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प्रज्ञा पुराण भाग 2

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4307
आईएसबीएन :0000

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महामानव खण्ड.....

Pragya Puran (2)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

भारतीय इतिहास-पुराणों मे ऐसे अगणित उपख्यान हैं, जिनमें मनुष्य के सम्मुख आने वाली अगणित समस्याओं के समाधान विद्यमान है। उन्हीं में से सामयिक परिस्थित एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कुछ का ऐसा चयन किया गया गया है, जो युद्ध समस्याओं के समाधान में आज की स्थिति के अनुरूप योगदान दे सकें।

सर्वविदित है कि दार्शनिक और विवेचनात्मक प्रवचन-प्रतिपादित उन्हीं के गले उतरने हैं, जिसकी मनोभूमि सुवकसित है, परन्तु कथानकों की यह विशेषता है कि बाल, वृद्ध नर-नारी, शिक्षित-अशिक्षित सभी की समझ में आते हैं और उनके आधार पर ही किसी निष्कर्ष तक पहुँच सकना सम्भव होता है। लोकरंजन के साथ लोकमंगल का यह सर्वसुलभ लाभ है।
कथा-सहित्य की लोकप्रियता के संबंध में कुछ कहना व्यर्थ होगा। प्राचीन काल में 18 पुराण लिखे गए। उनसे भी काम न चला तो 18 उपपुराणों की रचना हुई। इन सब में कुल मिलाकर 10,000,000 श्लोक हैं, जबकि चारों वेदों में मात्र 20 हजार मंत्र हैं। इसके अतिरिक्त भी संसार भर में इतना कथा साहित्य सृजा गया है कि उन सबको तराजू के पलड़े पर रखा जाए और अन्य साहित्य को दूसरे पर कथाऐं भी भारी पड़ेंगी।

समय परिवर्तनशील है। उसकी परिस्थितियाँ, मान्यताएं, प्रथाऐं, समस्याऐं एवं आवश्यकताऐं भी बदलती रहती हैं। तदनुरुप ही उनके समाधान खोजने पड़ते हैं। इस आश्वत सृष्टिक्रम को ध्यान में रखते हुए ऐसे युग साहित्य की आवश्यकता पड़ती रही है, जिसमें प्रस्तुत प्रसंगो प्रकाश मार्गदर्शन उपलब्ध हो सके। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अनेकानेक मनःस्थिति वालों के लिए उनकी परिस्थिति के अनुरूप समाधान ढूँढ़ निकालने में सुविधा दे सकने की दृष्टि से इस प्रज्ञा पुराण की रचना की गई, इसे चार खण्डों में प्रकाशित किया गया है।

इन चार खण्डों में समग्र मानव धर्म के अन्तर्गत मान्यता प्राप्त इतिहास-पुराणों की कथाएं है। इनमें अन्य धर्मालम्बियों के क्षेत्र में प्रचलित कथाओं का भी समावेश है।

संस्कृत श्लोंकों तथा उसके अर्थों के उपनिषद् पक्ष के साथ उसकी व्याख्या एवं कथानकों के प्रयोजनों का स्पष्टीकरण करने का प्रयास इनमें किया गया है। वस्तुतः इसमें युग दर्शन का नर्म निहित है। सिद्धांन्तों एवं तथ्यों को महत्व देने वालों के लिए यह अंग भी समाधानकारक होगा। जो संस्कृति नहीं जानते, उनके लिए अर्थ व उसकी पढ़ लेने से  भी काम चल सकता है। इन श्लोकों की रचना नवीन है, पर जिस तत्यों का समावेश किया गया है, वे शाश्वत हैं।
 
कथा आयोजनों की समूहिक धर्मानुष्ठान के रूप में भी सम्पन्न किए जाने की परम्परा है। उस आधार पर भी इस कथावाचन का प्रयोग हो सकता है। आरम्भ का एक दिन वेद पूजन, व्रत धारण, महात्म्य आदि के मंगलाचरण में लगाया जा सकता है। चार दिन में चार खण्डों का सार संक्षेप, प्रातः और सायंकाल की दो बैठकों में सुनाया जा सकता है। अन्तिम दिन पूर्णाहुति का सामूहिक समारोह हो। बन पड़े तो अमृतशन (उबले धान्य, खीर, खिचड़ी आदि) कि व्यवस्था कि जा सकती है और विसर्जन शोभा यात्रा मिशन के बैनरो सहित निकाली जा सकती है। प्रज्ञा मिशन के प्रतिभोजों में अमृताशन कि परम्परा इसलिए रखी गयी है कि वह मात्र उबलने के कारण बनाने में सुगण, लागत में करते हुए मनुष्य मात्र को एक बिरादरी बनाने के लक्ष्य की ओर क्रमशः कदम बढ़ सकने का पथ-प्रशस्त करता है।

