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आचार्य श्रीराम शर्मा >> ऋषि चिन्तन

ऋषि चिन्तन

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4282
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है ऋषि चिन्तन.....

Rishi Chintan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

विचारों में असाधारण सामर्थ्य होती है। सद्विचारों के माध्यम से महामानव समस्त मानव जाति का मार्गदर्शन करने में सफल हुए हैं। समय-समय पर ऐसे मनीषी समाज में अवतरित होते रहते हैं, जिनकी चिन्तन-चेतना जन-मानस को झकझोरती व उनका कायाकल्प कर देती है। यही वह थाती है, जिसके आधार पर तत्कालीन समाज के सांस्कृतिक उत्थान का, नवोन्मेष का मूल्यांकन निर्धारण किया जा सकता है।

प्रखर प्रज्ञा की साकार मूर्ति पूज्य गुरुदेव के समय-समय पर अभिव्यक्त विचारों को प्रस्तुत पुस्तिका में संकलित कर जन साधारण के समक्ष प्रस्तुत करने का यह छोटा-सा प्रयास है। युग ऋषि ने जीवन से सम्बन्धित बहुमुखी विषयों पर इतना कुछ लिखा है कि एक विश्वकोष भी उसके लिए कम पड़ेगा। प्रस्तुत पुस्तिका में प्रयत्न यह किया गया है कि आत्म-विज्ञान से लेकर व्यावहारिक अध्यात्म के हर क्षेत्र को स्पर्श करने वाले गागर में सागर के समान बहुमूल्य इन विचारों को क्रमबद्ध रूप में परिजनों के समक्ष प्रस्तुत किया जाय। इस श्रृंखला का यह प्रथम पुष्प है। एक-एक पृष्ठ की परिधि में आबद्ध ये विचार समय-समय पर अखण्ड ज्योति पत्रिका में प्रकाशित होते रहे हैं। कुछ विषय ऐसे हैं, जो नितान्त अछूते रहे हैं। आशा की जाती है कि पाठक इस विचार अमृत से स्वयं भी लाभान्वित होंगे व अन्य अनेकों तक इस आलोक को फैलायेंगे।

निदेशक :
ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान

विनीत डा. प्रणव पण्ड्या

अन्धकार को दीपक की चुनौती


अन्धकार की अपनी शक्ति है। जब उसकी अनुकूलता का रात्रिकाल आता है, तब प्रतीत होता है कि समस्त संसार को उसने अपने अन्चल में लपेट लिया। उसका प्रभाव पुरुषार्थ देखते ही बनता है। आँखें यथा स्थान बनी रहती हैं। वस्तुएं भी अपनी जगह पर रखी रहती हैं, किन्तु देखने लायक विडम्बना यह है कि हाथ को हाथ नहीं सूझ पड़ता। पैरों के समीप रखी हुई वस्तुएं ठोकर लगने का कुयोग बना देती हैं।

अन्धकार डरावना होता है। उसके कारण एकाकीपन की अनुभूति होती है और रस्सी का सांप, झाड़ी का भूत बनकर खड़ा हो जाता है। नींद को धन्यवाद है कि वह चिरस्मृति के गर्त में धकेल देती है, अन्यथा जगने पर करवटें बदलते वह अवधि पर्वत जैसी भारी पड़े।

इतनी बड़ी भयंकरता की सत्ता स्वीकार करते हुए भी दीपक की सराहना करनी पड़ती है, जो जब अपनी छोटी सी लौ प्रज्ज्वलित करता है, तो स्थिति में कायाकल्प जैसा परिवर्तन हो जाता है। उसकी धुंधली आभा भी निकटवर्ती परिस्थिति तथा वस्तु व्यवस्था का ज्ञान करा देती है। वस्तु बोध की आधी समस्या हल हो जाती है।
दीपक छोटा ही सही अल्प मूल्य का सही, पर वह प्रकाश का अंशधर होने के नाते सुदूर फैलाव को चुनौती देता है और निराशा के वातावरण को आशा और उत्साह से भर देता है। इसी को कहते हैं नेतृत्व।

जो जलेगा, वही उगेगा


जीवात्मा की तुलना विकास एवं पतन के सन्दर्भ में बीज से की जा सकती है। बीज की तीन ही गतियां होती है। पहली तो यह कि वह गलना सीखे और विकसित हो पौधे के रूप में स्वयं को परिणत कर विधाता की ‘एकोऽहं बहुस्यामि’ घोषणा के अनुरूप अनेक बीजों को जन्म दे। दूसरी गति यह है कि वह पिसकर आटा बन जाय। आहार रूप में जीवधारियों के काम आये और अन्त में विष्टा में परिणत होकर उपेक्षित खाद बन जाय। तीसरी गति यह है कि वह भीरु, संकीर्ण बन सतत् अपने को बचाने की सोचता रहे और अन्त में सड़न, सीलन द्वारा नष्ट हो जाय।

