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प्रज्ञा पुराण भाग 1

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :292
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4306
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है प्रज्ञा पुराण का पहला भाग....

Pragya Puran (1)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

भारतीय इतिहास-पुराणों मे ऐसे अगणित उपख्यान हैं, जिनमें मनुष्य के सम्मुख आने वाली अगणित समस्याओं के समाधान विद्यमान है। उन्हीं में से सामयिक परिस्थित एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कुछ का ऐसा चयन किया गया गया है, जो युद्ध समस्याओं के समाधान में आज की स्थिति के अनुरूप योगदान दे सकें।

सर्वविदित है कि दार्शनिक और विवेचनात्मक प्रवचन-प्रतिपादित उन्हीं के गले उतरने हैं, जिसकी मनोभूमि सुवकसित है, परन्तु कथानकों की यह विशेषता है कि बाल, वृद्ध नर-नारी, शिक्षित-अशिक्षित सभी की समझ में आते हैं और उनके आधार पर ही किसी निष्कर्ष तक पहुँच सकना सम्भव होता है। लोकरंजन के साथ लोकमंगल का यह सर्वसुलभ लाभ है।
कथा-सहित्य की लोकप्रियता के संबंध में कुछ कहना व्यर्थ होगा। प्राचीन काल में 18 पुराण लिखे गए। उनसे भी काम न चला तो 18 उपपुराणों की रचना हुई। इन सब में कुल मिलाकर 10,000,000 श्लोक हैं, जबकि चारों वेदों में मात्र 20 हजार मंत्र हैं। इसके अतिरिक्त भी संसार भर में इतना कथा साहित्य सृजा गया है कि उन सबको तराजू के पलड़े पर रखा जाए और अन्य साहित्य को दूसरे पर कथाऐं भी भारी पड़ेंगी।

समय परिवर्तनशील है। उसकी परिस्थितियाँ, मान्यताएं, प्रथाऐं, समस्याऐं एवं आवश्यकताऐं भी बदलती रहती हैं। तदनुरुप ही उनके समाधान खोजने पड़ते हैं। इस आश्वत सृष्टिक्रम को ध्यान में रखते हुए ऐसे युग साहित्य की आवश्यकता पड़ती रही है, जिसमें प्रस्तुत प्रसंगो प्रकाश मार्गदर्शन उपलब्ध हो सके। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अनेकानेक मनःस्थिति वालों के लिए उनकी परिस्थिति के अनुरूप समाधान ढूँढ़ निकालने में सुविधा दे सकने की दृष्टि से इस प्रज्ञा पुराण की रचना की गई, इसे चार खण्डों में प्रकाशित किया गया है।

प्रथम किस्त में प्रज्ञा पुराण के पाँच खण्ड प्रकाशित किए जा रहे हैं। प्रथम खण्ड का प्रथम संस्करण तो आज से चार वर्ष पूर्व प्रस्तुत किया गया था। तदुपरान्त उसकी अनेकों आवृत्तियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। अब चार खण्ड एक साथ प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इतने सुविस्तृत सृजन के लिए इन दिनों की एकान्त साधना में अवकाश भी मिल गया था। भविष्य का हमारा कार्यक्रम एवं जीवन काल अनिश्चित है। लेखनी तो सतत क्रियाशील रहेगी, चिन्तन हमारा ही सक्रिय रहेगा, हाथ भले ही किन्हीं के भी हों, यदि अवसर मिल सका, तो और भी अनेकों खण्ड प्रकाशित होते चले जायेंगे।


इन पाँच खण्डों में समग्र मानव धर्म के अन्तर्गत मान्यता प्राप्त इतिहास-पुराणों की कथाएं है। इनमें अन्य धर्मालम्बियों के क्षेत्र में प्रचलित कथाओं का भी समावेश है, पर वह नगण्य सा ही है। बन पड़ा तो अगले दिनों अन्य धर्मों में प्रचलित कथानकों के भी संकलन इसी दृष्टि से चयन किए जाएँगे जैसे कि इस पहली पाँच खण्डों की प्रथम किस्त में किया गया है। कामना तो यह है कि युग पुराण के प्रज्ञा-पुराणों के भी पुरातन 18 खण्डों का सृजन बन पड़े।

