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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> विभीषण शरणागति

विभीषण शरणागति

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :194
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4341
आईएसबीएन :00000

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श्रीरामकिंकर जी महाराज का दिव्य प्रवचन...

Vibhisahn Sharnagati

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपनी बात

विभीषण एक ऐसे पात्र हैं जिनके प्रति समाज में दो विरोधी धारणाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। कुछ लोग जहाँ उन्हें एक महान् भक्त के रूप में देखते हैं तो अन्य कई उन्हें देशद्रोही या भ्रातृद्रोही कहकर भी पुकारते हैं।

‘घर का भेदी लंका ढाहे’ के रूप में प्रयुक्त होनेवाली कहावत इसी दृष्टि को व्यक्त करती है। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि अधिकांश लोग उन्हें इसी दृष्टि से देखने के अभयस्त हैं। इसके पीछे समाज के मानसिक धरातल का ही दर्शन होता है सामान्यतः संसार में मनुष्य यही चाहता है कि उसके निकटस्थ सम्बन्धी उसके समस्त अच्छे-बुरे क्रिया-कलापों में भागीदार बनें। यदि परिवार का कोई व्यक्ति कुछ बुरा भी करे तो उसका साथ देना व्यक्ति का धर्म है धर्म की इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि व्यक्ति न्याय और अन्याय को परखने के लिए दो भिन्न मापदण्ड स्वीकार कर ले। स्वार्थमयी समाज की यही धारणा व्यक्ति को अधःपतन की ओर ले जाती है।

 देश, जाति और कुल के आधार पर यदि धर्म की परिभाषा की जाएगी तो वह धर्म शुद्ध स्वार्थपरकता को छोड़कर और किस भाव की सृष्टि कर सकता है ! विभीषण का चरित्र एक उदात्त चरित्र है। जिन्हें अन्याय प्रिय नहीं है। वे केवल स्वार्थ की पूर्ति या राज्य पाने की व्यग्रता से ही रावण का परित्याग नहीं करते। भरसक उनका प्रयत्न यही था कि रावण बुराइयों का परित्याग कर दे। जगज्जननी सीता को लौटा दे, किन्तु यह सम्भव न होने पर ही उन्होंने रावण के विरुद्ध खुला विद्रोह किया और भरी सभा में श्रीराम के शरण में जाने की घोषणा की। उनके सहयोग से दुष्ट राक्षसों का संहार हुआ। यों तो विभीषण का जन्म भी राक्षस जाति में हुआ था पर वस्तुतः श्रीराम जाति को नहीं, वृत्ति को महत्त्व देते हैं। इसलिए राक्षसी वृत्ति का संहार करने के बाद वे विभीषण जैसे साधु राक्षस को ही लंका में सिंहासनासीन करते हैं।

वर्तमान परिवेश में जहाँ स्वार्थपरकता ही धर्म का रूप ग्रहण करती जा रही है, ऐसे समय में विभीषण का चरित्र प्रकाश-स्तम्भ के समान है। इस वृत्ति के बिना बुराई का विनाश और राम-राज्य की स्थापना सम्भव नहीं है। इसलिए यह कह सकते हैं कि पुरातन होते हुए भी विभीषण का जीवन आज भी उतना ही प्रेरक है। इसलिए भगवान राम भी उन्हें सन्त कहकर सम्बोधित  करते हैं-


तुम सारिखे सन्त प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें। (5-77-8)


मानस का यह सप्त दिवसीय प्रवचन विभीषण के चरित्र को भिन्न दृष्टियों से देखने का प्रयास मात्र है। आशा है सुधी पाठकों को इसके प्रकाशन से प्रसन्नता और प्रेरणा की प्राप्ति होगी।


रामकिंकर

महाराजश्री : एक परिचय



प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा जाय, तो वह हैं- प्रज्ञापुरुष, भक्तितत्त्व द्रष्टा, सन्त प्रवर, ‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी अमृतमयी, धीर, गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों को, नानापुराण- निगमागम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी मनीषी, मनस के अद्भुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार हैं।

भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-


धेनवः सन्तु पन्थानः दोग्धा हुलसिनन्दनः
दिव्यराम-कथा दुग्धं प्रस्तोता रामकिंकरः।।


जैसे  पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर (मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्जापुर के बरैनी नामक गाँव के निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरा देवी एवं पिता पूज्य श्री शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविज्ञ व्याख्याकार एवं हनुमानजी महाराज के परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमानजी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम सेवक रखा गया।
 
जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।

पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।

आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।

ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।

ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।  

प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’

इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।

सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग  प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।

अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो  जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।

निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।

अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।

रामायणम ट्रस्ट पूज्य महाराजश्री रामकिंकरजी द्वारा संस्थापित एक ऐसी संस्था है जो तुलसी साहित्य और उसके महत् उद्देश्यों को समर्पित है। मेरा मानना है कि परम पूज्य महाराजश्री की लेखनी से ही तुलसीदास जी को पढ़ा जा सकता है और उन्हीं की वाणी से उन्हें सुना भी जा सकता है। महाराजश्री के साहित्य और चिन्तन को समझे बिना तुलसीदास के हृदय को समझ पाना असम्भव है।

रामायणम् आश्रम अयोध्या जहाँ महाराजश्री ने 9 अगस्त सन् 2002 को समाधि ली वहाँ पर अनेकों मत-मतान्तरों वाले लोग साहित्य प्राप्त करने आते हैं, तो महाराजश्री के प्रति वे ऐसी भावनाएं उड़ेलती हैं मानों कि मन होता है कि महाराजश्री को इन्हीं की दृष्टि से देखना चाहिए। वे अपना सबकुछ न्यौछावर करना चाहते हैं उनके चिन्तन पर। महाराजश्री के चिन्तन ने रामचरित मानस के पूरे घटनाक्रम को और प्रत्येक पात्र की मानसिकता को जिस तरह से प्रस्तुत किया है उसको पढ़कर आपको ऐसा लगेगा कि आप उस युग के एक नागरिक हैं और घटनाएँ आपके जीवन का सत्य हैं। हम उन सभी श्रेष्ठ वक्ताओं के प्रति भी अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं तो महाराजश्री के चिन्तन को पढ़कर प्रवचन करते हैं और मंच से उनका नाम बोलकर उनकी भावनात्मक आरती उतारकर अपने बड़प्पन का परिचय देते हैं।

रामायणम, ट्रस्ट के सचिव श्री मैथिलीशरण शर्मा ‘भाईजी’ विगत 29 वर्षों से महाराजश्री की साहित्यिक सेवा का प्रमुख कार्य देख रहे हैं। इतने वर्षों से मैं यही देखती हूँ कि वे प्रतिदिन यही सोचते रहते हैं कि किस तरह महाराजश्री के विचार अधिक लोगों तक पहुँचें। साथ ही उनके सहयोगी डा. चन्द्रशेखर तिवारी इस महत्कार्य को पूर्ण करने में अपना योगदान देते हैं, उनको भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूँ। रामायणम् भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूं। रामायणम् ट्रस्ट से सभी ट्रस्टीगण इस भावना से ओत-प्रोत हैं कि ट्रस्ट की सबसे प्रमुख सेवा यही होनी चाहिए कि वह एक स्वस्थ चिन्तन के प्रचार प्रसार-प्रसार में जनता को दिशा एवं दृष्टि दे और ऐसा सन्तुलित चिन्तन पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज में प्रकाशित होता और प्रकाशित करता दिखता है। पाठकों के प्रति मेरी हार्दिक मंगलकामनाएं !


