत्मसत्ता कुछ अधिक सामर्थ्यवान रही होती तो उसने अपनी स्थिति पर ऐसा प्रकाश डाला होता जो हर किसी के लिए मान्य होता, पर आदिकाल से लेकर अद्यावधि इस संबंध में कुछ सुनिश्चित तथा हस्तगत हो नहीं सका है। आत्माएँ भी अस्तित्व के रहते हुए शरीर साधन के बिना कुछ सुनिश्चित अभिव्यक्ति प्रकट नहीं कर पातीं। भूत-प्रेत के रूप में उनके शरीर की हरकतें ही यदा-कदा प्रकाश में आती हैं। इतने पर भी प्रमाण नहीं मिलता कि मरण से लेकर पुनर्जन्म तक की अवधि में उन्हें कहाँ किस प्रकार रहना पड़ा और क्या करना पड़ा। कोई अनुमान लगाया भी गया हो तो मतावलंबियों द्वारा अपने-अपने ढंग से प्रतिपादित करने पर अनिश्चय की स्थिति फिर जैसी की तैसी बन जाती है। भूत प्रेतों तक के संबंध में उन्हें प्रभावित व्यक्ति की प्रगाढ़ मान्यता कहकर उपेक्षित कर दिया जाता है।

अभिप्राय इतना भर है कि जड़ और चेतन का समन्वय ही कोई सार्थक स्थिति का निर्माण करता है, अन्यथा इस विशाल ब्रह्मांड में बिखरा पड़ा पदार्थ तत्त्व भी अपनी अस्त व्यवस्था और कुरूपता का ही परिचय देता है। धरती पर ठोस रूप में, जलाशयों में द्रव रूप में और आकाश में वाष्पीभूत स्थिति में पदार्थ सत्ता बेतुके रूप में बिखरी पड़ी रहती है। थल प्रदेश, जिसके साथ मनुष्य का संपर्क सधा है वहाँ खड्डे टीले जैसा ही कुछ अनगढ देखा पाया जाता है। वृक्ष वनस्पति वहाँ हैं तो पर उनकी क्रमबद्धता कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। जलाशयों में समुद्र सबसे बड़ा है, पर वह इतना गहरा और खारा है कि उसका प्रयोग सर्वसाधारण के लिए किसी निमित्त उपयोग कर सकना संभव नहीं। आकाश में यों हवा का ही परिचय मिलता है, पर उन गैसों में भी विद्युत, एक्सरे जैसी सूर्य द्वारा उत्पादित किरणों की भरमार है। इसका स्व-संचालित कोई विशेष उपयोग नहीं, कभी-कभी उस क्षेत्र में भी आँधी-तूफान जैसे उद्दंड प्रकरण उभरते रहते हैं। मेघ मालाएँ घुमड़ने और बिजली चमकने जैसे कौतूहलवर्द्धक दृश्य तो सामने आते हैं, पर उनकी शक्ति सामर्थ्य का ऐसा उपयोग नहीं बनता जिसे सराहा और उपयोगी कहा जा सके। कहीं अतिवृष्टि, कहीं अनावृष्टि। यहाँ तक कि समुद्रों से उठे बादल समुद्र पर ही बरसकर अपने बेतुकेपन का परिचय देते हैं। थल, जल और नभ के क्षेत्र में यदि चेतना का हस्तक्षेप न हुआ होता तो यहाँ अभी भी लगभग वैसा ही दीख पड़ता जैसा अनादिकाल में किसी प्रकार विनिर्मित हुआ था।

कहने का तात्पर्य यह है कि जड़ और चेतन का संयोग ही सब प्रकार अभीष्ट है। जीवन यात्रा के सुसंचालन तक में चेतना की आवश्यकता पड़ती है, तभी वे सुंदर, सुव्यवस्थित और उपयोगी होने का प्रमाण परिचय दे पाते हैं। भूमि को समतल बनाकर घास किस्म की वनस्पतियों को अन्न के रूप में खाद्य का प्रमुख आधार बना देना मनुष्य का ही कौशल है। खेत और उद्यान अपने आप नहीं बन पड़ते, उनमें मनुष्य का समुचित श्रम और कौशल नियोजित होता है। बीजों और फलों को प्रस्तुत करने और उपयोग में लिए जाने की कला मनुष्य की अपनी वृत्ति है। जलाशय जहाँ-तहाँ होते हैं। धरती के भीतर भी पानी बहुत गहरा है, उसे दैनिक उपयोग में लाने के लिए घरों में संग्रह कर रखना मनुष्य का अपना कौशल है। आकाश में विद्यमान हवा और तापमान से संतुलित लाभ लेने के लिए मकान उसी ने बनाए हैं। तापमान की चिंगारी से लेकर ज्वाला में बदल लेने की क्रिया का श्रेय मनुष्य को है। यद्यपि अग्नि एवं बिजली का अस्तित्व अनादिकाल से सृष्टि परिकर में विद्यमान था, पर उसका उद्घाटन तो मनुष्य ने ही किया है और उन सबका विविध प्रयोजनों के लिए उपयोग कर सकने का कौशल उसी के पुरुषार्थ ने संभव कर दिखाया है।

