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जिन खोजा तिन पाइयाँ

अयोध्याप्रसाद गोयलीय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :199
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 423
आईएसबीएन :81-263-1249-1

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प्रतिष्ठित लेखक अयोध्याप्रसाद गोयलीय के इस अप्रतिम कथा-संग्रह, ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ को यदि हिन्दी का हितोपदेश कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

Jin Khoja Tin Paiya - A hindi Book by - Ayodhyaprasad Goyaliya जिन खोजा तिन पाइयाँ - अयोध्याप्रसाद गोयलीय

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रतिष्ठित लेखक अयोध्याप्रसाद गोयलीय के इस अप्रतिम कथा-संग्रह, ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ को यदि हिन्दी का हितोपदेश कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वहीं अनुभव, वहीं ज्ञान, वही विवेक है इसमें।

अनुभवी लेखक गोयलीय जी ने जीवन और जगत में जो देखा, सुना, पढ़ा और समझा, प्रस्तुत कृति में सरल सुबोध शैली में सँजोकर रख दिया हैं। इसमें जीवन-निर्माण एवं उत्साह, प्रेरणा और शक्ति प्रदान करने वाली 102 लघु-कथाएँ हैं। इनका स्वरूप लघु है पर ज्ञान-गुम्फन की दृष्टि से सागर जैसी प्रौढ़ता, विशालता तथा विस्तार है। इनमें बहुत-सी कहानियाँ मनुष्य के अन्तर की उस ऊँचाई को पाठक के सामने पेश करती हैं जो उसे सचमुच मनुष्य बनाती हैं। हिन्दी के सहृदय पाठक को समर्पित है भारतीय ज्ञानपीठ की एक सुन्दर कृति, नयी साज-सज्जा के साथ।