लोक शिक्षण के लिए गोष्ठियों-समारोहों में प्रवचनों-वक्तृताओं का आवश्यकता पड़ती है। उन्हें ही चुना जाने का वक्ता को पलायन करना पड़ता है। जिसकी कठिनाई का समाधान इस ग्रन्थ से ही हो सकता है। विवेचनों, प्रसंगों के साथ कथानकों का समन्वय करते-चलने पर वक्त के पास इतनी बड़ी निधि हो जाती है कि उसे महीनों कहता रहे। न कहने वाला पर भार पड़े, न सुनने वाले पर भार पड़े, न सुनने वाले ऊबें। इस दृष्टि के युग सृजेताओं के लिए लोक शिक्षण का एक उपयुक्त आधार उपलब्ध होता है। प्रज्ञा-पीठों और प्रज्ञा संस्थानों में तो ऐसे कथा प्रसंग नियमित रूप से चलने ही चाहिए ऐसे आयोजन एक स्थान या मुहल्ले में अदल-बदल के भी किए जा सकते हैं ताकि युग सन्देश को अधिकाधिक लोग निरटवर्ती स्थान में जाकर सरलतापूर्वक सुन सकें। ऐसे ही विचार इस सृजन के साथ-साथ मन में उठते रहे हैं, जिन्हें पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया गया है।

प्रथम खण्ड में युग समस्याओं के कारण उदभूद  आस्था संकट का विवरण है एवं उससे उबर कर प्रज्ञा युग लाने की प्रक्रिया रूपी अवतार सत्ता द्वारा प्रणीत सन्देश है। भ्रष्ट चिन्तन एवं दुष्ट आचण से जूझने हेतु अध्यात्म दर्शन को किस तरह व्यावहारिक रूप को अपनाया जाना चाहिए, इसकी विस्तृत व्याख्या है एवं अन्त में महाप्रज्ञा के अवलम्बन से संभावित सतयुगी परिस्थितियों की झाँकी है।
इस समग्र प्रतिपादन में जहां कहीं अनुपयुक्तता, लेखन या मुद्रण की भूल दृष्टिगोचर हो, उन्हें विज्ञजन सूचित करने का अनुग्रह करें ताकि अगले संस्करणों में संशोदन किया जा सके।

श्रीराम शर्मा  आचार्य


प्रज्ञा पुराण

अथ प्रथमोऽध्यायः


देवमानव–समीक्षा प्रकरणम्
एकदा नैमिषारण्ये ज्ञानसंगम उत्तमः।
मनीषिणां मनीनां च बभूव परमाद्भुतः ।।1।।
काश्याः पाटलिपुत्रस्य ब्रह्मावर्तस्य तस्य च।
आर्यावर्तस्य सर्वस्य यानि क्षेत्राणि संति तु।।2।।
कपिलवस्तोर्विशेषेण तेभ्यः सर्वेऽपि संगताः।
प्रज्ञापुरुषसंज्ञास्ते  मूर्धन्या धन्यजीवनाः।।3।।


टीका-

एक बार मुनि-मनीषियों का उत्तम ज्ञान संगम नैमिषारण्य क्षेत्र में हुआ, जो अपने आप में बड़ा अद्भुद था। आर्यावर्त, ब्रह्मावर्त, काशी, कपिलवस्तु, पाटिलपुत्र आदि समीपवर्ती क्षेत्रों के सभी मूर्धन्य  उत्तम जीवन यापन करने वाले प्रज्ञा पुरुष उसमें एकत्रित हुए।।1-3।।


