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आचार्य श्रीराम शर्मा >> इक्कीसवीं सदी का संविधान

इक्कीसवीं सदी का संविधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4206
आईएसबीएन :000000

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इक्कीसवीं सदी का संविधान

Ikkisavin Sadi Ka Samvidhan B

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

युग निर्माण मिशन का घोषणा-पत्र

युग निर्माण जिसे लेकर गायत्री परिवार अपनी निष्ठा और तत्परतापूर्वक अग्रसर हो रहा है, उसका बीज सत्संकल्प है। उसी आधार पर हमारी विचारणा, योजना, गतिविधियाँ एवं कार्यक्रम संचालित होते हैं, इसे अपना घोषणा-पत्र भी कहा जा सकता है। हम में से प्रत्येक को एक दैनिक धार्मिक कृत्य की तरह इसे नित्य प्रातःकाल पढ़ना चाहिए और सामूहिक शुभ अवसरों पर एक व्यक्ति उच्चारण करे और शेष लोगों को उसे दुहराने की शैली से पढ़ा एवं दुहराया जाना चाहिए।

संकल्प की शक्ति अपार है। यह विशाल ब्राह्मांड परमात्मा के एक छोटे संकल्प का ही प्रतिफल है। परमात्मा में इच्छा उठी ‘एकोऽहं बहुस्याम’ मैं अकेला हूँ—बहुत हो जाऊँ, उस संकल्प के फलस्वरूप तीन गुण, पंचतत्त्व उपजे और सारा संसार बनकर तैयार हो गया। मनुष्य के संकल्प द्वारा इस ऊबड़-खाबड़ दुनियाँ को ऐसा सुव्यवस्थित रूप मिला है। यदि ऐसी आकांक्षा न जगी होती, आवश्यकता अनुभव न होती तो कदाचित मानव प्राणी भी अन्य पशुओं की भाँति अपनी मौत के दिन पूरे कर रहा होता।

इच्छा जब बुद्धि द्वारा परिष्कृत होकर दृढ़ निश्चय का रूप धारण कर लेती है, तब वह संकल्प कहलाती है। मन का केंद्रीकरण जब किसी संकल्प पर हो जाता है, तो उसकी पूर्ति में विशेष कठिनाई नहीं रहती। मन की सामर्थ्य अपार है, जब भावनापूर्वक मनोबल किसी दिशा में संलग्न हो जाता है, तो सफलता के उपकरण अनायास ही जुटते चले जाते हैं। बुरे संकल्पों की पूर्ति के लिए भी जब साधन बन जाते हैं, तो सत्संकल्पों के बारे में तो कहना ही क्या है ? धर्म और संस्कृति का जो विशाल भवन मानव जाति के सिर पर छत्रछाया की तरह मौजूद है, उसका कारण ऋषियों का संकल्प ही है। संकल्प इस विश्व की सबसे प्रचंड शक्ति है। विज्ञान की शोध द्वारा अगणित प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त करके वशवर्ती बना लेने का श्रेय मानव की संकल्प शक्ति को ही है। शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प, उद्योग, साहित्य, कला, संगीत आदि विविध दिशाओं में जो प्रगति हुआ आज दिखाई पड़ती है, उसके मूल में मानव का संकल्प ही सन्निहित है, इसे प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष कह सकते हैं। आकांक्षा को मूर्त रूप देने के लिए जब मनुष्य किसी दिशा विशेष में अग्रसर होने के लिए दृढ़ निश्चय कर लेता है, तो उसकी सफलता में संदेह नहीं रह जाता।