आमुख

गोयलीयजी-की क़लम ने अपनी जादूगरी से हिन्दी-पाठकों को मोह रखा है। ‘शेर-ओ-शायरी’ और ‘शेर-ओ-सुख़न’ उनकी ऐसी कृतियाँ हैं जो साहित्य में सदा स्मरणीय रहेंगी। दो वर्ष पूर्व जब उनकी पुस्तक ‘गहरे पानी पैठ’ प्रकाशित हुई तो साधारण पाठक और असाधारण आलोचक- सभी उसकी लोकप्रिय विषय-वस्तु और रोचक शैली से प्रभावित हुए। चुटीली कहानियाँ, अद्भुत घटनाएँ, मज़ेदार चुटकुले, दिलचस्प लतीफ़े, गहरे अनुभव, पढ़े-सुने क़िस्से- सभी कुछ इस ढंग से लिखे गये हैं कि पाठकों का ज्ञान, प्रेरणा और मनोरंजन एक जगह एक साथ मिल जाता है।
गोयलीयजी की यह नयी कृति ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ भी उतनी ही ज्ञानवर्द्धक, प्रेरक और रोचक है, जितनी ‘गहरे पानी पैठ’; बल्कि इसमें शैली का निखार कुछ अधिक ही है। इसे बालक तो चाव से पढ़ ही सकते हैं, युवकों को भी इससे प्रेरणा और दृष्टि मिलेगी। बुर्ज़ुर्गों को इसमें उनके अपने अनुभवों के प्रत्यावर्तन और प्रतिध्वनि की प्रतीति होगी। चूँकि ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ में केवल वहीं है जो लेखक ने स्वयं देखा है, दूसरों से सुना है, पुस्तकों में पढ़ा है या बुद्धि से समझा है, इसलिए इसमें बहुत कुछ ऐसा होना चाहिए जो आपने भी देखा-सुना या पढ़ा-गुना हो। पर देखने-देखने में, सुनने-सुनने में और पढ़ने-पढ़ने में अन्तर है। अपने-अपने दृष्टिकोण से वस्तु को समझाने में तो अन्तर होना ही हुआ।
हम-आप भी रात-दिन में सफ़र करते हैं, पर हममें से कितने ऐसे हैं, जिन्हें सन्तोषी थानेदार, त्यागी भिखारी, विनयशील सन्यासी, पैसे को हाथ न लगाने वाला पानीपाँड़े और दो दिन भूखे रहकर भी कर्ज़ के पैसों को बिना बरते लौटानेवाला शानदार चपरासी सहयात्री के रूप में मिलते हैं। ऐसे व्यक्ति जो अभावों में रहकर मुस्कुराते हैं और दूसरों की अयाचित ‘कृपा’ को भी अपनी मुफ़लिसी की शान से ‘याचना-सा’ बना देते हैं- जिनको कुछ दे सकने में दाता अपने को उपकृत समझे ! यह बात नहीं कि गोयलीयजी को गिरहकट या उजलेपोश बदमाश नहीं मिलते-बहुत मिलते हैं। उनसे उचक्कों और गिरहकटों के क़िस्से सुनिए कि कैसे दिन-दहाड़े उनके देखते-देखते एक उचक्का यह कहकर बिस्तर-ट्रंक ले उड़ा कि ‘भाई साहब, गाड़ी आने में देर है; इज़ाजत दें तो बीवी-बच्चों को आपके ट्रंक-बिस्तरे पर बिठा दूँ।’ किस तरह एक ‘सज्जन’ बातों-बातों में अपना आगरे का पता बता चुकने के बाद पार्सल की रसीद भरने के लिए पार्कर पेन माँगकर सामने लिखते-लिखते चम्पत हो गये और उनकी दो रुपये की ख़ाली पेटी लिये-लिये गोयलीयजी क़ुली बने घूमते रहे पर किसी रेलवे अधिकारी ने टूटी ख़ाली पेटी को सँभालकर रखने की कृपा न दिखायी। इलाहाबाद के एक होटल में हम लोग ठहरे तो होटल के मैनेजर गोयलीयजी के ‘दोस्त’ बन गये। एक रोज़ शाम तक मैनेजर न लौटे तो बैरा ने शुबा डाल दिया कि कहीं मैनेजर किसी एक्सीडेंट की चपेट में न आ गये हों। अब गोयलीयजी जैसे कि तैसे उनकी तलाश में निकल पड़े। बहुत रात गये लौटने पर पता चला कि वास्तव में ‘एक्सीडेंट’ यह हुआ है कि गोयलयजी के पर्स, घड़ी और पेन मिलकर मैनेजर को भगा ले गये- क्योंकि पुलिस की ‘कोशिशों’ के बावजूद चारों में से किसी का पता न चला। दौड़-धूप में और पुलिस के चाय-पानी में सिर्फ़ पचास रुपये खर्च पड़े होंगे- सिर्फ़ पचास रुपये में ही ख़ूब मोटा फ़ाइल गोयलयजी की ख़ातिर पुलिस ने बना दिया था। आप मुस्कराएँगे और कहेंगे कि दो-चार क़िस्से तो इस तरह के हमारे साथ भी गुज़रे हैं। और सौ-पचास क़िस्से आपको अपने दोस्तों के भी याद आ जाएँगे। ....फिर आप चौंकेंगे और सोचेंगे कि दुनियाँ में घटनाएँ तो ज़्यादातर दूसरे ही प्रकार की घटती हैं, फिर गोयलयजी को इस तरह के थानेदार, भिक्षुक, पानीपाँड़े और चपरासी कहाँ से मिल जाते हैं, और कैसे मिल जाती है थर्ड क्लास में फूल-सी नाज़नी जो माथे पर हाथ रखकर सोयी हुई होती है तो उपमा सूझती है :

दमे-ख़ाब है दस्ते-नाज़ुक जबीं पर
किरन चाँद की गोद में सो रही है।

और जब वह हिनाई के इशारे से बुलाकर पास बिठा लेती है तो बेसाख्ता मुँह से निकलता है:

नाज़ुक कलाइयों में हिनावस्त: मुट्ठियाँ
शाखों पै जैसे मुँह-बँधी कलियाँ गुलाब की।

अब इस ‘रोमाण्टिक सैटिंग’ को गोयलीयजी की नज़र से देखिएः
‘उसका रंग-रूप यूँ समझिए कि जैसे अंगूर के रस में थोड़ा सिन्दूर घोल दिया हो। जवानी की चौखट पर पाँव रखे उसे विलम्ब नहीं हुआ था। फिर भी सुबह उठकर देखा तो लोग उसे ऐसे निहार रहे थे, जैसे अपनी परवान चढ़ती बहन-बेटी को देख रहे हों। उसके रोम-रोम में सौंदर्य झाँक रहा था, पर मादकता का अभाव था। उसे देख रहे थे, पर घूर नहीं सकते थे।’

