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आचार्य श्रीराम शर्मा >> युगगीता - भाग 2

युगगीता - भाग 2

डॉ. प्रणय पण्डया

प्रकाशक : श्रीवेदमाता गायत्री ट्रस्ट शान्तिकुज प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4320
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है युग गीता....

Yuggita (2)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गीता युगों-युगों से मानव जाति का मार्गदर्शन करती आ रही है। चाहे कैसा भी समय हो, कैसी भी परिस्थितियाँ हों गीता का संदेश युगानुकूल है। परम पूज्य गुरुदेव ने गीता की धुरी पर ही ‘युग निर्माण मिशन’ का निर्माण किया एवं एक विराट् भारत के – महाभारत के पुनः निर्माण की पृष्ठभूमि रखी। एवं विराट् क्रान्ति उनकी क्रियापद्धति रही है। विचारों में आमूलचूल परिवर्तन ही विश्वमानस को बदलेगा। गीता का अनासक्ति-योग हमें पूर्णता की ओर ले जाता है। हमारे विचारों को कैसा होना चाहिए; ताकि हमारे कर्म दिव्य बन सकें, यह बताता है। इसके लिए जिस ज्ञान की आवश्यकता है, वह योगेश्वर के श्रीमुख से चौथे अध्याय में ‘‘ज्ञान-कर्म-सन्यास योग’’ की व्याख्या के रूप में निःसृत हुआ है। इसमें भगवान् कहते हैं कि ‘श्रद्धावान को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है एवं इस ज्ञान के प्राप्त होते ही वह बिना विलम्ब के भगवत् प्राप्ति रूपी परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है’ (4/39)। आज इसी शान्ति की सर्वाधिक आवश्यकता है। जनमानस के भावात्मक नवनिर्माण की घड़ी आ पहुँची है। इसमें ज्ञानयज्ञ की आहुतियाँ देनी होंगी। ऐसे में गीता का यह ज्ञान अति प्रासंगिक है, समय की विशेष माँग है।

इक्कीसवीं सदी के एक महत्त्वपूर्ण युगपरिवर्तनकारी मोड़ पर खड़ा मानव समुदाय आज चारों ओर मार्गदर्शन जोह रहा है। युगऋषि, युगदृष्टा, प्रज्ञापुरुष परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के प्रतिपादन गीता के परिप्रक्ष्य में जब मनन किये जाते हैं, तो वे हर सामान्य व्यक्त, परजन, कार्यकर्ता के लिए पाथेय की भूमिका निभाते हैं। संधिकाल की इस वेला में योगेश्वर श्रीकृष्ण का हमारी गुरुसत्ता का सभी को संबोधन है कि हे अमृतपुत्रों ! जागो, आपने आपको पहचानो एवं स्वयं को योग में प्रतिष्ठित करो। अपने संशयों का निवारण करो एवं श्रद्धारूपी अग्नि को प्रज्वलित करो।

‘‘युगगीता’’ का प्रयास है, श्रीमद्बागद्गीता को आज के युग के परिप्रेक्ष्य में, जीवन की समस्याओं के समाधान हेतु प्रस्तुतीकरण का। जीवन साधना की एक पाठ्य पुस्तक है—श्री गीता। जो स्वयं योगेस्वर श्रीकृष्ण के मुख से निकली है। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने वही जीवन जिया है, जिसकी व्याख्या भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में ‘‘दिव्यकर्मी’’ के रूप में की है। युगगीता का यह दूसरा खंड गीता के चतुर्थ अध्याय की व्याख्या के रूप में प्रस्तुत है। युगदर्शन को आत्मसात् कर इसे जीवन में जिया जाये, तो ही इसकी सार्थकता है।

