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आचार्य श्रीराम शर्मा >> हम सब एक-दूसरे पर निर्भर

हम सब एक-दूसरे पर निर्भर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4204
आईएसबीएन :00000

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हम सब एक दूसरे पर निर्भर

Hum Sab Ek Doosre Par Nirbhar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संतुलन और गतिशीलता का एकमात्र आधार

सृष्टि में चारों ओर, जिधर भी दृष्टि दौड़ाई जाए, एक ही बात दृष्टिगोचर होगी कि सब कुछ शांत, सुव्यवस्थित और योजनाबद्ध ढंग से चल रहा है। इस सुव्यवस्था और क्रमबद्ध गतिशीलता का एक प्रमुख आधार है दूसरों के लिए अपनी सामर्थ्य और विशेषताओं का उपयोग-समर्पण। सृष्टि का कण-कण किस प्रकार अपनी विभूतियों का उपयोग दूसरों के लिए करने की छूट दिए हुए है-यह पग-पग पर देखा जा सकता है। शरीर की व्यवस्था और जीवन चेतना किस प्रकार बनी रहती है-इसी का अध्ययन किया जाए तो प्रतीत होगा कि स्थूल शरीर के क्रियाकलाप स्वेच्छया संचालित नहीं होते, बल्कि कोई परमार्थ चेतना संपन्न, दूसरों के लिए अपना उत्सर्ग करने की प्रवृत्ति वाले कुछ विशिष्ट तत्त्व उसमें अपनी विशिष्ट भूमिका निबाहते हैं।

कुछ समय पूर्व यह समझा जाता था कि रक्त-मांस का पिंड शरीर आहार-विहार द्वारा संचालित होता है। यह तो पीछे मालूम पड़ा कि आहार शरीर रूपी इंजिन को गरम बनाए रहने के लिए ईंधन मात्र का काम करता है। उस आधार पर यह भी पाया गया कि पेट, हृदय और फेफड़ों को संचालक तत्त्व नहीं माना जा सकता। शरीर के समस्त क्रियाकलापों का संचालन मूलतः चेतन और अचेतन मस्तिष्कों द्वारा होता है, उन्हीं की प्रेरणा से विविध अंग अपना-अपना काम चलाते हैं। अस्तु, स्वास्थ्य बल एवं बुद्धिबल को विकसित करने के लिए मस्तिष्क विद्या के गहरे पर्तों का अध्ययन आवश्यक समझा गया है और अभीष्ट परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए उसी क्षेत्र को प्रधानता दी गई। पिछले दिनों जीव विज्ञानियों ने शरीर शोध अन्वेषण की ओर से विरत होकर अपना मुँह मनःशास्त्र की ऊहापोह पर केंद्रित किया है।

अब एक और नया रहस्य सामने आ खड़ा हुआ है-हारमोन ग्रंथियों का। उनसे अत्यंत स्वल्प मात्रा में निकलते रहने वाले स्राव ऐसे महत्त्वपूर्ण हैं, जो केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करते हैं और उनमें आश्चर्यचकित करने वाले उतार-चढ़ाव उत्पन्न करते हैं। ये हारमोन, चेतन या अचेतन मस्तिष्क से भी प्रभावित नहीं होते। इनको घटाने-बढ़ाने में एक शरीर से दूसरे में पहुँचाने के परंपरागत प्रयास प्रायः असफल ही हो चुके हैं। एक शरीर से निकालकर दूसरे शरीर में प्रवेश कराने पर भी इन हारमोनों की वृद्धि, न्यूनता अथवा नियंत्रण-संतुलन नहीं प्राप्त किया जा सकता। लगता है इनका उद्भव और विकास ही शरीर की पुष्टि, अभिवृद्धि, सुंदरता और संतुलन के लिए होता है। जीवन की सूक्ष्मतम सत्ता बड़ी विलक्षण और रहस्यपूर्ण है। अब तक ऐसी सूक्ष्म जीवन की इकाई का पता नहीं लगाया जा सका, जो अंतिम (एब्सोल्यूट) और शाश्वत (इंपार्शिअल) हो किंतु उसका पता लगाते-लगाते वैज्ञानिकों ने जिन सूक्ष्मताओं का पता लगा लिया है, वह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है।