ग़र्ज़ यह कि गोयलीयजी के देखने-सुनने और अनुभव करने में और हममें से बहुतों के देखने-सुनने में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि जहाँ हमारे साथ घटनाएँ घटती हैं, हमसे आकर टकराती हैं, वहाँ गोयलीयजी स्वयं व्यक्तियों और परिस्थितियों से जाकर टकराते हैं और घटनाएँ बनाते हैं या उन्हें अनावृत करते हैं। हम सफ़र करते हैं तो हम किसी को नहीं खोजते। हाँ, चोर-उचक्के और गिरहकट ही हमें खोज लेते हैं, जबकि गोयलीयजी भर-नज़र सबको और सब कुछ को देखते हैं, खोजते हैं। यह किताब इसी तरह की खोजों का ख़जाना है। इस खोज के वर्णन का विषय प्रधानत: ऐसी घटनाएँ हैं, जिनमें मानवता, शिष्टता, विवेक, सेवा, सन्तोष आदि का प्रांजल रूप सामने आया है।
इस तरह, गेयलीयजी की नज़र अपनी है, और उनकी नस्र, (गद्य, भाषा) भी अपनी है। वह बात कहते हैं तो चित्र खींच देते हैं, वातावरण को स्वाभाविकता से रँग देते हैं। इस खोज की यात्रा में हमें जितने प्रकार के पात्र और जितने प्रकार की परिस्थितियाँ मिलती हैं; सबके अपने-अपने वातावरण, मुहावरे ज़बान के चटख़ारे हमें सहज रूप में मिलते चलते हैं। इन लघु कथाओं के पात्र आपसे हवा में बात नहीं करते। वे सब अपना नाम-धाम और ठिया-ठिकाना बताते हैं। इन पात्रों में जहाँ पौराणिक राम, रावण और जटायु हैं, वहाँ ऐतिहासिक राजे-महाराजे और बादशाह-वज़ीर भी हैं। जहाँ अनेक शायर एवं फ़िलॉसफर हैं, वह बीसियों जाट, नाई, किसान, चमार और हलालख़ोर भी हैं। दरबार का अदब, महफ़िल का क़ायदा, बात करने का शऊर, नानी के लतीफ़े, जाट के हथकण्डे, उस्ताद के लटके-सब कुछ आपको इस किताब में मिलेगा। चाहे हम बाइबल की बात न समझें- ‘सीक एण्ड दाऊ शैल्ट फाइण्ड’ (खोज और तू पाएगा) लेकिन अपने कबीर साहब की बात दोहे में नहीं तो सोरठे में अवश्य समझ सकते हैं:

‘गहरे पानी पैठ,
जिन खोजा तिन पाइयाँ !

