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युगन्धर

शिवाजी सावंत

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :936
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 427
आईएसबीएन :9789326351461

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भारतीय उपन्यास-साहित्य में लोकप्रियता के शिखर पर प्रतिष्ठित उपन्यास ‘मृत्युंजय’ के रचनाकार शिवाजी सावंत की लम्बी अन्वेषी साधना का सुफल है यह उनका बहुप्रतीक्षित उपन्यास -‘युगन्धर’।

Yugandhar - A Hindi Book by - Shivaji Savant युगन्धर - शिवाजी सावंत

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्रीकृष्ण-अर्थात् हजारों वर्षों से व्यक्त एवं अव्यक्त रूप से भारती जनमानस में व्याप्त एक कालजयी चरित्र - एक युगपुरुष !
श्रीकृष्ण-चरित्र के अधिकृत संदर्भ मुख्यतः श्रीमद्-भागवत, महाभारत, हरिवंश और कुछ पुराणों में मिलते हैं। इन सब ग्रन्थों में पिछले हजारों वर्षों से श्रीकृष्ण-चरित्र पर सापेक्ष विचारों की मनगढ़न्त परतें चढ़ती रहीं। यह सब अज्ञानवश तथा उन्हें एक चमत्कारी व्यक्तित्व बनाने के कारण हुआ। फलतः आज श्रीकृष्ण वास्तविकता से सैकड़ों योजन दूर जा बैठे हैं।
‘श्रीकृष्ण’ शब्द ही भारतीय-जीवन प्रणाली का अनन्य उद्गार है।

 आकाश में तपता सूर्य जिस प्रकार कभी पुराना नहीं हो सकता, उसी प्रकार महाभारत कथा का मेरुदण्ड-यह तत्त्वज्ञ वीर भी कभी भारतीय मानस-पटल से विस्मृत नहीं किया जा सकता। जन्मतः ही दुर्लभ रंगसूत्र प्राप्त होने के कारण कृष्ण के जीवन-चरित्र में, भारत को नित्य नूतन और उन्मेशशाली बनाने की भरपूर क्षमता है। श्रीकृष्ण-जीवन के मूल संदर्भों की तोड़-मरोड़ किये बिना क्या उनके युगन्धर पुरुष रूप को देखा जा सकता है क्या ? क्या उनके स्वच्छ, नीलवर्ण जीवन-सरोवर का दर्शन किया जा सकता है ? क्या गीता में उन्होंने भिन्न-भिन्न युगों का मात्र निरूपण किया है ? सच तो यह है कि श्रीकृष्ण के जीवन-सरोवर पर छाये शैवाल को तार्किक सजगता से हटाने पर ही उनके युगन्धर रूप के दर्शन हो सकते हैं।

भारतीय उपन्यास-साहित्य में लोकप्रियता के शिखर पर प्रतिष्ठित उपन्यास ‘मृत्युंजय’ के रचनाकार शिवाजी सावन्त की लम्बी अन्वेषी साधना का सुफल है यह उनका बहुप्रतीक्षित उपन्यास-‘युगन्धर’।

समर्पण


जिस के लिए-‘तुम न होती तो ?’ यह एक ही प्रश्न है मेरे ‘होने’ का-मेरे अस्तित्व का निर्विवाद उत्तर, और विपरीत स्थितियों में भी जिसने कर्तव्य-तत्पर होकर ज्येष्ठ बन्धु श्री विश्वासराव की मदद से मंगेश, तानाजी और मैं- हम तीनों भाइयों के जीवन को आकार दिया, और इसके लिए हँसमुख रहकर कष्टसाध्य परिश्रम करते हुए जिसके पाँवों में छाले पड़ गये-अपनी उस (स्व) मातुश्री राधावाई गोविन्दराव सावन्त के वन्दनीय चरणों को स्मरण करके;

--और मराठी के ख्यातश्रेयस, सापेक्षी, ज्येष्ठ बन्धुतुल्य प्रकाशक श्री अनन्तराव कुलकर्णी, उनके सुपुत्र अनिरूद्ध रत्नाकर तथा समस्त कॉण्टिनेण्टल प्रकाशन परिवार का स्मरण करके;

