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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> वन पथ में श्रीराम

वन पथ में श्रीराम

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :162
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4350
आईएसबीएन :00000

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1998 के प्रवचन सत्र की परिणति....

Van-Path Mein Shri Ram

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्री राम: शरणं मम।।

।।वन-पथ में श्रीराम।।
पृष्ठभूमि


वर्ष 1989 के प्रवचन सत्र की परिणति इस ग्रन्थ के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है। प्रवचन क्रम का इतने वर्षों तक चलते रहना केवल प्रभु कृपा से ही संभव है। प्रभु की कृपा के साथ बिरला दम्पत्ति श्री बसंत कुमार जी बिरला एवं सौभाग्यवती सौजन्यमयी श्रीमती सरला जी बिरला की श्रद्धा भावना और निष्ठा भी इसकी प्रगति में महत्वपूर्ण है।

मेरी वाणी को भी यह सौभाग्य मिला कि मैं अपनी वाणी को धन्य बना सका।
श्री नंद किशोर स्वर्णकार की भूमिका इस प्रकाशन में महत्त्व की रहती है। वे इसमें आद्योपांव जुडे रहते हैं। संपादन श्री उमांशकर शर्मा ने किया तथा पुस्तक को समय पर प्रकाशित करने की महत्त्वपूर्ण भूमिका श्री टी.सी. चोरड़िया तथा श्री आत्माराम शर्मा की है। इन सबको मेरा हार्दिक आशीर्वाद।

रामकिंकर

1


आगें राम अनुज पुनि पाछें।
मुनि बर बेष बने अति काछें।।
उभय बीच श्री सोहइ कैसी।
ब्रह्म जीव बिच माया जैसी। 3/6/2, 3

वात्सल्यमयी जगज्जननी श्री सीताजी एवं करुणावारिधि रामभद्र की महती अनुकंपा से अनेक वर्षों से भगवान लक्ष्मीनारायण की पावन सन्निधि में बिरला-दम्पत्ति द्वारा जो पवित्र परंपरा प्रारम्भ की गई है, उसके अन्तर्गत इस वर्ष भी यह सुअवसर हमारे सामने है कि हम रामचरितमानस के आदर्शों, विचारों, और प्रेरणासूत्रों के विषय में कुछ चर्चा कर सकें। वस्तुतः बिरला-दम्पत्ति की जो श्रद्धा-भावना है उसका प्रतिफल सबको प्राप्त होता है, और यही इसकी सार्थकता भी है, क्योंकि कीर्ति, ऐश्वर्य तथा कविता को गंगा के समान सबके लिए हितकारी ही होना चाहिए।

श्री रामनिवासजी जाजू कवि एवं लेखक होने के साथ-साथ एक कुशल प्रबन्धक भी हैं। उन्होंने मेरी अभ्यर्थना में जो शब्द कहे वे मुझे अच्छे तो लगे, किन्तु इसलिए नहीं कि उनमें मेरी प्रशंसा थी। यद्यपि वे मेरी प्रशंसा करते हैं, और इसे मेरा चिंतन मानते हैं, पर वस्तुतः सत्य यही है कि इसमें मेरा कुछ भी नहीं है। प्रभु जो कुछ भी कहलाते हैं, एक यंत्र के रूप में, मैं वह आपके सामने कह देता हूँ। यद्यपि इसमें वह सब कुछ है, जिसे पाने की बात जाजूजी ने कही है, पर उस होने में मेरा कोई कर्तृत्व नहीं है। मैं उनके द्वारा की गई इस प्रशंसा और अभ्यर्थना के लिए उनका आभारी हूँ। मैं आप सबका भी आभारी हूँ कि आप सब शान्तिपूर्वक कथाश्रवण करते हु्ए मुझे बोलने का अवसर प्रदान करते हैं।

