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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4267
आईएसबीएन :00000

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अध्यात्मवाद पर आधारित पुस्तक

लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे


यह संसार दो रूपों में विभक्त है, दृश्य और अदृश्य। दृश्य स्थूल नेत्रों से दिखाई देने वाला संपूर्ण भौतिक जगत् है। अदृश्य तत्त्व परमात्मा है, जो प्राण-रूप में सर्वत्र व्याप्त होकर विविध खेल की रचना करता है। परमात्मा सब कालों में एक-सी स्थिति में रहता है, किंतु प्रकृति परिवर्तनशील है, उसका स्वरूप बदलता रहता है; इसलिए उसे मिथ्या कहा है। सुखोपभोग की स्थल वासना और आसक्ति की दृष्टि से उसे मिथ्या, असार या मनोमात्र कहना अनुचित नहीं है। इस संसार के विषयों में ही मनुष्य जब भटक जाता है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि यह संसार भ्रम है, धोखा है, मृग-मरीचिका है। इनसे अलिप्त रहने में ही कल्याण है।

शास्त्रकार ने भी कहा है-

लोक एवं विषयानुरंजन दुःखगर्भमपि मन्यते सुखम्।
आमिष बडिशगर्भमप्यहो मोहतो ग्रसति यद्वदण्डजः।।


अर्थात्-मछली जिस प्रकार मांस को देखती है, उसके नीचे छिपे हए काँटे को नहीं। वैसे ही संसार विषयों के आकर्षण को ही देखता है, विषयों के परिणामस्वरूप अवश्यंभावी दुःख की ओर वह दृष्टिपात भी नहीं करता। जगत् का मिथ्यात्व इसी दृष्टि से है, क्योंकि यहाँ मनुष्य सुख की मृगतृष्णा में भटक जाता है और पाप करने लगता है, जिससे वह अपने जीवन लक्ष्य से पतित होकर जन्म-जन्मांतरों तक यहाँ के दुःख और कष्ट के भोग भोगता रहता है।

श्री गौडपादाचार्य ने लिखा है-

आदाबन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा।
वितथैः सदृशाः संतोऽवितथा इव लक्षिता।।
स्वप्नमापे यथा दृष्टे गन्धर्व नगरं यथा।
तथा विश्व मिदं दृष्टं बबान्तेषु विचक्षणैः।।


अर्थात्-जो वस्तु उत्पति से पूर्व न रही हो, नाश हो जाने पर भी न रहती हो, किंतु बीच में सत्य प्रतीत होती हो उसको सत्य नहीं मानना चाहिए। जिस तरह स्वप्न में गंधर्व नगरी के से सुंदर दृश्य दिखाई देते हैं, किंतु जाग जाने पर कुछ भी शेष नहीं रहता, संसार भी उसी तरह दृश्य मात्र है। आज इसे जिस रूप में देखते हैंमृत्यु के अनंतर वह किसी दूसरे ही रूप में दिखाई देगा।

मनुष्य का अज्ञान जितना बढ़ता जाता है, उतना वह अपने शरीर को अधिक महत्त्व देता चला जाता है, इसी को नहलाने-धुलाने, खिलाने-पिलाने, सजाने आदि में ही सारा जीवन बर्बाद कर देता है। उसको प्रतीति होती है कि वह शरीर है, किंतु चूँकि जीवन धारण के पूर्व उसकी स्थिति शरीर नहीं थी मृत्यु के अनंतर भी शरीर शेष नहीं रहता, केवल जीवन के क्षणों में ही वह सत्य जैसा प्रतीत होता है; इसलिए धर्माचार्यों ने बार-बार समझाया है कि यह संसार और यहाँ की वस्तुयें छल हैं, प्रपंच हैं। इनमें धोखा नहीं खाना चाहिए। साधनों को निस्सार समझकर उनके पीछे भागने की अपेक्षा अपने मानव जीवन को सार्थक बनाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।

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    अनुक्रम

  1. भौतिकता की बाढ़ मारकर छोड़ेगी
  2. क्या यही हमारी राय है?
  3. भौतिकवादी दृष्टिकोण हमारे लिए नरक सृजन करेगा
  4. भौतिक ही नहीं, आध्यात्मिक प्रगति भी आवश्यक
  5. अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती
  6. अध्यात्म की अनंत शक्ति-सामर्थ्य
  7. अध्यात्म-समस्त समस्याओं का एकमात्र हल
  8. आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है
  9. अध्यात्म मानवीय प्रगति का आधार
  10. अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष
  11. हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
  12. आर्ष अध्यात्म का उज्ज्वल स्वरूप
  13. लौकिक सुखों का एकमात्र आधार
  14. अध्यात्म ही है सब कुछ
  15. आध्यात्मिक जीवन इस तरह जियें
  16. लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
  17. अध्यात्म और उसकी महान् उपलब्धि
  18. आध्यात्मिक लक्ष्य और उसकी प्राप्ति
  19. आत्म-शोधन अध्यात्म का श्रीगणेश
  20. आत्मोत्कर्ष अध्यात्म की मूल प्रेरणा
  21. आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान देवता भगवान् शिव
  22. आद्यशक्ति की उपासना से जीवन को सुखी बनाइए !
  23. अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए
  24. आध्यात्मिक साधना का चरम लक्ष्य
  25. अपने अतीत को भूलिए नहीं
  26. महान् अतीत को वापस लाने का पुण्य प्रयत्न

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