आज प्रत्येक विचारशील व्यक्ति यह अनुभव करता है कि मानवीय चेतना में वे दुर्गुण पर्याप्त मात्रा में बढ़ चले हैं, जिनके कारण अशांति और अव्यवस्था छाई रहती है। इस स्थिति में परिवर्तन की आवश्यकता अनिवार्य रूप से प्रतीत होती है, पर यह कार्य केवल आकांक्षा मात्र से पूर्ण न हो सकेगा, इसके लिए एक सुनिश्चित दिशा निर्धारित करनी होगी और उसके लिए सक्रिय रूप से संगठित कदम बढ़ाने होंगे। इसके बिना हमारी चाहना एक कल्पना मात्र बनी रहेगी। युग निर्माण सत्संकल्प उसी दिशा में एक सुनिश्चित कदम है। इस घोषणापत्र में सभी भावनाएँ धर्म और शास्त्र की आदर्श परंपरा के अनुरूप एक व्यवस्थित ढंग से सरल भाषा में संक्षिप्त शब्दों में रख दी गई हैं। इस घोषणा-पत्र को हम ठीक प्रकार समझें, उस पर मनन और चिंतन करें तथा यह निश्चय करें कि हमें अपना जीवन इसी ढाँचे में ढालना है। दूसरों को उपदेश करने की अपेक्षा इस संकल्प पत्र में आत्म-निर्माण पर सारा ध्यान केंद्रित किया गया है। दूसरों को कुछ करने के लिए कहने का सबसे प्रभावशाली तरीका एक ही है कि हम वैसा करने लगें। अपना निर्माण ही युग निर्माण का अत्यंत महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है। बूँद-बूँद जल के मिलने से ही समुद्र बना है। एक-एक अच्छा मनुष्य मिलकर ही अच्छा समाज बनेगा। व्यक्ति निर्माण का व्यापक स्वरूप ही युग निर्माण के रूप में परिलक्षित होगा।

प्रस्तुत युग निर्माण सत्संकल्प की भावनाओं का स्पष्टीकरण और विवेचन पाठक इसी पुस्तक के अगले लेखों में पढ़ेंगे। इन भवनाओं को गहराई से अपने अन्तःकरणों में जब हम जान लेंगे, तो उसका सामूहिक स्वरूप एक युग आकांक्षा के रूप में प्रस्तुत होगा और उसकी पूर्ति के लिए अनेक देवता, अनेक महामानव, नर तन में नारायण रूप धारण करके प्रगट हो पड़ेंगे। युग परिवर्तन के लिए जिस अवतार की आवश्यकता है, वह पहले आकांक्षा के रूप में ही अवतरित होगा। इसी अवतार का सूक्ष्म स्वरूप यह युग निर्माण सत्संकल्प है, इसके महत्त्व का मूल्यांकन हमें गंभीरतापूर्वक ही करना चाहिए। युग निर्माण सत्संकल्प का प्रारूप निम्न प्रकार है—
हमारा युग निर्माण सत्संकल्प
-हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
-शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।

-मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।

-इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत् अभ्यास करेंगे।

-अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।

-मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।

-समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।

-चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।

-अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
-मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
-दूसरे के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।

-नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।

-संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।

-परंपराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
-सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नव-सृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
-राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, संप्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
-मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा।

-‘‘हम बदलेंगे-युग बदलेगा’’ ‘‘हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा’’ इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।

इस युग निर्माण सत्संकल्प का पाठ नियमित दैनिक उपासना के पहले नित्य प्रति किया जाना चाहिए। पाठ धीमी गति से समझते हुए, विचार करते हुए किया जाना चाहिए। इसके प्रत्येक सूत्र पर युग चेतना साहित्य की पुस्तक संख्या 52 से 69 तक में विस्तृत विवेचना दी गई है। पूरे सत्संकल्प का एक साथ पाठ कर लेने के बाद चाहे सूत्र की विस्तृत विवेचना का स्वाध्याय अपने दैनिक स्वाध्याय का अंग बना लेना चाहिए। इसी सीरीज की पुस्तक संख्या 70’’ अपना मूल्यांकन भी करते रहें’’ का स्वाध्याय कभी-कभी करते रहना चाहिए ताकि आत्म-निर्माण की दिशा में हम कितना आगे बढ़ें, इसका मूल्यांकन होता रहता है। यह 20 पुस्तिकाओं (51 से 70 तक) का सैट मनुष्य को देव मानव बनाने में सक्षम है, आवश्यकता है श्रद्धापूर्वक स्वाध्याय, चिंतन, मनन एवं अनुशासन की।

एक बच्चे को देश का नेता बनने की बड़ी भारी इच्छा थी, पर कैसे बना जाए ? यह बात समझ में नहीं आती थी। एक दिन फ्रैंकलिन की जीवनी पढ़ते समय उसने ज्ञानार्जन की महत्ता समझी। बच्चा उस दिन से स्वाध्याय में एक मन से जुट गया और अपने मस्तिष्क में ज्ञान का विशाल भंडार एकत्र कर लिया। यही लड़का एक दिन अर्जेटाइना का राष्ट्रपति बना, नाम था—जोमिंगो फास्टिनो सारमिंटो।


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