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आचार्य श्रीराम शर्मा >> प्रबुद्ध वर्ग धर्मतंत्र को सँभाले

प्रबुद्ध वर्ग धर्मतंत्र को सँभाले

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4207
आईएसबीएन :00000

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प्रबुद्ध वर्ग धर्मतंत्र को सँभाले....

Prabudha varg dharmtantra ko sambhale

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रबुद्ध वर्ग धर्मतंत्र को सँभाले

वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रगति की सारी सम्भावना इस बात पर टिकी हुई है कि उनकी विचारणा एवं कार्य-पद्धति सही हो। किसी दीन-दुःखी की तात्कालिक सहायता तो कुछ सामयिक सहारा देकर की जा सकती है, पर किसी की कोई भी समस्या दूसरों के सहयोग से स्थाई रूप से हल नहीं हो सकती। रोगी का रोग दवा से नहीं संयम से दूर हो सकता है। डाक्टर कितनी ही अच्छी औषधि दे, पथ्य परहेज न रखने वाले मरीज की बीमारी लौट-लौटकर फिर आती रहेगी। अन्य-वस्त्र देकर गरीबी का कोई हल नहीं हो सकता है। किसी को भोजन देकर उसकी तात्कालिक क्षुधा मिटाई जा सकती है, पर ऐसे भूखे-नंगे को सदा कौन भोजन देगा ? उनकी गरीबी तो तभी दूर होगी, जब वे उद्योग और परिश्रम द्वारा कुछ कमाने लग जाऐं। यही बात अन्य सभी समस्याओं के सम्बन्ध में भी हैं। मनोविकार ही समस्त आपत्तियों और अभावों की जड़ हैं, उनका समाधान करना है तो लोगों की विचार पद्धति को ही सुधारना होगा। किसी के विचार सुधार देने, उसकी विचारणा सही कर देने से बढ़कर और कोई पुण्य परोपकार हो नहीं सकता। इससे बड़ा कर्म और कोई नहीं। ज्ञान-दान से ब्रह्म-दान से बढ़कर और कोई बड़ा पुण्य इस धरती पर है नहीं, इसे जो ब्राह्मण आजीवन करते रहने का व्रत लेते थे, वे धरती के देवता भूसुर माने जाते थे। आज इस वर्ग का अभाव हो गया है इस अभाव की पूर्ति के लिए प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति को अपने आपको समर्पित करना चाहिए। आज ऐसे ही भावाशील व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो ब्रह्म कर्म में—जन जागरण में संलग्न होकर अपना समस्त विश्व का कल्याण कर सकने में समर्थ हो सकें।

अनेक आपत्तियाँ एक कारण—इन दिनों हर एक आपत्तियों और उलझनों में ग्रसित है। व्यक्तिगत जीवन में हर मनुष्य बीमारियों में चिन्ताओं में आर्थिक तंगी में, शत्रुता में घिरा पड़ा है। पारिवारिक जीवन में अविश्वास सन्देह, आशंका, उच्छृंखलता दुराव, अवज्ञा कृतघ्नता और असहोयग का दौर-दौरा पूरे वेग पर है। सामाजिक जीवन में भ्रष्टाचार चोर बाजारी, रिश्वतखोरी, ठगी, बेईमानी गुण्डागर्दी, विलासिता, नशेबाजी, कामुकता, स्वार्थपरता जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ जोरों से बढ़ रही हैं। राजनीति में गुटबन्दी आपाधापी, भाई-भतीजावाद बढ़ रहा है और भाषा, प्रान्त आदि के बहाने गृह युद्ध जैसा छिड़ा हुआ है। धार्मिक क्षेत्र में त्याग-तप, बलिदान, संयम, सदाचार का तो पता भी नहीं चलता, सिद्धि चमत्कार तथा ढोंग-पाखण्डों का पर्वत बना खड़ा है। महन्त और मठाधीशों की पण्डा और पुरोहितों की पाँचों घी में हैं। जो जन-कल्याण के लिए अपना पसीना बहाए, ऐसा धर्मात्मा कहीं ढूँढ़े नहीं दीखता। अन्तर्राष्ट्रीय जगत में एक देश दूसरों के शोषण, दमन के लिए कूटनीतिक षड्यन्त्र रचने और जाल बिछाने में लगा हुआ है। हर क्षेत्र में जबकि दुर्बुद्धि का साम्राज्य छाया हुआ हो, अन्याय, अपराध, आलस्य, असंयम, आवेश जैसे दोष-दुर्गुण बढ़ रहे हों, तब संसार में अशान्ति और विग्रह के बढ़ने की ही आशा की जा सकती है। प्रत्येक क्षेत्र में जड़ जमाये बैठी हुई और दिन-दिन बढ़ रही दुष्प्रवृत्तियाँ संसार को नरक बनाये हुए हैं। यदि यही स्थिति बनी रही तो वह दिन दूर नहीं जब हम अणु आयुधों द्वारा सामूहिक आत्महत्या करें और चिर संचित मानव सभ्यता को समाप्त कर दें। ऐसी विषम परिस्थितियों के युग में जन्में प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह इस विभिषिका का हल करने के लिए कुछ कर सकता हो तो उसे जरूर कर दे।