संस्कृत श्लोंकों तथा उसके अर्थों के उपनिषद् पक्ष के साथ उसकी व्याख्या एवं कथानकों के प्रयोजनों का स्पष्टीकरण करने का प्रयास इनमें किया गया है। वस्तुतः इसमें युग दर्शन का नर्म निहित है। सिद्धांन्तों एवं तथ्यों को महत्व देने वालों के लिए यह अंग भी समाधानकारक होगा। जो संस्कृति नहीं जानते, उनके लिए अर्थ व उसकी पढ़ लेने से  भी काम चल सकता है। इन श्लोकों की रचना नवीन है, पर जिस तत्यों का समावेश किया गया है, वे शाश्वत हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ का पठन निजी स्वास्थ्य के रूप में भी किया जा सकता है और सामूहिक सत्संग के रूप में भी। रात्रि के समय पारिवारिक लोक शिक्षण की दृष्टि से भी इसका उपयोग हो सकता है। बच्चे कथाऐं सुनने को उत्सुक रहते हैं। बड़ो को धर्म परम्पराऐं समझने की इच्छा रहती है। इनकी पूर्ति भी घर में इस आधार पर कथा क्रम और समय निर्धारित करके की जा सकती है।

कथा आयोजनों की समूहिक धर्मानुष्ठान के रूप में भी सम्पन्न किए जाने की परम्परा है। उस आधार पर भी इस कथावाचन का प्रयोग हो सकता है। आरम्भ का एक दिन वेद पूजन, व्रत धारण, महात्म्य आदि के मंगलाचरण में लगाया जा सकता है। चार दिन में चार खण्डों का सार संक्षेप, प्रातः और सायंकाल की दो बैठकों में सुनाया जा सकता है। अन्तिम दिन पूर्णाहुति का सामूहिक समारोह हो। बन पड़े तो अमृतशन (उबले धान्य, खीर, खिचड़ी आदि) कि व्यवस्था कि जा सकती है और विसर्जन शोभा यात्रा मिशन के बैनरो सहित निकाली जा सकती है। प्रज्ञा मिशन के प्रतिभोजों में अमृताशन कि परम्परा इसलिए रखी गयी है कि वह मात्र उबलने के कारण बनाने में सुगण, लागत में करते हुए मनुष्य मात्र को एक बिरादरी बनाने के लक्ष्य की ओर क्रमशः कदम बढ़ सकने का पथ-प्रशस्त करता है।

लोक शिक्षण के लिए गोष्ठियों-समारोहों में प्रवचनों-वक्तृताओं का आवश्यकता पड़ती है। उन्हें ही चुना जाने का वक्ता को पलायन करना पड़ता है। जिसकी कठिनाई का समाधान इस ग्रन्थ से ही हो सकता है। विवेचनों, प्रसंगों के साथ कथानकों का समन्वय करते-चलने पर वक्त के पास इतनी बड़ी निधि हो जाती है कि उसे महीनों कहता रहे। न कहने वाला पर भार पड़े, न सुनने वाले पर भार पड़े, न सुनने वाले ऊबें। इस दृष्टि के युग सृजेताओं के लिए लोक शिक्षण का एक उपयुक्त आधार उपलब्ध होता है। प्रज्ञा-पीठों और प्रज्ञा संस्थानों में तो ऐसे कथा प्रसंग नियमित रूप से चलने ही चाहिए ऐसे आयोजन एक स्थान या मुहल्ले में अदल-बदल के भी किए जा सकते हैं ताकि युग सन्देश को अधिकाधिक लोग निरटवर्ती स्थान में जाकर सरलतापूर्वक सुन सकें। ऐसे ही विचार इस सृजन के साथ-साथ मन में उठते रहे हैं, जिन्हें पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया गया है।



