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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सांख्यदर्शन एवं योगदर्शन

सांख्यदर्शन एवं योगदर्शन

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4300
आईएसबीएन :000

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प्रस्तुत है सांख्य दर्शन एवं योगदर्शन

Sankhya Darshan Evam Yog Darshan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समर्पण

जिनके चिन्तन से सांख्य (तत्त्वविचार) को समय के अनुरूप जीवन्त दिशा मिली, योग को जिन्होंने युगानुकूल जीवन विद्या के रूप में प्रतिष्ठित किया, अपनी सूक्ष्म-वेधक दृष्टि से जिन्होंने जीवन और जीवन सूत्रों का दर्शन किया और इस प्रत्यक्ष अनुभूति के आधार पर जन-जीवन को अभिनव दिशा प्रदान की; ऐसे ऋषियुग्म के श्रीचरणों में, उन्हीं के अनुग्रह से प्रकाशित सांख्य और योगदर्शन का यह नवीन संस्करण श्रद्धा सहित समर्पित है।


संचिन्तयं सांख्यमनुवेश्य विचारश्रेणिं,
योगञ्च जीवनविधौ समनुप्रवेश्य।
सूत्राणि जीवनविधेर्ननु वेधदृष्टया,
दृष्टानि येन ऋषियुग्ममहं नमामि।।
नव्यं संस्करणं यस्य कृपादृष्ट्या प्रकाशितम्।
सांख्ययोगयुतञ्चैतत् तस्मा एवं समर्पये।।

प्रकाशकीय


युगऋषि ने अपनी प्रत्यक्ष तप:साधना की पूर्णाहुति के साथ दी देव-संस्कृति के पुनरुत्थान का अभियान प्रारंभ कर दिया था। उसी संदर्भ में यह भी उचित और आवश्यक लगा कि देव संस्कृति के आधार पर आर्षग्रन्थों को जन सुलभ बनाया जाय। उन्होंने उस समय से लौकिक दृष्टि से विपरीत परिस्थितियों और साधनों के अभाव के बीच भी चारों वेद, 108 उपनिषदों और षट्दर्शनों के जन-सुलभ अनुवाद एवं प्रकाशन का असाधारण पुरुषार्थ कर दिखाया। आर्ष ग्रन्थों के प्रथम संस्करण प्रकाशित करते समय ही उन्होंने यह इच्छा भी व्यक्ति की थी कि समय आने पर इनके अपेक्षाकृत उत्कृष्ट संवर्धित संस्करण भी प्रकाशित किए जाएँगे।

सन् 1971 में मथुरा से विदाई लेकर हिमालय प्रवास पूरा करके शान्तिकुंज में विराजने पर उन्होंने इस ओर ध्यान देना प्रारम्भ किया। उसके लिए मार्गदर्शन परक सूत्र-संकेत देने और उन्हें नैष्ठिकों द्वारा विकसित कराने का क्रम प्रारम्भ किया। उसी आधार पर वन्दनीय माताजी के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में वेद विभाग की स्थापना हुई तथा वेद और उपनिषदों के नए संस्करण प्रस्तुत-प्रकाशित किये गये। उन्हें जन साधारण के साथ विद्वत्समाज ने भी बहुत सराहा। इसी के साथ दर्शनों के भी ऐसे संस्करण प्रकाशित करने का आग्रह भी किया जाने लगा। परिजनों और विज्ञजनों के अनुरोध और ऋषि के अनुग्रह के आधार पर ही दर्शनग्रन्थों के नए संस्करण प्रकाशित करने का प्रयास प्रारंभ किया गया। उसी प्रयास के प्रथम पुष्प के रूप में ‘सांख्य और योग’ दर्शन का यह संयुक्त संस्करण प्रस्तुत किया जा रहा है।
 
इस संस्करण का मूल आधार पू. आचार्य श्री द्वारा पूर्व प्रकाशित संस्करण ही है। इसमें जो परिष्कार और संवर्धन किया गया है- वह उन्हीं के द्वारा समय-समय पर दिये जाते रहे संकेत सूत्रों के अनुसार ही किया गया है। भाषा और अभिव्यक्ति को अधिक स्पष्ट तथा प्रामाणित बनाने के लिए दर्शन ग्रन्थों पर विभिन्न विज्ञ-पुरुषों और संस्थानों द्वारा प्रस्तुत शोध प्रबन्धों का ही सहारा लिया गया है। प्रयास यह भी किया गया है कि दर्शन शास्त्र के संदर्भ में जो भ्रान्तियाँ या शंकाएँ, फैलाई जाती रही हैं, उनका समुचित समाधान सुधी पाठकों को मिल सके। अध्येताओं की सुविधा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण शब्दों और सूत्रों की अनुक्रमणिका के परिशिष्ट भी जोड़ दिए गये हैं।