भौतिक प्रगति पर्याप्त नहीं-निस्संदेह भौतिक प्रगति की दृष्टि से यह अभूतपूर्व युग है, पर दुर्भाग्य इसी बात का है कि इसने वैयक्तिक एवं सामाजिक सुख-शान्ति को बढ़ाया नहीं घटाया है। बाह्य जीवन के साथ-साथ आन्तरिक जीवन के विकसित न होने का यही परिणाम है। जीवन दो पहिए की गाड़ी है। एक को भौतिक और दूसरे को आध्यात्मिक कहते हैं। प्रचुर पदार्थों से ही सुख नहीं मिलता, उत्कृष्ट भावनाओं की भी आवश्यकता पड़ती है। इन दिनों यही भूल हुई है। सारा ध्यान भौतिक प्रगति पर दिया गया और उत्पन्न सुविधाओं का उपयोग शारीरिक, सांसारिक सुख बढ़ाने में किया गया। फलस्वरूप लोभ बढ़ा, विलास बढ़ा, अहंकार बढ़ा, प्रवञ्चना बढ़ी और साथ ही संकीर्णता भी सुरसा की तरह विस्तृत हो गई।
कमजोर, गधा, हाथी की अम्बारी का भार वहन नहीं कर सकता। भौतिक सुविधाओं का शरीर सुख के लिए उपयोग किया जाता रहे तो कुछ ही समय में शरीर टूट जायगा। इसी प्रकार शिक्षा एवं विचारणा का लाभ यदि अपने अहं का पोषण करने में ही लगा दिया जाय तो मनःस्तर भी चकनाचूर हो जायगा। विज्ञान ने हमें भौतिक प्रगति दी, पर ज्ञान पिछड़ गया। यदि सुख-साधनों के साथ-साथ मनुष्य का भावना स्तर भी ऊपर उठा होता तो आज चारों ओर जो नारकीय क्लेश, कलह, द्वेष, दुर्भाव, रोग, शोक दिखाई पड़ रहे हैं, न उपजे होते। उपलब्ध साधनों का यदि स्वस्थ रीति से, स्वस्थ प्रगति के लिए उपयोग हुआ होता तो हम इस धरती पर स्वर्ग अवतरण कर सकने में समर्थ हो गये होते।

दिशा बदले तो युग बदले—जितना धन, जितना श्रम, जितने साधन, जितनी बुद्धि, अवांछनीय कार्यों, विचारों एवं परिस्थितियों के सृजन में आज लगी हुई है, उसकी दिशा बदल जाय और उसका उपयोग सृजनात्मक दिशा में हो जाय तो संसार का कायाकल्प ही हुआ दिखाई देगा। संसार में लगभग 40 करोड़ लोग सैन्य प्रयोजनों में लगे हुए हैं। लड़ने वाले सैनिक अस्त्र-शस्त्र तथा सैन्य सामग्री बनाने वाली, यह इतनी बड़ी जनसंख्या और उस पर हर वर्ष खर्च होने वाली धनराशि यदि गरीबी, बेकारी अशिक्षा बीमारी, गन्दगी एवं अव्यवस्था दूर करने में लग जाय तो उसका परिणाम चमत्कार जैसा हो सकता है।

सिनेमा, नाटक, अभिनय नृत्य साहित्य व रेडियो आदि विचार निर्माण साधनों का उपयोग यदि कामुकता जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने में न लगे, वरन् सदाचार कर्तव्य पालन, आदर्शवाद, परस्पर स्नेह, सहयोग करने जैसी धर्म भावनाओं के प्रसारण में लग जाय तो जन भावना में कुछ ही वर्षों के भीतर देवत्व परिलक्षित होने लगेगा। जितना पैसा तम्बाकू, शराब जैसे अभक्ष्य में खर्च किया जाता है, यदि वह खाद उत्पादन में लग जाय तो संसार में भुखमरी का नाम भी सुनने को न मिले।