मनुष्य की भी इसी प्रकार तीन गतियां होती हैं। गलकर परमार्थ प्रयोजनों में संलग्न हो अनकों के काम आये। स्वयं यशस्वी जीवन जिये एवं अनेकों को ऊंचा उठाये। दूसरी गति है अपने शरीर एवं परिवार की परिधि में आबद्ध हो पेट-प्रजनन तक की समस्याओं की पूर्ति में उलझा रहे। पशु स्तर की जिन्दगी बिताये और घिनौनी स्थिति को प्राप्त हो। तीसरी गति है—संकीर्णता एवं स्वार्थपरता, जिससे न तो स्वार्थ ही सधता है न परमार्थ। अति कृपण स्वार्थ बुद्धि वाले ऐसे व्यक्ति अन्ततः सबसे हीन योनि को प्राप्त होते हैं।

मानव जीवन की सार्थकता, उपलब्ध क्षमता की तारीफ तभी है, जब वह प्रथम गति का वरण कर देव मानव बनने का प्रयास करे। गलकर पुष्पित-पल्लवित हो अनेकों को सनमार्गी बनाये। रास्ते तीनों ही खुले हैं। जो जिसे चाहे, अपनाकर अपनी गति को प्राप्त कर सकता है। नित्य दैनन्दिन व्यवहार में यही तो हम देखते भी हैं।

बन्धन मुक्ति का राज मार्ग


इस संसार को माया इसलिए कहा गया है, कि यहाँ भ्रांतियों की भरमार है। जो जैसा है, वैसा नहीं दीखता। यहाँ हर प्रसंग में कबीर की उलटवासियों की भरमार है। पहेली बुझौवल की तरह हर बात पर सोचना पड़ता है। प्रस्तुत गोरखधन्धा बिना बुद्धि पर असाधारण जोर लगाये समझ में नहीं आता। तिलिस्म की इस इमारत में भूल-भुलैया ही भरी पड़ी है। आँख-मिचौनी का खेल यहाँ कोई जादूगर खेलता-खिलाता रहता है।

प्रस्तुत परिस्थितियों को विधि की विडम्बना, नियति की प्रवंचना भी कहा जा सकता है, पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर प्रतीत होता है कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता परखने के लिए उस चतुर चितेरे ने पग-पग पर कसौटियाँ बिछा रखी हैं, जिसके माध्यम से गुजरने वाले के स्तर का पता लगता रहे। लगता है नियन्ता ने अपने युवराज को क्रमशः अधिकाधिक अनुदान देने की व्यवस्था बनाई है और उपयुक्त जिम्मेदारियाँ सौंपते चलने की है। दूरदर्शी और अदूरदर्शी का पता इस गुत्थी को सुलझा सकने, न सुलझा सकने में लग जाता है कि सच्चा स्वार्थ साधन किस में है, किसमें नहीं, बाधक मात्र एक ही प्रवंचना होती है कि तात्कालिक आकर्षणों में यह चंचल मन इतना मचल जाता है कि बुद्धि को उसकी ललक पूरी करने तक अवसर नहीं मिलता। तरकस से तीर निकल जाने पर पता चलता है कि निशाना जहाँ लगना चाहिए था, वहाँ न लगकर कहीं से कहीं चला गया। सफलता और असफलता का निर्धारण यही हो जाता है। व्यवहार बुद्धि का अश्रय लेने वाले दूरदर्शी इसी कसौटी पर खरे उतरते एवं माया-प्रपंच से बचकर सफलता के साथ आत्मिक प्रगति के पथ पर आरूढ़ होते देखे जा सकते हैं।


तप में प्रमाद न करें


तप से प्रजापति ने इस सृष्टि को सृजा। सूर्य तपा और संसार को तपाने में समर्थ हुआ। तप के बल से शेष पृथ्वी का वजन उठाते हैं। शक्ति और वैभव का उदय तप से ही होता है।
तपाने पर धातुओं के उपकरण ढलते हैं। सोने के आभूषण बनते हैं। बहुमूल्य रस, भस्में तपाये जाने पर ही अमृतोपम गुण दिखाती हैं।
तपस्वी बलवान बनता है, विद्वान और मेधावी बनता है। ओजस्, तेजस् और वर्चस् प्राप्त करने के लिए तपश्चर्या का अवलम्बन् लेना पड़ता है।

विलासी आलसी और कायर मरते हैं। प्रतिभा गवां बैठते हैं। प्रामाणिकता न रहने पर उन्हें लक्ष्मी छोड़कर चली जाती है। वे पराधीन की भाँति जीते और दीन-दुर्बल की तरह उपहासास्पद बनते हैं।
अस्तु तपस्वी होना चाहिए। तप में प्रमाद नहीं होना चाहिए। तपस्वी को रोको मत। तपस्वी को डराओ मत।

साधना का अर्थ है कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए प्रयास जारी रखना।




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