युग ऋषि के चिन्तन को जन-जन तक पहुँचाने के लिए किए गये इस विनम्र प्रयास से स्वाध्यायशीलों को पर्याप्त लाभ मिलेगा-ऐसी आशा है।

प्रकाशक

भूमिका


दर्शन शब्द का अर्थ


भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हेंने पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है। इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं। अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ।

‘दर्शन’ शब्द का अर्थ-दर्शन शब्द पाणिनीय व्याकरणनुसार दृशिर् प्रेक्षणे धातु से ल्युट् प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है। अतएव दर्शन शब्द का अर्थ दृष्टि या देखना, ‘जिसके द्वारा देखा जाय’ या ‘जिसमें देखा जाय’ होगा। दर्शन शब्द का शब्दार्थ केवल देखना या सामान्य देखना ही नहीं है। इसीलिए पाणिनी ने धात्वर्थ में ‘प्रेक्षण’ शब्द का प्रयोग किया है। प्रकृष्ट ईक्षण, जिसमें अन्तश्चक्षुओं द्वारा देखना या मनन करके सोपपत्तिक निष्कर्ष निकालना ही दर्शन का अभिधेय है। इस प्रकार के प्रकृष्ट ईक्षण के साधन और फल दोनों का नाम दर्शन है। जहाँ पर इन सिद्धान्तों का संकलन हो, उन ग्रन्थों का भी नाम दर्शन ही होगा, जैसे-न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन मामांसा दर्शन आदि-आदि।

दर्शन-शास्त्र का उद्भव एवं विकास


दर्शन ग्रन्थों को दर्शन शास्त्र भी कहते हैं। यह शास्त्र
शब्द ‘शासु अनुशिष्टौ’ से निष्पन्न होने के कारण दर्शन का अनुशासन या उपदेश करने के कारण ही दर्शन-शास्त्र कहलाने का अधिकारी है। दर्शन अर्थात् साक्षात्कृत धर्मा ऋषियों के उपदेशक ग्रन्थों का नाम ही दर्शन शास्त्र है।

दर्शन का प्रतिपाद्य विषय-दर्शनों का उपदेश वैयक्तिक जीवन के सम्मार्जन और परिष्करण के लिए ही अधिक उपयोगी है। आध्यात्मिक पवित्रता एवं उन्नयन, बिना दर्शनों को होना दुर्लभ है। दर्शन-शास्त्र ही हमें प्रमाण और तर्क के सहारे अन्धकार में दीपज्योति प्रदान करके हमारा मार्ग-दर्शन करने में समर्थ होता है। गीता के अनुसार ‘किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:’ संसार में करणीय क्या है और अकरणीय क्या है ? इस विषय में विद्वान भी अच्छी तरह नहीं जान पाते। परम लक्ष्य एवं पुरुषार्थ की प्राप्ति दार्शनिक ज्ञान से ही संभव है, अन्यथा नहीं।

दर्शन द्वारा विषयों को हम संक्षेप में दो वर्गों में रख सकते हैं। लौकिक और अलौकिक अथवा भौतिक और आध्यात्मिक। दर्शन या तो विस्तृत सृष्टि प्रपंच के विषय में सिद्धान्त या आत्मा के विषय में हमसे चर्चा करता है। इस प्रकार दर्शन के विषय जड़ और चेतन दोनों ही हैं। प्राचीन ऋग्वैदिक काल से ही दर्शनों के मूल तत्त्वों के विषय में कुछ न कुछ संकेत हमारे आर्ष साहित्य में मिलते हैं।

 
दर्शन की विकास यात्रा-

वेदों में जो आधार तत्त्व बीज रूप में बिखरे दिखाई पड़ते थे, वे ब्राह्मणों में आकर कुछ उभरे; परन्तु वहाँ कर्मकाण्ड की लताओं के प्रतानों में फँसकर बहुत अधिक नहीं बढ़ पाये। आरण्यकों में ये अंकुरित होकर उपनिषदों में खूब पल्लवित हुए। दर्शनों का विकास जो हमें उपनिषदों में हमें दृष्टिगोचर होता है, आलोचकों ने उसका श्रीगणेश लगभग दौ सौ वर्ष ईसा पूर्व स्थिर किया है। महात्मा बुद्ध ये यह प्राचीन हैं। इतना ही नहीं विद्वानों ने सांख्य, योग और मीमांसा को भी बुद्धि से प्राचीन माना है। संभव है कि ये दर्शन वर्तमान रूप में उस समय न हों, तथापि वे किसी रूप में अवश्य विद्यमान थे। वैशेषिकदर्शन भी शायद बुद्ध से प्राचीन ही है; क्योंकि जैसा आज के युग में न्याय और वैशेषिक समान तन्त्र समझे जाते हैं, उसी प्रकार पहले पूर्व मीमांस और वैशेषिक समझे जाते थे। बुद्ध दर्शन पद्धति का आविर्भाव ईसा से पूर्व दो सौ वर्ष माना जाता है, परन्तु जैन दर्शन बुद्ध दर्शन से भी प्राचीन ठहरता है। इसकी पुष्टि में यह प्रमाण दिया जाता है कि प्राचीन जैन दर्शनों में न तो बुद्ध दर्शन और न किसी हिन्दू दर्शन का ही खण्डन उपलब्ध होता है। महावीर स्वामी, जो जैन सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं, वे भी बुद्ध से प्राचीन थे। अतएव जैन दर्शन का बुद्ध दर्शन से प्राचीन होना युक्ति-युक्त अनुमान है।