प्रथम खण्ड की प्रस्तावना


गीता पर न जाने कितने भाष्य लिखे जा चुके। गीता दैनन्दिन जीवन के लिए एक ऐसी पाठ्य पुस्तिका है, जिसे जितनी बार पढ़ा जाता है, कुछ नए अर्थ समझ में आते हैं। परम पूज्य गुरुदेव पं.श्रीरामशर्मा आचार्य जी ने जीवन भर इस गीता को हर श्वास में जिया है। जैसे-जैसे उनके समीप आने का इस अकिंचन को अवसर मिला, उसे लगा मानो योगेश्वर कृष्ण स्वयं उसके सामने विद्यामान हैं। गीता संजीवनी विद्या की मार्गदर्शिका है एवं एक महाकाव्य भी। परम पूज्य गुरुदेव के समय-समय पर कहे गए अमृत वचनों तथा उनकी लेखनी से निस्सृत प्राणचेतना के साथ जब गीता के तत्त्वदर्शन को मिलाते हैं, तो एक निराले आनन्द की अनुभूति होती है—पढ़ने वाले पाठक को, सुनने वाले श्रोता को। उस आनंद की स्थिति में पहुँचकर अनुभूति के शिखर पर रचा गया है, यह ग्रंथ ‘युगगीता’।

मन्वन्तर-कल्प बदलते रहते हैं, युग आते हैं, जाते हैं पर कुछ शिक्षण ऐसा होता है, जो युगधर्म-तत्कालीन परिस्थितियों के लिये उस अवधि में जीने वालों के लिए एक अनिवार्य कर्म बन जाता है। ऐसा ही कुछ युगगीता को पढ़ने से पाठकों को लगेगा। इसमें जो भी कुछ व्याख्या दी गयी है, वह युगानुकूल है। शास्त्रोक्त अर्थों को समझाने का प्रयास किया गया है एवं प्रयास यह भी किया गया है कि यदि उसी बात को हम अन्य महामानवों के नजरिये से समझने का प्रयास करें, तो कैसा ज्ञान हमें मिलता है—यह भी हम जानें। परम पूज्य गुरुदेव के चिन्तन की सर्वांगपूर्णता इसी में है कि उनकी लेखनी—अमृतवाणी सभी हर शब्द-वाक्य में गीता के शिक्षण को ही मानो प्रतिपादित-परिभाषित करती चली जा रही है। यही वह विलक्षणता है, जो इस ग्रंथ को अन्य सामान्य भाष्यों से अलग स्थापित करता है।

युग-गीता के प्रस्तुत प्रतिपादन को, जिसे प्रथम खण्ड के रूप में परिजन पढ़ रहे हैं। यह शान्तिकुञ्ज के सभागार में निवेदक द्वारा कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन—‘सेवाधर्म के कर्मयोग का समावेश-दैनन्दिन जीवन में अध्यात्म का शिक्षण’ प्रस्तुत करने के लिये व्याख्यानमाला के रूप में नवम्बर 1998 से दिसम्बर के अंतिम सप्ताह तक सप्ताह के दो उद्बोधनों के रूप में प्रस्तुत किया गया था। उनके कैसेट अब उपलब्ध हैं। लिखते समय इसे जब ‘‘अखण्ड ज्योति’’ पत्रिका में धारावाहिक रूप में (मई 1999 से) देना आरंभ किया, तो कई परिवर्तन किये गये उद्धरणों को विस्तार से दिया गया तथा उनकी प्रामाणिकता हेतु कई ग्रन्थों का पुनः अध्ययन किया गया। ‘‘अखण्ड ज्योति’’ पत्रिका के विगत कई वर्षों के कई अंक पलटे गये एवं समय-समय पर उनके दिये गए निर्देशों से भरी डायरियाँ भी देखी गयीं। जो कभी बोलने में रह गयी थीं—या अधूरापन सा उस प्रतिपादन में रह गया था, उसे लेखन में पूरा करने का एक छोटा सा प्रयास मात्र हुआ है।

‘‘गीता विश्वकोष’’ परम पूज्य गुरुदेव के स्वप्नों का ग्रंथ है। उसके लिए बहुत कुछ प्रारंभिक निर्देश भी दिए गये हैं। वह जब बनकर तैयार होगा, तो निश्चित ही एक अनुपम ग्रंथ होगा उसकी पूर्व भूमिका के रूप में युग गीता को खण्ड-खण्ड में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है; ताकि विश्वकोष की पृष्ठभूमि बन सके। इस विश्वकोष में दुनिया भर के संदर्भ, भाष्यों के हवाले तथा विभिन्न महामानवों के मंतव्य होंगे। वह सूर्य होगा-युगगीता तो उसकी एक किरण मात्र है। युगों-युगों से गीता गायी जाती रही है—लाखों व्यक्ति उससे मार्गदर्शन लेते रहे हैं, किंतु इस युग में जबकि बड़े स्तर पर एक व्यापक परिवर्तन सारे समाज, सारे विश्व में होने जा रहा है—इस युगगीता का विशेष महत्त्व है। कितने खण्डों में यह ग्रंथ प्रकाशित होगा, हम अभी बता नहीं सकते।