--और जिसने यह प्रदीर्घ रचना श्रीकृष्ण-प्रेम अथक निष्ठा से लिपिबद्ध की जिसने प्रिय कन्या सौ. कादम्बिनी पराग धारप और चि. अमिताभ को अच्छे संस्कार दिये, जो मेरे लिए पहली परछाई और मेरा दूसरा श्वास ही हैं- अपनी पत्नी सौ. मृणलिनी अर्थात कुन्दा को साक्षी रख के;

सभी पाठकों के साथ-साथ उसे भी प्रिय लगे ऐसे शब्दों में कहता हूँ- श्रीकृष्णार्पणमस्तु !

-शिवाजी सावन्त

आचमन


‘युगन्धर’ की मूल मराठी कथा शब्दांकित हुई। एक अननुभूत कार्यपूर्ति के अवर्णनीय आनन्द से मेरा मन लबालब भर आया है। अज्ञात मन की गहराईयों से मुझे तीव्रता से प्रतीत हो रहा है कि अब अपने मनोभाव को व्यक्त करने हेतु भी लेखनी न ऊठाऊँ। जो भी कहना है वह हजारों वर्षों से मर्मज्ञ भारतीयों के मन पर राज करता आया वह साँवला कान्हा ही अपने वर्ण के अनुसार, गहरे, लहलहाते शब्दों में मुक्त मन से कहे। और इस कथा को ‘श्रीकृष्णार्पण’ कर, पिछले तीस वर्षों से कृष्ण को जानने के प्रयास में श्रान्त हुए अपने मन और शरीर को अब मैं विश्राम दूँ।

इस प्राक्कथन को मैंने ‘आचमन’ क्यों कहा हैं, यह बताना आवश्यक है ‘आचमन’ अर्थात् समष्टि के हित-कल्याण हेतु परमशक्ति को मन-ही-मन आवाहन कर प्राशन की जलांजलि। ‘युगन्धर’ पढ़कर पाठक को इसकी प्रतीति अवश्य होगी, इस बात का श्रीकृष्ण की कृपा से मुझे पूर्ण विश्वास है। अतः प्रकट-अप्रकट शब्दों में व्यक्त किये इस मनोयोग को मैंने ‘आचमन’ कहा।

कुछ श्रद्धेय सुहृदों के तीव्र स्मरण से मेरी लेखनी स्तम्ध-सी हो गयी है- जिन्होंने आत्मीयता से युगन्धर की रचना की प्रगति के विषय में मुझसे बार-बार पूछताछ की थी। किन्तु उनके ‘युगन्धर कब पूर्ण होगा ?’ इस प्रश्न का उत्तर स्वयं मुझे ही पता नहीं था, अतः देहू गाँव के सन्त तुकाराम महाराज की भाँति मन-ही-मन मेरा अपने-आप ही से संवाद होता रहता था। इस संवाद का कोई अन्त ही नहीं होता था। इसलिए केवल मुस्कराकर उस समय मैं मौन धारण कर लेता था। इन सहृदों को झूठमूठ का आश्वासन देने का साहस मुझमें नहीं था। इनमें से दो तो ऐसे थे, जिनकी नस-नस में साहित्य और मानवता का प्रेम निरन्तर बहता रहता था।

इनमें पहले थे ऋषितुल्य- श्रद्धेय तात्यासाहब दूर-दूर तक फैले साहित्य-रसिकों के कण्ठमणि, कविश्रेष्ठ कुसुमाग्रज अर्थात वि.वा. शिरवाडकर ! और दूर से थे पुणे के कॉण्टिनेण्टल प्रकाशन के संचालक अन्नतराव कुलकर्णी अर्थात् भैयासाहब !
 मैंने अपनी पद्धति से ‘युगन्धर’ के व्यक्तित्व का अध्ययन पूर्ण किया।