प्रथम खण्ड में युग समस्याओं के कारण उद्भूत आस्था संकट का विवरण है एवं उससे उबर कर प्रज्ञा युग लाने की प्रक्रिया रूपी अवतार सत्ता द्वारा प्रणीत सन्देश है। भ्रष्ट चिन्तन एवं दुष्ट आचरण से जूझने हेतु अध्यात्म दर्शन को किस तरह व्यवाहारिक रूप से अपनाया जाना चाहिए, इसकी विस्तृत व्याख्या है अन्त में महाप्रज्ञा के अवलम्बन से संभावित सतयुगी परिस्थितियों की झाँकी है।

इस समग्र प्रतिपादन में जहां कहीं अनुपयुक्तता, लेखन या मुद्रण की भूल दृष्टिगोचर हो, उन्हें विज्ञजन सूचित करने का अनुग्रह करें ताकि अगले संस्करणों में संशोदन किया जा सके।

श्रीराम शर्मा  आचार्य


प्रज्ञा पुराण

अथ प्रथमोऽध्यायः

लोककल्याण-जिज्ञासा प्रकरण
लोककल्याणकृद् धर्मधारणासंप्रसारकः।
व्रती यायावरो मान्यो देवर्षिऋषिसत्तमः।।1।।
अव्याहतगतिं प्राप गन्तुं विष्णुपदं सदा।
नारदो ज्ञानचर्चार्थं स्थित्वा वैकुण्ठसन्निधौ।।2।।
लोककल्याणमेवायमात्मकल्याणवद् यतः।
मेने परार्थपारीणः सुविधामन्यदुर्लभाम्।।3।।
काले काले गतस्तत्र समस्याः कालिकी मृशन्।
मतं निश्चित्य स्वीचक्रे भाविनीं कार्यपद्धतिम्।।4।।

टीका-

लोक कल्याण के लिए जन-जन तक धर्म धारणा का प्रसार-विस्तार करने का व्रत लेकर निरन्तर विचरण करने वाले नारद ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ गिन गये और देवर्षि के मूर्धन्य सम्मान से विभूषित हुए। एक मात्र उन्हीं को यह सुविधा प्राप्त थी कि कभी भी बिना किसी रोक-टोक विष्णुलोक पहुँचें और भगवान् के निकट बैठकर अभीष्ट समय तक प्रत्यक्ष ज्ञानचर्चा करें। यह विशेष सुविधा उन्हें लोक-कल्याण को ही आत्म-कल्याण मानने की परमार्थ परायणता के कारण मिली। वे समय –समय पर भगवान् के समीप पहुँचते और सामयिक समस्याओं पर विचार करके तदनुरूप अपना मत बनाते और भावी कार्यक्रम निर्धारित करते।।1-4।

व्याख्या—

परमार्थ में सच्ची लगन यदि किसी में हो तो उसे पुण्य अर्जन के अतिरिक्त आत्मकल्याण का लाभ मिलता है। ऐसे व्यक्ति दूसरों को तारते हैं, स्वयं अपनी नैया भी सागर में खे लेते हैं।
नारद ऋषि को भगवान् की विशेष अनुकम्पा इसी कारण मिली कि उन्होंने परहित को अपना जीवनोद्देश्य माना। इसके लिए वे निरन्तर भ्रमण करते, जन चेतना जगाते व सत्परामर्श देकर लोगों को सन्मार्ग की राह दिखाते थे। ध्रुव, प्रह्लाद तथा पार्वती को अपने सामयिक मार्गदर्शन द्वारा उन्होंने लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर किया। इसी लोक परायणता ने उन्हें देवर्षि पद से सम्मानित करवाया तथा भगवान् के सामीप्य का लाभ भी उन्हें मिला। चूँकि वे सतत् जन सम्पर्क में रहते थे व लोक-कल्याण में रत रहते थे, इसी कारण सामयिक जन समस्याओं के समाधान हेतु वे परामर्श-मार्गदर्शन हेतु प्रभु के पास पहुँचते थे व मार्गदर्शन प्राप्त कर अपनी भावी नीति का क्रियान्वयन करते थे ऐसे परमार्थ परायण व्यक्ति जहाँ भी होते हैं, सदैव श्रद्धा-सम्मान पाते हैं।