ऊपर कुछ प्रारंभिक प्रत्यक्षीकरण और उत्पादनों की चर्चा है जिनमें यह बताना उद्देश्य है कि प्रकृति के ठोस, द्रव और व्यापक कलेवरों में शक्ति सामर्थ्य कितनी ही क्यों न हो, पर उनका लाभ लेना मानवी चेतना के कौशल पर ही निर्भर रहा है। आरंभिक काल से लेकर अब तक प्रकृति की शक्तियों का रहस्योद्घाटन सुनियोजन और महत्त्वपूर्ण उपयोग बन पड़ना संभव बनाने वाली कुशलता का नाम ही विज्ञान है। इस चमत्कारी उपलब्धि को जड़ चेतन का समन्वय ही कह सकते हैं। इसी के बल पर वह प्रगति संभव हुई है। जिसके आधार पर इस धरातल पर सर्वत्र सुख साधनों के अंबार खड़े हो गए हैं। उनके सहारे मनुष्य अपने को सर्वश्रेष्ठ शक्ति संपन्न एवं धरातल का अधिष्ठाता बनाने का दावा करता देखा जाता है। यह दावा किसी सीमा तक सही भी है। वन्य पशुओं और मनुष्यों की तुलनात्मक समीक्षा करने पर सहज ही जाना जा सकता है कि पदार्थ को सुनियोजित करने की क्षमता जिसे विज्ञान कहते हैं, कितना सशक्त समर्थ और सुविधाओं से भरा-पूरा है।
पदार्थ की अपनी स्वतंत्र सत्ता है। इसी प्रकार चेतना के भी स्रोत-उद्गगम और कार्यक्षेत्र पृथक है। इस पृथकता के रहते हुए भी संसार इतना सुंदर और सुविधा-साधनों से भरा-पूरा बन सका, उसका श्रेय उस विज्ञान को ही दिया जा सकता है जिसे पदार्थ से लाभान्वित होने की कुशलता कहा जाता है। सामान्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य कहीं अधिक सुखी समृद्ध है, यह तभी बन पड़ा जब विज्ञान का उद्भव करना और उससे लाभ उठाने की प्रक्रिया को अधिकाधिक सफलतापूर्वक संपन्न करना संभव हुआ।
 
इस मोटी जानकारी के उपरांत एक और भी बड़ी बात विचारणीय रह जाती है कि पदार्थ का उपयोग जानना ही पर्याप्त नहीं, उसका सदुपयोग भी समझा जाना चाहिए। यह विभाजन रेखा मात्र पदार्थ तक ही सीमित नहीं है, वरन स्वयं चेतना के अपने आपे पर भी लागू होती है। इन दोनों महाशक्तियों का यदि सदुपयोग न बन पड़े तो फिर दूसरा पक्ष दुरुपयोग ही रह जाता है। विज्ञान को शक्ति और साधन उत्पन्न करने का श्रेय तो है, पर वह स्वयं इस स्थिति में नहीं है कि सदुपयोग और दुरुपयोग का अंतर कर सके। देखा गया है कि तात्कालिक लाभ की संकीर्णता प्रायः ऐसे सघन आवरण से भरी-पूरी होती है कि उसे दूरवर्ती परिणामों की समझ-बूझ प्रायः नहीं के बराबर होती है। इसलिए प्रलोभनों, आकर्षणों, लिप्साओं की प्रबलता उपलब्ध शक्तियों का दुरुपयोग करने के लिए ही घसीट ले जाती है। जाल में फँसने वाली चिड़िया, मछली का उदाहरण इस संदर्भ में प्रायः दिया जाता रहता है। चासनी में पंख फँसाकर प्राण गँवाने वाली मक्खी भी यही मूर्खता करती है। मनुष्यों में यह प्रचलन और भी अधिक है।

जीभ का चटोरापन पेट खराब करने के उपरांत स्वास्थ्य का ही सफाया कर देता है। कामुकता के लिए आतुर लोग जीवनी शक्ति को निचोड़ डालते हैं। बिना परिश्रम बहुत बड़ी संपदा अर्जित कर लेने के फेर में अपराधी कुकर्मो की श्रृंखला चल पड़ती है। तनिक-सी स्फूर्ति पाने के लिए लोग नशेबाजी के कुचक्र में फँसकर एक प्रकार से अपंग अपाहिज बनकर रह जाते हैं। वैभव का विपुल संचय तृष्णा कहलाता है। वासना के उपरांत तृष्णा ही पदार्थ संपदा का बुरे किस्म का दुरुपयोग है। इसी त्रिदोष में यह अहंकार भी है, जो दूसरों की दृष्टि में अपने को बड़ा सिद्ध करने के लिए ऐसे विचित्र आडंबर विनिर्मित करता है मानो वही सबसे सुंदर, बुद्धिमान, पराक्रमी और संपन्न हो। ठाट-बाट की खर्चीली साज-सज्जा इसी कुचक्र की प्रेरणा से खड़ी करनी पड़ती है। सस्ती वाहवाही लूटने के लिए नाम छपवाने, बड़े कहलाने के लिए ऐसी विडंबनाएँ रचनी पड़ती हैं, जो सर्वथा निस्सार होते हुए भी प्राणप्रिय लगती हैं।

 

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