 श्री कृष्ण के जीवन के सम्बद्ध मथुरा, उज्जैन, जयपुर, कुरूक्षेत्र, प्रभास, द्वारिका, सुदामापुरी, करवीर आदि स्थानों की मैंने मुलाकातें भी कीं। कथावस्तु में सीधे प्रवेश करने के लिए मेरा मन मचलने लगा। मन की इसी स्थिति में मुझे नासिक शहर से व्याख्यानमाला का एक आमन्त्रण मिला। मैंने भी आदरणीय कुसुमाग्रज जी से भेंट करने की इच्छा से उसे स्वीकार किया।

‘आकृतिबन्ध’ (Form) की समस्या उनके आगे रखते हुए मैंने कहा, ‘सोच रहा हूँ कि श्रीकृष्ण द्वारा आत्मचरित्र कथन की शैली में उपन्यास की रचना करूँ !’’ निष्पाप बालक की भाँति कुसुमाग्रज जी मुस्कराये। ‘श्रीऽराम’ नाम लेकर बोले, ‘‘अच्छा विचार है। शीध्र आरम्भ कीजिए।’’

मन में निश्चय कर मैं पुणे लौट आया। संयोग से उसी समय हरिद्वार के रामकृष्ण सेवाश्रम के पूज्य स्वामीजी- अकामानन्द महाराज अनपेक्षिततः अपने शिष्य डा. इमानदार के साथ मेरे घर आये। उसको देखते ही मेरे मन में आया ‘इस प्रदीर्घ रचना का सुभारम्भ स्वामीजी के ही हाथों गन्ध-पुष्प अर्जित कर, शुभकर स्वस्तिकांकन करवा के क्यों न किया जाए ?’ स्वामीजी ने भी प्रसन्नतापूर्वक सम्मति दी। उनके हाथों घरेलू पद्धति से पूजन करवाकर मैंने नम्रता से उनके चरणों पर माथा रखा। अपना स्नेहशील हाथ मेरी पीठ पर रखकर स्वामीजी ने अत्यन्त प्रेम से कहा, ‘तथास्तु- शुभं भवतु।’
श्रीकृष्ण के पहले ही शुभ अध्याय का इस प्रकार अनपेक्षित प्रारम्भ हुआ। लेखिका श्रीमती सुधाजी लेले प्रतिदिन हमारे घर आने लगीं। श्रीकृष्ण के प्रदीर्घ कथन के दो सौ पृष्ठ पूरे हुए।

स्वामीजी फिर जब किसी काम से पुणे आये मैंने अपना लेखन उनको पढ़कर सुनाया। गीता के गहरे अध्ययन के कारण स्वामीजी परम श्रीकृष्ण-भक्त हैं। वैज्ञानिक दृष्टि के कारण उनकी श्रीकृष्ण-भक्ति सजग है।
श्रीकृष्ण के जीवन के अधिकतर चमत्कारों को कठोरता से परे रखकर जीवन-कार्य की वास्तविकता को जान लेने का मेरा साहित्यिक व्रत उसको स्पर्श कर गया। मेरा लेखन उनको मनःपूर्वक भा गया। घण्टा-भर हम दोनों श्रीकृष्ण-चर्चा में ही मग्न रहे।

लेखक फिर शुरू हो गया। किन्तु मुझे तीव्रता से आभास होने लगा- अकेला श्रीकृष्ण ही अपनी पूरी जीवन गाथा सुनाए, यह ‘गीता’ के सन्दर्भ में भी उचित नहीं होगा। मैं फिर रुक गया- कई महीने तक  मैं रुका ही रहा। जितना भी लेखन हो चुका था, मैंने सुधाजी से उसे फिर निर्दोष रूप में लिखवाया। उन्होंने भी कभी टालमटोल नहीं की।
मेरे मराठी प्रकाशक अनन्तराव जी आत्मीयता से मेरे पीछे पड़े थे- ‘कब दे रहे हो मुझे ‘युगन्धर’ ?

