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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> श्रीराम का शील

श्रीराम का शील

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4346
आईएसबीएन :0000

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श्रीराम के शील का वर्णन....

Sriram Ka Sheel

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्रीराम: शरणं मम।।

पहला प्रवचन

सुग्रीव के चरित्र को यदि हम बहिरंग दृष्टि से देखें, तो ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें दोष तथा कमियाँ हैं पर दूसरी ओर उतना ही आश्चर्य यह देखकर होता है कि अनेक दोष एवं दुर्बलताओं के होते हुए भी सुग्रीव ने बड़ी सरलता से ईश्वर को पा लिया और प्रभु ने उन्हें असाधारण गौरव प्रदान किया। इसका रहस्य क्या है ?

‘मानस’ में किष्किन्धा-काण्ड के प्रारम्भ में हमें सुग्रीव का चरित्र मिलता है। भगवान् श्रीराम अपने प्रिय अनुज लक्ष्मण के साथ जनकनन्दिनी श्रीसीताजी की खोज में ऋष्यमूक पर्वत के पास पहुँचते हैं। वहाँ ऋष्यमूक पर्वत पर बैठे हुए सुग्रीव ने जब उन्हें आते हुए देखा, तो उनके मन में बड़े आतंक की सृष्टि हुई और उन्हें आशंका हुई कि सम्भवत: बालि ने इन्हें मेरा वध करने के लिए भेजा है। तब वे हनुमानजी से बोले कि आप जाकर पता लगाइए कि ये कौन हैं और इधर क्यों आ रहे हैं ? यदि वे बालि के द्वारा भेजे हुए मुझे मारने आ रहे हों, तो आप तत्काल संकेत कर दीजिए, ताकि मैं यहाँ से भाग जाऊं।
हमारे समक्ष आनेवाला सुग्रीव का यह पहला चित्र है। इसे देखकर बड़ा विचित्र-सा लगता है और ऐसा प्रतीत होता है कि जिस व्यक्ति में ईश्वर को पहचानने की क्षमता नहीं है, जिसके हृदय में ईश्वर को देखकर सन्देह का उदय हुआ हो कि ये बालि के भेजे हुए मुझे मारने आ रहे हैं, ऐसा व्यक्ति तो किसी भी प्रकार से प्रशंसा का पात्र नहीं हो सकता। किन्तु सुग्रीव को गोस्वामीजी ने भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में कई दृष्टियों से देखा है।

सुग्रीव के चरित्र के संबंध में गोस्वामीजी ने कुछ सूत्र दिए हैं, उनकी ओर मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा। विनय-पत्रिका में गोस्वामीजी स्वयं अपनी तुलना सुग्रीव से करते हैं। सुग्रीव का चरित्र गोस्वामीजी के अत्यन्त प्रिय चरित्रों में से एक है। श्रीभरत, श्रीहनुमानजी, श्रीलक्ष्मणजी का चरित्र तो उनकी दृष्टि में वन्दनीय है ही, लेकिन व्यक्तिगत रूप से सुग्रीव के चरित्र को वे अपने अतीव सन्निकट पाते हैं। विनय-पत्रिका में उन्होंने भगवान् राम से कहा- प्रभो, सुग्रीव ने आपकी कौन-सी सेवा की और कब उसने आपसे प्रेम का निर्वाह किया, जिसके कारण आप बालि का वध करके स्वयं लोक में आलोचना के पात्र बने ?-


का सेवा सुग्रीव की,
प्रीति-रीति-निरबाहु।
जासु-बन्धु बध्यो ब्याध ज्यों
सो सुनत सोहात न काहु।।


जब गोस्वामीजी ने कहा- आपने सुग्रीव के भाई को व्याध की तरह मारा, तो प्रभु ने मुस्कराकर पूछा-क्या तुम भी मुझ पर आरोप लगा रहे हो ? तो उन्होंने तुरन्त अगला वाक्य जोड़ दिया। बोले- ‘‘क्या करूँ ? जितने भी लोग मुझसे मिलते हैं, सब आपके इस कार्य की आलोचना करते हैं। आप तो लोकमत का बड़ा सम्मान करते हैं और लोग इस कार्य की बड़ी आलोचना करते हैं।’’