प्रभु की शरण में
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी


प्रथम प्रवचन



एहि विधि करत सप्रेम विचारा
आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा।।
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा।।
ताहि राखि कपीस पहिं आए।
समाचार सब ताहि सुनाए।।
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दशानन भाई।
कह प्रभु सखा बूझिए काहा।
कहइ कपीस सुनहु नर नाहा।
जानि न जाई निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया।।
भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बांधि मोहि अस भावा।।
 सखा नीति तुम नीकि विचारी।
मम पन सरनागत भयभारी।।
सुनि प्रभु वचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल  भगवाना।।
सरनागत कहुं जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पाँवर पापमय तिन्हहि बिलोकित हानि।।


आइए अब एक समय के लिए एकाग्र और शान्तचित्त से मानस की उस पंक्ति पर विचार करें जिसमें गुरु वसिष्ठ भगवान् राम के व्यक्तित्व की समग्रता की ओर इंगित करते हैं। वस्तुतः श्रीरामचरितमानस में भगवान श्रीराम के व्यक्तित्व को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है उसे हृदयंगम करने के लिए उस विरोधाभास की ओर दृष्टि डालनी होगी जहाँ वे दो भिन्न रूपों में हमारे समक्ष आते हैं। एक ओर मानस में जहाँ उनकी ईश्वरत्व का प्रतिपादन बार-बार किया गया है, वहीं पर यह बात भी बार-बार दुहराई गयी है कि वे अपने चरित्र में नरलीला प्रस्तुत करते हैं। अतः एक ओर जहाँ वे साक्षात ईश्वर हैं, और इस दृष्टि से वे अतर्क्य और मन, बुद्धि, वाणी से परे प्रतीत होते हैं वहीं वे मानवीय रूप में ऐसा आदर्श चरित्र प्रस्तुत करते हैं जो हमारे लिए पूरी तरह अनुकरणीय है-


राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी।
मत हमार अस सुनहि सयानी।। 1/120/3


कहकर जहाँ भगवान् शंकर उनकी ईश्वरता की ओर इंगित करते हैं वहीं ‘चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु।’ के रूप में दोनों ही पक्षों को प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार एक रूप में यदि वे आराध्य हैं। तो दूसरे रूप में वे अनुकरणीय हैं।

गुरु वसिष्ठ ने भी भगवान् राम के चरित्र के इन दोनों ही पक्षों को चित्रकूट में प्रस्तुत किया है। एक गुरु के रूप में वे श्रीराम के व्यक्तित्व की बड़ी ही सार्थक समीक्षा प्रस्तुत करते हैं। उनकी वह पक्ति है-


नीति प्रीति परमारथ स्वारथ।
कोउ न राम सम जान जथारथ।। 2/253/5


इसमें गुरु वसिष्ठ भगवान् राम की बड़ी विलक्षण सराहना करते हैं। इस चौपाई के सरल अर्थ से सम्भवतः आप लोग परिचित ही होंगे, और वह यह है कि नीति, प्रीति, परमार्थ और स्वार्थ इसको जितने यथार्थ रूप में श्रीराम जानते हैं उतना जानने वाला कोई अन्य नहीं है। सचमुच जब भगवान् श्री राम के विराट् व्यक्तित्व पर विचार करें, और उनके चरित्र में नीति, प्रीति, परमार्थ और स्वार्थ का कैसा अनोखा सामञ्जस्य है इस पर दृष्टि डालें, तो यह स्पष्ट प्रतीत होने लगता है कि भगवान् श्रीराम का चरित्र अद्वितीय क्यों है ?

