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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अपने दीपक आप बनो तुम

अपने दीपक आप बनो तुम

डॉ. प्रणय पण्डया

प्रकाशक : श्रीवेदमाता गायत्री ट्रस्ट शान्तिकुज प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4319
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है बुद्ध गाथा....

Apne Deepak Aap Bano Tum a hindi book by Pranay Pandya - अपने दीपक आप बनो तुम - प्रणय पण्डया

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

देव संस्कृति विश्वविद्यालय शान्तिकुंज, हरिद्वार
जीवन विद्या का आलोक केन्द्र। यहाँ के स्नातक मात्र जीविकोपार्जन हेतु नहीं, अपितु नैतिक दायित्व स्वीकारते हुए समाज एवं राष्ट्रोत्थान के लिए संकल्पित व प्रयत्नशील होते हैं। विद्यार्थी योग, मनोविज्ञान एवं धर्मविज्ञान जैसे प्रमुख सत्रों में भाग लेकर न केवल अपने स्वास्थ्य, व्यक्तित्व एवं साधना को प्रखर बनाते हैं, अपितु अज्ञान, अशिक्षा, अभावजन्य विषमताओं से लड़ते हुए जनसामान्य को भी लाभान्वित करते हैं। इस संस्थान की शाखा-प्रशाखाएँ सम्पूर्ण राष्ट्र में स्थापित करने की योजना है।

लेखक की ओर से


यह पुस्तक आपके हाथों में बुद्ध गाथा लेकर आयी है। आज से लगभग 2500 वर्ष पहले इसी पुण्य दिन धरती की गोद में महाराज शुद्धोधन के यहाँ राजकुमार सिद्धार्थ ने जन्म लिया था। इसके बाद एक-एक करके कई बैसाख पूर्णिमा आयी और चली गयीं। लेकिन फिर से एक महापुण्यवती बैसाख पूर्णिमा आयी, जब महातपस्वी सिद्धार्थ के अन्तर्चेतना में बुद्ध ने जन्म लिया। इस अनूठे जन्मोत्सव को मनुष्यों के साथ देवों ने भी अलौकिक रीति से मनाया। इस पुण्य घड़ी में सिद्धार्थ सम्यक् सम्बुद्ध बन गए और बैसाख पूर्णिमा बुद्ध पूर्णिमा में रूपान्तरित हो गयी।

इस पूर्णिमा से जुड़ी दोनों ही कथाएँ बड़ी ही मीठी और प्यारी हैं। आज से 2500 साल पहले, जिस दिन सिद्धार्थ का जन्म हुआ, समूची कपिलवस्तु में उत्सव की धूम मच गयी। पूरा नगर सज गया। रात भर लोगों ने दिए जलाए, नाचे। उत्सव की घड़ी थी, चिर दिनों की प्रतीक्षा पूरी हुई थी। बड़ी पुरानी अभिलाषा थी पूरे राज्य की। इसलिए राजकुमार को सिद्धार्थ नाम दिया गया। सिद्धार्थ का मतलब होता है, जीवन का अर्थ सिद्ध हो जाना, अभिलाषा का पूरा हो जाना।
पहले ही दिन, जब द्वार पर बैंड बाजे बज रहे थे, शहनाइयाँ गूँज रही थी, फूल बरसाए जा रहे थे, महलों में, चारों तरफ प्रसाद बांटा जा रहा था। तभी हिमालय से भागते हुए एक वृद्ध तपस्वी महलों के द्वार पर आकर खड़ा हो गया। उसका नाम असिता था। नगर वासियों के साथ स्वयं सम्राट उनका सम्मान करते थे। वह अब तक कभी राजधानी न आए थे। स्वयं सम्राट को भी उनसे मिलने के लिए जाना पड़ता था। आज उन्हें अचानक महलों की डयोढ़ी पर देखकर सभी चकित थे। सम्राट ने आकर खड़े अचकचाए स्वर में उनसे पूछा-हे महातपस्वी, क्या सेवा करूँ आपकी।

असिता ने उनकी दुविधा का निवारण करते हुए कहा, परेशान न हो शुद्धोधन। तुम्हारे घर बेटा पैदा हुआ है, उसके दर्शन को आया हूँ। शुद्धोधन तो समझ ही न पाए। सौभाग्य की घड़ी थी यह कि असिता जैसा महान् वीतरागी उनके बेटे को देखने के लिए आया। वह भागे हुए अन्त:पुर में गए और नवजात शिशु को बाहर लेकर आए। असिता झुके और उन्होंने शिशु के चरणों में सिर रख दिया। और कहते हैं, शिशु ने उनके पांव अपनी जटाओं में उलझा दिए। असिता पहले तो हंसे, फिर रोने लगे। शुद्धोधन तो हतप्रभ हो गए, वह पूछने लगे, महामुनि आप रोते क्यों हैं ?