इस बार अरण्यकाण्ड में प्रवेश का प्रसंग चुना गया है। श्री भरत प्रभु की पावन पादुकाओं को सिंहासन पर समासीन करके उनका पूजन करते हैं तथा उनसे आज्ञा लेकर राजकाज का संचालन करते हैं। इस वर्णन के साथ अयोध्याकाण्ड की गाथा संपन्न होती है। ‘अरण्य’ शब्द का अर्थ ‘वन’ है। भगवान राम दण्डकारण्य में जाकर निवास करते हैं, इसलिए दण्डक नाम के (साथ जुड़े हुए) इस अरण्य को मुख्यता प्रदान करते हुए इस काण्ड को ‘अरण्यकाण्ड’ की संज्ञा दी गई है।

आप देखेंगे कि चित्रकूट में जिस आनंद और मंगलमय वातावरण में प्रभु निवास कर रहे थे वैसा वातावरण दण्डकारण्य में नहीं दिखाई देता। ‘गीतावली’ रामायण में तो गोस्वामीजी यहाँ तक कह देते हैं कि-

क्यों कहौं चित्रकूट गिरि, संपत्ति महिमा मोद-मनोहरताई।
तुलसी जहँ बसि लषन राम सिय आनँद अवधि अवध बिसराई।।
(गीतावली/2/46/9)


मैं किन शब्दों में चित्रकूट की महिमा और मनोहरता का वर्णन करूँ, जहाँ रहकर भगवान राम, श्रीसीता और लक्ष्मणजी अयोध्या को भी भूल गए। प्रभु चाहते तो चौदह वर्ष आनंद से चित्रकूट में ही व्यतीत करते और फिर लौटकर अयोध्या आ जाते। क्योंकि कैकेईजी ने तपस्वी वेष में उन्हें वन में निवास करने के लिए तो कहा था। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न सामने आता है कि फिर भगवान राम इस आनंदवन चित्रकूट को छोड़कर क्यों उस अभिशप्त दण्डकारण्य की यात्रा करते हैं।

रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने वन से जुडी हुई अनेक गाथाओं का वर्णन किया है। महाराज श्रीदशरथ और लंकाधिपति रावण दोनों के ही पूर्वजन्म का जीवन वन से जुड़ा हुआ है। महाराज दशरथ पूर्वजन्म में मनु थे। उन्होंने नैमिषारण्य में, जो कि एक वन है, प्रभु को पाया। रावण भी पूर्वजन्म में प्रतापभानु नाम का एक प्रतापवान राजा था। वह एक धर्मात्मा, ज्ञानी और निष्काम कर्मयोगी के रूप में प्रसिद्ध था। एक बार वह वन में जाता है। पर वहाँ वह ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है कि जिससे उसे अगले जन्म में रावण बनना पड़ता है। इस प्रकार मानस के प्रारंभ में जो पृष्ठभूमि है उसमें यह संकेत मिलता है कि एक ओर यदि वन में रामत्व की प्राप्ति की जा सकती है, तो दूसरी ओर व्यक्ति वन में जाकर रावण भी बन सकता है।

भगवान राम अयोध्या में जन्म लेते हैं। जनकपुर में उनकी विवाह की दिव्य लीला संपन्न होती है। विवाह के पश्चात् वे श्री सीताजी के सहित अयोध्या आते हैं और फिर उनका वनगमन होता है। इस वनवास की अवधि में प्रभु पहले चित्रकूट में और फिर दण्डकारण्य में जाकर निवास करते हैं। दण्डकारण्य में श्रीसीताजी का रावण के द्वारा अपहरण होता है। रावण उन्हें लंका ले जाता है, और यद्यपि लंका स्वर्णनगरी है पर वह उन्हें जिस स्थान पर बंदिनी बनाकर रखता है उसके लिए गोस्वामीजी कहते हैं कि-


तहँ असोक उपबन जहँ रहई।
सीता बैठि सोच रच अहई।। 4/27/12


वह भी एक वन अथवा उपवन ही है। वन को अनेक रूपों में प्रस्तुत किया गया है। इस संदर्भ में हम देखते हैं उपनिषदों में एक ‘वृहदारण्यकोपनिषद’ नाम का एक उपनिषद ही है। गोस्वामीजी ने रामचरितमानस तथा विनयपत्रिका में संसार को जिन रूपों में प्रस्तुत किया है वे बड़े महत्व के हैं।
तुलसीदासजी ‘विनयपत्रिका’ के एक पद में संसार की तुलना ‘वन’ से करते हुए कहते हैं कि :-