हमारे इतिहास के वे सर्वश्रेष्ठ पुरुष क्यों हैं ? अगर आप श्रीरामचरितमानस में भगवान् राम के अवतार के पहले की परिस्थिति पर विचार करें तो एक बात आपके सामने आती है। भगवान् राम का जब अवतार हुआ उस समय ऐसा नहीं था कि इस देश में अन्य महापुरुष नहीं थे। श्रेष्ठ चरित्र वाले व्यक्तियों का अभाव रहा हो ऐसी कोई भी बात नहीं थी। भगवान् श्रीराघवेन्द्र जब अवतरित होते हैं उसके पहले विश्वामित्र जैसे महान् ऋषि थे, वसिष्ठ जैसे ब्रह्मर्षि थे, जनक जैसे तत्त्वज्ञ थे, दशरथ जैसे कुशल शासक थे, बालि जैसे योद्धा थे और इतना ही नहीं इन सबसे बढ़ कर हमारी मान्यता में भगवान् परशुराम जैसा एक महान् शक्तिशाली व्यक्तित्व विद्यमान था। पर इतने महापुरुषों के होते हुए भी श्रीराम की आवश्यकता क्यों हुई ? भगवान् श्री राम के अवतार की पृष्ठभूमि क्या है ? जिस समय वे अवतरित होते हैं उस समय विश्व में इतने महापुरुष थे, इतने योग्य व्यक्ति थे, पर इतने महापुरुषों के होते हुए भी इनमें से किसी को भी हम पूर्ण पुरुष की संज्ञा नहीं दे सकते। ये व्यक्तित्व यदि पूर्ण नहीं थे तो वह कौन-सी कमी थी और भगवान् श्रीराम ने अवतार लेकर किस तरह से उस अभाव को पूर्ण किया ? इस पंक्ति के आधार पर इसी पर विचार करेंगे।

रामचरितमानस के प्रारम्भ में एक पृष्ठभूमि प्रस्तुत की गयी है। पहली बात यह है कि उस समय दो ऐसे अनोखे पात्र हैं जो परस्पर विरोधी हैं, यद्यपि इनके नामों में बड़ी समानता है। ये दोनों पात्र हैं महाराजश्री ‘दशरथ’ और लंकाधिपति ‘दशमुख’। इन दोनों के नामों में जो समानता है उस पर आपकी दृष्टि गयी होगी। इनमें ‘दश’ शब्द तो दोनों के नाम में समान रूप से जुड़ा हुआ है केवल ‘दश’ के बाद अगला शब्द दोनों में बदला हुआ है। इनमें से एक अयोध्या में शासन कर रहा है, और दूसरा लंका में। उसके साथ-साथ एक बड़ी अटपटी-सी बात कही गयी है जिस पर पढ़ने वालों का ध्यान कभी-कभी जाता है। महाराजश्री दशरथ के लिए कहा गया है कि वे चक्रवर्ती सम्राट् थे। ‘ससुर चक्कवय कौसलराऊ’ कहकर महाराजश्री दशरथ के चक्रवर्तित्व की ओर इंगित किया गया। चक्रवर्ती का तात्पर्य है कि सारे विश्व के राजाओं ने जिसे अपने से श्रेष्ठ स्वीकार किया हो। जिसने सब पर विजय प्राप्त कर ली हो वह चक्रवर्ती राजा है। परन्तु दूसरी ओर ठीक यही शब्द रावण के लिए भी रामचरितमानस में कहा गया-


मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र। 1/182


और,


ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी।
दसमुख बसबर्ती नर नारी।।

 
सारे संसार पर रावण का शासन था। यह पढ़ करके बड़ा विचित्र-सा प्रतीत होता है कि क्या एक ही समय में दो व्यक्तियों का शासन विश्व पर हो सकता है ? भई ! या तो यह कहा जाता कि उस समय विश्व के सर्वश्रेष्ठ सम्राट, दशरथ थे या कहा जाता कि उस समय विश्व का सम्राट रावण था, दसमुख था। पर दोनों के लिए एक ही शब्द का प्रयोग बड़ा अटपटा-सा लगता है। पर जब आप इसमें गहराई से पैठ कर और इसे मनुष्य के अन्तर्जीवन से जोड़ करके इस पर विचार करेंगे तो आपको लगेगा कि यह कि सत्य केवल त्रेतायुग का ही सत्य नहीं है बल्कि यह हमारे, आपके और सबके जीवन का सत्य है।  

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