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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4267
आईएसबीएन :00000

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अध्यात्मवाद पर आधारित पुस्तक


आत्मा की सूक्ष्म चेतना सारे शरीर का नियंत्रण और संचालन करती है। उस व्यवस्था में रत्ती भर भी अंतर आ जाये तो यह सुंदर, सुगठित, स्वस्थ और सूक्ष्म लगने वाला शरीर भी भार रूप हो जाता है। साधारण-सा रोग उठ खड़ा होने पर पीड़ा और परेशानी का ठिकाना नहीं रहता। फिर कोढ़, क्षय, उपदंश, हैजा, प्लेग जैसा कोई संक्रामक रोग हो जाए, तब तो दूसरे लोगों का सहयोग भी कठिनता से मिलता है। लोग छूत से बचने के लिए दूर-दूर रहते हैं और स्वजन-संबंधी भी परिचर्या से कतराते हैं। इस प्रकार का कोई विकार खड़ा होने पर पहले जो लोग अपने ऊपर जान देते थे, वे दूर रहने और अपना पिंड छुड़ाने का प्रयत्न करते हैं।

अपनी निज की विशेषताओं के कारण जो लोग प्रिय-पात्र थे, वे ही उन विशेषताओं के समाप्त हो जाने पर उपेक्षा करने लगते हैं। शत्रु बन जाते हैं। जिस वेश्या पर यौवनकाल में प्रेमीजन चील-कौओं की तरह मंडराते रहते थे, वृद्धा होने पर उसके पास कोई दुःख-दर्द की भी सुधि लेने नहीं आता। माता से जब तक बालक दूध तथा जीवन धारण करने की सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए उस पर निर्भर रहता है, तब तक उससे अत्यधिक प्रेम करता है। माता जरा-सी देर के लिए भी बच्चे को छोड़कर कहीं चली जाए तो वह रोने लगता है। उसी की गोदी में चिपके रहने की इच्छा करता है। पर जब वही माता बूढी हो जाती है, जवान बच्चे के लिए कुछ लाभदायक नहीं रहती तब बेटे का व्यवहार बदल जाता है। वह उपेक्षा ही नहीं करता बल्कि तिरस्कृत करने लगता है।

यह परिस्थितियाँ बताती हैं कि आत्मा की सजीवता, सूक्ष्मता और सुदृढ़ स्थिति ही एकमात्र वह तथ्य है, जिसके कारण पदार्थों और व्यक्तियों का सहयोग, सुख और स्नेह प्राप्त होता है। इसमें कमी आने पर व्यवहार ही बदल जाता है। अपने-पराये हो जाते हैं, मित्र शत्रु में बदल जाते हैं। अपने पास धन बहुत हो, पर उसकी रखवाली के लायक शक्ति शेष न रहे तो वह धन ही प्राणों का ग्राहक बन जाता है। स्वजन-संबंधी भी मरने की प्रतीक्षा देखते हैं और चोर-डाकुओं का लालच बढ़ जाता है। वे किसी बलवान् और सुरक्षासंपन्न के ऊपर आक्रमण करने की अपेक्षा दुर्बलों को ही अपना शिकार बनाते हैं। अशक्त व्यक्ति के लिए धन उसकी जान का ग्राहक है। रूपवती स्त्री भी उसके लिए विपत्ति ही है। कारोबार, व्यापार आदि में अनेक प्रतिद्वंद्वी खड़े हो जाते हैं। अपनी मनमानी करने में जिसको भी वह कमजोर व्यक्ति कुछ बाधक लगता है, वही उसे काँटा समझकर रास्ते में से हटाने की कोशिश करता है। दुर्बल काया पर अगणित रोगों का आक्रमण होता है। बीमारियाँ उसे अपना घर बना लेती हैं। मरने पर तो इस देह को जल्दी से जल्दी घर से निकाल बाहर करने और उसे नष्ट करने की व्यवस्था करनी पड़ती है।

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    अनुक्रम

  1. भौतिकता की बाढ़ मारकर छोड़ेगी
  2. क्या यही हमारी राय है?
  3. भौतिकवादी दृष्टिकोण हमारे लिए नरक सृजन करेगा
  4. भौतिक ही नहीं, आध्यात्मिक प्रगति भी आवश्यक
  5. अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती
  6. अध्यात्म की अनंत शक्ति-सामर्थ्य
  7. अध्यात्म-समस्त समस्याओं का एकमात्र हल
  8. आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है
  9. अध्यात्म मानवीय प्रगति का आधार
  10. अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष
  11. हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
  12. आर्ष अध्यात्म का उज्ज्वल स्वरूप
  13. लौकिक सुखों का एकमात्र आधार
  14. अध्यात्म ही है सब कुछ
  15. आध्यात्मिक जीवन इस तरह जियें
  16. लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
  17. अध्यात्म और उसकी महान् उपलब्धि
  18. आध्यात्मिक लक्ष्य और उसकी प्राप्ति
  19. आत्म-शोधन अध्यात्म का श्रीगणेश
  20. आत्मोत्कर्ष अध्यात्म की मूल प्रेरणा
  21. आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान देवता भगवान् शिव
  22. आद्यशक्ति की उपासना से जीवन को सुखी बनाइए !
  23. अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए
  24. आध्यात्मिक साधना का चरम लक्ष्य
  25. अपने अतीत को भूलिए नहीं
  26. महान् अतीत को वापस लाने का पुण्य प्रयत्न

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