असिता ने कहा, तुम्हारे घर में जो यह बेटा आया है, यह कोई साधारण आत्मा नहीं है, अरे यह तो सब तरह से अलौकिक है। कई सदियाँ बीत जाती है, तब कहीं यह आता है। यह तुम्हारे लिए ही सिद्धार्थ नहीं, यह तो अनन्त-अनन्त लोगों के लिए समूची मनुष्यता के लिए सिद्धार्थ है। अनन्त जनों के जीवन का अर्थ इससे सिद्ध होगा। हंसता हूँ कि इसके दर्शन मिल गए। बहुत प्रसन्न हूँ कि इसने मुझ बूढ़े की जटाओं में अपने पांव उलझा दिए। मेरे लिए यह परम सौभाग्य का क्षण है। पर रुलाई इसलिए आ रही है कि जब यह कली खिलेगी, फूल बनेगी, जब दसों दिशाओं में इसकी महक उठेगी, तब मैं न रहूँगा। मेरे शरीर छूटने की घड़ी करीब आ गयी है।

महातपस्वी असिता की यह बात बड़ी अनूठी पर सच्ची है। बुद्धत्व का लुभावनापन ही कुछ ऐसा है। उनकी मोहकता है ही कुछ ऐसी। असिता जीवनमुक्त हो गए, पर उन्हें पछतावा होने लगा, कि काश एक जन्म अगर और मिलता तो इससे महाबुद्ध के चरणों में बैठने की, इनकी वाणी सुनने की, इनकी सुगन्ध पीने की, इनके बुद्धत्व में डूबने की सुविधा हो जाती। ऐसे अनूठे पल होते हैं, बुद्धत्व के विकसित होने के। महातपस्वी असिता में भी चाहत पैदा हो गयी कि मोक्ष दांव पर लगता हो लगे, कोई हर्जा नहीं। वह रोने लगे थे उनके पांवों पर सिर रखकर कि सदा ही चेष्टा कि कब छुटकारा हो इस शरीर से जीवन के आवागमन से, पर आज पछतावा हो रहा है।

काल प्रवाह के क्षण, दिवस, वर्ष बीते। और एक बैसाख पूर्णिमा को सत्य का, सम्बोधि का, बुद्धत्म का वहीं चाँद निकला, जिसकी चांदनी में जीने की चाहत कभी असिता ने की थी। यह पूर्णचन्द्र महातपस्वी शाक्यमुनि सिद्धार्थ के अन्तर्गगन में उदय हुआ। इस बीच अनेकों घटनाएँ काल सरिता में घटकर बह गयीं। शिशु सिद्धार्थ किशोर हुए, युवा हुए, यशोधरा उनकी राजरानी बनीं, राहुल के रूप में उन्हें पुत्र मिला। पर ये तो दृश्य घटनाएँ थी। अदृश्य में भी बहुत कुछ घटा। प्रचण्ड वैराग्य, अनूठा विवेक-जिसकी परिणति महाभिनिष्क्रमण के रूप में हुई। युवराज तपस्वी हो गए। तपस्या में दुर्बल, जर्जर सिद्धार्थ को सुजाता ने खीर खिलायी। और उनकी देह को ही नहीं जीवन चेतना को भी नव जीवन मिला। और वह गौतम बुद्ध हो गए।

गौतम बुद्ध के रूप में वे ऐसे है जैसे हिमाच्छादित हिमालय। जिससे करुणा की अनेकों जलधाराएँ निकलती हैं। जहाँ से महाकरुणा की गंगा बहती है। जो पतितपावनी, कलिमलहारिणी, सर्वपापनाशिनी है। पर्वत तो और भी है हिमाच्छादित पर्वत भी और है। पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे हैं। पूरी मनुष्य जाति में उनके जैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। उन्होंने जितने हृदयों की वीणा को बसाया है, उतना किसी और ने नहीं। उनके माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम भगवत्ता उपलब्ध की, उतनी किसी और के माध्मय से नहीं।