इस ग्रंथ से जन-जन को ज्ञान का प्रकाश मिले, इस युग परिवर्तन की वेला में जीवन जीने की कला का मार्गदर्शन मिले, जीवन के हर मोड़ पर जहाँ कुटिल दाँवपेंच भरे पड़े हैं—यह शिक्षण मिले कि इसे एक योगी की तरह कैसे हल करना व आगे-निरन्तर आगे ही बढ़ते जाना है—यह उद्देश्य रहा है। इसमें लेखक के अपने ज्ञान-विद्वता का कोई योगदान नहीं है। यह सबकुछ उसी गुरुसत्ता के श्रीमुख से निस्सृत महाज्ञान है, जो उनकी लेखनी से निकल पड़ा या उद्बोधन में प्रकट हुआ। गुरुवर की अनुकम्पा न होती, अग्रजों का अनुग्रह न होता, सुधी पाठकों की प्यार भरी प्रतिक्रियाएं न होतीं, तो शायद यह ग्रंथ आकार न ले पाता। उसी गुरुसत्ता के चरणों में श्रद्धापूरित भाव से इस गीताज्ञान की व्याख्या रूपी युगगीता का प्रथम खण्ड प्रस्तुत है।


डॉ. प्रणव पण्ड्या


प्रस्तुत है द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना


गीताजी का ज्ञान हर युग, हर काल में हर व्यक्ति के लिए मार्गदर्शन देता रहा है। गीतामृत का जो भी पान करता है, वह कालजयी बन जाता है। जीवन की किसी भी समस्या का समाधान गीता के श्लेकों में कूट-कूट कर भरा पड़ा है। आवश्यकता उसका मर्म समझने एवं जीवन में उतारने की है। धर्मग्रन्थों में हमारे आर्ष वाङ्मय में सर्वाधिक लोकप्रिय गीताजी हुई है। गीताप्रेस गोरखपुर ने इसके अगणित संस्करण निकाल डाले हैं। घर-घर में गीता पहुँची है, पर क्या इसका लाभ जन साधारण ले पाता है। सामान्य धारणा यही है कि यह बड़ी कठिन है। इसका ज्ञान तो किसी को संन्यासी बना सकता है इसलिये सामान्य व्यक्ति को इसे पढ़ना नहीं चाहिए। साक्षात पारस सामने होते हुए भी मना कर देना कि इसे स्पर्श करने से खतरा है, इससे बड़ी नादानी और क्या हो सकती है। गीता एक अवतारी सत्ता द्वारा सद्गुरु रूप में योग में स्थिर होकर युद्ध क्षेत्र में कही गयी है। फिर यह बार-बार कर्त्तव्यों की याद दिलाती है।

तो यह किसी को अकर्मण्य कैसे बना सकती है। यह सोचा जाना चाहिए और इस ज्ञान को आत्मसात किया जाना चाहिए।
गीता और युगगीता में क्या अंतर है, यह प्रश्न किसी के भी मन में आ सकता है। गीता एक शाश्वत जीवन्त चेतना का प्रवाह है। जो हर युग में हर व्यक्ति के लिए सामाधान देता है। श्रीकृष्ण रूपी आज की प्रज्ञावतार की सत्ता ‘‘परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य’’ को एक सगद्गुरु-चिन्तक मनीषी के रूप में हम सभी ने देखा है। एक विराट् परिवार उनसे लाभान्वित हुआ एवं अगले दिनों होने जा रहा है। सतयुग की वापसी के लिए संकल्पित पूज्यवर ने समय समय पर जो कहा-लिखा या जिया, वह गीता के परिप्रेक्ष्य में स्थान-स्थान पर प्रस्तुत किया गया है।