भारतीय दर्शनों का ऐतिहासिक क्रम निश्चित करना कठिन है। इन सब भिन्न-भिन्न दर्शनों का लगभग साथ ही साथ समान रूप से प्रादुर्भाव एवं विकास हुआ है। इधर-उधर तथा बीच में भी कई कड़ियाँ छिन्न-भिन्न हो गई हैं। अत: जो कुछ शेष है, उसी का आधार लेकर चलना है। इस क्रम में शुद्ध ऐतिहासिकता न होने पर भी क्रमिक विकास की श्रृंखला आदि से अन्त तक चलती रही है। इसलिए प्राय: विद्वानों ने इसी क्रम का अनुसरण किया है।

दर्शन का महत्त्व


तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारतवर्ष में उस सुदूर काल से है, जिसे हम ‘वैदिक युग’ के नाम से पुकारते हैं। ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। अंग्रेजी शब्दों में पहली की हम ‘इन्टयूशनिस्टिक’ कह सकते हैं और दूसरी को रैशनलिस्टिक। लक्ष्य भी आरम्भ से ही दो प्रकार के थे-धर्म का उपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार।
प्रज्ञामूलक और तर्क-मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ।

भारतीय दर्शन का सच्चा स्वरूप


इस विषय में आज भी अनेक भ्रान्त धारणाएँ हमारे हृदय में विद्यमान हैं। इसका कारण कुछ तो अपने दर्शन-ग्रन्थों से अपरिचय है और बहुत-कुछ पाश्चात्य शिक्षकों की शिक्षा का दुष्परिणाम है। स्वार्थी लोगों ने हमारे दर्शन को निराशावादी कहकर बदनाम कर रखा है; परन्तु इसमें प्रवेश करके इसका अवलोकन करके इसका अवलोकन करने से तो यह दर्शन नितान्त आशावादी रूप में दिखाई देता है। तथ्य कुछ दूसरा ही है। भारत में दर्शन का जन्म दु:खों की जिज्ञासा तथा उनके दूर करने के उपायों के चिन्तन से ही होता है। (दु:खत्रयाभिघाता-ज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ-सां. का.1)।

 इस भवसागर में प्राणी क्लेशों के लहरों के थपेड़ों को खाकर, पद-पद पर विपत्तियों से आक्रान्त होकर इतना अधीर हो उठता है कि उसे जीवन में निराशा ही निराशा दिखाई देने लगती है। दर्शन ही उसे सच्चा आश्वासन देकर नौका के समान सबको आश्रय देकर पार पहुँचा देता है। यदि हमारे दार्शनिकों की जिज्ञासा दु:ख तक ही समाप्त होती, तो हम उन्हें निराशावादी मानने के लिए कथमपि उद्यत भी होते; परन्तु वे तो आगे बढ़ते हैं और वे उसके कारणों को ढूँढकर उससे सदा के लिए (वास्तविक मोक्ष) छुटकारा पाने का मार्ग बतलाते हैं। मोक्ष-शास्त्र भी चिकित्सा-शास्त्र के समान ही चतुव्र्यूह है। रोग, रोग-हेतु, आरोग्य तथा भैषज्य इन चार तथ्यों के ऊपर वैद्यक शास्त्र आश्रित है। उसी प्रकार मोक्ष-शास्त्र भी संसार, संसार हेतु, मोक्ष और मोक्षोपाय के ऊपर अवलम्बित है। आनन्दमय आत्मा की प्राप्ति को चरम लक्ष्य मानने वाला दर्शन नैराश्यवादी क्योंकर हो सकता है ? हमारा दर्शन परम आशावादी है। वह मनुष्यों को सदैव आगे बढ़ने का उपदेश देकर उस गन्तव्य देश की ओर ले जाता है, जिसे पाने के बाद अन्य कोई प्राप्तव्य वस्तु अवशेष ही नहीं रहती।

      

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