साहू जैन-निलय कलकत्ता
4 नवम्बर, 1955

-लक्ष्मीचन्द्र जैन

हृदय-परिवर्तन


एक बार रेल के सफ़र में हृदय-परिवर्तन संबंधी प्रसंग चल निकला तो एक थानेदार ने अपने जीवन की घटना इस प्रकार सुनायी :
‘‘मेरे पड़ोस में एक भिखारी भीख माँग रहा था। पड़ोसी ने दुत्कार दिया तो वह मेरे मकान से गुज़रा। मुझे उसकी हालत पर रहम आ गया। मैंने आवाज़ देते हुए कहा, ‘बाबा ठहरो, खाना भेजता हूँ।’
मगर मह मेरी आवाज़ को अनसुनी करके बढ़ता गया। मैंने समझा, उसने सुना नहीं है। अत: नौकर को रोटी दे आने को भेजा। मगर उसने रोटी लेने से इनकार कर दिया। नौकर ने आग्रह किया तो उसने जवाब दिया, ‘जो लोग रिश्वत लेते हैं, मैं उनके यहाँ अन्न-जल ग्रहण नहीं करता।’
नौकर उसे गालियाँ बकता चला आया और मुझे भी उसके वे जुमले सुनाये। मैंने तो सुनकर कट-सा गया। थानेदार की कोई इस तरह उपेक्षा करे और वह भी दर-दर का भिखारी ! मन आत्मग्लानि और क्षोभ से भर-सा गया। रह-रहकर कभी अपने पर, कभी नौकर पर और कभी उस भिखारी पर ताव आने लगा।
ऐसे गधे को गुलकन्द दिखाया ही क्यों जाए, जो उसे देखकर ‘आँख फोड़ दी, आँख फोड़ दी’ चिल्ला पड़े ! क्या जरूरत थी धन्नासेठ बनने की, और अगर मुझसे ग़लती हो भी गयी थी तो वह कम्बख्त नौकर उसे रोटी देने चला क्यों गया ? किसी बहाने काम में लग जाता, बात आयी-गयी हो जाती, और चला भी गयी था, तो जो उस दीवाने ने कहा, उसे मुझसे कहने की क्या जरूरत थी ? और उस मँगते की शान तो देखो, भीख के टूक और बाज़ार में डकार।
इसी रिश्वत की बदौलत पत्नी बलाएँ लेती हैं, साहबज़ादे नवाब बने फिरते हैं, यारों का जमघट लगा रहता है, बिरादरी और रिश्तेदारियों में आव-भगत होती है। रिश्वत न लूँ तो कोई कौडी के तीन-तीन भी न पूछे; जो वेतन मिलता है, उससे तो पान-सुपारी  का ख़र्च भी न चले। रिश्वत छोड़ दूँ तो फिर बीवी-बच्चों के गुलचर्रे, ऑफ़िसर्स की डालियाँ, बिरादरी के चन्दे, रिश्तेदारी के लेन-देन-सब किस बिरते पर चल सकेंगे ?
दिल में कोई रोज़ तक उथल-पुथल मची रही। कभी रिश्वतख़ोरी के गुनाह आँखों के सामने फिरने लगते, कभी वह भिखारी अँगूठा दिखाता हुआ-सा नज़र पड़ता और कभी बीवी-बच्चों की मासूम शक्लें रोती-सी दिखाई देतीं।
न ज़ाने एक रोज क्या हुआ, मैं रिश्वत न लेने की क़सम खा बैठा। अपने-पराये सभी धीरे-धीरे दुश्मन बनते गये। ऑफ़िसर्स को नज़रो-नियाज़ न पहुँच सका, इसीलिए तरक्की भी बन्द हो गयी। दिल कुछ दिनो तो बेहद घबराया, मगर आत्मा को न जाने कैसे बल मिलता ही गया और इष्ट-मित्रों के समझाने के बावजूद अपने निश्चय पर अटल बना रहा। फिर तो वह आत्मसुख मालूम होने लगा, जिसके समक्ष सात बादशाहत भी हेच हैं।
एक वर्ष बाद फ़क़ीर ने दरवाज़े पर सदा लगायी। जाकर देखा तो वही भिखारी था। मुझे देखते ही बोला, ‘दाता, रोटी दे। बहुत भूखा हूँ।’
मैंने कहा, ‘हम तो रिश्वत लेते हैं बाबा, हमारे यहाँ अन्न-जल कैसे ग्रहण करोगे ?’
वह हँसकर बोला, ‘तुम रिश्वत नहीं लेते देवता, मैं आज तुम्हारा नमक खाकर अपने शरीर को पवित्र करूँगा। तुम्हारे-जैसे सन्तोषी जीव की चरण-रज लगाने से ही मेरी मुक्ति होगी...’
मैंने झुककर उस दिव्य द्रष्टा के पाँव पकड़ लिये।’’
उक्त घटना सुनकर मैं खो-सा गया, फिर जी न चाहा कि किसी से बात करूँ। इस भ्रष्टाचार के युग में और वह भी ऐसे भ्रष्ट महकमे में ऐसे संतोषी मनुष्य मौजूद हैं। मन श्रद्धा से भर गया।

4 सितम्बर 1951 ई.