गंगा और ब्रह्म सरोवर


‘‘एक बार ब्रह्म सरोवर ने शिकायत की भगवन् ! आप भगवती गंगा की इतनी सराहना करते हैं, हम भी तो लोगों को शीतलता और सद्गति प्रदान करते हैं वह पुण्य हमें क्यों नहीं मिलता ?’’ भगवान् विष्णु ने गम्भीर होकर उत्तर दिया—‘भगवती गंगा स्थान-स्थान, घर-घर जाकर लोगों की प्यास बुझाती और सद्गति प्रदान करती हैं जबकि आप केवल उन्हें देते हैं जो आपके पास आते हैं।’
ब्रह्म-सरोवर ने अनुभव किया भगवती गंगा सचमुच महान् है। उन्हें अपने भीतर कभी-कभी विकार पैदा होने का कारण भी ज्ञात हो गया।
परमार्थ की यह वृत्ति भारतीय संस्कृति की विशेषता है। इसी प्रयोजन से धर्म-धारणा के विस्तार का व्रत लेकर नैष्ठिक परिब्राजक निरन्तर भ्रमण करते रहते थे एवं जन-मानस के परिष्कार का वह उद्देश्य पूरा करते थे जिसके लिए वानप्रस्त परम्परा, परिब्राजक धर्म तथा तीर्थयात्रा का समावेश आर्य कालीन महामानवों द्वारा किया गया था। इस कार्य को लोक-सेवी मनीषियों ने सदैव एक साधना माना है। यह साधना एक कठोर तप  होते हुए भी उन्हें आह्लाद एवं आत्म संतोष देती है।


प्रतिमा और पगडण्डी


पर्वत शिखर पर बने मन्दिर की प्रतिमा ने एक दिन सामने वाली पगडण्डी से सहानुभूति दिखाते हुए कहा—‘‘भद्रे ! तुम कितना कष्ट सहती हो, यहाँ आने वाले कितने लोगों का बोझ उठाती हो यह देखकर हमारा जी भर आता है।’’ पगडण्डी मुस्कराती हुई बोली—‘‘भक्त को भगवान् से मिलाने का अर्थ भगवान् से मिलना ही तो है देवी !’’
प्रतिमा पगडण्डी की इस महत्ता के आगे नतमस्तक हुए बिना न रह सकी।
देवर्षि नारद की तरह असाधारण और आपत्तिकालीन अधिकार हर किसी को नहीं मिलते। यह प्रमुख व्यक्तियों को मिलते हैं। परमात्म-सत्ता के दरबार में उदार-परमार्थ की योग्यता ही यह अधिकार दिलाती है।


द्वारपाल हट गये


एक व्यक्ति राजमुकुट और तलवार उपहार स्वरूप लेकर भगवान् के पास पहुँचा। वह उनसे एकान्त में भेंट करना चाहता था। द्वार पर खड़े देवदूतों ने कहा—‘भाई ! भगवान् को राजमुकुट से क्या मतलब वे तो स्वयं ब्रह्माण्डनायक हैं। तलवार की उन्हें आवश्यकता नहीं, तो वे स्वयं वेद रूप हैं। वे ज्ञान से ही बन्धनों के शत्रु काट डालते हैं और कुछ हो तो बताओं ? यह चर्चा चल रही थी तभी उसने एक वृद्ध को ठोकर लगकर गिरते देखा। उसकी आँखों में आँसू आ गये। दौड़कर उसे सम्भाला, मन में आया चलकर भगवान् से पूछें आखिर असहाय जन दुःखी क्यों हैं। वह लौटा तो देखा-रोकने वाले द्वारपाल वहाँ से हट गये थे।