निवेदक का प्रयास यही रहा है कि अतिमानस के प्रतीक उसके सद्गुरु जिनने आज के युग की हर समस्या का समाधान हम सबके समक्ष रथा, गीता के परिप्रेक्ष्य में बोलते हुए दिखाई दें। स्थान स्थान पर गीता की विस्तृत व्याख्या और भी महापुरुषों के संदर्भ में की गई है पर मूलतः सारा चिन्तन गुरुवर को ही केन्द्र में रखकर प्रस्तुत किया गया है क्योंकि लिखते समय निवेदक के प्रेरणा स्रोत वे ही थे। मात्र लिखते समय ही क्यों, हर पल, हर श्वास में ही तो वे विद्यमान रहते हैं। अखिल विश्व गायत्री परिवार के संरक्षक-संस्थापक- एक विराट् संगठन के अभिभावक आचार्यश्री का मार्गदर्शन इस खण्ड में गीता के चौथे अध्याय के संदर्भ में प्रस्तुत हुआ है।

गीता जी का चौथा अध्याय बड़ा विलक्षण है। इसमें भगवान् अपने स्वरूप को पहली बार अर्जुन के समक्ष वाणी द्वारा प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि यह ज्ञान जो लुप्त हो गया था, सबसे पहले उनके (भगवान के) द्वारा पहले सूर्य को दिया गया था, किन्तु अब वे युगों बाद द्वापर में उसे दे रहे हैं। अर्जुन भ्रमित हो जाता है कि भगवान् का जन्म तो अभी का है, वे देवकी के पुत्र वासुकीनन्दन के रूप में जन्मे हैं जबकि सूर्य तो अति प्राचीन है। लौकिक संबंध ही उसे समझ में आते हैं, तब भगवान उसे जवाब देते हैं कि अर्जुन के व अनेकानेक जन्म हो चुके हैं जिन्हें वह नहीं जानता पर भगवान् जानते हैं। जब-जब भी धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होता है तब तब भगवान् धर्म की स्थापना करने के लिए लीलावतार के रूप में युग-युग में प्रकट होते रहे हैं। इसी अध्याय में सुप्रसिद्ध श्लोक है—‘‘यदा यदा हि धर्मस्यग्लानिः भवति भारत...संभवामि युगे-युगे’’ जो हर काल में हर युग में पीड़ित मानव जाति के लिए एक प्रत्यक्ष आश्वासन है-अवार के प्रकटीकरण का-उनके अवतरण का। भगवान अपने जन्म व कर्म को दिव्य बताते हैं और इस ज्ञान की महत्ता बताते हैं कि जो इसे तत्व से जान लेता है, वह भगवत्ता को ही प्राप्त होता है।

चतुर्वर्ण की रचना और कर्म, अकर्म, विकर्म संबंधी चर्चा इसी अध्याय में आयी है। यही अध्याय पण्डित को परिभाषित करता है कि वही सच्चा ज्ञानी व पण्डित है जिसके सभी कर्म ज्ञानरूपी अग्नि द्वारा भस्म हो गये हैं। कर्मयोग-ज्ञानयोग का विलक्षण सम्मिश्रण भक्तियोग के साथ इस अध्याय में है जिसे हम ‘‘ज्ञान कर्म संन्यासयोग’’ नाम से जानते हैं। विभिन्न यत्रों की व्याख्या एवं उसमें स्वाध्यायरूपी ज्ञानयज्ञ की महिमा योग्श्वर इसमें अर्जुन को समझाते हैं। कर्म बन्धन से मुक्त होना हो तो साधक को अपने संपूर्ण कर्मों को ज्ञान में विलीन कर देना चाहिए ऐसा कहकर श्रीकृष्ण इस अध्याय को पराकाष्ठा पर ले जाते हैं। वे कहते हैं कि पापी व्यक्ति चाहे उसने कितने ही घोर पाप किए हों ज्ञानरूपी नौका द्वारा तर सकता है। ज्ञान से ज्यादा पवित्र इस धरती पर कुछ भी नहीं है, इसे बताते हुए श्रीकृष्ण कर्मयोगी को दिव्य कर्मी बनने, श्रद्धा अपने अंदर विकसित करने और जितेन्द्रिय होने का उपदेश देते हैं। श्रद्धावान को ही ज्ञान मिलता है।