सन्तोषी भिक्षुक


सन् 1933 या 34 की वीर-जयन्ती के अवसर पर मुझे भाषण देने के लिए हाँसी (हिसार) जाना पड़ा। वहाँ एक दुकान पर बैठे हुए हम आठ-दस आदमी गप-शप कर रहे थे कि दिन के ग्यारह-बारह बजे के क़रीब गेरुआ वस्त्रधारी दो युवक भिक्षुक सामने से गुज़रे। उनकी पीठ पर पुस्तकों के बड़े-बड़े बण्डल देखकर कौतूहलवश मैंने बुला दिया। वे चुपचाप दुकान में आकर खड़े हो गये तो मैंने व्यंग्य से पूछा, ‘‘कहिए, यह पीठ पर पुस्तारा लदा हुआ है या कुछ और ?’’
‘‘पुस्तकें ही हैं।’’
‘‘कौन-सी पुस्तकें हैं ?’’
‘‘वेद, उपनिषद्, गीता आदि।’’
‘‘समझ भी लेते हो या यूँ ही लादे फिरते हो ?’’
‘‘लादना ही है, इतनी बुद्धि कहाँ कि हृदयंगम कर सकें। दो-चार अक्षर जाने-अनजाने मस्तिष्क में प्रवेश करते भी हैं, तो वे जीवन में न उतरकर वहीं चक्कर लगाते रहते हैं। पुस्तकें ही क्या, हम तो अपने जीवन को भी गधे के समान ढोते फिरते हैं।’’
मेरे व्यंग्य का उत्तर उन्होंने इतने सरल और मधुर शब्दों में दिया कि मैं झेंप-सा गया। मैंने फिर एक-दो चोट की, परन्तु उन पर क्या असर होता ? कभी वे खिलखिलाकर हँस पड़ते और कभी इस तरह चुप हो जाते कि मैं स्वयं पराजय की ग्लानि-सी महसूस करने लगता। जब मेरे सब वार ख़ाली गये तो मैंने वह शक्ति भी फेंक दी, जिसके आगे अच्छे-अच्छे मूर्च्छित हो जाते हैं यानी अर्थ-लाभ की शक्ति !
‘‘महाराज, कुछ खाओगे ?’’
‘‘आप चिन्ता न करें।’’
हाँसी के पेड़े मशहूर हैं। उन दिनों एक रुपये के दो सेर के क़रीब आये। मैं उन्हें देने लगा तो बोले, ‘‘प्रभा, पहले आप और आपके साथी पाएँ, फिर हमें भी उसमें से परसादी दें।’’
तक़रीबन चार-चार पेड़े सबके हिस्से में आये। हिस्से के अनुसार ही भिक्षुकों ने लिये। जब सब खा चुके तो वे परस्पर कुछ संकेत-सा करके मुसकराये। आग्रह करने पर बताया, ‘‘शहर में प्रवेश करते हुए एक ने कहा, ‘आज काफ़ी विलम्ब हो गया है, शायद ही भिक्षा मिले।’ दूसरे ने जवाब दिया, ‘इसकी चिन्ता न करो, भोजन भाग्य में होगा तो कोई-न-कोई दयालु प्रतीक्षा कर ही रहा होगा।’ और दाता, पाँच मिनट बाद ही आपके दर्शन हुए।’’
मैंने कहा, ‘‘महाराज, सुबह से निराहार थे तो आपने पेड़े बँटवा क्यों दिये ? इस तीन-चार पेड़ों से क्या तृप्ति होगी ? ख़ैर, कोई बात नहीं, मैं भोजन का प्रबंध किये देता हूँ।’’
‘‘नहीं दाता, अब हम कल भोजन करेंगे, आज कुछ और नहीं लेंगे। दिन में एक बार जो भी मिल जाए, उसी को लेकर आनन्द होता है।’’