अपराधों में लगे हुए व्यक्ति चोर-डाकू, ठग, हत्यारे, व्यभिचारी स्त्री-पुरुष यदि अपनी अद्भुत प्रतिभा को लोगमंगल की दिशा में मोड़ दें तो हर दुष्ट पुरुष वाल्मीकि, हर दुराचारिणी अम्बपाली बनकर संसार में आनन्द एवं उल्लास की परिस्थिति पैदा कर सकते हैं। सारे अखबार, सारे प्रेस यदि विश्व बन्धुत्व, सदाचार एवं आदर्शवाद के अभिवर्धन में अपनी शक्ति लगा दें तो समस्त संसार में रहने वाले अरबों लोगों के मस्तिष्क उत्कृष्ट सोचने और शरीर उत्कृष्ट कार्य करने में लग जाये। शासन तंत्र यदि ईमानदारी से लोक सेवा को ही अपना लक्ष्य बना ले तो इतने नेताओं और कार्यकत्ताओं को पाकर जनता का भाग्य जाग पड़े। धर्म-तंत्र का इतना विशाल कलेवर जिसमें भारत जैसे गरीब देश में ही 80 लाख धर्मजीवी व्यक्तियों का निर्वाह होता है, यदि जन भावनाओं के मानवीय कर्तव्यों एवं आदर्शों के प्रशिक्षण में लग जायँ तो सर्वत्र धर्म की ध्वजा फहराती दिखाई पड़े।

बढ़ी-चढी भूल भौतिक दृष्टि से आशाजनक प्रगति होते हुए भी उसका परिणाम निराशाजनक देखकर सहसा यही बात सामने आती है कि कहीं कोई बहुत बड़ी भूल हो रही है और यदि वह भूल न सुधारी तो भौतिक प्रगति के साथ-साथ विपत्तियाँ भी बढ़ती चली जायेंगी। अणु अस्त्रों के बाहुल्य ने आज चिरसंचित मानवीय सभ्यता का मूल से विनाश करने का खतरा उत्पन्न कर दिया है।

अपराधों की अभिवृद्धि तूफानी तेजी के साथ हो रही है। एक दूसरे को सहयोग देने के स्थान पर लोग परस्पर खून के प्यासे बन रहे हैं। मुख में राम बगल में छुरी का जैसा व्यापक छल प्रपंच बढ़ चला है, उसने आत्मीयता के सारे सम्बन्धों की जडें खोखली कर दी हैं, अब परिवार के सदस्य भी एक दूसरे को आशंका और अविश्वास की दृष्टि से देखने लगे हैं। श्रद्धा और विश्वास, उदारता और आत्मीयता के सह सम्बन्ध अब एक काल्पनिक तथ्य बनते चले जा रहे हैं। धार्मिकता और आस्तिकता का कलेवर कागज के बने विशाकाय रामलीला के रावण जैसे बने खड़े हैं, पर उनके भीतर भी पोल और खोखलेपन के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं।
इन विषय परिस्थितियों से मनुष्य जाति का भविष्य दिन-दिन अंधकारमय बनता चला जा रहा है। वैज्ञानिक और आर्थिक प्रगति के द्वारा जो सुख-शान्ति बढ़नी चाहिए थी वह तो दूर उल्टे स्वास्थ्य संतुलन और सद्भाव का दिन-दिन अभाव होता चला जा रहा है। यदि स्थिति ऐसी ही बनी रही, इसी ढर्रे पर चलती रही, तो इससे अगले दिनों और भी अधिक भयानक दुर्दिन देखने पड़ सकते हैं।

परिवर्तन सम्भव है—प्रश्न यह है कि क्या यह ढर्रा बदला जा सकता है ? क्या पतनोन्मुख प्रवृत्तियों को रचनात्मक दिशा में मोड़ा जा सकता है ? क्या संभावित अशुभ भविष्य को स्वर्ण विहान में परिणत किया जा सकता है ? क्या नरक की परिणति स्वर्ग में हो सकती है।

उत्तर विश्वासपूर्वक ‘हाँ’ में दिया जा सकता है, शर्त केवल इतनी भर है कि समाज का प्रबुद्ध वर्ग, समय और परिस्थितियों को बदलने की अपनी जिम्मेदारी समझे और उसके लिए कटिबद्ध हो।
नर-पशु धरती के भार—किसी समाज का प्राण उसका प्रबुद्ध वर्ग होता, है, जिनकी विचारणा और भावना आदर्शवाद से प्रभावित ऐसे लोग निस्सन्देह संख्या में बहुत थोड़े होते हैं, पर जो होते हैं, वे इतने सशक्त रहते हैं कि यदि वे कुछ करने के लिए सचमुच उठ खड़े हों तो चमत्कार उपस्थित कर दें।


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