संशयात्मा का तो विनाश ही होता है। अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं अपने विवेक को जागृत कर समस्त संशयों को नष्ट कर अपने कर्मों को परमात्मा में अर्पित कर समत्वरूपी योग में हर व्यक्ति को स्थित हो जाना चाहिए। यही इस युग की –हर युग की आवश्यकता है।

ज्ञान गीता का है-शाश्वत है एवं स्वयं भगवान् के श्रीमुख से निकला-वेदव्यास द्वारा लिपिबद्ध किया हुआ है। निवेदक ने मात्र यही प्रयास किया है कि इस ज्ञान को परम पूज्य गुरुदेव के चिन्तन के संदर्भ में आज हम कैसे दैनंदिन जीवन में लागू करें, यह व्यावहारिक मार्गदर्शन इस खण्ड की विस्तृत व्याख्या प्राप्त हो। युगगीता का प्रथम खण्ड पहले तीन अध्याय की व्याख्या के रूप में प्रकाशिक हुआ। उस समय मन सिकोड़ने का था, पर क्रमशः अब चौथे अध्याय तक आते -आते यह खण्ड ही इसकी व्याख्या में नियोजित हो गया। यही प्रभु की इच्छा रही होगी। सद्गुरु को गुरुपूर्णिमा की पावन वेला में एवं साधक संजीवनी के सृजेता-सनातन धर्म के संरक्षक शताधिक वर्ष तक अपनी ज्ञान सुधा का पान कराने वाले पं. श्रीरामसुखदास जी को अभी भी उनके महाप्रयाण की वेला में श्रद्धासुमनों सहित यह खण्ड समर्पित है।


-डॉ. प्रणन पण्ड्या


मैं जानता हूँ कि तुम कौन हो और किस लिए आए हो ?



ज्ञानकर्मसंन्यासयोग नामक गीता के चतुर्थ अध्याय में न केवल ज्ञान, कर्म, संन्यास के समुच्चय रूपी योग की व्याख्या है, इसमें मूल रूप से चार प्रकरणों की विशद विवेचना भी है। पहला प्रकरण है अवतार चेतना के प्रगटीकरण का, उसके हेतु का। दूसरा प्रकरण है कर्म, अकर्म और विकर्म की व्याख्या का। तीसरा प्रकरण है यज्ञ का, यज्ञ क्या है. कितने प्रकार का है, उसे हम दर्शन की दृष्टि से कैसे समझें ? चौथा प्रकरण है ज्ञान का, ज्ञान के महत्त्व का एवं संशयों से मुक्त हो ज्ञान की प्राप्ति द्वारा कर्म में तत्पर होने का। चारों ही एक-दूसरे से जुड़े हैं।

व्याख्या के माध्यम से इनकी परस्पर संगति क्रमशः समझ में आती जाएगी। यह ध्यान में रखने योग्य बात है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण प्रथम छः अध्यायों में मूलतः कर्मयोग की चर्चा कर रहे हैं। कर्मयोग के साथ-ही-साथ वे ज्ञानयोग व भक्तियोग के मर्मस्पर्शी बिंदु भी साथ ले आते हैं। फिर इस अध्याय का नाम भी है, ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग। कई लोग यह समझते हैं कि गीता मात्र संन्यासियों के लिए हैं अथवा इसे पढ़ने से अच्छा-खासा गृहस्थ संन्यासी बन जाता है। ऐसी बात नहीं है। यह गीता एक गृहस्थ श्रीकृष्ण द्वारा दूसरे गृहस्थ अर्जुन के माध्यम से हम सभी गृहस्थ धर्म या अन्य धर्म का पालन करने वाले के लिए कही गई है। जहाँ तक संन्यास से मतलब है, वह कर्मणां न्यासः इति कर्म संन्यासः अर्थात् इस कर्म का न्यास कर दो, ट्रस्ट बना दो। कर्म का फल ईश्वर समर्पित कर दो। यह विस्तृत थ्योरी इस चौथे अध्याय में आई है एवं इसी की और विशद व्याख्या पाँचवें-छठे अध्याय में हुई है।



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