मुझे काफ़ी पछतावा हुआ कि इतने थके-माँदों को चार-चार पेड़ों से क्या बनेगा ? पहले ही भरपेट भोजन क्यों न करा दिया ? थोड़ा-सा भोजन लेने का मैंने फिर अनुरोध किया, किन्तु वे मुसकराते हुए इस तरह अचल बने रहे कि मैं और कुछ भी न खिला सका।
जब वे चलने लगे तो मैंने कहा, ‘‘महाराज, कभी दिल्ली की तरफ आना बने, तो ग़रीब की कुटिया पर भी पधारें।’’
क़रीब दो-तीन वर्ष के बाद उनमें से एक साधु सन्ध्या के समय एकाएक घर पर आये। पूछने पर मालूम हुआ कि दूसरे भिक्षु का स्वर्गवास हो गया, और वे केवल अपने वादे को पूरा करने के लिए अलीगढ़ से चलकर मेरे लिए पधारे हैं और कल फिर उसी ओर को रम जाएँगे।
एक-दो दिन ठहरने का आग्रह किया तो बोले, ‘‘दाता, साधु गृहस्थों के यहाँ नहीं ठहरते। वे तो रमते राम ही शोभा पाते हैं।’’ मार्ग-व्यय आदि भी नहीं लिया। धूप-वर्षा से बचने की छतरी भी स्वीकार नहीं की। भोजन किया, वह भी अल्प। आशीर्वाद देते और मुसकराते हुए चले गये। फिर आज तक दर्शन नहीं हुए। सैकड़ों भिक्षुक गलियों में रोज़ाना आते-जाते हैं, परन्तु वे दिखाई नहीं देते।
अक्टूबर, 1941 की बात है, मैं हिसार से दिल्ली आ रहा था; करीब रात के बारह-एक बजे नारनौल या रिवाड़ी के स्टेशन पर गाड़ी एक घण्टे के क़रीब रुकी। गुलाबी सर्दी पड़ रही थी, प्लेटफ़ॉर्म पर एक फ़क़ीर केवल लँगोटी लगाये इधर-उधर तेज़ी से चक्कर लगा रहा था। पागलों-जैसी हालत थी। मैंने यह हालत देखकर उसको चाय और डबलरोटी खिला देने के लिए चायवाले को आदेश दिया तो वह बोला, ‘‘हुज़ूर, यह तो कुछ लेगा नहीं।’’
‘‘क्या बकते हो, क्यों नहीं लेगा ?’’
‘‘हुज़ूर, बुरा न मानें, यह किसी से कुछ नहीं लेता। आस-पास के गाँववाले और स्टेशन के मुसाफ़िर अकसर मिन्नत-समाजत करते हैं, मगर यह किसी की बात नहीं सुनता, और इसी तरह पड़ा रहता है।’’
‘‘यह कैसे हो सकता है, नहीं खाता तो फिर जीवित कैसे रहता है ?’’
‘‘भगवान जाने हुज़ूर, न जाने कब और कहाँ खा आता है, आज तक तो पता चला नहीं।’’
मुझे विश्वास न हुआ, स्वयं उसके पास जाकर कुछ खा-पी लेने को कहा तो मुझे उत्तर दिये बिना ही आगे बढ़ गया। मैंने आगे बढ़कर दीनता-भरे स्वर में फिर निवेदन किया, किन्तु वह परमहंसों की तरह घूमता हुआ आगे बढ़ता गया। मैं खिसियाना-सा खड़ा देखता रहा। गाड़ी चली तो औंधे मुँह अपनी सीट पर लेट गया। फिर नींद क्या आनी थी ?