अर्थ-

ज्ञान संगम इस भूमि की, ऋषि युग की विशेषता  रही है। ज्ञान की अनेक धाराएँ हैं। अपने-अपने विषयों के विशेषज्ञ उन्हें समयानुसार विकसित करते रहते हैं। विकसित धाराओं का उपयोग जनहित के लिए किया जाता है। वह तभी संभव है। जब भिन्न-भिन्न धाराओं में हुए विकास को जन आवश्यकता के अनुरूप मिलाकर जन साधारण तक पहुंचाने के योग्य बनाया जाय। प्राचीन काल में अध्यात्म और इस युग में विज्ञान का विकास इसी ढंग से संभव हुआ है।

ज्ञान धाराओं का संगम तब संभव हो पाता है, जब उन्हें समझने और अपनाने वाले मूर्धन्य श्रेष्ठ व्यक्ति उसमें रुचि लें। जिन्होंने उन्हें विकसित किया, ऐसे प्रज्ञा-पुरुष और जिन्होंने उन्हें जीवन सिद्ध बनाया, ऐसे उत्तम जीवन जीने वाले अग्रगामी, दोनों ही प्रकार के सत्पुरुष इस संगम में एकत्रित हुए हैं।

औषधियाँ बनाई जाती हैं फिर उन्हें निश्चित क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाता है। सेना के लिए अस्त्र विकसित किए जाते हैं; कुशल व्यक्तियों द्वारा उनका प्रयोग-परीक्षण किया जाता है। उसके आधार पर विकसित करने वाले तथा प्रयोग करने वाले गंभीर परामर्श करते हैं, संशोधन करते हैं, तब वह संगम बनता है, जिससे व्यापक स्तर पर उन उपलब्धियों को व्यवहार में लाया जा सके।

समागमाः पुराप्येवं समये जनबोधकाः।
काले काले भवन्ति स्म सदविचाराभिमन्थनैः।। 4 ।।
बहुमूल्यानि रत्नानि स्म सदविचाराभिमन्थनैः
यत्र  दिव्यावनि सर्वाणि प्रादुर्भूतानि संततम् ।। 5 ।।
मनीषिणोऽधिगच्छेयुर्मार्गदर्शनमुत्तमम्
शोचितुं कर्तुमेवाऽपि सहैवाऽत्र जनाः समे।। 6 ।।
लभन्तां समयं मुक्त्यै काठिन्यात् प्रगतेः पथि।
गन्तुं चाऽपि समारोह एतदुद्दिश्य निश्चितः ।। 7।।

टीका-

समागम पहले भी समय-समय पर होते रहते थे, ताकि मंथन की तरह कोई बहुमूल्य रत्न निकालें; मनीषियों को अधिक सोचने और करने का सामयिक प्रकाश मिले; साथ ही जन समुदाओं को कठिनाई से छूटने और प्रगति पथ पर अग्रसर होने का अवसर उपलब्ध होता रहे। इस बार का समारोह भी इसी प्रयोजन के लिए नियोजित किया गया था ।।4-7।।


अर्थ-

समुद्र मंथन से विचार मंथन अधिक लोकोपयोगी है। समुद्र मंथन से रत्न एक बार ही निकले थे, पर विचार मंथन से रत्नों की प्राप्ति हर काल में होती रहती है। इसलिए मनीषी लोग विचार मंथन के लिए एकत्र होते रहते हैं। यों विचार मंथन अकेले भी होता है, पर जब कई मनीषी एक साथ बैठकर विचार मंथन करते हैं, तो एक दूसरे के विचारों को उभारने वाली प्रेरणा से, स्फूर्ति से सामान्य की अपेक्षा अनेक गुना लाभ मिलता है।

सभी उपनिषद, दर्शन आदि ऋषियों के विचार मंथन से उपजे रत्न हैं। वे अनंत काल से अगणित व्यक्तियों को लाभ पहुंचाते आ रहे हैं। योग और चिकित्सा के सूत्र भी ऐसे ही विचार मंथन से विकसित हुए हैं। प्राचीनकाल में मंत्रि–परिषदें राज्य की, समाज की  विभिन्न समस्याओं के समाधान इसी प्रकार विचार मंथन से निकालती थीं। ऋषिगण भी अपने-अपने आश्रमों-आरण्यकों में यह क्रम चलाते थे। जब तक यह परिपाटी चली, तब समयानुकूल विचारों, आदर्शों की शोध होती रही, आचरण होते रहे और सामाजिक उत्कर्ष का क्रम सतत् चलता रहा।  

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