संसार-कांतार अतिघोर, गंभीर, घन,
गहन तरुकर्म संकुल, मुरारी।
(विनयपत्रिका/59/2)


यह संसार रूपी वन बड़ा भयानक है, गहन है और जैसे वन में चारों ओर वृक्ष ही वृक्ष होते हैं, जिनमें से किसी के फल खट्टे होते हैं, किसी के मीठे होते हैं उसी प्रकार हमारे-आपके जो कर्म हैं वे ही इस संसार-कांतार के वृक्ष हैं।
वन और शहर में बहुत बड़ा अंतर होता है। शहर में सुंदर मार्ग होते हैं, उन मार्गों में संकेत पट्ट होते हैं तथा आने-जाने के लिए वाहनों की व्यवस्था होती है। इसके विपरीत वन में कोई बना-बनाया मार्ग नहीं होता और न कोई संकेत पट्ट ही होता है। अब जरा आप विचार करके देखें कि हमारे जीवन की क्या स्थिति है ? बाहर से हमारा जीवन भले ही एक नगर की भांति बड़ा व्यवस्थित दिखाई देता हो पर अंतरजीवन की ओर दृष्टि डालने से यही दिखाई देता है कि हममें से अधिकांश व्यक्ति वनवासी हैं। प्रत्येक व्यक्ति के अंतःकरण में एक वन विद्यमान है। अब, भले ही यह वन बाहर न दिखाई देता हो ! वन में जैसे मार्ग और मार्गसूचक पट्ट के अभाव में व्यक्ति यह निर्णय नहीं कर पाता कि वह किस दिशा में आगे बढ़े, ठीक उसी प्रकार से व्यक्ति के अंतरजीवन में, मन में एक द्वन्द्व है, उसके सामने एक प्रश्न है कि जीवन का लक्ष्य क्या है ? तथा उस लक्ष्य को पाने के लिए उसे क्या करना चाहिए और किस दिशा में बढ़ना चाहिए ?

गोस्वामीजी ‘विनयपत्रिका’ में संसार को वन और कर्म को वृक्ष बताते हुए इसका बड़ा विस्तृत वर्णन करते हैं और साथ ही यह भी बताते हैं कि इस संसार-वन में बाज, बक, और उलूक की तरह दुष्ट तथा छल करने वाले अनेक पक्षी तथा नाना प्रकार के राक्षस हैं। इस प्रकार गोस्वामीजी वन के माध्यम से चित्रकूट और दण्डकवन में जो भिन्नताएँ हैं उनका परिचय देते हैं। प्रभु इन दोनों ही वनों में निवास करते हैं। दोनो ही वनों में प्रभु के निवास करने के पीछे जो विशेष कारण है, आइए उस पर एक दृष्टि डालने की चेष्टा करें।

महाराज मनु राजर्षि हैं। उनकी रचना ‘मनुस्मृति’ एक प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में मान्य है। महाराज मनु एक राजा के रूप में प्रजा का सुंदर ढंग से पालन करते हैं। उनके पुत्र पितृभक्त और आज्ञाकारी हैं। पर वृद्धावस्था प्राप्त होने पर महाराज मनु को ऐसा लगा कि बहिरंग रूप से मैंने भले ही बड़ी सफलता प्राप्त कर ली हो, किन्तु आंतरिक जीवन में मुझे वह प्राप्त नहीं हुआ जिसके बिना जीवन धन्य नहीं होता। यद्यपि मैंने जीवन में धर्म कर्म का पालन किया है पर मेरे जीवन में भक्ति उद्रेक नहीं हुआ, मैंने भगवान को नहीं पाया, जीवन तो व्यर्थ चला गया।’ फिर उन्होंने विचार किया कि राजकाज, राजसत्ता से जुड़े रहने पर यह संभव नहीं है। जब महाराज मनु के हृदय में इस भावना का उदय होता है तो वे वन की यात्रा करते हैं और जिस वन मैं जाकर उन्हें ईश्वर का दर्शन प्राप्त हुआ उस वन का नाम है ‘नैमिषारण्य’।

    

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