एकदा हृदये तस्य जिज्ञासा समुपस्थिता.
ब्रह्मविद्यावगाहा काल उच्चैस्तु प्राप्तये।।5।।
सञ्चितैश्च सुसंस्कारैः कठोरं व्रतसाधनम्।
योगाभ्यासं तपश्चापि कुर्वन्त्येते यथासुखम।।6।।
सामान्यानाम् जनानां तु मनसः सा स्थितिः सदा।
चंचलास्ति न ते कर्तुं समर्था अधिकं क्वचित्।।7।।
अल्पेऽपि चाच्मकल्याणसाधनं सरलं न ते।
वर्त्म पश्यन्ति पृच्छामि भगवन्तमस्तु तत्स्वयम्।।8।।
सुलभं सर्वमर्त्यानां ब्रह्मज्ञानं भवेद् यथा।
आत्मविज्ञानमेवापि योग-साधनमप्युत।।9।।
सिद्धयेत्प्रयोजनं लक्ष्यपूरकं जीवनस्य यत्।।10।।


टीका-

एक बार उनके मन में जिज्ञासा उठी—‘उच्चस्तर के लोग तो ब्रह्मविद्या के गहन-अवगाहन के लिए समय निकाल लेते हैं। संचित सुसंस्कारिता के कारण कठोर व्रत-धारण, योगाभ्यास एव तपसाधन भी कर लेते हैं। किन्तु सामान्य-जनों की मनःस्थिति-परिस्थिति उथली होती है। ऐसी दशा में वे अधिक कर नहीं पाते। थोड़े में सरलतापूर्वक आत्मकल्याण का साधन बन सके ऐसा मार्गदर्शन उन्हें प्राप्त नहीं होता। अस्तु भगवान् से पूछना चाहिए कि सर्वसाधारण की सुविधा का ऐसा ब्रह्मज्ञान, आत्म-विज्ञान एंवं योग साधन क्या हो सकता है जिसके लिए कुछ अतिरिक्त न करना पड़े। मात्र दृष्टिकोण एवं जीवन-चर्या में थोड़ा परिवर्तन करके ही जीवन-लक्ष्य को पूरा करने का प्रयोजन सध जाय’।।5-10।।

व्याख्या—

जनमानस को स्तर की दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक वो जो तत्वदर्शन, साधन तपश्चर्या के मर्म को समझते हैं। कठोर पुरुषार्थ करने योग्य पात्रता भी उन्हें जन्म के अर्जित संस्कारों व स्वाध्याय परायणता के कारण मिल जाती है परन्तु देवर्षि नारद ने जन-जन में प्रवेश करके पाया कि दूसरे स्तर के लोगों की संख्या अधिक है, जो जीवन व्यापार में उलझे रहने के कारण अथवा साधना विज्ञान के विस्तृत उपक्रमों से परिचित होने का सौभाग्य न मिल पाने के कारण अध्यात्मविद्या के सूत्रों को समझ नहीं पाते, व्यवहार में उतार नहीं पाते तथा ऐसी ही उथली स्थिति में जीते हुए किसी तरह अपना जीवन शंकट खींचते हैं।
विशेष लोगों के लिए तो विशेष उपलब्धियाँ हैं। ऐसे असाधारण व्यक्तियों की तो बात ही अलग है। उनके जीवन-उपाख्यान यही बताते हैं कि विशिष्ट विभूति सम्पन्न होते हैं।


असामान्य संस्कारवान् व्यक्ति


शुकदेव जन्म लेते ही चल पड़े। उनके पिता महर्षि व्यास ने कहा भी ‘तात ! अपनी माँ का स्तन पान तो कर लें’, पर उन्होंने कहा—‘एक बार संसार में आसक्त हो जाने पर उससे छूटना कठिन है, अभी तो पूर्व जन्मों का मुझे स्मरण है सो समय क्यो गँवाऊँ’, वे तुरन्त तप के लिए चल पड़े। कच ने इसी तरह शुक्राचार्य के पास तथा नचिकेता ने यमाचार्य के पास जाकर संचित सुसंस्कारों की प्रेरणा से ही तप किया। मनु-शतरूपा, भगवती-पार्वती, काकभुशुण्डि, ध्रुव और प्रह्लाद के आख्यान भी ऐसे ही हैं।