4 सितम्बर, 1951 ई.

अंकिचन या चक्रवर्ती


सन् 1942 के उपद्रवों के दिनों में डेहरी-ऑन-सोन से दिल्ली जाना पड़ा था। एक तो लड़ाई के दिन, दूसरे रेलवे तोड़-फोड़-आन्दोलन। स्वर्ग में सीट रिजर्व हो जाना सरल, परन्तु रेलवे फ़र्स्ट-सेकेण्ड में भी पाँव रखने को स्थान मिलना असम्भव। जिन्हें जगह मिल पाती थी, प्लेटफ़ार्म पर रहे यात्री उनके भाग्य की सराहना किया करते थे। रेलवे-बाबुओं को तो छोड़िए, क़ुली और पानीपाँड़े भी यात्रियों को भेड़-बकरियों से अधिक तरजीह नहीं देते थे।
मुझे प्यास ने जब अधमरा-सा कर दिया, तब एक स्टेशन पर पानीपाँड़े दिखाई दिया तो गिलास भर देने को बेहताशा आवाज़ लगायी। पानी लेने के बाद इकन्नी दी तो लेने से इनकार कर दिया। मैंने समझा, शायद थोड़े समझकर नहीं लेता है, अन्य वस्तुओं की तरह शायद स्टेशनी जल की क़ीमत भी बढ़ गयी है। इसीलिए दो इकन्नी थमाने लगा, तो वह खीजकर बोला, ‘‘साहब, पैसे किस बात के लूँ, मुझे तो नौकरी ही इस बात की मिलती है।’’
इतने में गाड़ी चल दी तो मैंने प्लेटफ़ॉर्म पर उसके लिए दोनों इकन्नियाँ डाल दीं। मेरी इस हरकत को देखकर उसने बड़बड़ाते हुए कहा, ‘‘वाह साहब, अच्छे रईस आये, पानी का पानी पी गये और ईमान का ईमान ख़राब कर गये।’’ फिर झुककर दोनों इकन्नियाँ इस तरह उठायी मानो बच्चे की छी-छी उठा रहा हो ! जी चाहा कि उतरकर इस जीवन्मुक्त के पाँव पकड़ लूँ, मगर ट्रेन रफ्तार पकड़ चुकी थी। फिर कई बार खोजने का प्रयत्न किया, परन्तु न स्टेशन का नाम याद रहा, न उसकी सूरत का ही ख़याल रहा। जब पेशगी इकन्नी लेकर पानीपाँड़े पौन गिलास पानी भरकर देते हैं, तब बरबस उसकी याद आ जाती है।

4 सितम्बर, 1951

शाने-मुफ़लिसी


दिसम्बर, 1941 ई. की बात है, हम चार-पाँच साथी मद्रास से दिल्ली जा रहे थे। मद्रासी भोजन के अभ्यस्त न होने के कारण क़रीब चौबीस घण्टे निराहार रहकर भूख का लुत्फ़ उठाते रहे। लतीफ़े कहते, करवटें बदलते, अखबार पढ़ते और निर्दिष्ट स्टेशन पर यथारुचि भोजन मिलने की कल्पना के मज़े लेते हुए वर्धा या नागपुर के स्टेशन पर पहुँचे। गाड़ी अभी पूरी तरह ठहरने भी न पायी थी कि चार-पाँच थालों का ऑर्डर दे दिया गया।
उन दिनों नागपुर वर्धा से रेस्टराँ बोगी लगती थी, जिसमें सम्भवत: बारह आने में शुद्ध और स्वादिष्ट भोजन मिलता था। मारवाड़ी ब्राह्मण भोजन बनाता था। तब तक न तो आज की तरह वनस्पति घी का सर्वव्यापी प्रचार हो पाया था और न युद्ध जनित महँगाई विशेष बढ़ने पायी थी।
हमारे सामने की सीट पर एक सज्जन और बैठे हुए थे, जो हमारी तरह मद्रास से निराहार यात्रा कर रहे थे। सभ्यतावश हमने उनके लिए भी थाल मँगवाना चाहा, परन्तु उन्होंने नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया और गाड़ी ठहरने पर प्लेटफ़ॉर्म पर चले गये। मैंने समझा कि धार्मिक दृष्टि से थाल नहीं मँगवाया है और प्लेटफ़ॉर्म पर अपनी रुचि की मिठाई-पूरी आदि खाने गये हैं।
खाना खाने के बाद हाथ-मुँह धोने को मैं जो नीचे उतरा तो वे यूँ ही प्लेटफ़ॉर्म पर घूमते हुए नज़र आये। मैं पास जाकर बोला, ‘‘अरे साहब, आप यह क्या ज़ुल्म कर रहे हैं, न आपने थाल मँगाने दिया, न आप ने अभी तक स्टेशन पर ही कुछ खाया। जल्दी से खा-पी लीजिए। ट्रेन छूटने में विलम्ब नहीं है।


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