आज भी श्रीराम के चरित्र की चर्चा करते हुए कुछ प्रसंगों में उनकी आलोचना की जाती है, उनमें से एक प्रसंग सुग्रीव का भी है। यह एक बड़ा तथ्य है कि भगवान् राम ने पक्षपात किया, सुग्रीव का पक्ष लेकर उन्होंने बालि का वध अन्यायपूर्वक छिपकर किया। भगवान् ने पूछा- ‘‘तुम मुझे इसकी याद क्यों दिला रहे हो ? क्या तुम कहना चाहते हो कि मैंने यह ठीक नहीं किया ?’’ गोस्वामीजी बोले- नहीं महाराज, मैं तो स्वार्थवश आपको इसकी याद दिला रहा हूँ।–क्या ? बोले- अन्य लोग भले ही इस घटना को पढ़कर या सुनकर आपकी आलोचना करें, पर मैं तो मन-ही-मन बड़ा प्रसन्न होता हूँ।–क्यों ? बोले- महाराज, जब मैं देखता हूँ कि सुग्रीव जैसे व्यक्ति के लिए आप इतना बड़ा कलंक ले सकते हैं, तो मुझ जैसे व्यक्ति को भी शरण में लेने से जो कलंक आपको लगेगा, उसे सहज उठाने की क्षमता आपमें है। आप यदि किसी श्रेष्ठ पात्र के लिए कलंक लेते, तो मैं समझता कि आपने उस व्यक्ति की श्रेष्ठता से प्रभावित होकर उसके लिए यह कलंक लिया। लेकिन मेरे लिए तो सबसे बड़ा आश्वासन यही है कि आपने सुग्रीव को शरण में लिया और गाली सहकर भी आपने बालि का वध किया-


हत्यो बालि सहि गारी।। विनय., 166


इसी प्रकार मेरे मन में भी यह आशा बँधती है कि मुझ जैसे व्यक्ति को भी अपनी शरण में स्वीकार कर सकते हैं। इसी तरह से गोस्वामीजी ने दोनों ही बातें कहीं- वे सुग्रीव के चरित्र की दुर्बलताओं की ओर भी संकेत करते हैं और स्वयं को सुग्रीव के चरित्र के अत्यन्त सन्निकट पाते हैं। इसका अभिप्राय क्या हुआ ? इस पर थोड़ी गहराई से विचार करें। कई बार लोग मुझसे भी यह प्रश्न पूछते हैं कि श्रीभरत जैसा प्रेम हमारे जीवन में कैसे आये ? तो मैं उनसे विनम्रतापूर्वक अनुरोध करता हूँ कि भरत बनने की बात बाद में कीजिएगा, पहले सुग्रीव की चर्चा प्रारम्भ कीजिए तो अच्छा रहेगा। श्रीभरत का चरित्र तो जीवन की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है।

अलग-अलग सन्दर्भों में गोस्वामीजी ने कुछ संकेत-सूत्र दिए हैं। एक सूत्र तो उन्होंने यह दिया कि जीव तीन प्रकार के होते हैं- विषयी, साधक और सिद्ध-


विषई साधक सिद्ध सयाने।
त्रिबिध जीव जग बेद बखाने।। 2/277/3


अब इन तीनों में भगवान् को पाने का अधिकारी कौन है ? इसके उत्तर में तो कोई भी कह देगा कि जो सिद्ध पुरुष है, वही भगवान् को पाने का अधिकारी है, उसने ईश्वर को पा लिया। जो साधक है, वह ईश्वर को पाने की चेष्ठा कर रहा है। पर जहाँ विषयी का प्रश्न है, क्या वह भी ईश्वर को पाने का अधिकारी है ? क्योंकि सबसे बड़ी समस्या यह है कि संसार में सिद्ध और साधक की संख्या बहुत कम है। संसार में भोग्य विषयों के प्रति स्वाभाविक आकर्षण रखनेवाले जितने लोग हैं, जिन्हें विषयी कह सकते हैं, उन्हीं की संख्या सबसे अधिक है। इस सन्दर्भ में सुग्रीव की भगवत् प्राप्ति का क्या तात्पर्य है ? इसका एक तात्पर्य यह है कि विषयासक्तिजन्य दुर्बलताओं से युक्त सुग्रीव जैसा विषयी व्यक्ति भी भगवान् का कृपापात्र हो सकता है, ईश्वर को पा सकता है। यह व्यक्ति के लिए विषयी बनने की प्रेरणा नहीं। इसका अर्थ यह नहीं कि जो विषयी नहीं है वह विषयी बनने की चेष्टा करे। इन दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। यह तो विषयी व्यक्ति के लिए एक आश्वासन है।

किसी ने गोस्वामीजी से पूछ दिया कि आप विषयी को किस दृष्टि से देखते हैं ? उन्होंने एक नया सूत्र दिया। बोले-