नानक के पिता ने उन्हें कुछ रुपये दिये और सौदा करके कुछ कमाने के लिए भेज दिया। नानक ने सारे रुपये निर्धन-भूखों में बाँट दिये और आप सच्चे सौदे की खोज में लग गये।
इसके विपरीत सामान्य व्यक्ति ब्रह्मज्ञान-आत्मकल्याण की विद्या से नितान्त अपरिचित होने के कारण अपने लक्ष्य से विमुख ही बने रहते हैं। देवर्षि ने इन्हीं बहुसंख्य व्यक्तियों के कल्याण की बात सोची-यह चिन्तन किया कि भगवान् से ही पूछा जाय कि सुर दुर्लभ योनि प्राप्त परन्तु साधारण व उससे भी हेय जीवन जी रहे लोगों का आध्यात्मिक मार्गदर्शन किस प्रकार किया जाय।


साधारण व हेय की गति


मनु-शतरूपा भी एक बार इस प्रकार चिन्तन कर रहे थे। परस्पर चर्चा में मनु से शतरूपा ने पूछा-भगवन् ! मनुष्य को अन्यान्य योनियों में क्यों भटकना पड़ता है ? कई बार मानव-योनि पाकर भी मुक्त होने के स्थान पर फिर पदच्युत कर दिया जाता है। ऐसा क्यों ?

मनु बोले—


शरीरजैः कर्म दोषैर्याति स्थावरतां नरः। वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्यजातिताम्।।
इह दुष्चरिचतैः केचित्केचित् पूर्वकृतैस्तथा। प्राप्रुवन्ति दुरात्मानों नरा रुपं विपर्ययम्।।


-मनु.


‘‘शारीरिक पाप कर्मों से जड़ योनियों में जन्म होता है। वाणी के पाप से पशु-पक्षी बनना पड़ता है। मानसिक दोष करने वाले मनुष्य-योनि से बहिष्कृत हो जाते हैं। इस जन्म के अथवा पूर्व जन्म के किये हुए पापों से मनुष्य अपनी स्वाभाविकता खोकर वद्रूप बनते हैं।’’
साधारण व्यक्ति संसार के माया जाल में फँसे कैसा जीवन जीते हैं इसे समझाते हुए एक संत ने अपने शिष्य को एक कथा सुनई—


संसारी लोग


‘‘एक बार एक सेठ के घर में आग लग गई। सेठ के कहने सो लेग कीमती सामान, धन आदि तो निकालने लगे पर सेठ के बच्चे की ओर किसी का ध्यान न गया। जब सारा सामान् निकल आया तब सेठ ने बच्चे की याद की पर तब तक वह जल चुका था। सेठ छाती पीट-पीटकर रोने लगा कि धन का अधिकारी तो मर ही गया।’’ सन्त ने कहा कि—‘‘शिष्यों ! इसी तरह संसार के लोग दुनियावी सुखों के फेर में आत्मा को भूल जाते हैं।’’

यह तो लोक सेवी का ही कर्तव्य होता है कि वह संसारी जीवों को व्यवहारिक आध्यात्म विद्या का ज्ञान कराये, उन्हें आत्म तत्ल की गरिमा से अवगत कराये। जो कुछ अतिरिक्त तप-पुरुषार्थ करने की स्थिति में हों, उन्हें वैसी  प्रेरणा दें तथा जो भगवान् की इच्छानुसार उत्तम ढंग का जीवन जी सकते हैं, उन्हें वैसा संकेत दिया जाय। मनःस्थिति में परिवर्तन लाकर ही तो सभी साधारण व्यक्ति अपने को ऊँचा उठा सके हैं। वैसा ही मार्गदर्शन अभीष्ट होता है जैसा एक महात्मा द्वारा कही इस कथा से प्रकट होता है।
 

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