वैज्ञानिकों के संसार में जीवन की जिन सूक्ष्तम इकाइयों का पता चल पाया है, उनमें से ‘डायटम’ सबसे छोटा होता है। किंतु इसमें भ्रमात्मक प्रक्रिया है। ‘डायटम’ को कुछ वैज्ञानिक जीवाणु मानते हैं, कुछ उसे वनस्पति जगत् का सबसे छोटा कोश (सेल) मानते हैं। इसके बाद सबसे सूक्ष्म इकाई विषाणु (वायरस) है, यह इतना छोटा होता है कि अब तक खोजे गए लगभग 300 वायरसों में से पोलियो वायरस के 1000000000000000000 (दस शंख) कण केवल एक छोटी सी पिंगपोंग की गेंद में आ जायेंगे। विषाणु इतने सक्रिय होते हैं कि 1918 में आए एन्फलूएंजा में उसने थोड़े ही दिनों में दो करोड़ स्त्री-पुरुषों और बच्चों को मृत्यु के द्वारा पर पहुँचा दिया। सूक्ष्मतम की प्रबलतम शक्ति का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है। कदाचित् हमने भी अपने आपको बड़ा प्रदर्शित करने की भूल न की होती और इतने लघु होते गए होते कि संसार की सबसे छोटी इकाई में आत्मसात् हो गए होते, तो हमारी भी शक्ति ऐसी ही होती। उससे लाखों लोगों का हितकर सकने की स्थिति में होते।

बड़ी आकृति वाले थलचर प्राणियों से ही हमारा परिचय है। इससे आगे भी कहीं जीवधारियों का अस्तित्व है और उनकी भी कोई अपनी दुनिया है, इस तथ्य की बहुत कम लोगों को जानकारी होती है। पृथ्वी पर रेंगने वाले प्राणियों की कितनी अधिक जातियाँ और उप जातियाँ हैं-उनकी आकृति-प्रकृति क्या है ? उनके सोचने और कार्य करने का उपक्रम क्या है ? उन्हें किन साधनों से गुजारा करना पड़ता है और किन परिस्थितियों में रहना पड़ता है, इसकी जानकारी रखना तो दूर ठीक तरह कल्पना कर सकना भी हमारे लिए संभव नहीं।

हमारी चेतना मानवी मस्तिष्क-परिस्थिति एवं साधनों के अनुरूप ढली है, अस्तु उसे जो सीमित दृष्टिकोण एवं ज्ञान मिला है, उसी को लेकर काम चलाना पड़ता है, फिर अन्य प्राणियों की विलक्षण दुनिया के बारे में सही कल्पना कर सकना कैसे संभव हो ? यही बात जानकारियों के संबंध में भी है। आँखों से देखे जा सकने वाले जल-जीवों की जानकारी-उतनों तक ही सीमित है, जो आँखों के सामने आते और अपना परिचय देते रहते हैं। समुद्र तल में ही निर्वाह करने वाले जल-जीवों की नगण्य जितनी जानकारियाँ ही हैं।

उनकी प्रकृति और परिस्थितयों का पता लगाने के लिए जैसे चिंतन चाहिए-जैस उपकरणों और साधनों की आवश्यकता है, उन्हें जुटाना अंतरिक्ष यंत्रों से भी कठिन सिद्ध होगा। इतने पर भी यह एक तथ्य है कि अपनी ‘धरती’ की दुनिया उतनी छोटी नहीं है जितनी कि मनुष्यों द्वारा सोची और जानी गई है। इसी धरती पर असंख्य जाति के जीवधारी निवास करते हैं। उनकी संख्या भी इतनी बड़ी है कि तुलनात्मक दृष्टि से 600 करोड़ मनुष्यों का संख्या बल बहुत ही नगण्य एवं उपहासास्वाद प्रतीत होगा। संख्या बल के अतिरिक्त उनकी प्रकृति, आवश्यकता पारस्परिक सहयोग व्यवस्था निर्वाह, विनोद, वंश वृद्धि प्रसन्नता, आयुष्य आदि की परिस्थियाँ इतनी विचित्र मिलेंगी, जिन्हें देखते हुए उन्हें मनुष्यों की दुनिया से सर्वथा भिन्न एवं विलक्षण स्तर का कहा जा सकता था। आश्चर्य इस बात का है कि अपनी धरती पर असंख्य प्राणियों की असंख्य स्तर की चित्र-विचित्र दुनिया बसी हुई है। असंख्य सभ्यताएँ फल-फूल रही हैं। असंख्य जीवन विधाओं का कार्यान्वयन हो रहा है, किंतु हम अपनी ही दुनिया तक सीमित हैं और उस सीमित क्षेत्र को ही सब कुछ मानकर मूर्खों की दुनिया में रहने की उक्ति चरितार्थ कर रहे हैं।

सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में वैज्ञानिक ऑनोंफान ल्यूवेनाक ने सूक्ष्म जीवों को स्वर्निमित लैंसों से देखा। उन्नीसवीं शताब्दी में लुई पाश्चर ने सूक्ष्म जीवों की दुनिया की जानकारी प्राप्त कर उनकी भूमिका को प्रयोग द्वारा दिखाया। फिर यह सिलसिला बढ़ता ही गया। कोरव, मैक्निरवोव, फिनले, फ्लेमिंग द्वारा विकसित सूक्ष्म जीव विज्ञान आज विशाल अध्ययन अन्वेषण का क्षेत्र बना है।

सूक्ष्म जीव इतने छोटे होते हैं कि आँखों से उन्हें नहीं देखा जा सकता। पास-पास रखने पर साधारणतः 25 हजार सूक्ष्म जीव एक इंच की जगह में समा जायेंगे। इनकी आकृति और वजन दोनों के आधार पर कई जातियाँ हैं। सामान्यतः बीस अरब सूक्ष्म जीवियों का वजन एक खस-खस के दाने के बराबर होता है।

सूक्ष्मजीवी प्रत्येक जगह पर मिलते हैं। यहाँ तक कि ये ऐसे स्थानों पर भी पाए गए हैं, जहाँ जीवन की कोई संभावना नहीं मानी गई थी। पृथ्वी के वायुमंडल की ऊपरी तह में, दक्षिणी ध्रुवों की बर्फ में, गरम सोतों के खौलते प्रवाह में, नाभिकीय रिएक्टरों की शीतलन प्रणालियों में भी इन्हें पाया गया है।

‘मृत सागर’ से साफ पानी तक, स्तनपाइयों की आँतों से लोहे के जमींदोज नलों की सतहों तक इनका बोलबाला है। प्रतिदिन अनेक सूक्ष्मजीवी हमारे शरीर के भीतर नाक और मुँह के रास्ते से घुसते हैं। वे हमारी त्वचा पर भी प्रहार करते हैं।

इन सूक्ष्मजीवियों की असंख्य जातियाँ हैं। कुछ सूक्ष्मजीवी अम्लीय माध्यम में रहते हैं, तो कुछ क्षारीय। कुछ ऊँचे तापक्रम पर, तो कुछ नीचे तापक्रम पर। कुछ हवा के बिना नहीं जी सकते, तो कुछ हवा में ही नहीं जी सकते, बिना हवा के मजे में रह लेते हैं। यह माध्यम क्या है ? जीवाणु जिस वस्तु में जन्म लेते, पलते, पनपते हैं, वही उनका माध्यम है। ये छोटे इतने होते हैं कि किसी भी द्रव माध्यम के एक घन सेंटीमीटर में लगभग 1 करोड़ जीवाणु आराम से रह लेते हैं। जिस माध्यम में ये जीवाणु रहते हैं, उसी से आहार प्राप्त करते हैं। उसी माध्यम में ये बढ़ते बच्चे पैदा करते और बलवान बनते हैं।

इनके बढ़ने और बच्चे पैदा करने का ढंग दिलचस्प है। प्रत्येक जीवाणु एक कोशिका भी है और एक जीव भी। इसलिए यह एक कोशिकीय जीव कहलाता है। एक सूक्ष्मजीवी थोड़ा-सा लंबा होकर स्वयं दो भागों में विभक्त हो जाता है। ये दोनों ही भाग मूल कोशिका के ही समान दो पृथक-पृथक सूक्ष्मजीवी बन जाते हैं। इनकी बढ़ने की रफ्तार भी गजब की होती है। एक सूक्ष्मजीवी चौबीस घंटे में 70 पीढ़ियाँ पैदा कर सकता है। विषूचिका का एक सूक्ष्मजीवी एक दिन में 5 अरब 80 करोड़ की संख्या में हो जाता है। तभी तो इस रोग के अधिकांश रोगी देर होने पर बच नहीं पाते। पोषक माध्यम की कुछ ही बूँदों में सूक्ष्मजीवियों की 7 अरब आबादी का आवास संभावित होता है। एक सूक्ष्मजीवी द्वारा स्वयं को दो भागों में बाँटकर फिर पृथक-पृथक यही क्रम अपनाते हुए बढ़ते जाने के कारण इनकी वंशवृद्धि की क्रिया को ‘विखंडन-क्रिया द्वार वंशवृद्धि’ कहा जाता है।



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