मैं तो भूमिका बाँधने में ही बहुत समय गँवा बैठा था। ऐसे में मुझे व्याख्यान के लिए नासिक जाने का अवसर फिर से प्राप्त हुआ। उस रामतीर्थ क्षेत्र में पहुँचते ही सबसे पहले मैं बन्धुतुल्य, साहित्य-अश्वत्थ कुसुमाग्रज जी से मिलने गया।
मैं उनके चरणस्पर्श कर ही रहा था कि मेरी भुजाओं को पकड़कर मुझे ऊपर उठाते हुए उन्होंने मुझसे वही प्रश्न पूछा, जिसका मुझे डर था-‘‘पहले बताइए, क्या कहता है ‘युगन्धर’ ?’’
नित्य की भाँति उन्होंने ‘‘कहाँ तक पहुँचा है ‘युगन्धर’ ?’’ नहीं पूछा था। उनकी बातों की दो पंक्तियों के बीच का आशय जानने का अब तक मुझे अच्छी तरह अभ्यास हो गया।

मैं निरुत्तर-स्तब्ध रह गया-कुछ क्षण ऐसे ही बीत गये। कुछ देर बाद मानो वे अपने-आप ही से बोले- ‘मुश्किल क्या है ? वैसे वह मुश्किल में डालनेवाला है ही- केवल यमुना-तट की ग्वालिनों को ही नहीं-उसे जानने का प्रयास करने वाले को भी !’
मैंने फिर से ‘शैली’ की मुश्किल बतायी। उन्होंने निरागस मुस्कराते हुए कहा, ‘‘ ‘मृत्युजय’ की शैली में क्या बुराई है ?’’ उनके स्वभाव के अनुसार यह सूचनात्मक सलाह ही थी। कुछ समय सोचकर मैंने कहा, ‘‘पाठकों को वह ‘मृत्युंजय’ की शैली का अनुसरण लगेगा।’’

‘‘बिल्कुल नहीं। इसी शैली में महाभारत के विषय पर आप और भी दस उपन्यास लिख सकते हैं। प्रश्न यह है कि उस व्यक्तित्व का आप कहाँ तक आकलन कर सके हैं ! अब रुकिये मत। ‘मृत्युंजय’ की ही शैली में आप ‘युगन्धर’ को पूरा कीजिए।’’
मैं चुप हो गया। कितना तर्कसंगत सुझाव दिया था तात्यासाहेब ने ! प्रत्यक्ष श्री कृष्ण ने अर्जुन को एक विशेष अवसर पर ‘यह है सूर्य और जयद्रथ’ का सीधा संकेत दिया था। (मैं अर्जुन नहीं हूँ, यह मैं जानता हूँ, किन्तु श्री. वि. वा. शिरवाडकर अर्थात् कुसुमाग्रज जी मराठी की साहित्य-द्वारिका के द्वारिकाधीश हैं, यह ध्यान में रखते हुए) उनकी सलाह मुझे आज्ञा जैसी लगी।

नासिक से लौटते हुए मन-ही-मन मैं छानने लगा, ‘‘ ‘युगान्धर’ में किस-किस व्यक्तित्व को मुखर करना होगा ! महाभारत के सशक्त मेरुदण्ड श्री कृष्ण के जीवन में शब्दशः हजारों स्त्री-पुरुष आये थे। उनमें से किसको चुनना है और किसको छोड़ना है ! क्यों ‍? कौन-सी कसौटी पर ?’’ मेरे मन में प्रश्नों का महाभारत शुरू हुआ।
अन्वेषण श्रीकृष्ण का करना था-एक बहुआयामी, प्रत्येक श्वास के साथ प्रतीत होनेवाले प्रिय व्यक्तित्व का, क्षण-भर में सुनील नभ को व्याप्त कर, दूसरे ही क्षण गहरे काले अवकाश के उस पास जानेवाले भार रहित ब्रह्माण को व्याप्त करनेवाले एक ऊर्जा-केन्द्र के भी केन्द्र, मोरपंखी, कालजयीस अजर व्यक्तित्व का था यह अन्वेषण !


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