बुद्ध के बोल अत्यन्त मीठे हैं, उनके वचन बहुत अनूठे हैं। उनके द्वारा कही गयी धम्म गाथाओं में जीवन के बहुआयामी सच है। प्रत्येक धम्मगाथा एक कथा कहती है और जिन्दगी को राह दिखाती है। इस पुस्तक में इन अनूठी कथाओं को पिरोया गया है। एच.जी. वेल्स ने बुद्ध के संबंध में एक अद्भुत सच्चाई बयान की। उन्होंने कहा- कि समूची धरती पर उन जैसा ईश्वरीय व्यक्ति और उनकी तरह ईश्वर शून्य व्यक्ति एक साथ पाना कठिन है- सो गॉड लाइफ एण्ड सो गॉड लेस। अगर कोई ईश्वरीय प्रतिभाओं को खोजने निकले तो बुद्ध से शून्य। ईश्वर शून्यता का अर्थ ईश्वर विरोधी होना नहीं है। जैसा कि कुछ समझदार समझे जाने वाले नासमझों ने समझ लिया है। इसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि उन्होंने परम सत्य का उच्चार नहीं किया।

उपनिषद् कहते हैं कि ईश्वर के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन इतना तो कह ही दिया। बुद्ध ने इतना भी नहीं कहा। वे परम उपनिषद् हैं। वह ईश्वर की चर्चा करने वाले केवल नाम मात्र के आस्तिक नहीं हैं। अगर परमात्मा के संबंध में कुछ कहना संभव नहीं, तो फिर बुद्ध ने कुछ नहीं कहा। बस चुप रहकर-इशारा किया। परिश्रम में एक बहुत बड़ा दार्शनिक हुआ है- लुडविग पिट्गिंस्टाइन। उसने अपनी बड़ी अनूठी किताब ‘ट्रैफ्टेटस’ में लिखा है कि जिस संबंध में कुछ कहा न जा सके, उस संबंध में बिल्कुल चुप रह जाना उचित है। दैट व्हिच कैन नॉट बी सेड, मस्ट नॉट भी सेड। जो नहीं कहा जा सकता, कहना ही नहीं चाहिए।

अगर विट्गिंस्टाइन ने बुद्ध को देखा होता तो वे अपने कहे हुए सच की अनुभूति कर लेते। अगर विट्गिंस्टाइन की बातों को बुद्ध ने सुना होता तो अवश्य मुस्करा देते। बड़े ही प्यार से वे उसके कथन को अपनी स्वीकृति दे देते। परिश्रम के लोगों ने विट्गिंस्टाइन को समझने में भूल की। यही भूल पूरू के लोगों को हुई, बुद्ध को समझने में। बुद्ध दार्शनिक और विचारक नहीं, वह रुग्ण मनुश्यता के लिए बड़े ही करुणावान वैद्य थे। बहुत लोगों ने मनुष्य के रोग का विश्लेषण किया है। पर इतना करुणापूर्ण होकर और इतने सटीक ढंग से नहीं। बड़े ढंग सेल लोगों की बातें कही हैं, बड़े गहरे प्रतीक उपाय में लाए हैं। पर बुद्ध के कहने का ढंग ही कुछ और है, जिसने एक बार सुना, पकड़ा गया। जिसे उनके बुद्धत्व की थोड़ी सी झलक मिल गयी, उसका समूचा जीवन ही रूपान्तरित हो गया। ‘अप्प दीपो भव’ यही बुद्ध का अन्तिम वचन है। बुद्ध पूर्णिमा के शुभ क्षणों में इस भांति भी स्मरण किया जा सकता है-

महाबुद्ध ने मुझसे-तुमसे,
एक-एक से, हम सबसे
सुनो, यह सत्य कहा,
अपने दीपक आप बनो तुम
तिमिर का व्यूह भेद करना है,
कैसा यहाँ विराम
शिखा को झंझा में पलना है।



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