विषई साधक सिद्ध सयाने।
त्रिबिध जीव जग वेद बखाने।।
राम स्नेह सरस मन जासू।
साधु सभा बड़ आदर तासू।।2/77/3-4


गोस्वामीजी कहते हैं कि चाहे कोई विषयी हो, चाहे साधक हो या सिद्ध, जिसके भी मन में भगवान् राम के चरणों के प्रति स्नेह विद्यमान है, साधुजन उनका सम्मान करते हैं। इसका तात्पर्य क्या है ? यहीं पर आप विचित्र विरोधाभास का दर्शन करते हैं, जिसमें एक ओर सुग्रीव हैं और दूसरी ओर हनुमानजी। अब यह सुग्रीव और हनुमानजी का संग तो किसी प्रकार से संगत प्रतीत नहीं होता। हनुमानजी तो सिद्धों के सिद्ध, परम सिद्ध हैं, ज्ञानियों में अग्रगण्य हैं। वे मूर्तिमान वैराग्य हैं, बाल-ब्रह्मचारी हैं। हनुमानजी का चरित्र तो सुग्रीव के चरित्र से बिल्कुल उल्टा है। हनुमानजी के चरित्र में निर्भयता है, न जाने कितने सद्गुण हैं। दूसरी ओर सुग्रीव के चरित्र में इतनी दुर्बलताएँ हैं कि विचार करके देखें तो हनुमान जी को सुग्रीव के साथ रहना भी स्वीकार नहीं करना चाहिए; और अगर रहते भी तो सुग्रीव के पूज्य बनकर रहते, तब भी कोई बात होती कि भाई ठीक है, सुग्रीव विषयी हैं और वे सिद्धहनुमानजी की पूजा करते हैं, उनके चरणों में नमन करते हैं।

पर आप बड़ी विलक्षण बात देखेंगे। रामायण में बिल्कुल उल्टी बात है। क्या ? हनुमानजी सुग्रीव के चरणों में प्रणाम करते हैं। यह कैसी विचित्र बात है। हनुमानजी सुग्रीव को इतना महत्त्व देते हुए दिखाई दे रहें हैं कि गोस्वामीजी कहते हैं, प्रभु का राज्यभिषेक हो जाने के बाद जब सारे बन्दरों को विदा किया जाने लगा, तब अंगद ने प्रभु से प्रार्थना की-प्रभु, आप मुझे अपनी सेवा में रख लीजिए, मैं अयोध्या में ही रहना चाहता हूँ। मुझे आप किष्किन्धा लौटने की आज्ञा न दीजिए। प्रभु ने उन्हें हृदय से लगाकर उनके प्रति बड़ा प्रेम प्रगट किया, पर उन्होंने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की।

प्रभु ने उनसे किष्किन्धा लौट जाने का आग्रह किया। इस प्रकार जब सारे बन्दरों को विदा कर दिया गया और वे सब जाने लगे, तो हनुमानजी भी उनके साथ चल पड़े। यह देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि अरे, हम तो सोचते थे कि हनुमानजी तो प्रभु को छोड़कर एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होंगे। पर ये कैसे चले जा रहे हैं, इनको तो किसी ने विदा भी नहीं किया, किसी ने जाने के लिए भी नहीं कहा, फिर भी चले जा रहे हैं। लेकिन इसका रहस्य तो बाद में खुला कि हनुमानजी ने ऐसा क्यों किया ? जब सारे बन्दर अयोध्या से लौट गये, तो हनुमानजी ने एक अनोखा कार्य किया। क्या ? अंगद ने प्रार्थना की प्रभु से और हनुमानजी ने प्रार्थना की सुग्रीव से। लेकिन गोस्वामी जी कहते हैं कि हनुमानजी ने सुग्रीव से केवल प्रार्थना ही नहीं की बल्कि-


तब सुग्रीव चरन गहि नाना।
भाँति विनय कीन्हें हनुमाना।।7/19/7


वे सुग्रीव के चरणों में गिर पड़े और बहुत प्रकार से उनकी विनती की, स्तुति की और बड़े विनम्र शब्दों में सुग्रीव से कहा कि आप मुझे आज्ञा दीजिए-


दिन दस करि रघुपति पद सेवा।
पुनि तव चरन देखिहऊँ देवा।। 7/19/8


दस दिनों तक प्रभु के चरणों की सेवा करने के बाद मैं आपके चरणों को देखूँगा। सुग्रीव गद्गद् हो जाते हैं, हनुमानजी को हृदय से लगा लेते हैं और उनसे यही कहते हैं-


पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा।
सेवहु जाइ कृपा आगारा। 7/19/9


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